"बदली हुई परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ जैसी नारेबाजी से दूर रखकर, ‘भाषा’ के रूप में प्रचारित-प्रसारित किए जाने की जरूरत है – जिसे मनुष्य सूचनाओं के आदान-प्रदान, जिज्ञासाओं की शांति, आत्मा की अभिव्यक्ति और संप्रेषण की सिद्धि के निमित्त सीखा करते हैं। भावुकता और बाध्यता दोनों ही अतियाँ हैं। भाषा मनुष्य की सहज आवश्यकता के रूप में सीखी जाती है। हम इस सहज आवश्यकता का अनुभव करें-कराएँ, तो हिंदी भी सहजता से पढ़ी-पढ़ाई, सीखी-सिखाई जा सकती है। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से लेकर स्वैच्छिक हिंदी प्रचार संस्थाओं तक को चाहिए कि वे अपने घिसेपिटे रवैये को बदलें और हिंदी को अधुनातन ज्ञान की व्यावहारिक भाषा के रूप में प्रचारित-प्रसारित करें।"
शनिवार, 24 सितंबर 2016
[स्रवंति] बदलती चुनौतियाँ और हिंदी की आवश्यकता : प्रो. ऋषभदेव शर्मा
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