शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

ऋषभदेव शर्मा को श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक हिंदी साहित्य पुरस्कार – 2015 : अभिनंदन पत्र

श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट, हैदराबाद
हिंदी साहित्य पुरस्कार – 2015 


ऋषभदेव शर्मा को समर्पित 

अभिनंदन पत्र



समकालीन हिंदी साहित्य के क्षेत्र में तेवरी काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक के रूप में सुपरिचित डॉ. ऋषभदेव शर्मा एक संवेदनशील कवि, तत्वाभिनिवेशी समीक्षक, प्रांजल गद्यकार और सृजनशील मीडियालेखक होने के साथ-साथ राष्ट्रभाषा-संपर्कभाषा-राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित सक्रिय कार्यकर्ता, आदर्श अध्यापक और निष्ठावान शोध निर्देशक हैं. 


डॉ. ऋषभदेव शर्मा का जन्म 4 जुलाई, 1957 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँव गंगधाड़ी, जिला मुजफ्फरनगर, में हुआ. आपकी माताजी श्रीमती लाडो देवी लोक-संस्कृति में रची-पगी घरेलू महिला थीं और पिताजी श्री चतुर्देव शर्मा शास्त्री संस्कृत साहित्य, व्याकरण और ज्योतिष के प्रकांड पंडित थे. आपने इन दोनों से विरासत में लोक-संस्कृति और साहित्य की चेतना प्राप्त की तथा प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही कविता और निबंध लेखन आरंभ कर दिया. 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों ने आपके भावुक बाल-मन को अत्यंत विचलित किया जिससे आप राष्ट्रीय चेतना प्रधान लेखन की ओर उन्मुख हुए. यों तो आपकी प्रवृत्ति बचपन से ही अंतर्मुखी रही लेकिन आपके संवेदनशील मानस पर देश के विषमतापूर्ण सामाजिक-आर्थिक यथार्थ ने गहरा प्रभाव डाला जिसके कारण अपनी किशोरावस्था से ही आप गरीबों, पिछड़ों, वंचितों और स्त्रियों के मानवाधिकारों के प्रति विशेष सजग रहे. परिणामस्वरूप आपके लेखन में आक्रोश और व्यंग्य प्रमुख स्थान पाते गए जिसकी परिणति 1981 में तेवरी काव्य-आंदोलन के प्रवर्तन के रूप में सामने आई.



डॉ. ऋषभदेव शर्मा का जीवन सरलरेखीय रहा है – बस दो तीन स्वाभाविक से मोड़ अवश्य आए. आपने स्नातकोत्तर स्तर तक भौतिक विज्ञान का अध्ययन करने के बाद अपनी मूल प्रवृत्ति को पहचानकर हिंदी में एम.ए. और पीएच.डी. किया. आपका विवाह 1984 में डॉ. पूर्णिमा शर्मा से हुआ जो स्वयं साहित्यिक विदुषी हैं. आपकी दो संतानें हैं – पुत्र कुमार लव नई पीढ़ी के सशक्त कवि हैं और पुत्री लिपि भारद्वाज एक सफल फोटो-जर्नलिस्ट हैं. इस प्रकार आपका पारिवारिक परिवेश सही अर्थों में सृजनात्मक परिवेश है. आजीविका के लिए आपने सात वर्ष तक जम्मू और कश्मीर राज्य में भारत सरकार के गुप्तचर विभाग के अधिकारी के रूप में कार्य किया और उसे अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुरूप न पाकर 1990 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में प्राध्यापक के रूप में चले आए. सभा में 25 वर्ष से अधिक तक कार्य करने के दौरान आपने दक्षिण भारत ही नहीं, समस्त हिंदी जगत में एक निष्ठावान अध्यापक, प्रखर वक्ता, सुधी समालोचक, आदर्श शोधनिर्देशक एवं निःस्वार्थ हिंदी-सेवी का प्रभूत यश अर्जित किया. 


!! अभिनंदन पत्र का वाचन वेमूरि ज्योत्स्ना कुमारी ने किया !!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा का कृतित्व अत्यंत हृदयग्राही और प्रेरक है. आपकी रचनाओं में आपका मानवतावादी व्यक्तित्व और सुसंस्कृत सौंदर्यबोध साफ झलकता है. जीवन और लेखन दोनों में ही आप हर प्रकार की कृत्रिमता और पाखंड के विरोधी हैं. इसीलिए जो भी कहते या लिखते हैं, सीधे-सीधे दो-टूक कहते और लिखते हैं. आपकी अब तक प्रकाशित 15 मौलिक पुस्तकों में 7 कविता संग्रह और 8 आलोचना ग्रंथ सम्मिलित हैं. आपकी ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ और ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’ शीर्षक पुस्तकें तेलुगु साहित्य और संस्कृति के प्रति आपके प्रेम का प्रतीक हैं. विशेष बात यह है कि आपके एक कविता संग्रह ‘प्रेम बना रहे’ के एक साथ दो तेलुगु अनुवाद प्रकाशित हुए हैं. आपकी कुछ रचनाओं का तमिल, पंजाबी, मैथिली, मणिपुरी और जर्मन भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है. 



डॉ. ऋषभदेव शर्मा की मान्यता है कि हिंदी को विश्व-भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलने के मूल में हिंदीतर भाषी हिंदी प्रेमियों का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. इसीलिए आप हिंदीतर भाषी लेखकों और शोधकर्ताओं को निरंतर प्रेरित करते रहते हैं. आपने अनेक रचनाकारों के लेखन को परिमार्जित तो किया ही, 100 से अधिक पुस्तकों की भूमिका लिखकर प्रकाशन हेतु प्रोत्साहित भी किया है. आपने लगभग 20 पुस्तकों का संपादन किया है और 8 पत्र-पत्रिकाओं के भी संपादन कार्य से जुड़े रहे हैं. आपकी इंटरनेट पर सक्रियता भी देखते ही बनती है. देश भर के अनेक विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए आपने पाठ-सामग्री का लेखन एवं संपादन किया है जिसमें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए तैयार की गई 18 पुस्तकें शामिल हैं. आपने डीलिट, पीएच.डी. और एम.फिल. के कुल 135 शोधकार्यों का सफलतापूर्वक निर्देशन किया है और अब भी कई शोधार्थी आपके निर्देशन में शोध कर रहे हैं. आपने अतिथि आचार्य के रूप में भी विभिन्न संस्थाओं को अपनी सेवाएँ प्रदान की हैं तथा वर्तमान में स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ आप एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में विदेशी छात्रों को हिंदी पढ़ाने में व्यस्त हैं. 



डॉ. ऋषभदेव शर्मा मृदुभाषी, सरल चित्त, सहज संतोषी, लोकप्रिय और पारदर्शी व्यक्तित्व के धनी हैं. श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट की ओर से हम आज आपको ‘वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार – 2015’ से सम्मानित करते हुए गौरव और हर्ष का अनुभव कर रहे हैं.



हैदराबाद-22.10.2015 


   

रविवार, 18 अक्तूबर 2015

कन्नड़ में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लोकार्पित


विजयपुर. 
यहाँ 11 अक्टूबर, 2015 को एस.बी. कला एवं के.सी.पी. विज्ञान महाविद्यालय में आयोजित एकदिवसीय साहित्यिक समारोह में डॉ. एस.टी. मरवाडे द्वारा हिंदी साहित्य के इतिहास पर कन्नड़ भाषा में रचित पुस्तक ‘हिंदी साहित्य चरित्रे’ का लोकार्पण संपन्न हुआ. प्रो. ऋषभदेव शर्मा (हैदराबाद) की अध्यक्षता में संपन्न इस कार्यक्रम में उक्त पुस्तक का लोकार्पण महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से मुख्य अतिथि के रूप पधारे प्रो. देवराज ने किया. साथ ही विशिष्ट अतिथि के रूप में आए हुए इफ्लू, हैदराबाद के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, प्रो. एम.वेंकटेश्वर ने आधुनिक हिंदी साहित्य पर व्याख्यान दिया. संचालन श्रद्धा यादव ने किया.

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

“नई सदी के हिंदी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियाँ” पर बीजापुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न





विजयपुर (बीजापुर), 16 अक्टूबर 2015.

यहाँ अंजुमन कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय में ‘नई सदी के हिंदी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियां’ विषय पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज ने संगोष्ठी का उद्घाटन किया तथा अपने बीज भाषण में कहा कि “बीजापुर में आज भी गंगा-जमुनी तहजीब मौजूद है. इस तहजीब ने हिंदुस्तान को बचा कर रखा है. साहित्य महज पढ़ने के लिए नहीं बल्कि जिंदगी में उतारने के लिए लिखा जाना चाहिए. सच्चा साहित्यकार वही होता है जो अपने वक्त को पहचानता हो, उससे बातें करता हो और उसे अभिव्यक्त करता हो. कहा जाय तो इस दुनिया को उस आदमी ने बचाया है जिसने इंसानियत को तथा तहजीब को बचा रखा है.” उन्होंने आगे यह भी कहा कि साहित्य कैसा होना चाहिए और आज कैसा है यह जानने के लिए इतिहास को जानना भी जरूरी है. 21वीं सदी के साहित्य की बदलती प्रवृत्तियों को जानने के लिए भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि की गहन जानकारी अनिवार्य है. उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि “हिंदी के अध्यापक कक्षाओं में इन कालों के बारे में, इन कालों की प्रवृत्तियों के बारे में सतही स्तर पर चर्चा तो कर लेते हैं पर गहन स्तर पर जाकर आतंरिक प्रवृत्तियों के बारे में कोई तुलनात्मक चर्चा नहीं करते. उदाहरणस्वरूप ब्रजभाषा में जो लोक संस्कृति, जनजीवन और शास्त्रीय परंपरा विद्यमान है न ही उसकी चर्चा की जाती है और न ही देश-भाषाओं के विकास की. लोक के कंधों पर बैठकर ही परंपराएं विकसित हुईं. अतः इन्हें पहचानना होगा और आत्मसात करना होगा.” उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि “राजनैतिक षड्यंत्र के कारण देश टुकड़ों में बंट रहा है. हमारे सामने सांस्कृतिक संकट पैदा हो चुका है. हमारी संस्कृति इतनी बदल चुकी है कि पिताजी डैडी बन गए और अम्मी मॉम. एक तरह से हमारे देश में पराजित मानसिकता पनप रही है. ऐसी स्थिति में यदि आदमी अपने मन से गुलाम है तो वह मृतप्राय है. इसका दुष्परिणाम हमारे सामने है.” उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि क्या हम और हमारे साहित्य में इस पराजित मानसिकता को दूर करने की प्रवृत्ति है और क्या हमारे ‘विचार’ से हिंदी साहित्य का कोई गहरा रिश्ता है? 

प्रो. देवराज ने जोर देकर कहा कि “उत्तर आधुनिकता के नाम पर विश्वविद्यालयों में जुगाली हो रही है. यह जबरन थोपी गई संकल्पना है. उत्तर आधुनिकता के नाम पर यह कहा जाता है कि इतिहास, संस्कृति, विचार का अंत हो चुका है. ईश्वर, मनुष्य, लेखक, आलोचक आदि की मृत्यु हो चुकी है. यह सब साम्राज्यवादी षड्यंत्र है. अमेरिका जैसे देशों की न ही कोई संस्कृति है न इतिहास, न मूल्य और न ही भाषा-नीति. अमेरिकी इतिहास रक्त और शोषण पर टिका हुआ है. ऐसे रक्तरंजित शासन के खिलाफ खड़ा हुआ विद्रोह ही वास्तव में उत्तर आधुनिकता है जो वस्तुतः निकारागुआ से शुरू हुआ था. यह भी देखने को मिलता है कि प्रतिरोधी साहित्य को दबाने की प्रवृत्ति विकसित हुई है. भूमंडलीकरण, उदार अर्थ नीति आदि ऐसे शब्द हैं जो हमारे अस्तित्व को मिटाने वाले हैं. पर हम इन्हें पहचानने में गलती कर रहे हैं. यदि 21वीं सदी की साहित्यिक प्रवृत्तियों को जानना होगा तो 20वीं सदी की ऐतिहासिक घटनाओं आदि को जानना और समझना भी नितांत आवश्यक है. अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों को भी समझना अनिवार्य है.” 

उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता अंजुमन कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. ए. डी. नवलगुंद ने की. इस अवसर पर जनाब सैय्यद महबूब कादरी मुश्रीफ और हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. ए. पीरां मंचासीन थे. कार्यक्रम संयोजक प्रो. एस. जे. जहागीरदार ने सभी का स्वागत किया. प्रो. ए. एम. सिद्दीकी ने संचालन किया. उद्घाटन से पहले चार दिवंगत विभूतियों बालशौरि रेड्डी, गोपाल राय, जगदीश चतुर्वेदी और रवींद्र जैन को श्रद्धांजलि अर्पित की गई और कुरआन पठन, नात शरीफ, प्रार्थना गीत एवं कर्नाटक नाड़ गीत प्रस्तुत किए गए. 

प्रथम सत्र में चार विषय प्रवर्तकों ने अलग अलग विषय पर विचार-विमर्श किया. प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने ‘नई सदी की हिंदी कविता’ पर विचार करते हुए यह चिंता व्यक्त की कि आज हम ऐसी दुनिया में जीने के लिए अभिशप्त हैं जो मूलतः तनावों की दुनिया है और इस दुनिया में विचार पर प्रचार हावी है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है. ऐसी स्थिति में मनुष्य का अस्तित्व, हाशियाकृत समुदाय विमर्श, मूल्य, रिश्ते-नाते, संस्कृति, मानव स्वभाव से लेकर भाषा तक की साधारणता आज की भारतीय कविता के प्रमुख सरोकार हैं. 

‘नई सदी के हिंदी उपन्यास साहित्य’ पर अपने विस्तृत शोधपत्र में अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने वैश्विक संदर्भ में चर्चा करते हुए कहा कि उपन्यास अपने समय से सार्थक संवाद करता है तथा उपन्यास की रीढ़ है अनुभव. उन्होंने अनेक भारतीय एवं विदेशी उपन्यासों का उदाहरण देकर यह दर्शाया कि उपन्यास सांस्कृतिक आइना है, मानवीय रूपक है. प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने यह चिंता व्यक्त की कि भारतीयों द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यासों को ही भारतीय उपन्यास के रूप में देखा जाता है और हिंदी सहित विविध भारतीय भाषाओँ के उपन्यासों का सही मूल्यांकन नहीं हो रहा है. 

‘नई सदी के हिंदी साहित्य में आदिवासी विमर्श’ पर अपना मत व्यक्त करते हुए केंद्रीय विश्वविद्यालय, गुलबर्गा की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. सुनीता मंजनबैल ने कहा कि आदिवासी साहित्य प्रतिरोधी साहित्य है, उसके स्वर में पीड़ा, असंतोष और आक्रोश है. उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासियों को सामने आकर खुद कहना चाहिए कि वास्तव में उन्हें क्या चाहिए. साथ ही, मुंबई विश्वविद्यालय से पधारे डॉ. दत्तात्रेय मुरुमकर ने नई सदी के हिंदी कहानी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियों पर विचार व्यक्त किए. 

प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. देवराज ने कहा कि “विभिन्न दबावों के बीच आदमी सोच रहा है और कविताएँ रच रहा है. व्यक्ति को मजबूर किया जा रहा है वैसा सोचने पर जैसा व्यवस्था चाहती है. यूरोपियन दबावों में काम किया जा रहा है और आज जनजातियों के साथ छल हो रहा है जिनके पास हमारी सांस्कृतिक जड़ें बची हुई हैं.” इसलिए उन्होंने सभी समुदायों से अपनी बेचैनी को बनाए रखने का आह्वान किया. 

द्वितीय सत्र में आत्मकथाओं पर चर्चा करते हुए हैदराबाद की लेखिका डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने कहा कि “नई सदी या उसके आरम्भ से ठीक पूर्व के दशक में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में आत्मकथा साहित्य ने नई करवट ली. 1990 के दशक के आसपास महान नायकत्व का मिथ टूटा और कल तक जिन्हें लघु, तुच्छ, हीन कहकर हाशिए पर रखा गया था उन अतिसाधारण मनुष्यों ने अपनी अस्मिता की खोज करते हुए अभिव्यक्ति के जो मार्ग तलाशे उनमें उनकी पीड़ा, कड़वाहट, खिन्नता, संघर्ष और गुस्से को व्यक्त करने के लिए आत्मकथा सबसे उपयुक्त विधा सिद्ध हुई.” उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा ‘कस्तूरी कुंडल बसे’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ तथा तुलसीराम कृत ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ का सोदाहरण विवेचन करते हुए कहा कि “इनकी आत्मकथाएँ केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे किसी एक स्त्री या किसी एक दलित के जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं, बल्कि इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि विशिष्ट होते हुए भी अपने संघर्ष के धरातल पर ये दोनों ही लेखक क्रमशः ‘सामान्य स्त्री’ और ‘सामान्य दलित’ हैं. साधारणीकरण की पहली शर्त ही यह है कि आलंबन अपने वैशिष्ट्य को छोड़कर इस तरह सर्वसाधारण बन जाए कि आलंबन-धर्म का संप्रेषण सहज संभव हो.” 

‘स्रवन्ति’ पत्रिका की सह-संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने ‘नई सदी के हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श’ पर विचार करते हुए कहा कि “किन्नर विमर्श की दृष्टि से नीरजा माधव कृत ‘यमदीप’, निर्मला भुराडिया कृत ‘गुलाम मंडी’, महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’ और प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ इस उपेक्षित और हाशियाकृत समुदाय की जीवन शैली, उनकी समस्याओं, उनकी पीड़ा, उनका आक्रोश, संघर्ष और जिजीविषा की कहानी को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं तथा सोचने के लिए बाध्य करते हैं.’’ अपने शोधपत्र में उन्होंने प्रतिपादित किया कि “हिंदी कथासाहित्य में किन्नर विमर्श के बीज 1939 में प्रकाशित निराला जी की संस्मरणात्मक कृति ‘कुल्ली भाट’ में उपलब्ध होते हैं. बाद में नई कहानी दौर के प्रमुख लेखक शिवप्रसाद सिंह की ‘बहाव वृत्ति’ और ‘विंदा महाराज’ शीर्षक कहानियों में इसका अंकुरण हुआ.” 

कुवेंपु विश्वविद्यालय, शिमोगा की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. उमा हेगडे ने नई सदी के हिंदी नाटक साहित्य की बदलती पर्वृत्तियों पर प्रकाश डाला और द्वितीय सत्र के अध्यक्षीय भाषण में कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ की आचार्य डॉ. प्रभा भट्ट ने पर्यावरण विमर्श पर प्रकाश डाला. 

समापन समारोह के मुख्य अतिथि प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य में संवेदना होना अत्यंत आवश्यक है. उन्होंने आयोजकों की प्रशंसा की और आशा व्यक्त की कि भविष्य में बीजापुर में इस तरह के अनेक आयोजन होंगे और भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की रक्षा हेतु अभियान को गति मिलेगी. 

इस अवसर पर बीजापुर के अतिरिक्त देश के विभिन्न प्रांतों से पधारे विद्वान, शोधार्थी और छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित थे. 



बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

ऋषभदेव शर्मा की पुस्तकों का लोकार्पण संपन्न




'हिंदी भाषा के बढ़ते कदम' का लोकार्पण करते हुए
डॉ. राधेश्याम शुक्ल 
साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज की अध्यक्षता में आयोजित एक समारोह में तीन पुस्तकों को लोकार्पित किया गया. तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तक प्रो. ऋषभदेव शर्मा की समीक्षात्मक कृति ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण ‘भास्वर भारत’ के प्रधान संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने किया. प्रो. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ का लोकार्पण महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज ने किया. एटा, उत्तर प्रदेश के युवा समीक्षक डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह कृत ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ का लोकार्पण ‘पुष्पक’ की प्रधान संपादक तथा कादंबिनी क्लब और आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, हैदराबाद की संयोजक डॉ. अहिल्या मिश्र ने किया. 

'उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया' का लोकार्पण करते हुए
प्रो. देवराज 
अध्यक्षीय भाषण में प्रो. देवराज ने लोकार्पित पुस्तकों की प्रासंगिकता के बारे में कहा कि ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ और ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ जैसी पुस्तकों के सृजन और संपादन की पृष्ठभूमि में इतिहासबोध के साथ समसामयिक प्रश्नों की गहरी समझ विद्यमान है. उन्होंने जोर देकर कहा कि एक भाषा के रूप में हिंदी भी अन्य भारतीय भाषाओँ के समान विकसित हो रही है तथा हिंदी सत्ता की भाषा नहीं बल्कि जनता की भाषा रही है. भाषायी राजनीति पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यदि राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी से मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि को अथवा विद्यापति, तुलसी और जायसी को अलग कर दिया जाएगा तो उसके माध्यम से देश की संस्कृति को समझना संभव नहीं रह जाएगा जिससे हिंदी का ही नहीं हमारी राष्ट्रीय पहचान का भी नुकसान होगा इसलिए आज हिंदी भाषा की साहित्यिक योग्यता को पहचानने और उसमें निहित राष्ट्रीय मिथकों एवं सांस्कृतिक इतिहास को समझने की बड़ी आवश्यकता है. डॉ. देवराज ने याद दिलाया कि ‘’उत्तर आधुनिकता का जन्म निकारागुआ में हुआ था जो तीसरी दुनिया का देश है. 1912 में अमेरिका ने जबरदस्ती वहाँ के राजा को हटाकर सुनोजा नामक गुंडे को शासक बनाया. वहाँ के कवियों ने उसके खिलाफ कविताएँ लिखीं और अपनी कविताओं की उत्तर आधुनिक व्याख्या की थी और पहली बार ‘पोस्ट मोर्डनिज्म’ शब्द का प्रयोग किया था तथा यह शब्द जनहितैषी सरकार की स्थापना करने की परिकल्पना का द्योतक था.’’ उन्होंने संतोष व्यक्त किया कि लोकार्पित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ लीक से हटकर है क्योंकि इस पुस्तक की सामग्री अमेरिका और यूरोप द्वारा थोपी गई उत्तर आधुनिकता की जुगाली के खिलाफ है. 

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण करते हुए डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि एक ओर यह किताब हिंदी भाषा के विकास के विविध आयामों की गहरी पड़ताल करती है तो दूसरी ओर ठोस राजभाषा तथा विवेकपूर्ण भाषा-नीति की जरूरत की. उन्होंने हिंदी के विकास में दक्खिनी के योगदान को रेखांकित करने और साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी के पठन-पाठन और शोधकार्य तक का जायजा लेने के लिए लेखक की प्रशंसा की. 

इसी क्रम में ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ शीर्षक पुस्तक पर बोलते हुए डॉ. अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के उस कवि रूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है जिसे उनके अध्यापक रूप और समीक्षक रूप ने जबरन ढक रखा है. इस पुस्तक में कवि ऋषभदेव शर्मा की सामाजिक चेतना, राजनैतिक चेतना, लोक चेतना, स्त्रीपक्षीय चेतना और जनपक्षीय चेतना का सोदाहरण विवेचन है. उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के अट्ठावन वर्ष की आयु प्राप्त करने के संदर्भ में तैयार की गई है. इसमें कवि के लंबे साक्षात्कार के साथ साथ उनकी प्रतिनिधि कविताएँ और तेवरी काव्यांदोलन का घोषणा पत्र भी सम्मिलित हैं. 

इस अवसर पर ‘साहित्य मंथन’, ‘श्रीसाहिती प्रकाशन’, ‘परिलेख प्रकाशन’, ‘कादम्बिनी क्लब’, ‘सांझ के
साथी’, ‘विश्व वात्सल्य मंच’, शोधार्थियों और छात्रों द्वारा डॉ. ऋषभदेव शर्मा का सारस्वत सम्मान किया गया तथा प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ऋषभदेव शर्मा के परिचय-पत्रक का लोकार्पण किया. अभिनंदन-भाषण देते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि ‘’ऋषभदेव शर्मा के लेखन में विस्तार है, गहराई है. उनके लेखन में विशेष रूप से भाषा, साहित्य और संस्कृति के अनेक आयाम हैं. उनके साहित्य में भारतीय एकता की मौलिकता को देखा जा सकता है. हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं के साहित्य के मर्म को उन्होंने स्वाध्याय द्वारा आत्मसात किया है. विशेष रूप से तेलुगु साहित्य के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय है.’’ 

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के शताधिक हिंदी प्रेमियों ने उपस्थित होकर इस समारोह को भव्य बनाया. संयोजिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और डॉ. मंजु शर्मा ने लोकार्पित कृतियों का परिचय कराया तथा समारोह का संचालन डॉ. बी. बालाजी ने किया. 






शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

ऋषभदेव शर्मा की पुस्तकों का लोकार्पण 12 को


साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद स्थित सम्मेलन कक्ष में आगामी 12 अक्टूबर, सोमवार को अपराह्न 4 बजे पुस्तक लोकार्पण समारोह आयोजित किया जा रहा है. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से संबद्ध प्रो. देवराज की अध्यक्षता में संपन्न होने वाले इस कार्यक्रम में तीन ग्रंथों का विमोचन किया जाएगा. 



लोकार्पित होने वाली पहली पुस्तक में प्रो. ऋषभदेव शर्मा द्वारा लिखित ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ है. इस पुस्तक में लेखक ने आधुनिक परिवर्तनशील वैश्विक परिदृश्य के बरक्स हिंदी भाषा के बढ़ते महत्व और उससे जुड़ी चुनौतियों पर भाषावैज्ञानिक विमर्श प्रस्तुत किया है. 





लोकार्पित होने वाली दूसरी पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ में
विभिन्न विद्वानों के 18 शोधपूर्ण आलेख सम्मिलित हैं जिसका संपादन डॉ. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने किया है. इस पुस्तक में उत्तर आधुनिक विमर्श के स्वरूप पर तो चर्चा की ही गई है, उसके परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य में उभरे विभिन्न विमर्शों और विज्ञापन, टेलीविजन तथा हिंदी सिनेमा तक की उत्तर आधुनिक प्रवृत्तियों का गहन विश्लेषण भी किया गया है. 

इस अवसर पर लोकार्पित की जाने वाली तीसरी पुस्तक ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ के लेखक डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह हैं. उन्होंने इस पुस्तक में तेवरी काव्यांदोलन के जनक ऋषभदेव शर्मा की काव्यकृतियों का समीक्षात्मक विश्लेषण तो किया ही है साथ ही उनके साथ अपनी लंबी बातचीत भी प्रस्तुत की है. डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि उन्होंने यह पुस्तक प्रो. शर्मा के 58 वें जन्मदिन के संदर्भ में तैयार की है. 

उल्लेखनीय है कि लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. एम. वेंकटेश्वर तथा विशिष्ट अतिथियों के रूप में डॉ. राधेश्याम शुक्ल, डॉ. अहिला मिश्र और सी. एस. होसगौडर पधार रहे हैं. संयोजकों ने सभी हिंदी प्रेमियों, प्राध्यापकों, छात्रों, राजभाषाकर्मियों और मीडियाकर्मियों से कार्यक्रम में उपस्थित होने का अनुरोध किया है. 

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

[निमंत्रण] पुस्तक लोकार्पण समारोह : 12 अक्टूबर 2015

निमंत्रण
साहित्य मंथन, हैदराबाद 
के तत्वावधान में आयोजित
 पुस्तक लोकार्पण समारोह
 में 
इष्ट मित्रों सहित आपकी गौरवमयी उपस्थिति सादर प्रार्थित है.
विमोच्य पुस्तकें 
1. हिंदी भाषा के बढ़ते कदम 
[लेखक - डॉ. ऋषभदेव शर्मा] 
 तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली 
2. उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया
 [संपादक - डॉ. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा] 
 जगत भारती प्रकाशन, इलाहाबाद 
3. ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म 
[लेखक - डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह] 
 परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद 
दिनांक - 12 अक्टूबर, 2015 : सोमवार : ठीक 4 बजे अपराह्न 
स्थान : दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, 
खैरताबाद, हैदराबाद - 500004.
अध्यक्ष :
 प्रो. देवराज (आचार्य, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)
मुख्य अतिथि : 
प्रो. एम. वेंकटेश्वर (पूर्व प्राचार्य, आर्ट्स कॉलेज, उस्मानिया विवि.,हैदराबाद)
विशिष्ट अतिथि : 
डॉ. राधेश्याम शुक्ल (संपादक, 'भास्वर भारत', हैदराबाद)
 डॉ. अहिल्या मिश्र (संयोजक, कादंबिनी क्लब, हैदराबाद) 
श्री सी. एस. होसगौडर (सचिव, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद)
सूत्रधार :
 डॉ. बी. बालाजी (हिंदी अधिकारी, बीडीएल, भानूर) 
संयोजक : 
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दभाहिप्रस, हैदराबाद)