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रविवार, 17 अप्रैल 2022

(ऋषभदेव शर्मा) … नित प्रति धोक हमारा हो!

इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ कुल पृष्ठ 414 / द्रष्टव्य पृ.143-147

… नित प्रति धोक हमारा हो!
  • ऋषभदेव शर्मा


"पंच परमेष्ठी, गुरुवर शि. प्र. सिंह, आ. ह. प्र. द्विवेदी एवं अन्य सभी मेरे नमनीय अथ च प्रिय बने, सभी का स्मरण व नमन कर लिया है। 


-दास कबीर जतन ते ओढ़ी, जस की तस धर दीनी चदरिया-  लेकिन मेरी चादर बहुत मैली है-  इसमें मेरा दोष नहीं, फिर भी रखनी है ही। निराशा नहीं है- आशा है। यह तो लिख दिया है; चूँकि भविष्य समय के हाथ है। वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्ख शतान्यपि- सो मेरे पास है। मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ।


स हि गगनविहारी ज्योतिषां मध्यचारी।

दशशतकरधारी कल्मषध्वंसकारी।।

विधुरपि विधियोगात् ग्रस्यते राहुणासौ। 

लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितं कः समर्थः।।


देवराज! ऋषभ!

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्दुःख भाग भवेत् ।।

(आशा है, स्वस्थ होगे।)


सन्तानवत् शिष्य-शिष्याएँ एवं सन्तान प्रगतिपथ पर बढ़ें! भवितव्यता बलवती होती है। भ्रातृज-परिवार श्रेष्ठ है। मनोनुकूल है। हिमांशु, श्रद्धा साहस से काम लेना है। आशीष!


प्रिय गजेन्द्र-हेम-शिशु; प्रिय पूनम एवं अन्य सभी-सभी आगन्तुकों-शुभेच्छुओ को बहुत-बहुत आभार। 


दिनांक 23 सितम्बर, 2001:

2 बजकर 6 मिनट।"


      (डॉ. प्रेमचंद्र जैन, हम तो कबहुँ न निज घर आये: 2007, पृष्ठ 54)


… अर्थात, पूज्य गुरुदेव डॉक्टर प्रेमचंद्र जैन को ओपन हार्ट बायपास सर्जरी के लिए जाते समय अपनी आत्मज संतानों के साथ ही अपने शिष्यों का भी पूरा पूरा खयाल था। सर्जरी सफल रही। गुरुदेव स्वस्थ होकर घर आए। पूरे दो दशक उसके बाद वे प्रत्यक्ष रूप से हमें आशीर्वाद देते रहे। लेकिन एक दैनिक समाचार पत्र के हाशिये पर, नर्स से लिए बॉलपेन से   अंकित, इस ऑपरेशन से पूर्व का उनका यह बयान उनके हृदय की विशालता का ही प्रतीक नहीं, हमारे (खास तौर से मेरे!) प्रति उनके अहेतुक स्नेह का घोषणापत्र भी है। ठीक है कि उन्होंने उस क्षण में डॉक्टर देवराज को याद किया। देवराज और पीसी जैन एक जमाने में पर्याय की तरह जाने जाते थे न! लेकिन मुझ अकिंचन का स्मरण क्यों किया होगा, यह समझने में मैं असमर्थ हूँ। मैं तो प्रायः उन्हें बस दूर- दूर से देखते रहने वाला चकोर भर था! प्रोफेसर देवराज अगर यह पुस्तक (हम तो कबहुँ न निज घर आये, 2007, रुड़की: सिद्धांताचार्य पंडित फूलचंद्र शास्त्री फाउंडेशन) मुझे न भेजते और भाई दानिश जी ने कुछ लिखने को बार-बार न कहा होता, तो शायद इस प्रसंग से में अनजान ही रह जाता। गुरुदेव ने इस कथन को इस पुस्तक में 'मृत्यु-पूर्व सही होश-ओ-हवास में दिए गए लिखित बयान' के रूप में उद्धृत किया है। इसके पुनरवलोकन को उन्होंने 'आत्म-परीक्षण करने का सुअवसर'  माना है। इससे उन्हें 'संस्कारों को शाणित करने का भरपूर सुयोग'  मिला और वे जीवन और मृत्यु के द्वंद्व से ऊपर उठ सके। आयु के अंतिम दो दशक उनके भीतर दिव्य आभा के प्राकट्य के वर्ष थे। इस अवधि में वे सचमुच 'प्रेम' का सर्वसुखकर 'चंद्र' बन गए थे। राहु भी अब उन्हें नहीं ग्रस सकता था- विधुरपि विधियोगात् ग्रस्यते राहुणासौ! 'हम तो कबहुँ न निज घर आए' इसी आत्म-परीक्षण और दिव्यता के अवतरण का साक्ष्य है। इस कृति के बहाने संत वाणी के निरंतर चिंतन-मनन-कीर्तन से वे समस्त कषायों और कल्मषों से मुक्त हो गए। यह कृति उनके पवित्र और निष्कलुष हृदय की वाणी है। बालपने से ही अपने अत्यंत प्रिय कविवर दौलतराम जी की रचनाओं के सहारे इस कृति में उन्होंने अपनी अध्यात्म यात्रा में भी पाठकों को शामिल होने का शुभ अवसर दिया है। ऐसी गहन अनुभूतिप्रवण रचना पर कुछ कहने-लिखने की अपनी अपात्रता से मैं परिचित हूँ, इसीलिए टाल रहा था। लेकिन अग्रजों के आदेश का पालन न करूँ तो अपराध होगा, इसलिए ये कुछ शब्द …! 


कहूँ तो ज़्यादती नहीं होगी कि इस पुस्तक के हर पन्ने से गुरुदेव झाँक रहे हैं और हर शब्द में सीधे हमसे बतिया रहे हैं। उन्हें 'निज घर' न पहुँच पाने की कवि दौलतराम की पश्चात्ताप-जनित छटपटाहट और मर्मांतक वेदना अपनी वेदना महसूस होती है। यही वेदना अंततः उन्हें वेदना से मुक्ति के उस आकाश तक ले गई, जहाँ मुक्त आत्माओं का 'निज घर' है। अंतर्वेदना के समान धरातल को पाने के लिए वे बार-बार अतीत में गोता लगाते हैं और संतवाणी का कोई ऐसा सुथरा मोती खोज लाते हैं जिसकी आब में परमतत्व के चिन्मय आलोक की मृदु-मधुर अनुभूति मिलती है। यह ऐसी भाव दशा है जब साधक 'भवसागर के मिथ्या दुःखों-सुखों को छोड़कर सच्चे सुख को भक्ति के माध्यम से प्राप्त करने का लक्ष्य' साध लेता है। अपनी इस उपलब्धि को इस कृति के माध्यम से वे हम सबको (लोक को) सौंप गए हैं। 


तीर्थंकरों, संतों और भक्त कवियों के हवाले से इस कृति में लेखक ने 'निज घर' तक पहुँचने की राह में महाठगनी माया से बचने और पिंड छुड़ाने का सीधा सा तरीका गब्बर सिंह के स्टाइल में बताया है- 'जो सम्यग् रत्न त्रय के दुर्गम पथ पर निडर होकर  बढ़ गया, वह तर गया।' (वरना तो, जो डर गया, समझो, मर गया!) दर्शन-ज्ञान-चरित्र के इस सम्यग् मार्ग का प्रतिपादन करते हुए लेखके ने सर्वत्र स्वानुभव पर ज़ोर दिया है और गतानुगतिकता से बचने की सलाह दी है। वे मानते हैं कि किसी विशेष तापमान की अग्नि में तपने के बाद स्वर्ण कुंदन बनता है, तो किसी विशेष दबाव के कारण कोयला हीरा बन जाता है। इसी तरह अध्यात्म के शिखर पर अवस्थित 'निज घर' तक आने के लिए 'पर घर' तो छोड़ना ही पड़ेगा। तप-साधना-आराधना के बिना आत्म-कल्याण संभव नहीं। यहीं डॉ. प्रेमचंद्र जैन यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि 'निज घर' की तलाश में निकलने वाले को पाखंडों के पचड़े से भी बचना होगा। वे बताते हैं, "जैन दर्शन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में मेरी आस्था है। पाखंड, द्वेष, मतवाद, जाति-वर्णवाद के पचड़ों में मेरा विश्वास नहीं है।… निर्ग्रंथ गुरु एवं देव-शास्त्र मेरे उपास्य हैं। अनेकांतवाद का दृष्टिकोण शिरोधार्य है।" यही कारण है कि दौलतराम के काव्य-स्फटिक में उन्हें मानव संस्कृति की तमाम उदात्त छवियाँ अलौकिक नृत्य करती दिखाई देती हैं। कोई आग्रह-पूर्वाग्रह-दुराग्रह नहीं। ज़ोर है तो बस अनुभव पर- "जीवन में अनुभव इसलिए भी सार तत्व हैं, क्योंकि इन्हीं से स्वयं आत्मा से आत्मा की पहचान और उसी आत्मा में परमात्म-तत्व की व्याप्ति दिखाई देती है।" तभी तो किसी कबीर को वह सबसे न्यारा निज घर मिलता है जहाँ 'पूरन पुरुष हमारा' निवास करता है! गुरुदेव अपने पाठकों को उस घर का बोध कराना चाहते हैं- 'जहँ नहिं सुख-दुख साँच-झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा!'


'निज घर' न आने का सीधा सा कारण है, 'पर घर' में भरम जाना, रम जाना। इसी का नाम आत्म-विस्मृति है। लेखक ने कई रोचक दृष्टांत देकर जीव के स्मृति-लोप के इस रोग की पहचान कराई है। पहचान होगी, तभी तो इलाज किया जा सकेगा। रोग बड़ा गहरा है। तन या मन नहीं, आत्मा का। "संसार का यही खेल है। जीव को आत्म-जागीर प्राप्त हुई है। वह सांसारिक बंधनों के कारण मोह-नींद से नहीं जाग पाता। उसकी सारी की सारी आत्म-जागीर आत्म-विस्मृति रूपी बकरी चट कर जाती है।  विषय-वासनाओं के रूप में बकरियों का दल अपने पीछे दौड़ता रहता है। हमारी मोह-नींद नहीं टूटती। आत्म-विस्मृति के कारण ही यह जीव अनादिकाल से भटक रहा है।" जीव अगर यमराज के भयावह नगाड़ों की गर्जना सुन ले, तो संसार की असारता और अपनी भ्रम-नींद का बोध हो जाए। बुद्ध और सिद्ध बनने की राह इसी बोध से जाती है। लेखक कविवर दौलतराम की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर चेताते हैं- 


जम के रव बाजते, सुभैरव अति गाजते।

अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई।।


'बोध' प्राप्त होने पर 'बुद्धिमान' (धी-धारी)जीव संसार की नश्वरता और मोहजाल में न फँसकर  मोक्ष-मार्ग के राही बन जाते हैं। पेंच यहीं तो फँसा है। किसी के चेताने से कहीं बोध होता है? नहीं। वह तो खुद के जागने से संभव है। इसीलिए पांडित्य का अर्थ बोध नहीं है। वह तो बोझ भर है। पंडित सकल शास्त्र की व्याख्या भले कर लें, अगर नहीं जानते कि देह में ही बुद्ध का वास है, तो आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो सकते। निर्वाण के लिए पांडित्य नहीं, वह बोध ज़रूरी है जो कर्म-निर्जरा का आधार बन सके। यह तब तक संभव नहीं, जब तक जीव 'पर घर' को 'निज घर' 'माने बैठा' है। कवि दौलतराम का यह अमर गीत अगर एक बार भी 'अनुभव' में आ जाए, तो यह 'मान' बैठने की जड़ता टूट सकती है- 


"हम तो कबहुँ न निज घर आये।

पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये।।

पर पद निज पद मानि मगन ह्वै, पर परनति लपटाये।

शुद्ध बुद्ध सुख कंद मनोहर, चेतन भाव न भाये।।

.......

यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये।

'दौल' तजौ अजहुँ विषयन को, सतगुरु वचन सुहाये।।

हम तो कबहुँ न निज घर आये।"


गुरुदेव जैन-दर्शन की बारीकियों की सरल व्याख्या करने के बाद दौलत-वाणी का मर्म समझाते हैं - दूसरों के घरों में घूमते-घूमते हमने अनंत काल बिता दिया। वहाँ-वहाँ न जाने कैसे-कैसे नाम रखे गए। हम अपने घर कभी नहीं आए। अध्यात्मपरक भाव यह है कि कवि निरंतर आत्मा में पछताता है और व्यग्र होता है कि यह भूल क्यों हो गई कि मैं अपने स्वरूप को न पहचानने के कारण अनादि काल से ही भटकता फिर रहा हूँ। फिर भी आत्म- परिणति प्राप्त नहीं कर सका। पर-परिणतियों में ही घूमते हुए न जाने कितने भव व्यतीत हो गए, फिर भी निज घर नहीं आया! साथ ही यह बोध भी कि इसी भूल ने हमारा विनाश किया है। अब यह समझ में आने के बाद पछताते हुए हाथ पर हाथ रखे बैठने से भी क्या लाभ? जितनी वेदना झेलनी थी, कहीं  उससे अधिक पापड़ बेल चुके। हम अपने सतगुरु के उपदेश पर विश्वास करते हुए आज भी विषयों को त्याग कर सांसारिक आसक्ति-मोह आदि पर-पदार्थों से दूर हो लें, तो कोई कारण नहीं कि हमारी इस भूल में सुधार न हो। हमें निराश होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन जागना तो हमीं को पड़ेगा। किसी और के जागे हमारी मुक्ति न होगी। यहाँ आकर डॉ.  प्रेमचंद जैन  कविवर दौलतराम को गोस्वामी तुलसीदास की वाणी में इस तरह पहचानते हैं-  अब लौं नसानी, अब न नसैहौं।/  राम-कृपा भव-निशा सिरानी, उर-कर तैं न खसैंहौं।। 


अंततः इतना ही कि इस आत्मबोध की सिद्धि और मृत्युभय पर विजय के बाद उपलब्ध 'ऋषित्व' का प्रसाद है गुरुदेव की यह कृति- 'हम तो कबहुँ न निज घर आये'। उन्होंने स्वानुभूति से, आत्मानुभव से 'निज घर' को भली प्रकार चीन्ह लिया था। एक बार पहचान हो गई, तो 'धी-धारी' इस जगत में न 'राचता' है, न 'नाचता' है। वह आत्मा-राम ही तो अनासक्त भाव से कर्म-निर्जरा और जीवन्मुक्ति को उपलब्ध हो पाता है! यह ग्रंथ गुरुदेव  के जीते-जी  'निज घर' आने की 'साखी' है। कविवर दौलतराम के शब्दों में-


'दौलत' ऐसे जैन जतिन को,

नित प्रति धोक (नमन) हमारा हो! 000


  • ऋषभदेव शर्मा

208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद- 500013. मो. 8074742572. rishabhadeosharma@yahoo.com 

शनिवार, 16 अप्रैल 2022

(डॉ. मंजु शर्मा) डॉ. प्रेमचंद्र जैन : जितना मैंने उन्हें समझा

डॉ. प्रेमचंद्र जैन : जितना मैंने उन्हें समझा                                       

  • डॉ. मंजु शर्मा

अध्यापक को राष्ट्र का भाग्य निर्माता कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।  विषय विशेषज्ञ, शोध निर्देशन करने वाले, राष्ट्रीयता और संस्कृति के पोषक और संवाहक तथा स्वस्थ सामाजिक परंपराओं को आगे ले जाने वाले तथा कुप्रथाओं को तोड़ने एवं समाज को सकारात्मक दृष्टिकोण देने वाले अर्थात विचारक, लेखक, ज्ञानवर्धक और साधक क्या-क्या कहा जाए; जितना कहा जाए कम है।  ये सारे गुण गुरु पद को सुशोभित करने वाले रश्मिपुंज, ‘गुरुजी’ नाम से विख्यात डॉक्टर प्रेमचंद जैन के व्यक्तित्व में रहे होंगे; उनके साहित्य की एक झलक यह विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त है। उनके अपने संस्मरण और उनके बारे में उनके निकटस्थों के संस्मरण पढ़ कर मुझे मलाल हुआ कि ऐसे संत और मनीषी का सान्निध्य मुझे नहीं मिल सका। जिन्हें मिला, वे धन्य हैं। लेकिन मैं भी कम भाग्यशाली नहीं हूँ क्योंकि मुझे कृतित्व रूपी अक्षरवतार का सान्निध्य मिला है। वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अक्षय अक्षर रूप में वे सदा उपलब्ध रहेंगे- 'नास्ति येषां यशः काये, जरा मरणजं भयं!' 

मेरे मन में उनकी एक छवि बनी है। सब प्रकार से जागरूक एक सम्पूर्ण शिक्षक की छवि! उन्होंने कक्षा और पाठ्यक्रम से पार भी आजीवन अपने विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया।  अनुशासन प्रिय गुरुजी ने अक्खड़ विद्यार्थियों को अनुशासन में चलना सिखाया, तो शिक्षक-संघ के अध्यापकों के लिए संघर्ष भी किया। इन्होंने  विद्यार्थीजन  के बीच खूब लोकप्रियता अर्जित की। वे केवल शिक्षक नहीं, सद्गुरु थे। उनकी कृतियाँ भी उनके समान ही ज्ञान का पुंज हैं। वे भी गुरु हैं। व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक।  ’गुरु बिन ज्ञान कहाँ’ – गुरु दीपक है जो शिष्य या क्यों कहें कि पूरे समाज को प्रकाशमान करता है। उसकी रोशनी में शिष्य निरंतर चलता रहता है। अबाध गति। डॉ. प्रेमचंद्र जैन का शिष्यों से रिश्ता  दूध और पानी की तरह सायुज्य का रिश्ता था।  थे। अलग करना असंभव। इस अपनत्व के अनुभव को बस  ऐसे ही  लिखा जा सकता है- 

“वे मृत्यु सत्य, मैं जीव सत्य

 इस भेद सत्य का नहीं अंत

      मैं देवराज ,मैं प्रेमचंद्र ।“

धन्य हैं वे शिष्य जिन्होंने ऐसा संपूर्ण गुरु पाया, जहाँ दोनों  आत्मसात हो जाते हैं! (निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, पृष्ठ:395) 

डॉक्टर प्रेमचंद जैन की सूझबूझ तथा सतत प्रयासों से नजीबाबाद में लेखक सम्मेलन तथा साहित्य कुंभ जैसी अंतरराष्ट्रीय ख्याति की योजना का जन्म हुआ। उनके विचारों ने हिंदी को पुष्पित-पल्लवित किया, जन-जन की वाणी बनाया।  आपकी प्रवृत्ति कुछ कर गुजरने की थी हथेली पर चलकर भी और लीक से हटकर भी! इसी दीवानगी के बल पर वे समाज के हर वर्ग के लोगों को साथ लेकर नजीबाबाद को  हिंदी आंदोलन के नक्शे पर पहचान दिला सके।

डॉ. प्रेमचंद्र जैन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साथ ही, वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे।  उनकी वाणी मधुर और साहित्य तथा ज्ञान की अमृत-वर्षा करती थी। चंद्रमणि रघुवंशी कहते हैं –  “कृशकाय डॉ. प्रेमचंद्र जैन प्रभावशाली व्यक्तित्व न होने के बावजूद अपने ज्ञान की बपौती के बूते पर, मिलने वाले प्रत्येक अपरिचित पर अमिट प्रभाव छोड़ने में सदैव सफल रहते हैं उनकी विनम्रता 'सोने में सुहागा'  की कहावत को चरितार्थ करती  है।” उनका सान्निध्य  पाकर लोग स्वयं को बड़भागी समझते थे। उनका सहज स्वभाव निस्वार्थ प्रेम के कारण सबको आकर्षित करता था।

डॉ. प्रेमचंद्र जैन प्रसिद्ध जैन-धर्म-मर्मज्ञ भी  थे;  जैन लोगों के जीवन में आई कुरीतियों को बाहर निकालने में अग्रसर थे । वे पढ़ाते समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की सबसे अधिक चर्चा करते थे।  उनके पढ़ाने की शैली अनोखी थी।  सरलता और तरलता वाणी से झलकती थी। संस्कृत के श्लोक पूरी तरह गाकर पढ़ाते, तो काव्यशास्त्र की व्याख्या करते समय फिल्मी गीतों का सहारा लेते। विद्यार्थियों को बाँधे रखते। साथ ही बार-बार प्रश्न पूछना भी जारी रखते। यह शिक्षण का उनका छात्राभिमुखी तरीका था।  विद्यार्थियों से जुड़ने का जुगाड़ करते! महज़ पाठ्यक्रम पूरा करना उनका उद्देश्य नहीं था। बल्कि विद्यार्थियों को आजीवन  सीखने- सिखाने पर बल देते थे। ।

विद्यार्थियों के साथ उनका।एक आत्मीय संबंध था। वे  सबके प्रेरणास्रोत थे –

“उठो ! मेरे दुलार ! और आकाश छूलो।

बढ़ते चलो चरण-चरण, गिरतों को संभाल लो।” 

(वही, पृष्ठ संख्या : 394) |

यह अध्यापक और छात्रों के बीच का वह मानस है जहाँ शिष्यों का स्नेह, गुरु की गरिमा, नागरिक का दायित्व और सृजनकर्ता की रचनाधर्मिता व्याप्त है। उनकी कबीर की सी निरहंकार अक्खड़ता और निर्भीक स्पष्टता से शिक्षकों को मार्गदर्शन मिलता है। हर शिक्षक को उनकी यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए- “मेरी धारणा है कि जो शिक्षक अपने कार्य को सत्य, निष्ठा एवं पूरी ईमानदारी से अंजाम देगा, वह कभी मात नहीं खाएगा।” (वही, पृष्ठ :417)। यह उनके स्वानुभव का सार है। 

‘गुरु’, मार्गदर्शक , समाज के नीति निर्धारक के  अतिरिक्त  डॉ. प्रेमचंद्र जैन को  साहित्य साधक के रूप में भी देखा जा सकता है।  उन्होंने ‘ढाई आखर प्रेम के’ आलेख मरीन हिंदी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा के बारे में अनूठी और विस्तृत जानकारी दी है। उनकी यह स्थापना की भ्रांतियों का निराकरण करने मरीन समर्थ है कि हिंदी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा न केवल अपने पूर्ववर्ती साहित्य से प्रेरित है, बल्कि वह भारतीय  संस्कारों के समन्वय का दर्पण भी है। वे सूत्र देते हैं कि प्रेम सदैव अनुभूतिपरक रहा है। अतएव  प्रेम को किसी परिभाषा के घेरे में अनुकीलित नहीं किया जा सकता।(वही, पृष्ठ:.139)।

डॉ.  प्रेमचंद जैन की सामाजिक चेतना भी बड़ी प्रखर दिखाई देती है। दरअसल वे निरे निष्क्रिय बौद्धिक जीव नहीं थे। बल्कि समाज उनके लिए साहित्यिक स्थापनाओं की प्रयोगशाला था। सामाजिक प्रतिबद्धता के कारण ही वे मुखर स्वर में भारतीय समाज में महिलाओं की उपेक्षा के खिलाफ आवाज़ उठाते दिखाई देते हैं। स्पष्ट है कि वे स्त्री को समाज की संरचना का मुख्य आधार मानते थे। संसार में व्याप्त जाति, वर्ण, धर्म और वर्ग के दायरे से बाहर उन्होंने केवल नर और मादा दो जातियों की धारणा को महत्व दिया। वे जातियों, जनजातियों,  उपजातियों के व्यवस्था को आपसी वैमनस्य का हेतु और अमानवीय मानते थे।   उन्होंने यह भी लक्षित किया कि महिलाओं की उपेक्षा केवल भारत में हो, ऐसी बात नहीं है।  यह पीड़ा तो विश्व की हर महिला को भोगनी पड़ती है। उन्होंने तथाकथित सभ्य  देशों पर गिरे परदों  को हटा कर यह दिखाने का साहस किया कि वहाँ भी स्त्री उतनी ही तिरस्कृत और अपमानित है, जितनी बर्बर देशों में।  महिलाओं के प्रति उपेक्षा-भाव भारतीय समाज में तो खैर व्याप्त है ही, पर विश्व के अनेक देशों के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक ग्रंथों से महिलाओं के प्रति उपेक्षा पूर्ण रवैये का ब्यौरा मिलता है। उदाहरण के लिए प्राचीनकाल में रोम राज्य यूरोप की नाक समझा जाता था, परंतु वहाँ की स्त्रियों को नंगा रखा जाता था और दंड  देने के लिए उनके लंबे- लंबे बाल छत की कड़ी से बाँध कर लटका दिया जाता था। (वही, पृष्ठ 150)। इस तरह के विवरणों के बहाने डॉ. प्रेमचंद्र जैन नारी जाति को जागृत कर उसके अपनी पहचान समझने के लिए आगे आने पर बल देते हैं। उनका मानना है कि  तब तक स्त्रियाँ उपेक्षित होती रहेंगी, जब तक वे  स्वयं की  शक्ति को नहीं पहचानेंगी और इसके लिए विदुषियों  को आगे आकर  शिक्षा-शिक्षण की पद्धति में सुधार करना होगा। वे स्त्री विमर्श तक ही नहीं रुकते, हरित विमर्श के क्षितिज को भी छूते हैं। उन्होंने बहुत पहले यह प्रतिपादित किया है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य में पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण को महत्व दिया गया है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमने इसे भुलाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। पर्यावरण की समस्या और संरक्षण आज ज्वलंत वैश्विक मुद्दा बना हुआ है।  डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने ‘अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना’ शीर्षक शोधपत्र में पर्यावरण संरक्षण पर बल दिया है और इसके माध्यम से बताया है कि प्रकृति में समतोल है, सौंदर्य है, शांति है और धैर्य है। 

कुल मिलाकर, मेरे लेखे  'गुरुजी'  डॉ. प्रेमचंद्र जैन का विज़न अत्यंत  व्यापक और विस्तृत है जो उनके व्यक्तित्व की विराटता और उदात्तता का दर्पण है। अंत में कबीर की इस साखी के साथ उनकी पूण्य-स्मृति को नमन कि-

"सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।

सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिख्यो न जाय।।’’ 000

  • डॉ. मंजु शर्मा,

विभागाध्यक्ष (हिंदी),  चिरेक इंटरनेशनल स्कूल, हैदराबाद। manju.samiksha@gmail.com  Ph : 9247770219.


द्रष्टव्य-

 

इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 357-360.


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

(डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा) और जितने दीप हैं, मैं सभी में हूँ!

और जितने दीप हैं, मैं सभी में हूँ!

  • गुर्रमकोंडा नीरजा  

                    [1]

“मैं चला नजीबाबाद -

नसीबाबाद समझकर आया 

सर्वत्र प्रेम ही पाया 

'गर मिलता भी है गरल 

उसे जगदीश निगल जाते हैं।” (प्रेमचंद्र जैन, गरल जगदीश निगल जाते हैं)।


सच में नजीबाबाद धन्य है। धन्य क्यों नहीं होगा, उसने ‘गुरु जी’ का असीम प्रेम जो पाया! ‘गुरु जी’! हाँ, इसी नाम से जाने जाते हैं डॉ. प्रेमचंद्र जैन जी - मेरे गुरु के गुरु के गुरु। इस अर्थ में वे मेरे परदादा गुरु हुए। इस गुरु-शिष्य परंपरा के कारण ही मुझे परदादा गुरु का अहेतुक स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हुआ।  

जब 2015 में गुरु जी के सम्मान में ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’ ग्रंथ की तैयारी हो रही थी, तो मुझे भी उस सारस्वत यज्ञ में गिलहरी के समान सहयोग करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 2016 में जब ग्रंथ प्रकाशित होकर आया, तो उन्हें समर्पित करने का निश्चय किया गया था। 3 दिसंबर, 2016 को अभिनंदन समारोह का आयोजन दिल्ली में हुआ था। सुबह 8 बजे दिल्ली पहुँचना था। लेकिन मेरा भाग्य का खेल कि गाड़ी रात को 8 बजे दिल्ली स्टेशन पहुँची। मैं विचलित होती रही कि गुरु जी से मिले बिना ही मुझे वापस लौटना पड़ेगा। लेकिन देवराज जी और ऋषभदेव शर्मा जी ने मुझे हिम्मत नहीं हारने दी। जब आयोजन स्थल पहुँची तो देखा, गद्दी बिछे हुए मंच पर गुरु जी शांत मुद्रा में बैठे हुए थे, लेकिन चेहरे पर थोड़ी सी परेशानी दिखाई दी। मेरे कारण गुरु जी को परेशानी जो झेलनी पड़ी। पहली बार गुरु जी का साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ। (अखण्डमण्डलाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम्। तत्पदम् दर्शितम् येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥)

गुरु जी का भरपूर आशीर्वाद बटोरकर मैं वापस हैदराबाद लौटी। उसके बाद से समय-समय पर गुरु जी से फोन पर बात हो ही जाती थी। त्योहार के दिन तो गुरु जी के फोन से नींद खुलती थी। उनके आशीर्वाद और स्नेह की वर्षा में मैं भीग चुकी हूँ। (कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।/ अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराइ।) आज भले ही गुरु जी भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्मा हमारे साथ है और हमें असीसती रहती है। पग-पग पर उनकी उपस्थिति का अहसास होता है, क्योंकि गुरु जी के साथ आत्मिक रिश्ता जो बन गया था- जो अटूट है। गुरु जी के शब्दों में कहूँ तो -

‘भावनाओं से जुड़ा प्रेम

अटूट होता है’ (प्रेमचंद्र जैन, प्रेम) 

                   [2]

प्रेम के पीर   

डॉ. प्रेमचंद्र जैन स्वाभिमानी, कर्मठ और अदम्य साहसी थे। उनके स्वभाव के संबंध में डॉ. देवराज का यह कथन उल्लेखनीय है- “स्वभाव से खिलंदड़ और हँसोड़।” (शर्मा:2016:61)। नित्यानंद मैठाणी कहते हैं कि शरीर से तो वे दुबले-पतले थे किंतु उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि सभी उनसे डरते थे। उनसे एक बार यदि कोई मिलते तो उन्हें आजीवन भूल नहीं सकते। ऐसे थे गुरु जी। अपरिचित व्यक्ति से भी ऐसे मिलते जैसे उन्हें बरसों से जानते हों। उनके व्यक्तित्व में विद्वत्ता और वत्सलता के संगम को देखा जा सकता है। उन्हें यदि प्रेम का 'पीर’ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं।   

जैन परंपरा के मर्मज्ञ विद्वान थे डॉ. प्रेमचंद्र जैन। जैन धर्म अपनी मान्यताओं, स्थापनाओं, कर्मकांड और रूढ़ियों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन वे इस धर्म में घुस आए पाखंडों और रूढ़ियों का खुलकर विरोध करते थे। इतना ही नहीं, वे जैन लोगों के जीवन में जमी कुरीतियों की धज्जियाँ भी उड़ाते थे। वे धर्म को लोकहित-कारक के अर्थ में स्वीकारते थे। उनके अनुसार धर्म कर्तव्य है। वे बार-बार यही कहते थे कि “धर्म का लोकहित-कारक अर्थ ‘कर्तव्य’ को ही स्वीकार करना चाहिए। हिंदू-मुस्लिम-ईसाई आदि संप्रदाय या मत मानने से विवादों को विराम देने का मार्ग प्रशस्त नहीं होता है। मेरा इसी प्रकार का विश्वास है। कर्तव्य और धर्म शब्द प्रायः एक ही संदर्भ में प्रयुक्त करने से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।... मैं अपने अनुभव के आधार पर कहूँगा कि वर्तमान में धर्म और कर्तव्य की व्याख्या ही बदल गई। इसी के कारण व्यक्ति अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति घनघोर उपेक्षा के लिए लेशमात्र शर्मसार होने को तैयार नहीं है।” (शर्मा:2016:406)    

प्रेमचंद्र जैन जीवन भर ढाई आखर प्रेम को ही महत्व देते रहे। उनके अनुसार “प्रेम सदैव अनुभूति परक रहा है, अतएव प्रेम को किसी परिभाषा के घेरे में अनुकूलित नहीं किया जा सकता। प्रेम मानव-स्वभाव की ही संपत्ति हो ऐसी बात नहीं है। वह तो पशु-पक्षियों में भी विद्यमान है और यदि प्रेम की सत्ता को प्राणिमात्र में भी स्वीकार किया जाए तो वह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।” (शर्मा:2016:139)। उनके अनुसार जिस व्यक्ति में प्रेम की पीर जागृत हो गई, उसका जीवन सार्थक है। वे भावनाओं से जुड़े हुए प्रेम को ही महत्व देते थे।   

डॉ. प्रेमचंद्र जैन मानवता के पक्षधर थे। धर्म और संप्रदाय के कटघरे में वे फिट ही नहीं होते। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वे सही अर्थों में सामाजिक थे। उनके गुणों के बारे में उन्हीं के शब्दों से जान लें - “ज़मीन का आदमी था, समाज से जुड़ा था। तमाम सारे छात्र-छात्राओं की समस्याएँ, उनके निदान और दूर करने के उपाय; विविध शैक्षणिक सामाजिक संस्थाओं में होने वाले समारोहों-आयोजनों में शिरकत करने के लिए; अपने अध्ययन-अध्यापन के उत्तरदायित्व को मनसा-वाचा-कर्मणा निभाते हुए समय देना - हर किसी के लिए संभव नहीं होता। मुझमें इसी प्रकार के बहुचर्चित गुण-दोष थे।” (शर्मा:2016:404)। अपने इन्हीं गुण-दोषों के कारण वे अपने विद्यार्थियों और नजीबाबाद वासियों के निकट थे और उन्हें बहुत प्रिय थे। नजीबाबाद में न ही उनका जन्म हुआ और न ही शिक्षा-दीक्षा। यह तो उनकी कर्मभूमि थी। लेकिन वे नजीबाबाद के ही होकर रह गए - उनका काबा और काशी यही नजीबाबाद था। उन्होंने इस बात को स्पष्ट किया कि “यहाँ मेरे बस जाने या रुक जाने के निजी कारण हैं और पूर्णतः स्वांतः सुखाय हैं।” (शर्मा:2016:406) 

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सदैव तत्परता 

डॉ. प्रेमचंद्र जैन एक ऐसे व्यक्ति थे जिनमें अदम्य जिजीविषा और कुछ करके दिखाने की भरपूर इच्छा शक्ति थी। यह बात उनके गुरु डॉ. शिवप्रसाद सिंह के कुछ पत्रों से भी स्पष्ट होती है- “तुम संकल्प को यथासमय सही ढंग से पूरा करने में सदैव तत्पर रहे हो।” (शर्मा:2016:330)। प्रेमचंद्र जैन कहते तो कुछ नहीं, बल्कि करके अवश्य दिखा देते थे। वे बहुत ही साहसी थे। वे जो कार्य हाथ में लेते थे, उसे पूरा करने तक दिन-रात एक कर देते थे। शिवप्रसाद सिंह के अभिनंदन ग्रंथ के लिए आलेख संग्रहीत करते समय उन्हें बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ा होगा। गुरु अपने शिष्य को परेशान होते नहीं देख सकते, इसीलिए शायद शिवप्रसाद सिंह ने उन्हें एक पत्र (8.8.88) लिखा था- “तुम इतना अस्वस्थ रहते हुए भी शिवप्रसाद नामक व्यक्ति के लिए क्यों छटपटा रहे हो? क्या किया शिवप्रसाद सिंह ने? पूरी ज़िंदगी बस एक अपढ़ गँवार व्यक्ति के अनुभव ही तो मिले- वह भी सिर्फ उन्हें जो अपने को पाठक कहते हैं।” (शर्मा:2016:331)। लेकिन प्रेमचंद्र जैन जिद्दी भी कम नहीं थे। उसी जिद के परिणाम स्वरूप हिंदी साहित्य जगत को शिवप्रसाद सिंह का अभिनंदन ग्रंथबीहड़ पथ के यात्री’ प्राप्त हुआ। (जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहिं न कछु संदेहू। - मानस)

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गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई 

प्रेमचंद्र जैन शिष्य वत्सल गुरु थे। माता-पिता से प्राप्त सुलभ संस्कारों के साथ-साथ गुरुजनों द्वारा प्रदत्त ज्ञानराशि से वे आजीवन बँधे रहे। उन्होंने स्वयं यह स्वीकृत और घोषित किया कि “गुरुवर डॉ. शिवप्रसाद सिंह और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व के नैकट्य से जो मूल मंत्र ग्रहण किए थे, वे मेरे अंतिम समय तक साथ रहेंगे।” (शर्मा:2016:406)। इन मंत्रों में एक मूल मंत्र है- “अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक सर्व के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता, तब तक स्वार्थ खंड सत्य है, मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय कृपण बना देता है। कार्पण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहृत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है, वह स्पष्ट नहीं देखा पाता, वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।” (शर्मा:2016:406)। इन मंत्रपूत वाक्यों से प्रेमचंद्र जैन हमेशा ही सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने की शक्ति प्राप्त करते रहे। इसीलिए शिष्यों के लिए दलित द्राक्षा की तरह अपने आपको निचोड़कर प्रस्तुत कर सके। वे शिक्षकों से यह प्रश्न करते थे कि “यदि वे स्वयं गहन अध्ययन पूर्वक कृपणता और पक्षपातयुक्त व्यवहार छोड़कर अपने उत्तरदायित्व का ईमानदारी से पालन करेंगे तो उन्हें उनके कार्य में क्यों बाधा आएगी?” (शर्मा:2016:407)। उनका मानना था कि शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच शिष्टाचार के मर्यादित आचरण के अतिरिक्त अन्य दूरियाँ नहीं होनी चाहिए। तभी एक स्वस्थ परंपरा पनपेगी। 

प्रेमचंद्र जैन की कथनी और करनी में कहीं कोई अंतर नहीं दीखता। अपने शिष्यों के लिए वे कैसे गुरु थे, यह तो उन लोगों के वक्तव्यों से ही जाना जा सकता है। “गुरु जी के अध्यापन के समय कक्षा का वातावरण कभी बोझिल या उबाऊ नहीं रहता था। विषय को इतना रोचक बना देते थे कि कोई छात्र विषय से भटक नहीं सकता था। ... सारा ज्ञान छात्रों के मस्तिष्क में उड़ेलने का प्रयत्न करते थे और छात्र भी पूरे मनोयोग के साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। छात्र दूसरे अध्यापकों की कक्षा अवश्य छोड़ देते थे किंतु गुरु जी की कक्षा छोड़ने का दुःसाहस कभी नहीं करते थे। दूसरी कक्षा के छात्र भी गुरु जी की कक्षा में बैठने का प्रयास करते थे।” (डॉ. निर्मल शर्मा)। “मैंने गुरु जी को कभी गुरु जी नहीं कहा, एक इकलौती शिष्या मैं ही हूँ, जिसने हमेशा उन्हें अंकल कहा।” (डॉ. हेमलता राठौर)। देवराज जी और गुरु जी तो हमेशा एक साथ ही पाए जाते थे। “नजीबाबाद के लोग बरसों यह विश्वास करते हुए रहे कि देवराज का पता करना है, तो गुरु जी से पूछो और गुरु जी के बारे में कुछ जानना है, तो देवराज से पूछो।” प्रेमचंद्र जैन की इस शिष्य वत्सलता को गुरु मंत्र की तरह डॉ. देवराज जैसे उनके शिष्यों ने भी अर्जित किया है। (गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥)

प्रेमचंद्र जैन माता-पिता और गुरुओं से प्राप्त संस्कारों का पालन आजीवन करते रहे। वे भविष्य की चिंता नहीं करते थे। शिष्यों की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त गुरु के पास भविष्य के संबंध में सोचने का अवसर कहाँ होता! “अध्यापन में भी तीनों कालों में वर्तमान को सँवारने के लिए अधिकतम क्षमताओं का उपयोग करने पर बल दिया। मजबूत नींव, भूतकाल में तलाशने के बाद ही वर्तमान पर ध्यान केंद्रित कर लिया जाए तो भविष्य की चिंताओं को लादे रखना बुद्धिमत्ता नहीं है।” (शर्मा:2016:404)। यह उनकी दृढ़ मान्यता थी। 

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चश्म नम हैं मुफ़लिसों को देखकर   

प्रेमचंद्र जैन परिवार और रिश्तों को महत्व देते थे। उनकी मान्यता है कि जब व्यक्ति आत्मिक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं तो किसी भी तरह की समस्याएँ नहीं होतीं। एक समय ऐसा था जब भारत भर में संयुक्त परिवार की परंपरा को सामाजिक मान्यता मिली थी। लेकिन “अब उसके समाप्तप्राय हो जाने से पारिवारिक, कौटुंबिक, यहाँ तक कि वैयक्तिक समस्याएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। उधार ली गई व्यक्तिवादी संस्कृति स्वार्थपरता, असहिष्णुता, हिंसा तथा पाशविक आचरण को बढ़ावा देने में सहायक ही हुई है।” (शर्मा:2016:405)। 

व्यक्ति स्वार्थलोलुप होता जा रहा है। मोह-माया में पड़कर इतना अंधा होता जा रहा है कि वह सही और गलत की पहचान ही नहीं कर पा रहा है। काला धन, चोर बाजारी, रिश्वत, महंगाई, बलात्कारियों की दुनिया है चारों ओर। प्रेमचंद्र जैन इस दुनिया को छोड़ आने की बात करते हैं। आदमी को आदमी की तरह जीने पर बल देते हैं। उनका मन विद्रूपताओं को देखकर व्यथित हो जाता है। उनकी दृष्टि में कोई हिंदू-मुस्लिम-ईसाई-जैन नहीं है, बल्कि सब केवल मनुष्य हैं। जब इन पर विपत्ति आती है, तो उनका मन द्रवित हो जाता है। राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के बाद जब अयोध्या में मंदिर तोड़ने की अघटनीय घटना हुई, तब नजीबाबाद में भी नाजुक स्थितियाँ पैदा हुईं। गुरु जी ने अपनी सूझबूझ से वहाँ शांति का वातावरण कायम किया। “फिरकापरस्त और सांप्रदायिक ताकतों को अहसास हो गया कि इस नगर में दंगा करवाना आसान काम नहीं है। .... नजीबाबाद हिंदू- मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों की आग में बरबाद होने से बच गया।” (शर्मा:2016:66)। वे आदमी को इनसान के रूप में बदलने के लिए आग्रह करते हैं। हैवानियत छोड़कर इनसानियत को अपनाने की अपील करते हैं। (शर्मा:2016:127)           

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इष्ट फल 

डॉ. प्रेमचंद्र जैन अपने दायित्व को बखूबी जानते थे। उन्होंने न ही अपने दायित्वों से मुँह मोड़ा और न ही पलायन का रास्ता अपनाया। शिक्षक- शिक्षार्थियों के बिगड़ते रिश्तों के बात जब आती, तो वे डंके की चोट पर कहते थे कि “हम सबको मिलकर इन परिवर्तनों पर गंभीरता से सोचने- विचारने और चर्चा करने की आवश्यकता है। साथ ही जागरूक होना और जागरूक करना है। अब भी बिगड़ा कुछ नहीं है। अलबत्ता अपनी- अपनी स्वार्थपरता एवं प्रलोभन का नियंत्रण करना है। अपने सामाजिक तथा व्यक्तिगत दायित्वों को ईमानदारी से निभाने की आवश्यकता है। हमें राष्ट्रीय भावनाओं को शून्य होते देख वेदना होनी चाहिए और एक नागरिक के कर्तव्यों से विमुख नहीं होना चाहिए। विद्यार्थी, अभिभावक और शिक्षक का आपसी संबंध निकटता का रहेगा और वे अपने- अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहेंगे तो समस्याएँ स्वतः नज़र नहीं आएँगी। निःसंदेह शिक्षकों का उत्तरदायितव अपेक्षाकृत बड़ा है। प्रथमतः उन्हें कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ एवं सच्चरित्र होने की अनिवार्यता है।” (शर्मा:2016:434)। यदि कहीं भी कभी भी एक शिक्षक दुराचार में लिप्त पकड़ा जाएगा, तो समाज की निगाहें संपूर्ण शिक्षक जगत पर ही उठती हैं।   

साहित्यकारों के दायित्व के संबंध में भी प्रेमचंद्र जैन का यह कथन उल्लेखनीय है कि 'जो उपेक्षित है, वह साहित्य का विषय होना ही चाहिए।' उनकी मान्यता थी कि “संवेदना ही कविता की जननी है। अपनी रचना को कवि संतानवत सँवारता, दुलारता और सहेजता है। न केवल इतना ही बल्कि उन्हें संरक्षित करना भी निजधर्म मानता है।” (शर्मा:2016:389)। शोषक की व्यथा से शोषित की व्यथा भिन्न और विकट होती है। इसलिए प्रेमचंद्र जैन सहृदयों से यह अपील करते हैं कि “इसी विकटता का, दो टूक उत्तर - / साहित्यकार का दायित्व है।” (प्रेमचंद्र जैन, अहसास)। 

संवेदनाओं के अभाव में तो रचनाएँ जन्म ले ही नहीं सकतीं। संवेदना से ही साहित्यकार का अनुभूति कोश समृद्ध होगा। प्रेमचंद्र जैन का अनुभूति कोश बहुत समृद्ध था। वे कोरे भाग्यवाद में विश्वास नहीं रखते थे। उनकी माँ की सीख उनके साथ चलती थी- ‘होकर सुख में मगन न फूले, दुख में कभी न घबरावे।’ वे अकेले चलते गए और लोग उनके साथ चलते गए और कारवां बनता गया -

    आएगा सवेरा 

    अब नहीं हूँ मैं अकेला 

    और जितने दीप हैं 

    मैं सभी में हूँ 

    पी रहा हूँ सब अँधेरा 

    थको तुम मत मीत 

    मृत्यु से भयभीत 

    अमरत्व की श्रम की - 

    सदा ही जीत। (नेह बाती चुक रही है)   

‘गुरु जी’ अपने गुरु शिवप्रसाद सिंह द्वारा प्राप्त गुरुमंत्र को हमें विरासत में दे गए- “चिंताएँ छोड़कर नियति से लड़ो ... लड़ना ही धर्म है। सारा जीवन बन जाए युद्ध। ... तभी मृत्यु का भय भाग जाता है।”   000

संदर्भ ग्रंथ-

शर्मा, ऋषभदेव सं. (2016). निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक. नजीबाबाद : परिलेख         


- डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह-संपादक ‘स्रवंति’, असिस्टेंट प्रोफेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद- 500004, ईमेल: neerajagkonda@gmail.com 

द्रष्टव्यइतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 334-340.