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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

"चुनावी लोकतंत्र और श्रीलाल शुक्ल का साहित्य" : अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

"चुनावी लोकतंत्र और श्रीलाल शुक्ल का साहित्य" : अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न







जनता सजग, लोकतंत्र सफल                  - - श्रीराम तिवारी आईपीएस

हैदराबाद, 1 जनवरी, 2025। 
श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति  तथा हिंदी प्रचार सभा  के संयुक्त तत्वावधान में 31 दिसंबर को "चुनावी लोकतंत्र और श्रीलाल शुक्ल का साहित्य" विषय पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी डॉ. सीमा मिश्रा के संयोजन में सफलतापूर्वक संपन्न हुई।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्रीराम तिवारी (आईपीएस (से.नि.), आंध्र प्रदेश सरकार) ने अपने वक्तव्य में कहा कि यदि जनता सजग है तो लोकतंत्र सफल होगा। अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि ज्ञान और मोक्ष भारत भूमि में ही मिलता है और कहीं नहीं। उन्होंने कहा श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित उपन्यास उस समय के समाज का दर्पण है। आज व्यक्ति दुखी नहीं है, वह पड़ोसी के सुख से दुखी है। उन्होंने चुनावी प्रक्रिया पर कहा कि जैसी सरकार चुनोगे तो उसके परिणाम भी आप वैसे ही भोगोगे। अपने विवेक का प्रयोग कर अच्छे लोगों को चुनें और भारत का भविष्य उज्ज्वल बनाएँ।

समारोह के अध्यक्ष  प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि भारत को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में सुधार तभी होगा जब जनता जागरूक होगी और जनता तभी जागरूक होगी जब सत्य को जानेगी। आपने आगे कहा कि समाज और लोकतंत्र में सुधार करना साहित्यकारों का काम है और हमने यह काम नेताओं के हाथ में दे दिया। परिणामस्वरूप जो विसंगतियाँ श्रीलाल शुक्ल के समय थीं, वही विसंगतियाँ आज भी अंगद की तरह पैर धँसाए बैठी हैं।

मुख्य वक्ता प्रो. गोपाल शर्मा (पूर्व प्रो. एवं अध्यक्ष, अंग्रेज़ी विभाग, अरबा मींच विश्वविद्यालय, इथियोपिया, अफ्रीका) ने अपने बीज भाषण में अपने व्यंग्य लेखन  और श्रीलाल शुक्ल से  भेंटवार्ता के दौरान हुए कई खट्टे-मीठे अनुभव साझा किए। उन्होंने व्यंग्य की चर्चा करते हुए कहा कि लेक्चर का मजा तो तब है, जब सामने वाला समझ जाए कि ये बकवास कर रहा है!

विशिष्ट अतिथि प्रो. गंगाधर वानोडे (क्षेत्रीय निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, हैदराबाद केंद्र) ने ‘राग दरबारी’ एवं अन्य पुस्तकों पर चर्चा कर अपने विचार साझा किए।

अफगानिस्तान से पधारे मो. फ़हीम ज़लांद ने अपने वक्तव्य में श्रीलाल शुक्ल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की चर्चा करते हुए उनकी रचनाओं पर विस्तार से प्रकाश डाला। 

अर्मीनिया से सुश्री अलीना ने अपने ऑनलाइन संदेश में संगोष्ठी के विषय पर चर्चा करते हुए संयोजकों को बधाई दी।

'पुष्पक'-संपादक डॉ. आशा मिश्रा ने अपने वक्तव्य में कहा कि श्रीलाल शुक्ल ने प्रजातंत्र की पीड़ा को भोगा है। उन्होंने आगे कहा कि राजनीति को समझने के लिए ‘राग दरबारी’ से बेहतर पुस्तक नहीं है। उन्होंने श्रीलाल शुक्ल के कई उपन्यासों की चर्चा करते हुए कहा कि भारत भले ही इंडिया बन जाए पर रहेगा वह गाँवों का ही देश।

साहित्य गरिमा पुरस्कार समिति, हैदराबाद की संस्थापक,-अध्यक्ष डॉ. अहिल्या मिश्रा ने  संयोजक दंपति डॉ. सीमा मिश्रा व अधिवक्ता पं. अशोक तिवारी एवं उनके सुपुत्र अभियंता चि. आकाश तिवारी को ऑनलाइन माध्यम से आशीर्वाद दिया। 

सम्माननीय अतिथि अनिल कुमार वाजपेयी (से. नि. पुलिस अधीक्षक, गुप्तचर विभाग, तेलंगाना) ने विगत 17 वर्षों से होती आ रही संगोष्ठियों एवं इस बार अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में गणमान्य अतिथियों को एक मंच पर एकत्रित करने के लिए  विशेष बधाई दी।

आत्मीय अतिथि नौमीन् सूरपराज कर्लापालेम् ने अपने वक्तव्य में आज की नई पीढ़ी पर व्यंग्य करते हुए कहा कि युवक पढाई पर कम और फ़ोन पर ज़्यादा ध्यान देती है। साथ ही उन्होंने चुनावी लोकतंत्र एवं 'राग दरबारी' पर संक्षेप में प्रकाश डाला।

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस वामन राव ने अपने वक्तव्य में कहा कि चुनाव तंत्र भावनाओं से खेलना/भावनाओं का दुरुपयोग करना है। अपने सुझाव देते हुए कहा कि गलत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए, लेकिन खेद की बात है कि कोई आवाज़ उठाता नहीं है। साथ ही उन्होंने इस अभूतपूर्व कार्य की सराहना करते हुए इस निरंतर की जाने वाली संगोष्ठी शृंखला के लिया साधुवाद एवं बधाई दी।

मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के डॉ. इरशाद अहमद ने अपने वक्तव्य में चुनावी लोकतंत्र एवं श्रीलाल शुक्ल के साहित्य पर प्रकाश डाला। 

कार्यक्रम का शुभारंभ अभियंता चि. आकाश तिवारी के शंखनाद एवं सरस्वती वंदना से हुआ। 

कवि एवं उपन्यासकार रवि वैद ने अपने संचालन के माध्यम से मंच व सभागार को बाँधे रखा/मंत्रमुग्ध कर दिया एवं संचालन के दौरान श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं के प्रासंगिक उद्धरणों के माध्यम से सभी का ज्ञानवर्धन भी किया।

संयोजक डॉ सीमा मिश्रा ने आरंभ में  अपने आलेख ‘चुनावी लोकतंत्र और श्रीलाल शुक्ल’ की प्रस्तुति द्वारा संगोष्ठी विषय प्रवर्तन किया तथा अंत में  संगोष्ठी में उपस्थित सभी शोधार्थियों, अध्यापकों एवं देश के सभी गणमान्य साहित्यकारों एवं पत्रकारों का आभार प्रकट किया।

दक्षिण भारत कान्यकुब्ज ब्राह्मण महासभा, कान्यकुब्ज ब्राह्मण समिति, हैदराबाद एवं अखिल भारतीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण महासभा के सदस्यगण एवं 'कहानीवाला' ग्रुप के संस्थापक सुहास भटनागर, सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) से पधारे मिश्रा दंपति पं. राजेंद्र जोशी ज्योतिर्विद, नदीम हसन, राजशेखर रेड्डी, श्रीमती संगीता अमरेन्द्र पांडे, गिरजा शंकर पांडे, शफीक, शिल्की मुनमुन शर्मा, अनीता महेश टाठी आदि ने उपस्थिति दर्ज कराई। 

(प्रतिवेदन :  डॉ. सीमा मिश्रा, संगोष्ठी संयोजक)



शनिवार, 14 सितंबर 2024

वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषा का योगदान विषयक त्रि-दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन संपन्न

त्रिनिदाद यात्रा से डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की रिपोर्ट



वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषा का योगदान विषयक त्रि-दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन संपन्न

हिंदी है हृदय की भाषा : रेणुका संग्रामसिंह सुखलाल

व्यावहारिक स्तर पर हिंदी अपनाएँ, सांस्कृतिक धरोहर को अंतरित करें : डॉ. प्रदीप राजपुरोहित

सम्मेलन का उद्घाटन 


पोर्ट ऑफ स्पेन, त्रिनिदाद और टोबैगो। 

“त्रिनिदाद की जनता के लिए हिंदी हृदय की भाषा है। ऐसी हिंदी भाषा को तथा उसकी संस्कृति को सुनिश्चित रखना अनिवार्य है। भले ही यह कार्य कठिन है लेकिन असाध्य नहीं। त्रिनिदाद में बसा हुआ हर भारतीय मूल का परिवार अपनी संस्कृति और सभ्यता, विशेष रूप से अपनी भाषा हिंदी को सुरक्षित रखने के लिए संघर्ष कर रहा है।”
रेणुका संग्रामसिंह सुखलाल 


माउंट होप, त्रिनिदाद में स्थित महात्मा गांधी सांस्कृतिक सहयोग संस्था के सभागार में 6 से 8 सितंबर, 2024 तक भारतीय उच्चायोग, पोर्ट ऑफ स्पेन द्वारा आयोजित “त्रि-दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन” का उद्घाटन करते हुए अटॉर्नी जनरल कार्यालय और कानूनी मामलों के मंत्रालय की मंत्री रेणुका संग्रामसिंह सुखलाल ने उक्त विचार व्यक्त किए। उन्होंने यह भी चिंता व्यक्त की कि कैरेबियन देशों में भारतवंशी पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति, सभ्यता और हिंदी भाषा को अंतरित करने में असमर्थ हो रहे हैं।

डॉ प्रदीप राजपुरोहित 
भारतीय उच्चायोग, पोर्ट ऑफ स्पेन के उच्चायुक्त डॉ. प्रदीप राजपुरोहित ने सबका स्वागत करते हुए कहा कि सबको व्यावहारिक स्तर पर हिंदी को अपना चाहिए। पंडिताऊ भाषा के स्थान पर सामान्य बोलचाल की हिंदी का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने से हिंदी भाषा में निहित सांस्कृतिक एवं लोक धरोहर को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंतरित किया जा सकता है। उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि त्रिनिदाद में बसे भारतीय मूल के लोग अपनी भाषा को अक्षुण्ण रख पाने में असमर्थ अनुभव करने लगे हैं। हिंदी भाषा, विशेष रूप से बोलचाल की भाषा, पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि दूतावास स्कूली स्तर पर हिंदी कक्षाएँ चलाने का प्रयास कर रहा है। हिंदी सीखने के लिए प्रोत्साहन के रूप में छात्रवृत्ति देने के लिए भी तैयार है। उन्होंने त्रिनिदाद वासियों से अपील की कि हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझकर हिंदी के प्रचार-प्रसार में आगे बढ़े। उन्होंने यह प्रश्न किया कि क्या स्थानीय शिक्षण संस्थाएँ इस कार्य को अंजाम देने में उच्चायोग का सहयोग करने के लिए तैयार हैं?

पोर्ट ऑफ स्पेन स्थित राष्ट्रीय भारतीय संस्कृति परिषद (एनसीआईसी) के अध्यक्ष देवरूप तीमल ने कहा कि भाषा
देवरूप तीमल 

जीवन के साथ एकीकृत है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि वैश्विक स्तर पर हिंदी को बढ़ावा देने के लिए नेटवर्किंग आवश्यक है। आगे उन्होंने कहा कि त्रिनिदाद और टोबैगो में स्थित भारतीय मूल के वासियों में भारतीय संस्कृति ‘रामचरित मानस’ के रूप में विद्यमान है। भले ही यहाँ के लोग अर्थ न जानते हों, लेकिन मानस के पद कंठस्थ करते हैं। यह इसलिए क्योंकि भारतीयता उनके डीएनए में विद्यमान है।

रवींद्र प्रसाद जायसवाल 




भारतीय विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव रवींद्र प्रसाद जायसवाल ने कहा कि भारतीयता को समझने की कुंजी है हिंदी भाषा। यदि हम सांस्कृतिक अस्मिता को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं तो क्षेत्रीय रंगों को भी अपनाना होगा। उन्होंने भी यही चिंता व्यक्त की कि इस यात्रा में हिंदी भाषा कहीं पीछे छूट रही है।


नील पर्सनलाल 

राष्ट्रीय पुस्तकालय और सूचना प्रणाली प्राधिकरण (नालिस) के चेयरमैन नील पर्सनलाल ने हिंदी भाषा, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज की पीढ़ी में हिंदी भाषा के प्रति रुचि जगाने के लिए पुरजोर कोशिश किए जाने की ज़रूरत है।






त्रिनिदाद में स्थित हिंदी निधि के अध्यक्ष चंका सीताराम ने हिंदी भाषा को त्रिनिदाद और टोबैगो के भाषाई समाज में पुनः स्थापित करने के लिए युवा पीढ़ी से अपील की।
चंका सीताराम 


कार्यक्रम के आरंभ में वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय को श्रद्धांजलि दी गई। इस अवसर पर महात्मा गांधी सांस्कृतिक सहयोग संस्था के छात्र और अध्यापकों ने गायन तथा भरतनाट्यम नृत्य प्रस्तुत किया। ‘हिंदी, शिक्षा और संस्कृति’, पोर्ट ऑफ स्पेन के द्वितीय सचिव शिवकुमार निगम ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन आशा महाराज और ऋषा मोहम्मद ने किया।

उद्घाटन के बाद विचार सत्रों में त्रिनिदाद और टोबैगो के साहित्यकारों, समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ भारत, सूरीनाम, गयाना, अमेरिका से पधारे विद्वानों ने इस संबंध में अपने-अपने विचार व्यक्त किए। प्रथम विचार सत्र में देवरूप तीमल की अध्यक्षता में कमला रामलखन (त्रिनिदाद), सत्यानंद हेरोल्ड परमसुख (सूरीनाम), विकास रामकिसुन (सांसद, गयाना) ने कैरेबियाई क्षेत्र में बोली जाने वाली हिंदी के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डाला। इस विचार सत्र से यह तथ्य सामने आया कि कैरेबियाई क्षेत्रों में हिंदी भाषा को सुरक्षित रखने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह भी कि सूरीनाम में आज भी ‘सूरीनामी हिंदी’ बोली जाती है जो भोजपुरी और हिंदी का मिश्रित रूप है। विद्वानों ने यह कहा कि हिंदी और भारतीय संस्कृति उनकी अस्मिता है। इन कैरेबियाई क्षेत्रों में ‘रामचरित मानस’ ने हिंदू समाज को जोड़कर रखा है। यदि यहाँ के समाज में आज भी हिंदी जीवित है तो उसका श्रेय ‘मानस’ को ही जाता है। यहाँ के लोग ‘रामायण’ और ‘वेद’ को भी अंग्रेजी में ही पढ़ते हैं। गायन और संगीत के कारण यहाँ के लोग अपनी मूल संस्कृति के निकट हैं।

डॉ. हितेन्द्र कुमार मिश्र (शिलांग) की अध्यक्षता में संपन्न द्वितीय विचार सत्र में हिंदी भाषा को सीखने के लिए उपलब्ध संसाधनों के बारे में चर्चा करते हुए हिमांचल प्रसाद (गयाना), डॉ. नवलकिशोर भाबड़ा (अजमेर), डॉ. प्रदीप के. शर्मा (सिक्किम) ने यह बताया कि गीत-संगीत, सिनेमा, लोकसंगीत, लोक नाटक आदि के माध्यम से भाषा सीखी और सिखाई जा सकती है। आज के समय में सोशल मीडिया के कारण तथा तकनीकी विकास के कारण इतने सारे मोबाइल एप्लीकेशन्स हैं कि भाषा सीखने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (चेन्नै) की अध्यक्षता में संपन्न तृतीय विचार सत्र में डॉ. निवेदिता मिश्र (त्रिनिदाद), रफ़ी हुसैन (त्रिनिदाद), इंदिरा (त्रिनिदाद) और डॉ. मिलन रानी जमातिया (त्रिपुरा) ने हिंदी के विकास में विदेशी विद्वानों के योगदान पर प्रकाश डाला और यह सिद्ध किया कि यदि उचित वातावरण उपलब्ध हो तो भाषा सीखने में समस्या नहीं होगी। भाषा सीखने के लिए पहली शर्त है जिज्ञासा और ज़रूरत।

चतुर्थ विचार सत्र में सूरजदेव मंगरू (त्रिनिदाद और टोबैगो), डॉ. शिवानंद महाराज (यूडब्ल्यूआई), राणा मोहिप (त्रिनिदाद और टोबैगो), कृष रामखलावन (सूरीनाम) ने ‘बैठक गाना’, ‘चटनी संगीत’ और ‘शास्त्रीय संगीत’ के बारे में बताते हुए व्यावहारिक तौर पर दर्शाया कि इनके माध्यम से कैरेबियाई क्षेत्रों में हिंदी भाषा आज तक कैसे जीवित है।

हर विचार सत्र के बाद पैनल चर्चा हुई। रामप्रसाद परशुराम (त्रिनिदाद) की अध्यक्षता में संपन्न पैनल चर्चा में आशा मोर (त्रिनिदाद), नितिन जगबंधन (सूरीनाम), डॉ. नवलकिशोर भाबड़ा (अजमेर), सुनैना परीक्षा रागिनीदेवी (सूरीनाम) और स्वामी ब्रह्मस्वरूप नंदा (त्रिनिदाद और टोबैगो) ने यह प्रतिपादित किया कि रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य कैरेबियाई क्षेत्र के लोगों की आत्मा में बसते हैं। आज की पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए पुरज़ोर कोशिश कर रही हैं। अपनी भाषा हिंदी को सीखने की कोशिश कर रही है। डॉ. विद्याधर शाह की अध्यक्षता में संपन्न चर्चा में डॉ. हितेंद्र मिश्र, ईशा दीक्षित (त्रिनिदाद), कादंबरी आदेश (फ्लोरिडा) ने भाषा के विकास में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका पर प्रकाश डाला। नील पर्सनलाल की अध्यक्षता में संपन्न विचार सत्र में डॉ. प्रदीप के शर्मा, डॉ. शशिधरन (केरल), डॉ. मिलन रानी जमातिया, विकास रामकिसुन ने हिंदी भाषा सीखने में फिल्मों की भूमिका पर प्रकाश डाला।

चर्चा-परिचर्चा के उपरांत उच्चायुक्त और सांसदों ने यह घोषणा की कि कैरेबियाई क्षेत्रों में हिंदी विकास के लिए अनिवार्य कदम उठाए जाएँगे। यह भी निर्णय लिया गया कि हिंदी सीखने के लिए जो छात्र आगे आएँगे उन्हें छात्रवृत्ति देकर प्रोत्साहित किया जाएगा। इतना ही नहीं, प्राथमिक स्तर पर हिंदी भाषा को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में शामिल करने का प्रस्ताव भी सरकार के समक्ष रखा जाएगा।

त्रि-दिवसीय सम्मेलन के दौरान चर्चा-परिचर्चाओं के अलावा, कैरेबियाई क्षेत्रों में प्रसिद्ध बैठक गाना, चटनी संगीत, लोक नृत्य, शास्त्रीय नृत्य आदि का प्रदर्शन किया गया जिससे संपूर्ण वातावरण जीवंत हो उठा। 000


सोमवार, 30 मई 2022

आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता



आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता 

ऋषभ देव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा 

भारत के दक्षिणपूर्व समुद्र तट पर अवस्थित अविभाजित आंध्रप्रदेश राज्य (जो अब 2 जून 2014 से आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के रूप में नवगठित हो चुका है) क्षेत्रफल की दृष्टि से 2 जून 2014 तक देश का चौथा और जनसंख्या की दृष्टि से पांचवाँ सबसे बड़ा राज्य था जिसमें तीन क्षेत्र शामिल हैं – तेलंगाना, तटीय आंध्र और रायलसीमा. अविभाजित आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद ही फिलहाल नवगठित दोनों प्रांतों की राजधानी है. आंध्र और तेलंगाना की राजभाषा तेलुगु रही है. उर्दू यहाँ की सहराजभाषा है और हिंदी, मराठी, तमिल, कन्नड़ तथा उड़िया भाषियों की भी यहाँ बड़ी तादाद है. स्मरणीय है कि अविभाजित आंध्रप्रदेश का गठन 1 नवंबर 1956 को तत्कालीन आंध्रप्रदेश के साथ हैदराबाद राज्य के तेलुगु भाषी क्षेत्रों को सम्मिलित करके किया गया था. वर्तमान में आंध्रप्रदेश और तेलंगाना राज्य से तेलुगु, उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी की अनेक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं. प्रमुख तेलुगु पत्र-पत्रिकाएँ हैं – ईनाडु, आंध्रभूमि, आंध्रप्रभा, आंध्रपत्रिका, आंध्रज्योति, प्रजाशक्ति, साक्षी, वार्ता, सूर्या, नमस्ते तेलंगाना और विशालांध्रा. उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में सम्मिलित हैं – अवाम, इत्तेमाद (डेली), मुंसिफ (डेली), सियासत (डेली), ब्लिट्ज़. राज्य के प्रमुख हिंदी दैनिक पत्र हैं – डेली हिंदी मिलाप और स्वतंत्र वार्ता. साथ ही अनेक पत्रिकाएँ हिंदी में प्रकाशित होती हैं. इनके अलावा अंग्रेज़ी के जिन पत्रों के संस्करण आंध्रप्रदेश से प्रकाशित होते हैं उनमें शामिल हैं – डेक्कन क्रोनिकल, हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स, बिजनस लाइन, इकोनॉमिक टाइम्स, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, प्लेज और हंस इंडिया. उल्लेखनीय है कि आंध्रप्रदेश में पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना है. तेलुगु पत्रकारिता तो 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक से ही आरंभ हो गई थी. इसके बाद उर्दू पत्रकारिता का उदय 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हुआ जबकि हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी द्वारा चलाये गए हिंदी प्रचार अभियान के दौर में और खास तौर से ब्रिटिश और निजाम शासन के विरुद्ध आर्य समाज की राष्ट्रीय गतिविधियों के साथ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के आरंभिक वर्षों में उदित हुई. 

1. आंध्रप्रदेश की तेलुगु पत्रकारिता 
तेलुगुभाषी प्रांत आंध्रप्रदेश में प्रकाशन की सुविधा और पत्रकारिता के इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि ईसाई मिशनरियों के प्रयास से 1747 में तेलुगु में ‘बाइबिल’ का प्रकाशन हुआ. आगे चलकर 1818 में मछलीपट्टनम (बंदरु, जिला कृष्णा) से ‘हितवादी’ और 1835 में बल्लारी से ‘सत्यदूत’ – ये दो तेलुगु पत्रिकाएँ निकलीं जो ईसाई धर्मप्रचार पर केंद्रित थीं. सुरवरम प्रताप रेड्डी ने ‘आंध्रुला सांघिक चरित्र’ (आंध्र का समग्र इतिहास) नामक ग्रंथ में यह सूचित किया है कि 19वीं शताब्दी के मध्य काल में ‘श्रीयक्षिणी’ (साप्ताहिक) प्रकाशित होती थी जिसे उन्होंने तेलुगु भाषा की प्रथम पत्रिका माना है. लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय राजनैतिक चेतना और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी हुई पहली तेलुगु पत्रिका 1838 में मंडिगल वेंकटराय शास्त्री के संपादन में मद्रास से प्रकाशित हुई जिसका नाम था ‘वृत्तांतिनी’. इसमें सरकार से संबंधित टिप्पणी, जुलूस तथा हड़ताल आदि से संबंधित समाचार प्रमुखता से प्रकाशित होते थे. वास्तव में ‘वृत्तांतिनी’ को पहली देसी तुलुगु पत्रिका होने का गौरव प्राप्त है. (डॉ.बालशौरि रेड्डी, ‘तेलुगु पत्रिकला चरित्र’, (तेलुगु पत्रिकाओं का इतिहास), एमएसको बुक्स, हैदराबाद, 2010).

1842 में पुव्वाड वेंकटराव के संपादकत्व में ‘वर्तमान तरंगिणी’ का प्रकाशन आरंभ हुआ जो आठ वर्ष तक चला. इस पत्रिका को संस्कृत महाकाव्यों का तेलुगु अनुवाद प्रकाशित करने का श्रेय है. इसके अतिरिक्त 1848 में ‘हितवादी’ और ‘दिन वर्तमान’ जैसी पत्रिकाएँ निकलनी शुरू हुईं जिनमें क्षेत्रीय समाचारों के साथ साहित्यिक विषयों का भी समावेश होता था. उल्लेखनीय है कि 1862 में पूर्णरूप से साहित्यिक, शैक्षणिक और वैज्ञानिक विषयों को समर्पित मासिक पत्रिका ‘सुजन रंजनी’ आरंभ हुई जो बाद में त्रैमासिक हो गई. 1863 में बल्लारी से ‘श्रीयक्षिणी’ तथा 1865 में मद्रास से ब्रह्मसमाज की पत्रिका ‘तत्वबोधिनी’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. इन पत्रिकाओं ने विदेशी धर्मप्रचार का सामना करने के लिए भारतीय दर्शन, धर्म, निष्ठा, स्वाभिमान, राष्ट्रभक्ति और समाज सुधार पर ध्यान केंद्रित किया. ये पत्रिकाएँ अंग्रेज़ों के अत्याचार के विरुद्ध भी खुलकर लिखतीं थीं. (चर्ल अन्नपूर्णा, तेलुगु पत्रकारिता (आलेख), भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, 2000, (सं.) दिलीप सिंह और ऋषभ देव शर्मा). इस अवधि की एक अन्य पत्रिका थी ‘आंध्र भाषा संजीवनी’. इसमें भी साहित्य, समाज और राजनीति विषयक लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित होती थीं. तेलुगु भाषा के विकास में इस पत्रिका का योगदान अत्यंत महवपूर्ण है. तेलुगु पत्रकारिता के प्रथम दौर की इन सभी पत्रिकाओं ने सामाजिक, राजनैतिक और राष्ट्रीय चेतना को उद्बुद्ध करने के साथ साथ आंध्र क्षेत्र के नए लेखकों को प्रोत्साहित करने का बड़ा काम किया. यहाँ ‘पुरुषार्थ प्रदायिनी’ (1872 से प्रकाशित/ (सं) उमा रंगनायकुलु), ‘स्वधर्म प्रकाशिनी’, सुधीरंजनी’ और ‘सकल विद्याभिवर्धिनि’ का भी उल्लेख किया जा सकता है जिनमें तेलुगु मुहावरे, लोकोक्तियाँ, प्राचीन सूक्तियाँ और ऐतिहासिक गाथाएं प्रकाशित होती थीं. 

1874 में आधुनिक तेलुगु भाषा के सुधार आंदोलन के प्रवर्तक कंदुकूरि वीरेशलिंगम द्वारा राजमहेंद्री से प्रकाशित ‘विवेकवर्धनि’ के साथ तेलुगु पत्रकारिता के नए युग का सूत्रपात हुआ. “वहीं से उन्होंने सन 1874 में ‘विवेकवर्धनि’, सन 1883 में ‘सतीहितबोधिनि’, सन 1892 में ‘सत्यसंवर्धनि’, सन 1905 में ‘सत्यवादिनि’ नामक पत्रिकाओं का क्रमश: प्रकाशन किया और सामाजिक परिवर्तन तथा राष्ट्रीय जागरण के प्रधान आधार के रूप में इन्हें स्थापित किया. इतना ही नहीं उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि लोगों की रुचि ही समाचार पत्र की असली पूंजी है. उस समय की प्रगतिविरोधी शक्तियों, मठाधीशों, धोखेबाजों और गुंडों की भी उन्होंने अच्छी ख़बर ली. उनकी पत्रिकाओं से ये असामाजिक तत्व थर-थर कांपते थे.” (वही) 

यहाँ किसी अंग्रेज़ी पत्रिका के प्रथम तेलुगुभाषी संपादक के रूप में प्रतिष्ठित नेल्लूर वासी दामपुरी नरसैया का उल्लेख आवश्यक है. उन्होंने अंग्रेज़ी में मद्रास से ‘द नेटिव एडवोकेट’ (साप्ताहिक) का संपादन किया. साथ ही अनेक समाज सुधारकों तथा ब्रह्म समाज से प्रभावित होकर 1871 में नेल्लूर से ‘नेल्लूर पायोनियर’ का प्रकाशन किया. उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर 1881 से’ 1897 तक की अवधि में ‘पीपुल्स फ्रेंडली’ (अंग्रेज़ी साप्ताहिक) का प्रकाशन किया. दामपुरी नरसैया को तेलुगु के प्रथम साप्ताहिक ‘आंध्र भाषा ग्राम वार्तामणि’ के प्रकाशन का भी श्रेय प्राप्त है जिसे उन्होंने ग्रामीण, निर्धन और दलित समुदाय के हितों के लिए समर्पित किया. 

1876 में वी.कृष्णमाचार्युलु के संपादकत्व में मद्रास स्कूल बुक एंड वर्नाकुलर लिटरेचर सोसाइटी की ओर से मद्रास से प्रथम बालोपयोगी तेलुगु पत्रिका ‘जनविनोदिनि’ निकली. इस अवधि की अन्य उल्लेखनीय पत्रिकाएँ हैं - ‘शशिरेखा’ (1874 से/ मद्रास/ (सं) गटुपल्लि शेषाचार्युलु), ‘आंध्रप्रकाशिका’ (1885 से/ (सं) ए.वी.पार्थसारथी नायुडु), ‘देशाभिमानी’ (मासिक) (1890 से/ बेजवाड़ा (विजयवाडा) : (सं) देशगुप्तम शेषाचलपति द्वारा आरंभ यह पत्र आगे चलकर दैनिक हो गया. अतः ‘देशाभिमानी’ को तेलुगु का प्रथम दैनिक समाचार पत्र माना जाता है), ‘मनोहारिणि’ (नरसापुर/ (सं) अखिलन), ‘चिंतामणि’ ((सं) न्यायपति सुब्बाराव). तेलुगु पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास में स्त्री संबंधी प्रथम पत्रिका के रूप में ‘सतीहितबोधिनि’ (सं. वीरेशलिंगम पंतुलु) के अतिरिक्त स्वयं महिलाओं द्वारा संपादित ये पत्रिकाएँ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं – ‘सौंदर्यवल्ली’ (मद्रास/ (सं) श्रीमती रामबाई), ‘हिंदू सुंदरी’ (काकीनाडा/ (सं.) मोसलिकंटि रामबायम्मा), ‘सावित्री’ (सं. पुलुगुर्ति लक्ष्मी नरसमाम्बा), ‘अनसूया’ (सं. विन्जमूरि वेंकट रत्नम्मा). 

बीसवीं शताब्दी में तेलुगु पत्रकारिता का बहुमुखी विकास हुआ तथा इसके माध्यम से “व्यावहारिक भाषा” को लोकप्रियता प्राप्त हुई. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के युग में देशभक्त कोंडा वेंकटप्पय्या (1902, बंदरु – कृष्णा पत्रिका), चिलकमर्ती लक्ष्मी नरसिम्हम (मनोरमा – 1906, देशमाता – 1910) और मुट्नूरी कृष्णाराव (1907 से कृष्णा पत्रिका के संपादक) जैसे पत्रकारों के नाम प्रमुख हैं. 1905 में “वंदेमातरम आंदोलन” के प्रबल होने पर तेलुगु पत्रकारिता में राष्ट्रीयता का जमकर विकास हुआ. अंग्रेज़ विरोधी तेवर के कारण चिलकमर्ती लक्ष्मी नरसिम्हम (भारतभूमि एक दुधारू गाय है, अंग्रेज़ रूपी चालाक ग्वाले भूखे बछड़े की तरह रोती हुई भारतीय जनता के मुँह को छींके से बाँधकर इस गाय का दूध अपने लिए दुह रहे हैं.) और ‘स्वराज्य’ (1908) के संपादक गाडिचर्ल हरिसर्वोत्तम राव (अरे रे! फिरंगी! क्रूर व्याघ्र!) को जेल यात्रा करनी पड़ी. इस युग में चिल्कूरी वीरभद्रराव ने राजमहेंद्री से ‘आंध्रकेसरी’ और चिल्लरिगि श्रीनिवास राव ने मछलीपट्टनम से ‘नवयुग’ का प्रकाशन किया. जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है 1902 में देशभक्त कोंडा वेंकटप्पय्या और दासु नारायण राव द्वारा शुरू की गई ‘कृष्णा’ पत्रिका से 1907 में मुट्नूरि कृष्णा राव संपादक के रूप में जुड़े. इस पत्रिका से अवटपल्ली नारायण राव, पट्टाभि सीतारामैया, कोपल्ले हनुमंता राव और कौता राममोहन शास्त्री भी संबद्ध रहें. 

‘कृष्णा पत्रिका’ के समान ही ‘आंध्र पत्रिका’ ने भी राष्ट्रीय आंदोलन काल में संघर्षशील पत्रकारिता का इतिहास रचा. इसे 1908 में साप्ताहिक के रूप में काशीनाथुनि नागेश्वरराव पंतुलु ने मुंबई से आरंभ किया था. 1914 में इसे दैनिक पत्र के रूप में मद्रास स्थानांतरित कर दिया गया. बाद में दैनिक और साप्ताहिक ‘आंध्र पत्रिका’ के साथ साथ काशीनाथुनि नागेश्वर राव पंतुलु ने साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘भारती’ भी निकाली. पंतुलु के प्रयास से तेलुगु जनता में पठन-पाठन के संस्कार का प्रभूत विस्तार हुआ और उनकी प्रेरणा से अनेक देशभक्त युवक पत्रकारिता के क्षेत्र में आए. स्मरणीय है कि विश्वनाथ सत्यनारायण का विख्यात महाकाय उपन्यास ‘वेयीपडगलु’ (सहस्रफण) ‘आंध्र पत्रिका’ में दैनिक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ था. 

“बाद में ‘आंध्र साहिती परिपुष्पत्रिका’ नामक पत्रिका सन 1912 में प्रकाशित हुई. इसी युग में ‘त्रिलिंग’ नामक पत्रिका सन 1916 में निकली. इसी प्रकार सन 1923 में निकली ‘मुत्याला सरस्वती’ नामक पत्रिका ने प्राचीन प्रबंध काव्यों के प्रचार को प्रधानता दी. सन 1924 में प्रकाशित ‘आंध्र सर्वस्वम’ और ‘सारस्वत सर्वस्वम’ आदि पत्रिकाएँ उल्लेखनीय हैं. इसी वर्ष में प्रकाशित ‘प्रबुद्धान्ध्र’ नामक पत्रिका में गिडुगु राममूर्ति जी के व्यावहारिक भाषा वाद को समर्थन मिलता है.” (एल.विश्वनाथ रेड्डी, तेलुगु भाषा के विकास में पत्रिकाओं का योगदान, सहस्र वर्षों का तेलुगु इतिहास, (सं) यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद). 

महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन ने तेलुगु पत्रकारों की एक और नई पौध तैयार की. इनमें टंगुटूरी प्रकाशम पंतुलु का नाम शीर्षस्थ है जिन्होंने 1921 में मद्रास से ‘स्वराज्य’ का अंग्रेज़ी, तमिल और तेलुगु में प्रकाशन आरंभ किया. उनके बाद गोविंदराजुलु वेंकट कृष्णा राव ने भी मद्रास से ही ‘नवयुगम’ का प्रकाशन किया. उन्हें तेलुगु के प्रथम साम्यवादी पत्रकार माना जाता है. ‘मातृसेवा’ (1922, ताड़िपत्री से, गाडिचर्ल हरिसर्वोत्तम राव), ‘कांग्रेस’ (1922, राजमहेंद्री, अन्नपूर्णय्या) तथा ‘सत्याग्रही’ (एलुरु, आत्मकूरी गोविंदाचार्युलू) को ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा. ‘कांग्रेस’ के कई संपादकों को जेलयात्रा भी करनी पड़ी. राष्ट्रीय आंदोलन को तीव्रतर बनाने में एलुरु से प्रकाशित ‘गान्डीवमु’ और ‘देवदत्तमु’, मद्रास से प्रकाशित ‘जन्मभूमि’ (एक कानी – तीन कौड़ी मूल्य के कारण ‘कानी’ पत्रिका नाम से प्रसिद्ध) तथा नेल्लूरु से प्रकाशित ‘जमीनु रैतु’ (1928) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 

राष्ट्रीय आंदोलन काल में रायलसीमा और तेलंगाना क्षेत्र से भी कई तेलुगु पत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं. ‘मातृसेवा’ (ताड़िपत्री), ‘हास्य मंजूषा’ (अनंतपुर), ‘पिनाकिनी’, ‘कौमोदिकी’ (नंदयाल), ‘इंद्रावती’ (सं. वनम शंकर शर्मा), ‘विजयवाणी’ (सं. मूलनारायण स्वामी), ‘ब्रह्मनंदिनी’ (कडपा, (सं.) स्वधानम कृष्णमुनी) रायलसीमा की प्रतिनिधि पत्रिकाएँ रहीं. यहाँ उल्लेखनीय हैं कि तेलंगाना क्षेत्र में तेलुगु पत्रकारिता का विकास अपेक्षाकृत पिछड़ा रहा क्योंकि यह इलाका निजाम शासन में दबा हुआ था. इसके बावजूद ‘हितबोधिनि’ (1913, महबूब नगर), ‘तेलुगु पत्रिका’ (1920, इन्गुर्ति), ‘नीलगिरि’ (नलगोंडा), ‘गोलकोंडा’ (1925, सुरवरम प्रताप रेड्डी) तथा ‘सुजाता’ (1927, (सं.) सुरवरम और मंडपाटि) ने तेलंगाना क्षेत्र की तेलुगु पत्रकारिता को निजी पहचान प्रधान की. आगे चलकर 1933 – 38 की अवधि में तेलंगाना क्षेत्र से ‘देशबंधु’, ‘दक्कन केसरी’, ‘आंध्र वाणी’, ‘तेलुगु तल्लि’ और ‘विभूति’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. 1945 में राजगोपाल मुदलियार ने अंग्रेज़ी दैनिक ‘दक्कन क्रोनिकल’ के साथ साथ तेलुगु दैनिक ‘तेलंगाना’ का प्रकाशन आरंभ किया जो बाद में बंद हो गया. उन्होंने ही आगे चलकर ‘आंध्र भूमि’ तेलुगु दैनिक निकाला जो अभी तक चल रहा है. तेलुगु दैनिक ‘मिज़ान’ भी 1945 में हैदराबाद से आरंभ हुआ. इसके अलावा निज़ाम शासकों के शोषण चक्र के विरुद्ध किसानों के क्रांतिकारी आंदोलन के समर्थन में विजयवाडा से ‘प्रजाशक्ति’ (सं. रामानुजराव) का प्रकाशन आरंभ हुआ – यह दैनिक पत्र भी अब तक चल रहा है.). 

तेलुगु पत्रकारिता को उद्योग के रूप में विकसित करने का प्रथम श्रेय 1937 से प्रकाशित समाजवादी पार्टी के पत्र ‘नवशक्ति’ और 1938 से प्रकाशित रामनाथ गोयनका के पत्र ‘आंध्रप्रभा’ को जाता है. विशेष रूप से ‘आंध्रप्रभा’ दैनिक ने तेलुगु पत्रकारिता में अनेक नए आयाम जोड़े. स्वातंत्र्यपूर्व युग की तेलुगु पत्र-पत्रिकाओं में ‘जनवाणी’, ‘प्रतिभा’, ‘गृहलक्ष्मी’, ‘प्रबुद्ध आंध्र’, ‘उदयिनी’, ‘ज्वाला’’, साहिती’, ‘विज्ञानमु’, ‘बाला’ और ‘चंदामामा’ के नाम उल्लेखनीय हैं. इन्होंने तेलुगु के व्यावहारिक भाषारूप को लोकप्रियता प्रदान की तथा साहित्यिक पत्रकारिता, महिला पत्रकारिता, विज्ञान पत्रकारिता और बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. 

तेलुगु पत्रकारिता के इतिहास से पता चलता है कि 1939 से 42 तक समाजवादी दल द्वारा गुप्त रूप से ‘स्वतंत्र भारत’ का प्रकाशन किया जाता था. इसके अलावा ‘जनता’, ‘संदेशम’, ‘विशालांध्र’, ‘जनवाणी’, ‘नगारा’ जैसी पत्रिकाओं ने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए डटकर संघर्ष किया. ‘विशालांध्र’ 1952 से दैनिक हो गया. ये पत्र-पत्रिकाएँ साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करने वाली रहीं. ‘नवयुग’ (युवाओं के लिए), ‘आंध्र वनिता’ (महिलाओं के लिए) ‘वर्कर’ (श्रमिकों के लिए) तथा ‘अभ्युदय’ (प्रगतिशील लेखक संघ) भी प्रगतिशील विचारधारा की विशिष्ट पत्रिकाएँ हैं. 

तेलुगु पत्रकारिता का नया उन्मेष तीन ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा है – भारत की आजादी (1947), आंध्र प्रांत का गठन (1953) और आंध्र प्रदेश का निर्माण (1956). पहले मद्रास से छपने वाले तेलुगु समाचार पत्र अब आंध्र प्रदेश में छपने लगे. आंध्रप्रभा (1959), आंध्रपत्रिका (1965), आंध्रज्योति (1967), प्रभा और ज्योति आदि सचित्र दैनिक और साप्ताहिक पत्र एकाधिक केंद्रों से प्रकाशित होने लगे. 1974 में विशाखपट्टनम से और 1975 में हैदराबाद से ‘ईनाडु’ दैनिक का प्रकाशन आरंभ हुआ. 

वर्तमान में आंध्रप्रदेश भर से तेलुगु की लगभग 500 पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं. इनमें प्रसार संख्या की दृष्टि से ईनाडु, आंध्रज्योति, आंध्रभूमि पहले तीन स्थानों पर हैं. वर्तमान उपलब्ध प्रमुख तेलुगु दैनिक समाचार पत्र हैं – आंध्रभूमि, आंध्रज्योति, आंध्रपत्रिका, ईनाडु, ईमाता, वार्तलु, आंध्रप्रभा, विशालांध्रा, प्रजाशक्ति, विजेता, वार्ता, साक्षी, सूर्या, नेटि तेलंगाना. साप्ताहिक तेलुगु पत्रिकाओं में आंध्रभूमि, आंध्रज्योति, आंध्रप्रभा, स्वाति, चित्रभूमि, ज्योतिचित्र, मयूरी, सितारा, शिवरंजनी, इंडिया टुडे (तेलुगु), रचना, कृष्णा पत्रिका, प्रतिभा, प्रगति के नाम उल्लेखनीय हैं. तेलुगु की मासिक पत्रिकाओं के अंतर्गत मुख्य रूप से अन्नदाता, चतुरा, स्वाति, उद्योग विजयालु, विपुला, चतुरा, आंध्रभूमि, प्रजासाहिती, पालपिट्टा, प्रतिबिंबम, माभूमि, गमनम, ग्रामस्वराज्यम, अभिनय, मनिदीपम, चिनुकु, प्रजाशक्ति, उज्वला, कापुमित्रा, कापुसत्ता, कापुयुवता, भूमिका, महिलाज्योति, माधुरी-2, रैतुनेस्तम, रैतुमित्रा, आंध्रप्रदेश, मयूरी अत्यंत उपयोगी पत्रिकाएँ हैं. इसके अतिरिक्त वेदांतभेरी, शुभवार्ता, सप्तगिरी, सनातन सारथी, अक्षरमैथिली, उषश्री, सनमार्गामु, भक्तिप्रपंचम, ज्ञानभूमि, मणिदीपम, पुण्यक्षेत्रालु, तिरुपति, ओंकारवेदमु, ऋषिपीठमु आदि आध्यात्मिक वर्ग की तेलुगु पत्रिकाओं के रूप में उल्लेखनीय है. फिल्म पत्रकारिता भी तेलुगु में अत्यंत लोकप्रिय हैं. इस कोटि की मुख्य पत्र-पत्रिकाएं हैं – सितारा (1976, मासिक), चलनचित्र (1973, मासिक), सिनी सम्राट (1997), स्टार डिटेक्टिव (1998, पाक्षिक), सिनिमा चांस (1998), संतोषम (2002, साप्ताहिक), उल्लासम (2003, मासिक), सुमांजलि (2003, साप्ताहिक), केमेरा (2003, साप्ताहिक), सिनी गूढ़ाचारी (1987, साप्ताहिक), सिनेमा (1984, मासिक), सिनीरमा (1976), ज्योतिचित्रा (1977), चित्रभूमि (1980, साप्ताहिक), सिनीविनोदमु (2002, तेलुगु – हिंदी साप्ताहिक), चित्रांजलि (2001, साप्ताहिक), चित्रम (2001, साप्ताहिक), मूवी लैंड्स (2002, साप्ताहिक), मा (1998, मासिक), शिवरंजनी (1986, मासिक; 1997, साप्ताहिक), मेघसंदेशम (1997, साप्ताहिक), सिनी मार्जिन (1986, साप्तहिक) और आंध्रभूमि (सिनेमा – 1981, साप्ताहिक). इसी प्रकार प्रमुख तेलुगु बालपत्रिकाओं में चंदामामा, बंगारुबोम्मा (1976, मासिक), चिन्नारीलोकम (1985, मासिक), आंध्रबाला (1995, मासिक), बाल जोजो वेन्नला (2000, मासिक), चिन्नारुलु (2002, मासिक), सिसिंद्रीलु (2006, मासिक) और बालतेजम (2006) के नाम सम्मिलित हैं. 

तेलुगु पत्रकारिता के इतिहास की सबसे नई ऐतिहासिक परिघटना के रूप में फरवरी 2004 से आरंभ पहले वैश्विक तेलुगु समाचार पत्र के प्रकाशन का उल्लेख किया जा सकता है. ‘तेलुगु टाइम्स’ के नाम से प्रकाशित यह समाचार पत्र भारत और विदेशों के मीडिया और व्यवसाय जगत के अनुभवी पत्रकारों द्वारा चलाया जा रहा है. इसके पृष्ठ तैयार तो हैदराबाद के कार्यालय में किए जाते हैं लेकिन उन्हें सीधे अमेरिका स्थित प्रेस को प्रेषित कर दिया जाता है और उन्हें वहीं में मुद्रित और वितरित किया जाता है. वास्तव में ‘तेलुगु टाइम्स’ का प्रकाशन उत्तरी अमेरिका में बसे हुए पांच लाख प्रवासी तेलुगुभाषियों की मीडिया और जनसंचार संबंधी अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए आरंभ किया गया है. 

2. आंध्रप्रदेश की उर्दू पत्रकारिता 
आंध्रप्रदेश में पत्रकारिता के इतिहास का दूसरा आयाम उर्दू पत्रकारिता से संबंधित है. आंध्रप्रदेश की प्रथम उर्दू पत्रिका का प्रकाशन 1857 ई में हआ जब आसफ़जाही शासन के दौरान हैदराबाद से स्वास्थ्य संबंधी पत्रिका ‘तिबाबत’ निकली. आजे चलकर 1860 में काज़ी मोहम्मद क़ुतुब के संपादन में हैदराबाद का पहला उर्दू समाचार पत्र ‘आफ़ताब दक्कन’ आरंभ हुआ जो वास्तव में हैदराबाद की सभ्यता, संस्कृति और विभिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक और राजमहल संबंधी गतिविधियों की सूचनाएँ जनता को देने का माध्यम बना. इसी प्रकार 1869 से 1948 तक हैदराबाद राज्य के गजट के प्रकाशन की भी जानकारी मिलती है. ‘आफ़ताब दक्कन’ (1860) के अलावा ‘खुर्शीद दक्कन’ (1877) को भी इस राज्य का पहला उर्दू समाचार पत्र माना जाता है. प्रथम उर्दू ‘दैनिक’ समाचार पत्र के स्थान के भी दो दावेदार हैं. पहला 1883 में सुल्तान मोहम्मद आकिल देहलवी द्वारा संपादित ‘खुर्शीद दक्कन’ तथा दूसरा 1888 में हाजी करतान द्वारा संपादित ‘शौकत उल इस्लाम’. 19वीं शताब्दी के अंतिम पच्चीस वर्षों में प्रकाशित अन्य उर्दू पत्रों में शामिल हैं ‘अखबार आसफी’ (1885), ‘अफ़सर उल अखबार’ (1886) और ‘अफ़सर’ (1897). 

‘भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन’ (2000) में सम्मिलित ‘उर्दू पत्रकारिता’ विषयक निबंध में नेहपाल सिंह वर्मा यह जानकारी दी है कि “हैदराबाद के पत्रकारिता जगत के सबसे महत्वपूर्ण समाचार पत्र ‘मुशीर दक्कन’ का संपादन 1892 ई. में स्व. किशनराव ने किया. उर्दू पत्रकारिता के क्षेत्र में शायद ही कोई दूसरा समाचार पत्र इतना पुराना इतिहास रखता है. यह पत्र 22 अप्रैल 1892 से 10 दिसंबर 1898 ई. तक नियमित प्रकाशित होता रहा. कुछ दिन बंद रहा. पुनः 1899 ई. से प्रकाशित होने लगा. 1898 ई. में आपत्तिजनक निबंध के प्रकाशन के आरोप में किशनराव को शहर से निकाल दिया गया. उन्होंने इसे मद्रास से निकाला और फिर 1899 ई. से इसे पुनः हैदराबाद से प्रकाशित किया. 1902 ई. में सादिक़ हुसैन ने ‘इल्म व अमल’ प्रकाशित किया. 1901 ई. में समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं की संख्या 14 थी जिनमें 12 उर्दू के और 2 मराठी के थे. इनमें सात दैनिक पत्र थे. इनमें ‘मुशीर दक्कन’ ही ऐसा दैनिक पत्र था जो 1970 ई. तक प्रकाशित होता रहा. इस दैनिक ने पत्रकारिता को एक नया रूप दिया. उस समय लोगों की राजनैतिक समाचारों में रुचि कम थी, कोई संवादवाहिनी संस्था नहीं थी. बादशाह को ईश्वर के बाद शक्ति का अवतार मानते थे. ऐसे समय 1904 ई. में मोहब हुसैन ने ‘इल्म व अमल’ जारी किया. यह वह समय था जब राष्ट्रीय कांग्रेस की हवा हैदराबाद पहुँच गई थी. केशवराव कोरटकर, वामन नायक, मुल्ला अब्दुल कय्यूम, डॉ.रघुनाथ चट्टोपाध्याय, पं. तारानाथ, बैरिस्टर श्री किशन और बैरिस्टर मोहम्मद असगर ने निजाम राज्य में जनजागृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण लेख लिखे.” ‘मुशीर दक्कन’ को पत्रकारिता के मूल्यों की स्थापना का श्रेय दिया जाता है.” (नेहपाल सिंह वर्मा, ‘उर्दू पत्रकारिता’ (आलेख), भातरीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, पृ.109). 

आगे चलकर 1911 में ‘मुआरिफ’ (मुल्ला अब्दुल बासित) और ‘उस्मान गजट’ (सैयद राजा शाह) के अतिरिक्त ‘सहीफ़ा’ ने पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त की. इस पत्र ने साहित्यिक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बताया जाता है कि निजाम मीर उस्मान अली खान की उत्तर भारत की यात्रा के अवसर पर उनके साथ गए अकबर अली द्वारा प्रेषित ताज़ा समाचारों के कारण ‘सहीफ़ा’ को यह लोकप्रियता मिली. 1920–1948 की अवधि में अहमद मोहिउद्दीन द्वारा ‘रहबर दक्कन’ का प्रकाशन किया गया जो मजलिस इत्तहाद उल मुसलमीन का धार्मिक पत्र था. बाद में इसका नाम ‘रहनुमाये दक्कन’ कर दिया गया जो मुसलमानों और मुस्लिम धर्म के पक्षधर पत्र के रूप में आगे भी प्रकाशित होता रहा. 

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि रजाकार आंदोलन (1948) के कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियों ने इस राज्य में हिंदू-मुस्लिम एकता के वातावरण को बहुत क्षति पहुँचाई तो आर्य समाज के आंदोलन ने राष्ट्रीय चेतना को शक्ति प्रदान की. “उस समय ‘रहबर दक्कन’, रैयत’ और ‘पयाम’ महत्वपूर्ण पत्र थे. सरकार ने जब देखा कि ‘रैयत’ राष्ट्रीयता का प्रचार कर रहा है तो उस पर रोक लगा दी गई. एम.नरसिंह राव, संपादक ने समाचार पत्र ही बंद कर दिया. ‘रैयत’ के बंद होते ही बी.रामकिशन राव और एम.नरसिंह राव (जो बाद में मुख्यमंत्री और गृहमंत्री हुए) के सहयोग से शोयब उल्लाह खान ने ‘इमरोज’ निकाला. शोयब उल्लाह खान गांधीवादी थे. उन्होंने खुलकर हैदराबाद में हो रहे सांप्रदायिक तांडव का विरोध किया. उन्होंने बादशाह उस्मान अलीखान को सलाह दी कि वह हैदराबाद को भारत में विलय कर देश की कौमी धारा से जुड़ जाएँ और रजाकारों की गतिविधियों को तुरंत बंद करा दें. रजाकारों ने उन्हें जान से मार डालने की धमकी दी और एक दिन जब वह साईकिल से काम कर वापस लौट रहे थे उन पर आक्रमण किया गया. उनका सीधा हाथ काट दिया गया और उन्होंने वहीं सड़क पर अपने प्राण छोड़ दिए. हैदराबाद की पत्रकारिता के इतिहास में यह पहले पत्रकार का बलिदान था, जो रंग लाया और भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल को हैदराबाद पर पुलिस एक्शन कर इसे भारत में विलय कराने का कार्य करना पड़ा. उसी समय प्रगतिवादी विचारधारा के दैनिक पत्र ‘पयाम’ (सं. अख्तर हसन) के कार्यालय पर भी आक्रमण किया गया और आग लगा दी गई.” (द्रष्टव्य - नेहपाल सिंह वर्मा, ‘उर्दू पत्रकारिता’, भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, पृ. 110).

इन सब परिस्थितियों के समानांतर आंध्रप्रदेश की उर्दू पत्रकारिता की यात्रा आगे बढ़ती रही. ‘निजाम गजट’ (1927 : हबीब उल्ला रशदी, विकार अहमद), ‘सुबह दक्कन’ (1928 : अहमद आरिफ़, अली अशरफ़), ‘मज़लिस’ (1948 : हकीम गफ्फार अहमद अंसारी), ‘वक्त’ और ‘मंशूर’ (1928 : अब्दुल रहमान रईस), ‘सल्तनत’ (1930 : अहमद उल्लाह कादरी), ‘पयाम (1935 : काज़ी अब्दुल गफ़ार) के अनंतर 1942 (भारत छोड़ो आंदोलन) से 1948 (हैदराबाद का भारत में विलय) की अवधि में अनेक उर्दू पत्र-पत्रकार सामने आए. जैसे ‘मीज़ान’ (1942 : गुलाम मुहम्मद और हबीब उल्लाह ओज), ‘तन्जीम’ (1942 : अली अशरफ़), ‘इत्तहाद’ (1947 : अब्दुल इहाशमी), ‘मुस्तकबिल’ और ‘तामीर दक्कन’ (फैज़ उद्दीन ‘फैज़’), ‘इन्कलाब’ (मुरतुज़ा मुज्तहदी), ‘मुहबे वतन’ (लक्ष्मी रेड्डी), ‘आवाज़’ (अब्दुल कादर), ‘जिन्नाह’ (अज़हर रजवी), ‘हमदम’ (मुस्तफ़ा कादरी), ‘आगाज़’ (सैयद मोईन उलहक), ‘मंजिल’ (अज़हर रजवी), ‘इखदाम’ (मुरतुजा मुजतहदी), ‘नई जिंदगी’ (जे.एन.शर्मा), ‘शोईब’ (अनीस उलरहमान).

इसमें संदेह नहीं कि 1935 (‘पयाम’) से 1948 (‘इखदाम’) तक की अवधि आंध्रप्रदेश की उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण रही. “बादशाह के समर्थक समाचार पत्रों में ‘निजाम दक्कन’ और ‘दक्कन’ प्रमुख थे. इन समाचार पत्रों में बादशाह की ओर से नज़री बाग से जारी निजाम के आदेश और फरमान छपते थे, जिन्हें बाद में हर समाचार पत्र को प्रकाशित करना पडता था. ‘रहबर दक्कन’, ‘मजलिस’, ‘इत्तहाद’, ‘जिन्नाह’, ‘आगाज़’ मजलिस के समर्थक समाचार पत्र थे. इन पत्रों ने स्वतंत्र हैदराबाद के लिए जनमत तैयार किया. ‘रैयत’, ‘पयाम’, ‘वक्त’ और ‘इमरोज़’ प्रजातांत्रिक शासन के लिए आवाज़ उठा रहे थे. ‘पयाम’ ने कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए काम किया. अंततः 1948 ई. में इन समाचार पत्रों का प्रकाशन रंग लाया और हैदराबाद राज्य का भारत में विलय हो गया.” (वही). उल्लेखनीय है कि 1948 में प्रगतिशील पत्रकार मुरतुजा मुज्तहदी द्वारा प्रकाशित ‘इखदाम’ से अनेक प्रगतिशील पत्रकार और लेखक संबंधित रहे जिनमें मखदूम मोहिउद्दीन और राज बहादुर गौड़ भी सम्मिलित थे. मुरतुजा ने 1950 में ‘अंगारा’ निकाला जिसके बंद होने पर मोईन फारुकी ने ‘अंगारे’ का प्रकाशन किया. 

1948 के बाद की अवधि में अर्थात निजामशाही के समापन के बाद अनेक नए उर्दू पत्र सामने आए जिनमें उल्लेखनीय हैं ‘नई जिंदगी’ (जे.एन.शर्मा), ‘हमदर्द’ (नक्श आलमी), ‘हमदम’ (जमाल उद्दीन और मुस्तफा कादरी), ‘ताजयाना’ (सआदत जहां), ‘हमारा इखदाम’ (शहरयार), ‘नया ज़माना’ (असद जाफ़री), ‘सल्तनत’ (सादउल्लाह कादरी), ‘पैसा अखबार’ (अहमद उल्लाह कादरी), ‘अंगारे’ (मोईन फारुकी), ‘वतन’ (रशीद बेग), ‘अमर भारत’ (पूरनचंद शाकिर), ‘सदाकत’ (वही उलहसन), ‘ज़बीह’ (इस्माईल ज़बीह), ‘हक’ (शेख चाँद), ‘नवीद दक्कन’ (अज़ीम अस्कंरी), मुंसिफ (महमूद अंसारी), ‘खून नाव’ (जी.एम.उरूज) आदि. इनके अलावा 1948 से हैदराबाद से ‘मिलाप’ (दैनिक उर्दू पत्र) निकला जिसके संपादक युद्धवीर थे. अपनी राष्ट्रीय चेतना और आर्य समाजी विचारधारा के कारण इसे हिंदुओं में खूब लोकप्रियता प्राप्त हुई. अब यह पत्र बंद हो चुका है. 

हैदराबाद की उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में ‘सियासत’ का अपना विशिष्ट स्थान है. इसे आबिद अली खान ने महबूब हुसैन ‘ज़िगर’ के साथ मिलकर 15 अगस्त 1949 से उर्दू दैनिक के रूप में आरंभ किया. वर्तमान में दैनिक ‘सियासत’ के साथ साथ मासिक ‘सियासत’ का भी प्रकाशन किया जाता है. इस पत्र को प्रगतिशील विचारधारा के लिए जाना जाता है. दैनिक ‘सियासत’ के वर्तमान संपादक है जाहिद अली खान. इसके जैसी ही लोकप्रियता ‘मुंसिफ’ को भी प्राप्त है जिसे महमूद अंसारी ने आरंभ किया था और अब भारतीय अमेरिकी खान लतीफ़ द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है. 

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि आंध्रप्रदेश की पत्रकारिता में उर्दू पत्रों और पत्रकारों का योगदान अविस्मरणीय है. यहाँ अंत में यह जोड़ना भी प्रासंगिक होगा कि शीर्षस्थ उर्दू पत्रकार जाहिद अली खान और नसीम आरिफी यह मानते हैं कि उर्दू मीडिया में अभी संसाधनों और प्रोफेशनलिज्म की कमी है जिसके कारण वह कुछ हद तक पिछड़ा हुआ है. इसके बावजूद वह बड़ी सीमा तक उर्दू भाषी जनता और आंध्रप्रदेश के प्रशासन के मध्य सेतु की भूमिका निभा पा रहा है. यहाँ राज्यपाल और मुख्यमंत्री के समक्ष अंग्रेज़ी और तेलुगु के अखबारों के साथ साथ उर्दू अखबारों की क्लिपिंग भी प्रस्तुत की जाती हैं. आज ‘सियासत’ दुनिया के 107 देशों में पढ़ा जाता है लेकिन यह अवश्य चिंतनीय है कि नई पीढ़ी का उर्दू के प्रति झुकाव काफी कम होता जा रहा है. 

3. आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता 
आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता का इतिहास पर्याप्त रोचक है तथा इस प्रांत के हिंदी प्रेम और राष्ट्रीयता का द्योतक भी. पत्रकारिता के इतिहास संबंधी शोधकर्ताओं ने इस तथ्य पर विस्मय प्रकट किया है कि जहाँ एक ओर हिंदी विरोधी समझे जाने वाले मद्रास प्रांत में हिंदी पत्रकारिता को हिंदी प्रचार के साथ जुड़कर विकसित होने का अनुकूल वातावरण मिला, वहाँ उर्दू को प्रमुखता देने वाला और दक्खिनी हिंदी को अपनाने वाला निजाम द्वारा शासित हैदराबाद प्रांत हिंदी पत्रकारिता के रास्ते में काँटे बिछाने वाला बना. इसके बावजूद यह भी रेखांकित किया गया है कि हिंदी पत्रकारिता का जो रूप हमें दक्षिण भारत में देखने को मिलता है वह अन्यत्र नहीं मिल सकता क्योंकि यहाँ हिंदी देशप्रेम की संवाहिका बनकर आई और भावों की संवाहिका कुछ देर से बनी. डॉ.गोपाल शर्मा ने हैदराबाद के प्रमुख हिंदी पत्रकार मुनींद्र जी के अमृतोत्सव के अवसर पर दिलीप सिंह और ऋषभ देव शर्मा के संपादकत्व में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन’ (2000) के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए अपने शोधपूर्ण निबंध ‘दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता’ में दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को चार कालों में विभक्त किया है, जिन्हें आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता के संदर्भ में ज्यों-का-त्यों स्वीकार किया जा सकता है. यही नहीं उनके द्वारा प्रस्तुत सूचनाएँ और विश्लेषण भी अत्यंत प्रामाणिक हैं जिन्हें हम यहाँ आभार सहित इस्तेमाल कर रहे हैं. आंध्रप्रदेश में हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को जिन चार कालखंडों में बाँटा जा सकता है, वे हैं –
1. उद्भव काल (सन 1947 से पूर्व)
2. विकास काल (सन 1948 से 1972 तक)
3. नव निर्माण काल (सन 1973 से 1998 तक)
4. वर्तमान काल (सन 1999 से....)

स्वातंत्र्यपूर्व काल में स्थानीय राजनैतिक कारणों वश हैदराबाद में निजामशाही के दौरान हिंदी को ‘बगावत की भाषा’ और ‘विदेशी भाषा’ समझा जाने लगा था जबकि उर्दू यहाँ की राजभाषा थी. हिंदी में पत्र-पत्रिका प्रकाशित करने पर पाबंदी थी. 1931 में अर्जुन प्रसाद मिश्र ‘कंटक’ ने ‘भाग्योदय’ नामक मासिक पत्रिका के लिए अनुमति तो प्राप्त कर ली लेकिन भयभीत जनता का सहयोग न प्राप्त कर सके. यही कहानी और भी एक-दो हिंदी पत्रों की है. हिंदी के प्रति शासन के इस विद्वेष का कारण यह था कि यहाँ धार्मिक एवं नागरिक स्वतंत्रता के लिए आर्य समाज शासन से टकराव मोल लेता रहता था. आर्य समाज के प्रचारक हिंदी का प्रयोग करते थे अतः उनके प्रभाव को कम करने के लिए हिंदी भाषा और हिंदी पत्रकारिता को लगातार दबाया जाता था. आर्य समाजियों ने हैदराबाद की जनता के लिए बाहर से पत्र प्रकाशित करने शुरू किए, एक ऐसा ही पत्र सोलापुर से निकला. ‘आर्य संदेश’ नामक इस पत्र में जनता को न्याय-पथ पर चलने की सलाह दी जाती थी और हैदराबाद के शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया जाता था. इस पत्र के संपादकद्वय त्रिलोकी नाथ शास्त्री और राम देव ने ‘आर्य संदेश’ को राजनीतिक चेतना फैलाने के लिए प्रयोग किया. इस पत्र का मुख्य संदेश आज भी हैदराबाद के बुजुर्गों को याद है : ‘उठ बाँध कमर, क्यों डरता है – फिर देख प्रभु क्या करता है.’ यह पत्र दो वर्ष तक भी न चल पाया. चल ही नहीं सकता था. सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया. कई वर्षों तक हैदराबाद राज्य की हिंदी पत्रकारिता में लुका-छिपी का खेल चलता रहा. आर्य प्रतिनिधि सभा अनुमति लेकर पत्र निकालती, सरकार प्रतिबंध लगा देती, इसलिए संपादकों ने कई नामों की अनुमति ले डाली. कभी कोई पत्र नागपुर से छपता, कभी सोलापुर से, कभी पत्र बड़ा होता तो कभी विवरण पत्र मात्र बन जाता. इस समय प्रकाशित पत्रों के नामों की एक लंबी सूची है जैसे आर्यभानु, दैनिक दिग्विजय, सुधाकर, हनुमान, दिवाकर, पताका, वेद प्रकाश, वैदिक ज्योति आदि. कई अन्य पत्रकारों ने भी कोशिश की जैसे बृंदावन विहारी मिश्र ने ‘व्यापार’ नामक पत्र निकाला और अपने आप को विवादों से दूर रखने का प्रयत्न किया. (गोपाल शर्मा, ‘दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता’ (आलेख), भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन, पृ. 115). इस प्रकार स्वातंत्र्यपूर्व काल में हैदराबाद में हिंदी पत्रकारिता को अपने अस्तित्व के लिए घोर संघर्ष करना पड़ा. 

स्वातंत्र्योत्तर काल में उपर्युक्त स्थिति में परिवर्तन आया और हैदराबाद नवीन पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का केंद्र बनकर उभरा. सितंबर 1948 में हैदराबाद राज्य के भारत संघ में विलय के बाद हैदराबाद से नियमित रूप से दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्र निकलने लगे. हैदराबाद से प्रकाशित ‘अजंता’ और ‘कल्पना’ जैसी मासिक पत्रिकाओं ने ‘सरस्वती’ और ‘हंस’ के समान ख्याति अर्जित की. ‘अजंता’ हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद द्वारा प्रकाशित की जाती थी. गया प्रसाद शास्त्री, श्यामू संन्यासी, श्रीराम शर्मा, वंशीधर विद्यालंकार, हरिकृष्ण पुरोहित, राजकिशोर पांडेय और भीमसेन निर्मल जैसे दिग्गज इस पत्रिका के संपादक रहे. दूसरी ओर ‘कल्पना’ का प्रकाशन बद्री विशाल पित्ती द्वारा अगस्त 1949 से आरंभ किया गया जिसके संपादकों में डॉ.आर्येंद्र शर्मा से लेकर भवानीप्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय और मुनींद्र जी तक अनेक समर्पित हिंदी सेवी जुड़े थे. इसके कला विभाग से एम.एफ.हुसैन और जगदीश मित्तल जैसे चित्रकार और कला समीक्षक संबद्ध रहे. यह भारत भर के लेखकों एवं पत्रकारों की प्रिय पत्रिका बनी तथा 1978 में कोई विशेष कारण घोषित किए बिना बंद हो गई. स्मरणीय है कि आर्येंद्र शर्मा मूलतः वैयाकरण थे. उनकी पुस्तक ‘बेसिक ग्रामर ऑफ हिंदी’ भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई थी जिसे आज भी हिंदी का मानक व्याकरण माना जाता है. भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने ‘कल्पना’ को अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की. ‘कल्पना’ के माध्यम से वे अनेक नए रचनाकारों को सामने लाए जो बाद में प्रतिष्ठित हुए. इसी अवधि में मारवाड़ी प्रेस, हैदराबाद के बालकृष्ण लाहोटी द्वारा प्रकाशित ‘दक्षिण भारती’ भी निकली जो चार-पांच वर्ष तक चली. इसके संपादक महेंद्र भटनागर थे. बाद में वेमूरि आंजनेय शर्मा भी इस पत्रिका के संपादक रहे. यह पत्रिका दक्षिण भारत के हिंदी साहित्यकारों को एक साझा मंच उपलब्ध कराने के उद्देश्य से आरंभ की गई थी.

इन साहित्यिक पत्रिकाओं के अतिरिक्त इस काल में हैदराबाद से कई समाचारबहुल पत्र भी प्रकाशित हुए. डॉ.गोपाल शर्मा ने लिखा है कि साप्ताहिकों में ‘आर्यभानु’ और ‘संगम’ उल्लेखनीय पत्र हैं. ‘आर्यभानु’ का संपादन विनायक राव विद्यालंकार और कृष्णदत्त ने किया. वंदेमातरम रामचंद्रराव ने इस पत्र को जीवित रखने का भरसक प्रयास किया. शिवनंदन शास्त्री ने ‘संगम’ का प्रकाशन 28 अप्रैल 1958 को प्रारंभ किया. इस पत्र ने पाठकों को सुरुचिपूर्ण साहित्य दिया. “हैदराबाद के दैनिक पत्रों में ‘डेली हिंदी मिलाप’ को भी इस काल की प्रमुख उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए. ‘हिंदी मिलाप’ नाम से अखबार दिल्ली और जालंधर से भी निकलते थे. ‘मिलाप’ स्वतंत्रता से पूर्व ही हैदराबाद से प्रकाशित होने लगा था. स्वतंत्रता के पश्चात श्री युद्धवीर जी के संपादकत्व में इस पत्र ने अपनी पहचान भी बनाई और हिंदी प्रेमियों के बीच जगह भी. धीरे धीरे यह पत्र दैनिक आवश्यकता बन गया. ‘मिलाप’ के प्रकाशक की हैसियत से युद्धवीर जी ने अनेक नए पत्रकारों को अवसर दिया. बाहर से भी योग्य प्रतिभाओं को बुलाया और अवसर दिया. पं.दिवाकर पांडेय इस पत्र से जुड़े. सरदार हरनाम सिंह ‘प्रवासी’ ने इस पत्र में कार्य किया. श्री रवि श्रीवास्तव इस पत्र से जुड़े. ‘मिलाप’ जब कुछ दिनों के लिए बंद हो गया तो दिवाकर पांडेय ने प्रकाश भाई के साथ मिलकर ‘दैनिक विश्व वाणी’ का प्रकाशन किया. ‘विश्व वाणी’ के साथ डी.एस.सिंह ‘लाट’ भी जुड़े. ‘साथी’ के संपादन प्रकाशन में भी दिवाकर पांडेय की महत्वपूर्ण भूमिका रही.” (वही, पृ. 117). 

आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक नया मोड 1973 में तब उपस्थित हुआ जब 14 सितंबर 1973 (हिंदी दिवस) से मुनींद्र जी के संपादकत्व में ‘हैदराबाद समाचार’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. आगे चलकर इसका नाम ‘दक्षिण समाचार’ कर दिया गया. इस पत्र की पृष्ठभूमि में मुख्य रूप से दो लक्ष्य थे. एक तो यह कि हैदराबाद के हिंदी से जुड़े हुए लोगों को परस्पर सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा प्राप्त हो. आगे चलकर इसका क्षेत्र हैदराबाद से बढ़कर आंध्रप्रदेश और फिर दक्षिण भारत तथा अंततः पूरा भारत बन गया. दूसरा महत्वपूर्ण लक्ष्य था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुरूप हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति की वाहक भाषा के रूप में विकसित करना. हिंदी के विकास, भाषा की शुद्धता, साहित्य में घटित नई रचनात्मक प्रवृत्तियों की जानकारी और अंग्रेज़ी के विरोध तथा मानक हिंदी के प्रयोग को इस पत्र ने सदा आंदोलन के रूप में प्रसारित किया. इसके साथ ही इस साप्ताहिक पत्र ने हिंदी के लेखन को प्रोत्साहित करने और दक्षिण भारत भर में हो रहे लेखन से समस्त भारत को परिचित कराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. मुनींद्र जी के निधन के बाद उनके पुत्र प्रफुल्ल कुमार तथा उनके बाद वर्तमान समय में नीरज कुमार ने भी इन्हीं नीतियों पर ‘दक्षिण समाचार’ को आगे बढ़ाया है. 

हिंदी अकादमी, हैदराबाद (1956) द्वारा कई वर्ष तक हस्तलिखित पत्रिका के रूप में प्रकाशित प्रसारित ‘संकल्य’ 1974 में विधिवत पंजीकरण के बाद मुद्रित मासिक पत्रिका के रूप में निकलने लगी. उस समय इसके संपादक मुधुसूदन चतुर्वेदी थे बाद में 1977 से बैजनाथ चतुर्वेदी के संपादकत्व में इसे साहित्यिक त्रैमासिक के रूप में भारत भर में ख्याति प्राप्त हुई. 

हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार और संवर्धन की दृष्टि से हैदराबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की आंध्र शाखा द्वारा प्रकाशित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘पूर्णकुंभ’ का योगदान उल्लेखनीय है. 1977 अप्रैल से प्रकाशित ‘पूर्णकुंभ’ के संपादन से दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आंध्र के सचिवों के रूप में कई बड़े हिंदी प्रचारकों के नाम जुड़े रहे हैं. परंतु इस पत्रिका ने 1997 से विशेष रूप से नया स्वरूप तब प्राप्त किया जब दिलीप सिंह और ऋषभ देव शर्मा क्रमशः संपादक और सह-संपादक के रूप में ‘पूर्णकुंभ’ से जुड़े तथा कविता, कहानी, लेख, समीक्षा आदि विविध विषयों के साथ साथ इसमें अनुवाद, भाषाविज्ञान और साहित्य की विशिष्ट विधाओं को प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया. इस अवधि में ‘पूर्णकुंभ’ के कई चर्चित विशेषांक भी निकले, यथा, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, शिवप्रसाद सिंह, नागार्जुन, नागेंद्र और रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक. आगे चलकर अप्रैल 2003 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा – आंध्र की तेलुगु पत्रिका ‘स्रवंति’ और हिंदी पत्रिका ‘पूर्णकुंभ’ का परस्पर विलय करके उन्हें द्विभाषी साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘स्रवंति’ का रूप दे दिया गया जिसमें हिंदी और तेलुगु दोनों भाषाओं की सामग्री रहती है. सभा के सचिव इसके पदेन संपादक रहते हैं. सह-संपादक के रूप में नारायण राजु और मल्लसर्ज मंगोडी के बाद अगस्त 2008 से गुर्रमकोंडा नीरजा इस पत्रिका का संपादन कार्य देख रही हैं. हिंदी और तेलुगु की मौलिक और अनूदित सामग्री प्रस्तुत करने वाली यह पत्रिका जनवरी 2011 से इंटरनेट पर भी उपलब्ध है. इस लघुकाय पत्रिका के कई विशेषांक भी विगत वर्षों में प्रकाशित और चर्चित हुए, जैसे राष्ट्रकवि दिनकर विशेषांक (मई 2009), उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य विशेषांक (फरवरी 2011), शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक (अप्रैल 2011), अज्ञेय जन्मशती विशेषांक – 1,2,3 (जून, जुलाई, अगस्त 2011), स्व.प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव अमृत वर्ष विशेषांक (अक्टूबर 2011), दूरस्थ शिक्षा पर एकाग्र (मार्च 2012), पुण्य स्मृति (परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया, अमरकांत, राजेंद्र यादव और ओमप्रकाश वाल्मीकि) विशेषांक (2014) और मुक्तिबोध विशेषांक (2015). 

हिंदी प्रचार सभा (नामपल्ली, हैदराबाद) द्वारा 1977 से प्रकाशित मासिक ‘विवरण पत्रिका’ भी हिंदी भाषा और साहित्य के मुद्दों को समर्पित है. इसके संपादकों के रूप में पांडुरंग ढगे, शीलम वेंकटेश्वर राव, धोंडीराव जाधव और चंद्रदेव भगवंत राव कवडे ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. सहयोगी संपादक के रूप में सुरेश दत्त अवस्थी और अहिल्या मिश्र ने इसे साहित्यिक स्वरूप प्रदान करने के लिए पर्याप्त श्रम किया है. यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रतिष्ठान, हैदराबाद की पत्रिका ‘अग्रतारा’ का भी उल्लेख जरूरी है जिसने हिंदीतरभाषियों के लेखन को प्रमुखता से छापा. अनियतकालीन पत्रिका ‘राष्ट्रनायक’ 1963 से हरिश्चंद्र विद्यार्थी के संपादन में निकल रही है. इसके अलावा पुरुषोत्तम प्रशांत द्वारा प्रकाशित ‘काव्य वार्षिकी मध्यांतर’ ने अपने पांच अंक निकालकर देशभर के कवियों को हैदराबाद से जोड़ा. कहना न होगा कि इस अवधि (नवनिर्माण काल) में हैदराबाद की हिंदी पत्रकारिता ने चतुर्मुख विकास किया. पत्रकारिता पर चर्चाएँ भी आरंभ हुईं और शोध भी. पत्रकारीय लेखन के क्षेत्र में इस अवधि में नन्दकिशोर शर्मा (वेणु गोपाल), किशोरी लाल व्यास नीलकंठ, गोवर्धन ठाकुर, जे.वी.कुलकर्णी, विजय कुमार मलहोत्रा, मुरलीधर शर्मा, विजयराघव रेड्डी, मनोहर लाल व्यास, दुली चंद शशि (‘मुचकुंदा’ के संपादक वजन कवि), बजरंग राव बांगरे, नेहपाल सिंह वर्मा, अशोक मिश्र आदि कलमकार खास तौर से उभरकर सामने आए.

‘हिंदी पत्रकारिता : विविध आयाम’ (सं. वेदप्रताप वैदिक) में आंध्रप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता के मूल्यांकन के संदर्भ में डॉ.श्रीराम शर्मा ने 1976 में संकेत किया था कि आंध्रप्रदेश का तेलंगाना क्षेत्र आज एक ऐसे साप्ताहिक पत्र की प्रतीक्षा कर रहा है जो उसकी सांस्कृतिक और साहित्यिक आवश्यकता को पूरा कर सके. इस बात को आगे बढ़ाते हुए डॉ.गोपाल शर्मा ने 2000 में लिखा कि “यूँ तो शर्मा जी के सामने ‘मिलाप’ भी था, ‘हैदराबाद समाचार’ भी और आंध्रप्रदेश सरकार का ‘आंध्रप्रदेश’ भी, आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी का ‘संकल्य’ भी, फिर भी वे एक बेहतर पत्र चाहते थे. इस पत्र की चाह शर्मा जी के जीवन काल में पूरी न हो सकी. नवनिर्माण काल में ‘स्वतंत्र वार्ता’ (1996 से आरंभ) ने बहुत हद तक इस चाह को पूरा किया. इस पत्र के प्रकाशन ने दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता को बहुआयामी बनाया. (1996 से मार्च 2012 तक) इसके संपादक के रूप में डॉ.राधेश्याम शुक्ल दक्षिण के लेखकों एवं पाठकों को ऐसा मंच प्रदान करने में समर्थ हुए जिसकी आवश्यकता थी. उनके द्वारा संपादित ‘स्वतंत्र वार्ता’ दैनिक किसी भी राष्ट्रीय पत्र के समकक्ष बड़े गर्व के साथ रखे जाने योग्य पत्र के रूप में स्थापित हुआ तथा स्थानीय लेखकों एवं पत्रकारों को अपनी पहचान बनाने का एक और मौक़ा मिला.” 

1999 से हैदराबाद की हिंदी पत्रकारिता का वर्तमान काल आरंभ माना जा सकता है. नवंबर 1999 से यहाँ से गोविंद अक्षय के संपादन में कविता प्रधान मासिक ‘गोलकोंडा दर्पण’ का प्रकाशन आरंभ हुआ जिसे आरंभ से ही ऋषभ देव शर्मा, गोपाल शर्मा, नेहपालसिंह वर्मा, कविता वाचक्नवी, अमृत मेहता, पूर्णिमा शर्मा, दिलीप सिंह, वेणु गोपाल और भगवान दास जोपट जैसे स्थायी स्तंभकारों के लेखन ने अलग पहचान दी. लगभग इसी समय 2000 ईस्वी से ‘संकल्य’ ने भी अपने नए रूपाकार में वसंत चक्रवर्ती के प्रधान संपादकत्व में आलोचना प्रधान त्रैमासिक के रूप में नया अवतार लिया. इसे भी ऋषभ देव शर्मा और शुभदा वांजपे जैसे संपादकों ने देश भर में प्रतिष्ठा अर्जित करने में सहयोग दिया. चक्रवर्ती जी के निधन के पश्चात 2003 से टी.मोहन सिंह इसके संपादक हैं. हिंदी अकादमी, हैदराबाद के सचीव के रूप में गोरखनाथ तिवारी इसके प्रकाशक हैं. विगत दस वर्षों में ‘संकल्य’ हैदराबाद की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका बन गई है. इसके महादेवी वर्मा (2002), प्रेमचंद (2005,2006), दिनकर (2008), बच्चन (2009), आदिवासी विमर्श (2010) और जन्मशती (2011-12) विशेषांक देश भर में साहित्यिक हलकों में काफी चर्चित हुए हैं. 

हैदराबाद की हिंदी पत्रकारिता के संवर्धन में महिला पत्रकारों का योगदान भी अविस्मरणीय है. सीता युद्धवीर, विपमा वीर, नरेश बंसल, अहिल्या मिश्र, कमला रानी संघी, सरोज बजाज, मुखविंदर कौर, कविता वाचक्नवी, गुर्रमकोंडा नीरजा, रमा द्विवेदी, प्रतिभा गर्ग आदि ने संपादन, और स्तंभ लेखन को सुपारिभाषित स्त्री-स्पर्श प्रदान किया है. यहाँ अहिल्या मिश्र के प्रधान संपादकत्व में प्रकाशित अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘पुष्पक’ का उल्लेख भी आवश्यक है जिसके विगत पंद्रह वर्ष में 20 अंक प्रकाशित हो चुके हैं. कृष्णकुमार गोस्वामी, दिलीप सिंह, ऋषभ देव शर्मा, रमा द्विवेदी और लक्ष्मी नारायण अग्रवाल आदि के परामर्श और संपादन में ‘पुष्पक’ ने विविध विधाओं की साहित्यिक पत्रिका के रूप में दक्षिण भारत के हिंदी रचनाकारों को तो अखिल भारतीय मंच प्रदान किया ही है, देश भर के अनेक नए-पुराने रचनाकारों को भी दक्षिण में परिचित कराया है.

आंध्रप्रदेश भर में फैले हुए केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों के राजभाषा विभागों से अनेक हिंदी पत्रिकाएँ गृह पत्रिका के रूप में प्रकाशित होती हैं. इनमें यों तो अपने अपने विभाग की सूचनाएँ और गतिविधियाँ सम्मिलित होती हैं तथापि इनमें से कुछ राजभाषा पत्रिकाओं ने तकनीकी लेखन की दृष्टि से राजभाषा विभागों के बाहर भी अपना वैशिष्ट्य प्रमाणित किया है. जैसे सीसीएमबी, हैदराबाद से प्रकाशित ‘जिज्ञासा’, एनजीआरआई, हैदराबाद से प्रकाशित ‘वसुंधरा’, एनएमडीसी, हैदराबाद से प्रकाशित ‘खनिज भारती’, एनआईआरडी, हैदराबाद से प्रकाशित ‘ग्रामीण विकास समीक्षा’ और बीडीएल, हैदराबाद से प्रकाशित ‘पथिक’ आदि. 

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आंध्रप्रदेश में हिंदी पत्रकारिता का उदय यद्यपि अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में हुआ था परंतु स्वातंत्र्योत्तर काल में इस हिंदीतर राज्य में निरंतर बढ़ती हुई हिंदी की स्वीकार्यता ने हिंदी पत्रकारिता के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान किया और दैनिक समाचार पत्रकारिता, साहित्यिक पत्रकारिता तथा राजभाषा पत्रकारिता के विविध क्षेत्रों में आज राज्य की राजधानी हैदराबाद के अलावा विजयवाडा और विशाखपट्टनम से भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सफलतापूर्वक प्रकाशन हो रहा है. उल्लेखनीय है कि लोगों की सामाजिक-राजनैतिक जागरूकता तथा साहित्यिक अभिरुचि के निर्माण और परिष्कार में हिंदी की इन पत्र-पत्रिकाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा भारत की राष्ट्रभाषा-राजभाषा-संपर्कभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा में अपना-अपना योगदान दिया है.


  



















मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

'श्रीरामकथा का विश्वसंदर्भ महाकोश' के पहले खंड का लोकार्पण संपन्न




30 नवंबर 2021 को नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन के प्लेनरी हॉल में संपन्न "रामकथा में सुशासन" विषयक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के अवसर पर 56 खंडों के 'श्रीरामकथा विश्वसंदर्भ महाकोश' के पहले खंड 'लोकगीत और लोक कथाओं में श्रीरामकथा का संदर्भ' का लोकार्पण मुख्य अतिथि जी. किशन रेड्डी (संस्कृति, पर्यटन व डोनर मंत्री, भारत सरकार) ने अतिविशिष्ट अतिथि अश्विनी कुमार चौबे (पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री,भारत सरकार) तथा विशिष्ट अतिथिगण साध्वी प्रज्ञा ठाकुर (सांसद,लोकसभा), स्वामी परिपूर्णानंद, विजय गोयल, श्याम जाजू, प्रोफेसर दिलीप सिंह, प्रोफेसर विनय कुमार, प्रोफेसर प्रदीप कुमार सिंह, डॉ. अमित जैन एवं समारोह अध्यक्ष लक्ष्मीनारायण भाला की गरिमामय उपस्थिति में संपन्न किया।
इस अवसर पर बोलते हुए मुख्य अतिथि जी. किशन रेड्डी ने राम संस्कृति के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार-प्रसार के लिए साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था के कार्यों की प्रशंसा की तथा विश्वास प्रकट किया कि 56 खंडों के महाकोश के प्रकाशन की यह विराट योजना आगे और भी तीव्र गति से विकसित होगी। महाकोश के लोकार्पित प्रथम खंड के बारे में बताते हुए जी. किशन रेड्डी ने कहा की राम भारतवर्ष के आम जन के रोम-रोम में बसे हुए हैं, इसका जीता जागता प्रमाण हमारे सभी प्रान्तों, भाषाओं और समुदायों के लोकगीतों और लोककथाओं में राम कथा के प्रसंगों के गुँथे होने से मिलता है।


समारोह के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय से पधारे भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह ने की और संचालन दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के पूर्व प्रोफेसर डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने किया। "रामकथा में सुशासन" विषय पर न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की प्रोफेसर बिंदेश्वरी अग्रवाल, 'उपमा' केलिफोर्निया की प्रतिनिधि डॉक्टर अलका भटनागर और डॉक्टर हेमप्रभा एवं साठये महाविद्यालय, मुंबई से पधारे प्रोफेसर लोखंडे और डॉ. सतीश कनौजिया सहित विभिन्न विद्वानों ने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए और प्रोफेसर प्रदीप कुमार सिंह के द्वारा चलाए जा रहे चलाई जा रही 56 खंडों के महाकोश की प्रकाशन योजना का हार्दिक स्वागत किया। उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री डॉ. श्याम सिंह शशि ने विस्तार से देश विदेश की रामकथाओं में उपलब्ध रामराज्य के विवेचन के आधार पर प्रजा के राज्य को सुशासन का श्रेष्ठ रूप सिद्ध किया। आरंभ में अंतरराष्ट्रीय पाक्षिक पत्रिका 'चाणक्य वार्ता' के संपादक डॉ. अमित जैन ने अतिथियों का स्वागत सत्कार किया।

कार्यक्रम के दूसरे चरण में डॉ. विनोद बब्बर, डॉ रंजय कुमार सिंह, डॉ. नारायण, डॉ. शीरीन कुरेशी तथा डॉ.आशा ओझा तिवारी ने रामराज्य और सुशासन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला। इस सत्र की अध्यक्षता हंसराज कॉलेज, नई दिल्ली की प्रधानाचार्य प्रोफेसर रमा ने की और संचालन डॉ. भावना शुक्ल ने किया।


समापन सत्र में मुख्य अतिथि साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और अति विशिष्ट अतिथि अश्विनी कुमार चौबे के हाथों देश- विदेश के हिंदी सेवियों और राम संस्कृति के पोषक सहयोगियों का सम्मान किया गया तथा प्रो. ऋषभदेव शर्मा सहित कई विशिष्ट विद्वानों को "विश्व राम संस्कृति सम्मान" से अलंकृत किया गया। अवसर पर छत्तीसगढ़ से रामकथा की मंचीय प्रस्तुति के लिए पधारे लोक कलाकारों का भी 'चाणक्य वार्ता' और साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था की ओर से अभिनंदन किया गया। सम्मान सत्र का संचालन प्रो. माला मिश्रा ने किया।

शनिवार, 20 नवंबर 2021

'रामकथा का विश्वसंदर्भ महाकोश' का लोकार्पण और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 30 को


 



मीडिया विज्ञप्ति

 'रामकथा का विश्वसंदर्भ महाकोश' का लोकार्पण और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 30 को 


साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था (मुंबई) के तत्वावधान में "रामकथा का विश्वसंदर्भ महाकोश" के प्रथम खंड 'लोकगीत तथा लोककथाओं में श्रीराम का संदर्भ' का लोकार्पण दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में 30 नवंबर, 2021 (मंगलवार) को केंद्रीय राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे एवं राम साहित्य के विशिष्ट विद्वानों द्वारा किया जाएगा। 

संस्था के सचिव और महाकोश के प्रधान संपादक डॉ. प्रदीप कुमार सिंह ने जानकारी दी है कि इस अवसर पर  "रामकथा में सुशासन" विषय पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी भी संपन्न होगी। कार्यक्रम सुबह साढ़े आठ बजे से शाम साढ़े छह बजे तक चलेगा। रामनामी संप्रदाय तथा ललित सिंह ठाकुर द्वारा "छत्तीसगढ़ के वनवासी राम" पर विशेष प्रस्तुति दी जाएगी। प्रतिभागिता के लिए पंजीकरण https://www.shodhsanstha.com/ लिंक पर कराया जा सकता है।

रविवार, 9 अगस्त 2020

'तुलसी साहित्य की वर्तमान अर्थवत्ता' पर अंतरराष्ट्रीय वेबिनार संपन्न


'तुलसी साहित्य की वर्तमान अर्थवत्ता' पर अंतरराष्ट्रीय वेबिनार संपन्न

 

कोलकाता, 6 अगस्त ( मीडिया विज्ञप्ति) पश्चिम बंगाल की प्रमुख साहित्यिक संस्था  'बंगीय हिंदी परिषद, कोलकाता' द्वारा आयोजित तुलसी जयंती समारोहों  के अंतर्गत 'तुलसी साहित्य की वर्तमान अर्थवत्ता' विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया। समारोह की अध्यक्षता विख्यात कवि-समीक्षक तथा उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, हैदराबाद के प्राक्तन प्रोफेसर और अध्यक्ष डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने की। अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अनेक उदाहरण देकर वर्तमान में तुलसी  साहित्य की राजनैतिक, सामाजिक और विमर्शपरक अर्थवत्ता का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि तुलसीदास ने राजकाज और सामाजिक कार्यों में स्त्री की सम्मति को आवश्यक बताया है। डॉ. शर्मा ने आगे कहा कि तुलसी को शंबूक वध और सीता परित्याग दोनों स्वीकार नहीं हैं, क्योंकि  वे दलित और स्त्री के प्रति अन्याय का समर्थन नहीं कर सकते।

 

संगोष्ठी के प्रधान वक्ता, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के पूर्व प्रोफेसर और देश के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. देवव्रत चौबे ने कहा कि तुलसी का आज भी कोई विकल्प नहीं है। रामचरितमानस लोकमंगल की व्यापक अवधारणा का दुनिया के पास  इकलौता महाकाव्य है।

 

मुख्य अतिथि अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त स्त्री-चिंतक एवं डीएवीएसएस, ह्यूस्टन, अमेरिका की निदेशक डॉ. कविता वाचक्नवी ने कहा कि तुलसी साहित्य की मुख्य चिंता व्यक्ति-निर्माण, परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण की है। राम को समाज ने उनके गुणों के कारण नायक बनाया। राम और कृष्ण दो ऐसे चरित्र हैं जो पूरे विश्व को अन्याय से लड़ने की प्रेरणा देते रहेंगे।

 

तुलसी साहित्य के चिंतक और  वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रेमनाथ चौबे ने अपने बीज वक्तव्य में तुलसी साहित्य के उन पक्षों पर सविस्तार प्रकाश डाला जो जनसामान्य के लिए आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।उन्होंने माया, मनुष्य और हरि-तत्व के आपसी संबंधों पर भी प्रकाश डाला।

 

समारोह की शुरूआत परिषद के मंत्री डॉ. राजेंद्रनाथ त्रिपाठी के स्वागत वक्तव्य से हुई। वक्ता आचार्य कौशल्यायन शास्त्री ने कहा कि तुलसी के रामराज्य में स्त्री और दलितों के अधिकारों पर चर्चा की। विश्व भारती के हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ. जगदीश भगत ने कहा कि  कथा संरचना को औदात्य रूप देने के लिए तुलसी ने अतिरिक्त विवेक सजगता अपनाई है। कार्यक्रम का सफल संचालन परिषद के साहित्य मंत्री डॉ. सत्य प्रकाश तिवारी ने किया और धन्यवाद ज्ञापन परिषद की कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. राजश्री शुक्ला ने किया। लगभग तीन सौ श्रोताओं ने  इस आयोजन से लाइव जुड़कर इसे सफल बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

 

प्रस्तुतिडॉ. सत्य प्रकाश तिवारीसाहित्य मंत्री, बंगीय हिंदी परिषद, कोलकाता।