बुधवार, 16 दिसंबर 2015

"व्यक्तित्व प्रबंधन और भाषिक व्यवहार" पर विशेष व्याख्यान संपन्न

भानूर [मेदक], 15 दिसंबर 2015.
भारत डायनामिक्स लिमिटेड [बीडीएल] की भानूर इकाई में आयोजित द्विदिवसीय राजभाषा कार्यशाला के दूसरे दिन आज यहाँ ''व्यक्तित्व प्रबंधन और भाषिक व्यवहार" विषय पर प्रो. ऋषभदेव शर्मा का विशेष व्याख्यान संपन्न हुआ. अतिथि वक्ता ने मनोविज्ञान और भाषाविज्ञान के हवाले से यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य का भाषिक आचरण उसके व्यक्तित्व की कुंजी होता है. साथ ही उन्होंने सकारात्मक व्यक्तित्व के विकास और नकारात्मक वृत्तियों के निराकरण के सहज उपाय के रूप में '21-सूत्री नित्य-संकल्प' पर भी चर्चा की.  हिंदी के माध्यम से इस प्रकार की गतिविधि को प्रतिभागियों ने उपयोगी और आवश्यक बताया. 

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अवर प्रबंधक (रा.भा. एवं सा.प्रशा.)
बीडीएल, भानूर
मोबाइल: 8500920391

हिंदी में कृषि साहित्य पर केंद्रित राष्ट्रीय कार्यशाला संपन्न


हैदराबाद, 9 दिसंबर 2015.
यहाँ राजेंद्र नगर स्थित 'राष्ट्रीय कृषि विस्तार प्रबंध संस्थान' [मैनेज] के तत्वावधान में 9 दिसंबर को "हिंदी में तकनीकी साहित्य का सृजन और उसका विस्तृत संचार : कृषि साहित्य के विशेष संदर्भ में" विषय पर एकदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की गई. इस अवसर पर प्रतिभागियों को 'प्रयोजनमूलक हिंदी और अनुवाद : पारिभाषिक शब्दावली' पर प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने  संबोधित किया. उन्होंने कृषि वैज्ञानिकों और राजभाषा कर्मियों से अनुरोध किया कि अधिकाधिक अद्यतन जानकारी की हिंदी और भारतीय भाषाओँ में सरल-सहज शब्दों में मुद्रित माध्यम और इंटरनेट पर उपलब्धता सुनिश्चित करें ताकि साधारण किसानों तक उसकी पहुँच हो सके.

इस कार्यशाला में कृषि साहित्य  के अनुवाद, कृषि क्षेत्र में सरकारी योजनाओं, हिंदी में कृषि विषयक ज्ञान की उपलब्धता, सूचना एवं संपर्क तकनीक, किसान पोर्टल और विकास पीडिया पर अत्यंत उपयोगी विचार एवं कार्य सत्र संपन्न हुए.  कार्यशाला डॉ. वी. पी.  शर्मा के निर्देशन में डॉ. के श्रीवल्ली द्वारा संयोजित की गई. 

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

‘कार्यालयीन व्याकरण’ पर विशेष व्याख्यान संपन्न

     
 14 दिसंबर 2015 को बीडीएल, भानूर में आयोजित राजभाषा कार्यशाला के अवसर पर
विशेष वक्ता प्रो. ऋषभदेव शर्मा, संयोजक डॉ. बी. बालाजी एवं प्रतिभागीगण 

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भानूर (मेदक), 14 दिसंबर 2015 (मीडिया विज्ञप्ति). 
आज यहाँ भारत डायनामिक्स लिमिटेड के परिसर में स्थित तकनीकी सूचना केंद्र में दो-दिवसीय राजभाषा कार्यशाला आरंभ की गई. प्रथम सत्र में प्रतिभागियों को राजभाषा संबंधी संवैधानिक प्रावधानों की जानकारी देते हुए कार्यालयीन पत्राचार से अवगत कराया गया. 

द्वितीय सत्र में अतिथि व्याख्याता के रूप में पधारे प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने ‘कार्यालयीन व्याकरण’ पर पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से विशेष व्याख्यान दिया. प्रो.शर्मा ने यह स्पष्ट किया कि कार्यालयीन भाषा में निर्वैयक्तिकता, पारिभाषिकता, तथ्यात्मकता और अभिधात्मक पारदर्शिता के गुण होना आवश्यक है. उन्होंने प्रारूपण एवं टिप्पण हेतु आमतौर पर प्रयुक्त हिंदी के वाक्य सांचों का अभ्यास भी कराया जिसमें प्रतिभागियों ने विशेष रुचि प्रदर्शित की. 

आरंभ में अवर प्रबंधक डॉ.बी.बालाजी ने अतिथि वक्ता का परिचय दिया. प्रतिभागियों की ओर से धन्यवाद प्रस्ताव के साथ प्रथम दिन की कार्यशाला संपन्न हुई.
प्रस्तुति : डॉ. बी. बालाजी
अवर प्रबंधक (रा.भा. एवं सा.प्रशा.)
बीडीएल, भानूर
मोबाइल: 8500920391
         

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

पवित्रा अग्रवाल का लघुकथा संग्रह 'आँगन से राजपथ' लोकार्पित


हैदराबाद, 12 दिसंबर, 2015. 
हैदराबाद की प्रमुख हिंदी कथाकार पवित्रा अग्रवाल की पाँचवीं  कथा-पुस्तक "आँगन से राजपथ" ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इण्डिया  के महासचिव डॉ. शिव शंकर अवस्थी द्वारा लोकार्पित की गई।   पुस्तक में संकलित 80 लघुकथाओं में से लेखिका ने अपनी प्रिय  4 लघुकथाओं का पाठ भी किया।  प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने लेखिका के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा करते हुए लोकार्पित पुस्तक की विस्तृत समीक्षा की।


इस अवसर पर लिए गए चित्र में (बाएं से) 
समारोह संचालक मीना मुथा, अध्यक्ष नरेंद्र परिहार,  लोकार्पणकर्ता शिव शंकर अवस्थी, 
लेखिका पवित्रा अग्रवाल, विशेष अतिथि लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, मुख्य अतिथि मुनींद्र , 
मुख्य वक्ता ऋषभदेव शर्मा, संयोजक अहिल्या मिश्र, 
विशेष अतिथि सी. जे. प्रसन्ना  एवं मानवेंद्र मिश्र।   

लोकार्पित  कृति 'आँगन से राजपथ' की समीक्षा करते हुए  प्रो. ऋषभदेव शर्मा 

सातवाँ साहित्य गरिमा पुरस्कार तिरुवनंतपुरम की लेखिका डॉ. सी. जे. प्रसन्नकुमारी को प्रदत्त


हैदराबाद। 11  और 12  दिसंबर, 2015 को यहाँ संपन्न ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इण्डिया के सम्मलेन के तुरंत बाद नरेंद्र भवन के उसी मंच पर साहित्य गरिमा पुरस्कार -2014 समर्पण समारोह आयोजित किया गया।   मुख्यतः दक्षिण भारत में हिंदी में सृजनात्मक लेखन के लिए चयनित  महिला-रचनाकार को दिया जाने वाला यह पुरस्कार इस वर्ष तिरुवनंतपुरम-वासी  लेखिका डॉ. सी. जे. प्रसन्नकुमारी को कथेतर विधा वर्ग के अंतर्गत उनके यात्रावृत्त "भारतीय अभियंताओं का  स्वप्नलोक" के लिए मुख्य अतिथि  श्री मुनींद्र  के हाथों प्रदान किया गया।  इस अवसर पर लिए गए इस चित्र में डॉ. ऋषभदेव शर्मा लेखिका को मान-पत्र समर्पित कर रहे हैं। साथ में (बाएं से) श्री मुनींद्र , डॉ. शिव शंकर अवस्थी, डॉ. अहिल्या मिश्र, मानवेंद्र मिश्र एवं अन्य। 

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

ऋषभदेव शर्मा को श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक हिंदी साहित्य पुरस्कार – 2015 : अभिनंदन पत्र

श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट, हैदराबाद
हिंदी साहित्य पुरस्कार – 2015 


ऋषभदेव शर्मा को समर्पित 

अभिनंदन पत्र



समकालीन हिंदी साहित्य के क्षेत्र में तेवरी काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक के रूप में सुपरिचित डॉ. ऋषभदेव शर्मा एक संवेदनशील कवि, तत्वाभिनिवेशी समीक्षक, प्रांजल गद्यकार और सृजनशील मीडियालेखक होने के साथ-साथ राष्ट्रभाषा-संपर्कभाषा-राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित सक्रिय कार्यकर्ता, आदर्श अध्यापक और निष्ठावान शोध निर्देशक हैं. 


डॉ. ऋषभदेव शर्मा का जन्म 4 जुलाई, 1957 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँव गंगधाड़ी, जिला मुजफ्फरनगर, में हुआ. आपकी माताजी श्रीमती लाडो देवी लोक-संस्कृति में रची-पगी घरेलू महिला थीं और पिताजी श्री चतुर्देव शर्मा शास्त्री संस्कृत साहित्य, व्याकरण और ज्योतिष के प्रकांड पंडित थे. आपने इन दोनों से विरासत में लोक-संस्कृति और साहित्य की चेतना प्राप्त की तथा प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही कविता और निबंध लेखन आरंभ कर दिया. 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों ने आपके भावुक बाल-मन को अत्यंत विचलित किया जिससे आप राष्ट्रीय चेतना प्रधान लेखन की ओर उन्मुख हुए. यों तो आपकी प्रवृत्ति बचपन से ही अंतर्मुखी रही लेकिन आपके संवेदनशील मानस पर देश के विषमतापूर्ण सामाजिक-आर्थिक यथार्थ ने गहरा प्रभाव डाला जिसके कारण अपनी किशोरावस्था से ही आप गरीबों, पिछड़ों, वंचितों और स्त्रियों के मानवाधिकारों के प्रति विशेष सजग रहे. परिणामस्वरूप आपके लेखन में आक्रोश और व्यंग्य प्रमुख स्थान पाते गए जिसकी परिणति 1981 में तेवरी काव्य-आंदोलन के प्रवर्तन के रूप में सामने आई.



डॉ. ऋषभदेव शर्मा का जीवन सरलरेखीय रहा है – बस दो तीन स्वाभाविक से मोड़ अवश्य आए. आपने स्नातकोत्तर स्तर तक भौतिक विज्ञान का अध्ययन करने के बाद अपनी मूल प्रवृत्ति को पहचानकर हिंदी में एम.ए. और पीएच.डी. किया. आपका विवाह 1984 में डॉ. पूर्णिमा शर्मा से हुआ जो स्वयं साहित्यिक विदुषी हैं. आपकी दो संतानें हैं – पुत्र कुमार लव नई पीढ़ी के सशक्त कवि हैं और पुत्री लिपि भारद्वाज एक सफल फोटो-जर्नलिस्ट हैं. इस प्रकार आपका पारिवारिक परिवेश सही अर्थों में सृजनात्मक परिवेश है. आजीविका के लिए आपने सात वर्ष तक जम्मू और कश्मीर राज्य में भारत सरकार के गुप्तचर विभाग के अधिकारी के रूप में कार्य किया और उसे अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुरूप न पाकर 1990 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में प्राध्यापक के रूप में चले आए. सभा में 25 वर्ष से अधिक तक कार्य करने के दौरान आपने दक्षिण भारत ही नहीं, समस्त हिंदी जगत में एक निष्ठावान अध्यापक, प्रखर वक्ता, सुधी समालोचक, आदर्श शोधनिर्देशक एवं निःस्वार्थ हिंदी-सेवी का प्रभूत यश अर्जित किया. 


!! अभिनंदन पत्र का वाचन वेमूरि ज्योत्स्ना कुमारी ने किया !!

डॉ. ऋषभदेव शर्मा का कृतित्व अत्यंत हृदयग्राही और प्रेरक है. आपकी रचनाओं में आपका मानवतावादी व्यक्तित्व और सुसंस्कृत सौंदर्यबोध साफ झलकता है. जीवन और लेखन दोनों में ही आप हर प्रकार की कृत्रिमता और पाखंड के विरोधी हैं. इसीलिए जो भी कहते या लिखते हैं, सीधे-सीधे दो-टूक कहते और लिखते हैं. आपकी अब तक प्रकाशित 15 मौलिक पुस्तकों में 7 कविता संग्रह और 8 आलोचना ग्रंथ सम्मिलित हैं. आपकी ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ और ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’ शीर्षक पुस्तकें तेलुगु साहित्य और संस्कृति के प्रति आपके प्रेम का प्रतीक हैं. विशेष बात यह है कि आपके एक कविता संग्रह ‘प्रेम बना रहे’ के एक साथ दो तेलुगु अनुवाद प्रकाशित हुए हैं. आपकी कुछ रचनाओं का तमिल, पंजाबी, मैथिली, मणिपुरी और जर्मन भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है. 



डॉ. ऋषभदेव शर्मा की मान्यता है कि हिंदी को विश्व-भाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलने के मूल में हिंदीतर भाषी हिंदी प्रेमियों का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. इसीलिए आप हिंदीतर भाषी लेखकों और शोधकर्ताओं को निरंतर प्रेरित करते रहते हैं. आपने अनेक रचनाकारों के लेखन को परिमार्जित तो किया ही, 100 से अधिक पुस्तकों की भूमिका लिखकर प्रकाशन हेतु प्रोत्साहित भी किया है. आपने लगभग 20 पुस्तकों का संपादन किया है और 8 पत्र-पत्रिकाओं के भी संपादन कार्य से जुड़े रहे हैं. आपकी इंटरनेट पर सक्रियता भी देखते ही बनती है. देश भर के अनेक विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए आपने पाठ-सामग्री का लेखन एवं संपादन किया है जिसमें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए तैयार की गई 18 पुस्तकें शामिल हैं. आपने डीलिट, पीएच.डी. और एम.फिल. के कुल 135 शोधकार्यों का सफलतापूर्वक निर्देशन किया है और अब भी कई शोधार्थी आपके निर्देशन में शोध कर रहे हैं. आपने अतिथि आचार्य के रूप में भी विभिन्न संस्थाओं को अपनी सेवाएँ प्रदान की हैं तथा वर्तमान में स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ आप एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में विदेशी छात्रों को हिंदी पढ़ाने में व्यस्त हैं. 



डॉ. ऋषभदेव शर्मा मृदुभाषी, सरल चित्त, सहज संतोषी, लोकप्रिय और पारदर्शी व्यक्तित्व के धनी हैं. श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट की ओर से हम आज आपको ‘वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार – 2015’ से सम्मानित करते हुए गौरव और हर्ष का अनुभव कर रहे हैं.



हैदराबाद-22.10.2015 


   

रविवार, 18 अक्तूबर 2015

कन्नड़ में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लोकार्पित


विजयपुर. 
यहाँ 11 अक्टूबर, 2015 को एस.बी. कला एवं के.सी.पी. विज्ञान महाविद्यालय में आयोजित एकदिवसीय साहित्यिक समारोह में डॉ. एस.टी. मरवाडे द्वारा हिंदी साहित्य के इतिहास पर कन्नड़ भाषा में रचित पुस्तक ‘हिंदी साहित्य चरित्रे’ का लोकार्पण संपन्न हुआ. प्रो. ऋषभदेव शर्मा (हैदराबाद) की अध्यक्षता में संपन्न इस कार्यक्रम में उक्त पुस्तक का लोकार्पण महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से मुख्य अतिथि के रूप पधारे प्रो. देवराज ने किया. साथ ही विशिष्ट अतिथि के रूप में आए हुए इफ्लू, हैदराबाद के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, प्रो. एम.वेंकटेश्वर ने आधुनिक हिंदी साहित्य पर व्याख्यान दिया. संचालन श्रद्धा यादव ने किया.

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

“नई सदी के हिंदी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियाँ” पर बीजापुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न





विजयपुर (बीजापुर), 16 अक्टूबर 2015.

यहाँ अंजुमन कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय में ‘नई सदी के हिंदी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियां’ विषय पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज ने संगोष्ठी का उद्घाटन किया तथा अपने बीज भाषण में कहा कि “बीजापुर में आज भी गंगा-जमुनी तहजीब मौजूद है. इस तहजीब ने हिंदुस्तान को बचा कर रखा है. साहित्य महज पढ़ने के लिए नहीं बल्कि जिंदगी में उतारने के लिए लिखा जाना चाहिए. सच्चा साहित्यकार वही होता है जो अपने वक्त को पहचानता हो, उससे बातें करता हो और उसे अभिव्यक्त करता हो. कहा जाय तो इस दुनिया को उस आदमी ने बचाया है जिसने इंसानियत को तथा तहजीब को बचा रखा है.” उन्होंने आगे यह भी कहा कि साहित्य कैसा होना चाहिए और आज कैसा है यह जानने के लिए इतिहास को जानना भी जरूरी है. 21वीं सदी के साहित्य की बदलती प्रवृत्तियों को जानने के लिए भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि की गहन जानकारी अनिवार्य है. उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि “हिंदी के अध्यापक कक्षाओं में इन कालों के बारे में, इन कालों की प्रवृत्तियों के बारे में सतही स्तर पर चर्चा तो कर लेते हैं पर गहन स्तर पर जाकर आतंरिक प्रवृत्तियों के बारे में कोई तुलनात्मक चर्चा नहीं करते. उदाहरणस्वरूप ब्रजभाषा में जो लोक संस्कृति, जनजीवन और शास्त्रीय परंपरा विद्यमान है न ही उसकी चर्चा की जाती है और न ही देश-भाषाओं के विकास की. लोक के कंधों पर बैठकर ही परंपराएं विकसित हुईं. अतः इन्हें पहचानना होगा और आत्मसात करना होगा.” उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि “राजनैतिक षड्यंत्र के कारण देश टुकड़ों में बंट रहा है. हमारे सामने सांस्कृतिक संकट पैदा हो चुका है. हमारी संस्कृति इतनी बदल चुकी है कि पिताजी डैडी बन गए और अम्मी मॉम. एक तरह से हमारे देश में पराजित मानसिकता पनप रही है. ऐसी स्थिति में यदि आदमी अपने मन से गुलाम है तो वह मृतप्राय है. इसका दुष्परिणाम हमारे सामने है.” उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि क्या हम और हमारे साहित्य में इस पराजित मानसिकता को दूर करने की प्रवृत्ति है और क्या हमारे ‘विचार’ से हिंदी साहित्य का कोई गहरा रिश्ता है? 

प्रो. देवराज ने जोर देकर कहा कि “उत्तर आधुनिकता के नाम पर विश्वविद्यालयों में जुगाली हो रही है. यह जबरन थोपी गई संकल्पना है. उत्तर आधुनिकता के नाम पर यह कहा जाता है कि इतिहास, संस्कृति, विचार का अंत हो चुका है. ईश्वर, मनुष्य, लेखक, आलोचक आदि की मृत्यु हो चुकी है. यह सब साम्राज्यवादी षड्यंत्र है. अमेरिका जैसे देशों की न ही कोई संस्कृति है न इतिहास, न मूल्य और न ही भाषा-नीति. अमेरिकी इतिहास रक्त और शोषण पर टिका हुआ है. ऐसे रक्तरंजित शासन के खिलाफ खड़ा हुआ विद्रोह ही वास्तव में उत्तर आधुनिकता है जो वस्तुतः निकारागुआ से शुरू हुआ था. यह भी देखने को मिलता है कि प्रतिरोधी साहित्य को दबाने की प्रवृत्ति विकसित हुई है. भूमंडलीकरण, उदार अर्थ नीति आदि ऐसे शब्द हैं जो हमारे अस्तित्व को मिटाने वाले हैं. पर हम इन्हें पहचानने में गलती कर रहे हैं. यदि 21वीं सदी की साहित्यिक प्रवृत्तियों को जानना होगा तो 20वीं सदी की ऐतिहासिक घटनाओं आदि को जानना और समझना भी नितांत आवश्यक है. अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों को भी समझना अनिवार्य है.” 

उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता अंजुमन कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. ए. डी. नवलगुंद ने की. इस अवसर पर जनाब सैय्यद महबूब कादरी मुश्रीफ और हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. ए. पीरां मंचासीन थे. कार्यक्रम संयोजक प्रो. एस. जे. जहागीरदार ने सभी का स्वागत किया. प्रो. ए. एम. सिद्दीकी ने संचालन किया. उद्घाटन से पहले चार दिवंगत विभूतियों बालशौरि रेड्डी, गोपाल राय, जगदीश चतुर्वेदी और रवींद्र जैन को श्रद्धांजलि अर्पित की गई और कुरआन पठन, नात शरीफ, प्रार्थना गीत एवं कर्नाटक नाड़ गीत प्रस्तुत किए गए. 

प्रथम सत्र में चार विषय प्रवर्तकों ने अलग अलग विषय पर विचार-विमर्श किया. प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने ‘नई सदी की हिंदी कविता’ पर विचार करते हुए यह चिंता व्यक्त की कि आज हम ऐसी दुनिया में जीने के लिए अभिशप्त हैं जो मूलतः तनावों की दुनिया है और इस दुनिया में विचार पर प्रचार हावी है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है. ऐसी स्थिति में मनुष्य का अस्तित्व, हाशियाकृत समुदाय विमर्श, मूल्य, रिश्ते-नाते, संस्कृति, मानव स्वभाव से लेकर भाषा तक की साधारणता आज की भारतीय कविता के प्रमुख सरोकार हैं. 

‘नई सदी के हिंदी उपन्यास साहित्य’ पर अपने विस्तृत शोधपत्र में अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने वैश्विक संदर्भ में चर्चा करते हुए कहा कि उपन्यास अपने समय से सार्थक संवाद करता है तथा उपन्यास की रीढ़ है अनुभव. उन्होंने अनेक भारतीय एवं विदेशी उपन्यासों का उदाहरण देकर यह दर्शाया कि उपन्यास सांस्कृतिक आइना है, मानवीय रूपक है. प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने यह चिंता व्यक्त की कि भारतीयों द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यासों को ही भारतीय उपन्यास के रूप में देखा जाता है और हिंदी सहित विविध भारतीय भाषाओँ के उपन्यासों का सही मूल्यांकन नहीं हो रहा है. 

‘नई सदी के हिंदी साहित्य में आदिवासी विमर्श’ पर अपना मत व्यक्त करते हुए केंद्रीय विश्वविद्यालय, गुलबर्गा की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. सुनीता मंजनबैल ने कहा कि आदिवासी साहित्य प्रतिरोधी साहित्य है, उसके स्वर में पीड़ा, असंतोष और आक्रोश है. उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासियों को सामने आकर खुद कहना चाहिए कि वास्तव में उन्हें क्या चाहिए. साथ ही, मुंबई विश्वविद्यालय से पधारे डॉ. दत्तात्रेय मुरुमकर ने नई सदी के हिंदी कहानी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियों पर विचार व्यक्त किए. 

प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. देवराज ने कहा कि “विभिन्न दबावों के बीच आदमी सोच रहा है और कविताएँ रच रहा है. व्यक्ति को मजबूर किया जा रहा है वैसा सोचने पर जैसा व्यवस्था चाहती है. यूरोपियन दबावों में काम किया जा रहा है और आज जनजातियों के साथ छल हो रहा है जिनके पास हमारी सांस्कृतिक जड़ें बची हुई हैं.” इसलिए उन्होंने सभी समुदायों से अपनी बेचैनी को बनाए रखने का आह्वान किया. 

द्वितीय सत्र में आत्मकथाओं पर चर्चा करते हुए हैदराबाद की लेखिका डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने कहा कि “नई सदी या उसके आरम्भ से ठीक पूर्व के दशक में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में आत्मकथा साहित्य ने नई करवट ली. 1990 के दशक के आसपास महान नायकत्व का मिथ टूटा और कल तक जिन्हें लघु, तुच्छ, हीन कहकर हाशिए पर रखा गया था उन अतिसाधारण मनुष्यों ने अपनी अस्मिता की खोज करते हुए अभिव्यक्ति के जो मार्ग तलाशे उनमें उनकी पीड़ा, कड़वाहट, खिन्नता, संघर्ष और गुस्से को व्यक्त करने के लिए आत्मकथा सबसे उपयुक्त विधा सिद्ध हुई.” उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा ‘कस्तूरी कुंडल बसे’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ तथा तुलसीराम कृत ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ का सोदाहरण विवेचन करते हुए कहा कि “इनकी आत्मकथाएँ केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे किसी एक स्त्री या किसी एक दलित के जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं, बल्कि इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि विशिष्ट होते हुए भी अपने संघर्ष के धरातल पर ये दोनों ही लेखक क्रमशः ‘सामान्य स्त्री’ और ‘सामान्य दलित’ हैं. साधारणीकरण की पहली शर्त ही यह है कि आलंबन अपने वैशिष्ट्य को छोड़कर इस तरह सर्वसाधारण बन जाए कि आलंबन-धर्म का संप्रेषण सहज संभव हो.” 

‘स्रवन्ति’ पत्रिका की सह-संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने ‘नई सदी के हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श’ पर विचार करते हुए कहा कि “किन्नर विमर्श की दृष्टि से नीरजा माधव कृत ‘यमदीप’, निर्मला भुराडिया कृत ‘गुलाम मंडी’, महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’ और प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ इस उपेक्षित और हाशियाकृत समुदाय की जीवन शैली, उनकी समस्याओं, उनकी पीड़ा, उनका आक्रोश, संघर्ष और जिजीविषा की कहानी को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं तथा सोचने के लिए बाध्य करते हैं.’’ अपने शोधपत्र में उन्होंने प्रतिपादित किया कि “हिंदी कथासाहित्य में किन्नर विमर्श के बीज 1939 में प्रकाशित निराला जी की संस्मरणात्मक कृति ‘कुल्ली भाट’ में उपलब्ध होते हैं. बाद में नई कहानी दौर के प्रमुख लेखक शिवप्रसाद सिंह की ‘बहाव वृत्ति’ और ‘विंदा महाराज’ शीर्षक कहानियों में इसका अंकुरण हुआ.” 

कुवेंपु विश्वविद्यालय, शिमोगा की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. उमा हेगडे ने नई सदी के हिंदी नाटक साहित्य की बदलती पर्वृत्तियों पर प्रकाश डाला और द्वितीय सत्र के अध्यक्षीय भाषण में कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ की आचार्य डॉ. प्रभा भट्ट ने पर्यावरण विमर्श पर प्रकाश डाला. 

समापन समारोह के मुख्य अतिथि प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य में संवेदना होना अत्यंत आवश्यक है. उन्होंने आयोजकों की प्रशंसा की और आशा व्यक्त की कि भविष्य में बीजापुर में इस तरह के अनेक आयोजन होंगे और भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की रक्षा हेतु अभियान को गति मिलेगी. 

इस अवसर पर बीजापुर के अतिरिक्त देश के विभिन्न प्रांतों से पधारे विद्वान, शोधार्थी और छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित थे. 



बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

ऋषभदेव शर्मा की पुस्तकों का लोकार्पण संपन्न




'हिंदी भाषा के बढ़ते कदम' का लोकार्पण करते हुए
डॉ. राधेश्याम शुक्ल 
साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज की अध्यक्षता में आयोजित एक समारोह में तीन पुस्तकों को लोकार्पित किया गया. तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तक प्रो. ऋषभदेव शर्मा की समीक्षात्मक कृति ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण ‘भास्वर भारत’ के प्रधान संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने किया. प्रो. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ का लोकार्पण महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज ने किया. एटा, उत्तर प्रदेश के युवा समीक्षक डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह कृत ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ का लोकार्पण ‘पुष्पक’ की प्रधान संपादक तथा कादंबिनी क्लब और आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, हैदराबाद की संयोजक डॉ. अहिल्या मिश्र ने किया. 

'उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया' का लोकार्पण करते हुए
प्रो. देवराज 
अध्यक्षीय भाषण में प्रो. देवराज ने लोकार्पित पुस्तकों की प्रासंगिकता के बारे में कहा कि ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ और ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ जैसी पुस्तकों के सृजन और संपादन की पृष्ठभूमि में इतिहासबोध के साथ समसामयिक प्रश्नों की गहरी समझ विद्यमान है. उन्होंने जोर देकर कहा कि एक भाषा के रूप में हिंदी भी अन्य भारतीय भाषाओँ के समान विकसित हो रही है तथा हिंदी सत्ता की भाषा नहीं बल्कि जनता की भाषा रही है. भाषायी राजनीति पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे कहा कि यदि राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी से मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि को अथवा विद्यापति, तुलसी और जायसी को अलग कर दिया जाएगा तो उसके माध्यम से देश की संस्कृति को समझना संभव नहीं रह जाएगा जिससे हिंदी का ही नहीं हमारी राष्ट्रीय पहचान का भी नुकसान होगा इसलिए आज हिंदी भाषा की साहित्यिक योग्यता को पहचानने और उसमें निहित राष्ट्रीय मिथकों एवं सांस्कृतिक इतिहास को समझने की बड़ी आवश्यकता है. डॉ. देवराज ने याद दिलाया कि ‘’उत्तर आधुनिकता का जन्म निकारागुआ में हुआ था जो तीसरी दुनिया का देश है. 1912 में अमेरिका ने जबरदस्ती वहाँ के राजा को हटाकर सुनोजा नामक गुंडे को शासक बनाया. वहाँ के कवियों ने उसके खिलाफ कविताएँ लिखीं और अपनी कविताओं की उत्तर आधुनिक व्याख्या की थी और पहली बार ‘पोस्ट मोर्डनिज्म’ शब्द का प्रयोग किया था तथा यह शब्द जनहितैषी सरकार की स्थापना करने की परिकल्पना का द्योतक था.’’ उन्होंने संतोष व्यक्त किया कि लोकार्पित पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ लीक से हटकर है क्योंकि इस पुस्तक की सामग्री अमेरिका और यूरोप द्वारा थोपी गई उत्तर आधुनिकता की जुगाली के खिलाफ है. 

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ का लोकार्पण करते हुए डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि एक ओर यह किताब हिंदी भाषा के विकास के विविध आयामों की गहरी पड़ताल करती है तो दूसरी ओर ठोस राजभाषा तथा विवेकपूर्ण भाषा-नीति की जरूरत की. उन्होंने हिंदी के विकास में दक्खिनी के योगदान को रेखांकित करने और साथ ही दक्षिण भारत में हिंदी के पठन-पाठन और शोधकार्य तक का जायजा लेने के लिए लेखक की प्रशंसा की. 

इसी क्रम में ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ शीर्षक पुस्तक पर बोलते हुए डॉ. अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के उस कवि रूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है जिसे उनके अध्यापक रूप और समीक्षक रूप ने जबरन ढक रखा है. इस पुस्तक में कवि ऋषभदेव शर्मा की सामाजिक चेतना, राजनैतिक चेतना, लोक चेतना, स्त्रीपक्षीय चेतना और जनपक्षीय चेतना का सोदाहरण विवेचन है. उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक ऋषभदेव शर्मा के अट्ठावन वर्ष की आयु प्राप्त करने के संदर्भ में तैयार की गई है. इसमें कवि के लंबे साक्षात्कार के साथ साथ उनकी प्रतिनिधि कविताएँ और तेवरी काव्यांदोलन का घोषणा पत्र भी सम्मिलित हैं. 

इस अवसर पर ‘साहित्य मंथन’, ‘श्रीसाहिती प्रकाशन’, ‘परिलेख प्रकाशन’, ‘कादम्बिनी क्लब’, ‘सांझ के
साथी’, ‘विश्व वात्सल्य मंच’, शोधार्थियों और छात्रों द्वारा डॉ. ऋषभदेव शर्मा का सारस्वत सम्मान किया गया तथा प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ऋषभदेव शर्मा के परिचय-पत्रक का लोकार्पण किया. अभिनंदन-भाषण देते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि ‘’ऋषभदेव शर्मा के लेखन में विस्तार है, गहराई है. उनके लेखन में विशेष रूप से भाषा, साहित्य और संस्कृति के अनेक आयाम हैं. उनके साहित्य में भारतीय एकता की मौलिकता को देखा जा सकता है. हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं के साहित्य के मर्म को उन्होंने स्वाध्याय द्वारा आत्मसात किया है. विशेष रूप से तेलुगु साहित्य के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय है.’’ 

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के शताधिक हिंदी प्रेमियों ने उपस्थित होकर इस समारोह को भव्य बनाया. संयोजिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और डॉ. मंजु शर्मा ने लोकार्पित कृतियों का परिचय कराया तथा समारोह का संचालन डॉ. बी. बालाजी ने किया. 






शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

ऋषभदेव शर्मा की पुस्तकों का लोकार्पण 12 को


साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद स्थित सम्मेलन कक्ष में आगामी 12 अक्टूबर, सोमवार को अपराह्न 4 बजे पुस्तक लोकार्पण समारोह आयोजित किया जा रहा है. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से संबद्ध प्रो. देवराज की अध्यक्षता में संपन्न होने वाले इस कार्यक्रम में तीन ग्रंथों का विमोचन किया जाएगा. 



लोकार्पित होने वाली पहली पुस्तक में प्रो. ऋषभदेव शर्मा द्वारा लिखित ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ है. इस पुस्तक में लेखक ने आधुनिक परिवर्तनशील वैश्विक परिदृश्य के बरक्स हिंदी भाषा के बढ़ते महत्व और उससे जुड़ी चुनौतियों पर भाषावैज्ञानिक विमर्श प्रस्तुत किया है. 





लोकार्पित होने वाली दूसरी पुस्तक ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ में
विभिन्न विद्वानों के 18 शोधपूर्ण आलेख सम्मिलित हैं जिसका संपादन डॉ. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने किया है. इस पुस्तक में उत्तर आधुनिक विमर्श के स्वरूप पर तो चर्चा की ही गई है, उसके परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य में उभरे विभिन्न विमर्शों और विज्ञापन, टेलीविजन तथा हिंदी सिनेमा तक की उत्तर आधुनिक प्रवृत्तियों का गहन विश्लेषण भी किया गया है. 

इस अवसर पर लोकार्पित की जाने वाली तीसरी पुस्तक ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’ के लेखक डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह हैं. उन्होंने इस पुस्तक में तेवरी काव्यांदोलन के जनक ऋषभदेव शर्मा की काव्यकृतियों का समीक्षात्मक विश्लेषण तो किया ही है साथ ही उनके साथ अपनी लंबी बातचीत भी प्रस्तुत की है. डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि उन्होंने यह पुस्तक प्रो. शर्मा के 58 वें जन्मदिन के संदर्भ में तैयार की है. 

उल्लेखनीय है कि लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. एम. वेंकटेश्वर तथा विशिष्ट अतिथियों के रूप में डॉ. राधेश्याम शुक्ल, डॉ. अहिला मिश्र और सी. एस. होसगौडर पधार रहे हैं. संयोजकों ने सभी हिंदी प्रेमियों, प्राध्यापकों, छात्रों, राजभाषाकर्मियों और मीडियाकर्मियों से कार्यक्रम में उपस्थित होने का अनुरोध किया है. 

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

[निमंत्रण] पुस्तक लोकार्पण समारोह : 12 अक्टूबर 2015

निमंत्रण
साहित्य मंथन, हैदराबाद 
के तत्वावधान में आयोजित
 पुस्तक लोकार्पण समारोह
 में 
इष्ट मित्रों सहित आपकी गौरवमयी उपस्थिति सादर प्रार्थित है.
विमोच्य पुस्तकें 
1. हिंदी भाषा के बढ़ते कदम 
[लेखक - डॉ. ऋषभदेव शर्मा] 
 तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली 
2. उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया
 [संपादक - डॉ. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा] 
 जगत भारती प्रकाशन, इलाहाबाद 
3. ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म 
[लेखक - डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह] 
 परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद 
दिनांक - 12 अक्टूबर, 2015 : सोमवार : ठीक 4 बजे अपराह्न 
स्थान : दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, 
खैरताबाद, हैदराबाद - 500004.
अध्यक्ष :
 प्रो. देवराज (आचार्य, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)
मुख्य अतिथि : 
प्रो. एम. वेंकटेश्वर (पूर्व प्राचार्य, आर्ट्स कॉलेज, उस्मानिया विवि.,हैदराबाद)
विशिष्ट अतिथि : 
डॉ. राधेश्याम शुक्ल (संपादक, 'भास्वर भारत', हैदराबाद)
 डॉ. अहिल्या मिश्र (संयोजक, कादंबिनी क्लब, हैदराबाद) 
श्री सी. एस. होसगौडर (सचिव, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद)
सूत्रधार :
 डॉ. बी. बालाजी (हिंदी अधिकारी, बीडीएल, भानूर) 
संयोजक : 
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दभाहिप्रस, हैदराबाद) 

रविवार, 9 अगस्त 2015

[बीजापुर] अंजुमन कॉलेज में ‘’जीवन प्रबंधन’’ पर विशेष व्याख्यान संपन्न



बीजापुर [कर्नाटक], 5 अगस्त 2015.

‘’शिक्षा का अर्थ पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करना मात्र नहीं है, बल्कि वह हमें विविध प्रकार की संकीर्णताओं से मुक्त करके सही अर्थ में मनुष्य बनाने की प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया में हमारी मूल प्रवृत्तियों का उदात्तीकरण तो शामिल है ही, जीवन प्रबंधन का विज्ञान भी निहित है.’’ ये विचार तेवरी काव्यान्दोलन के प्रवर्तक प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने कर्नाटक के अत्यंत पिछड़े अंचल बीजापुर में स्थित अंजुमन कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय के इकबाल हॉल में उपस्थित विद्यार्थियों और आचार्यों को संबोधित करते हुए व्यक्त किए. 

महाविद्यालय के भाषणकला संघ और जीमखाना के उद्घाटन के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में ‘’जीवन प्रबंधन और मूल्य शिक्षा’’ पर बोलते हुए अपने उद्घाटन भाषण में प्रो. शर्मा ने मनुष्यता, सामाजिकता, राष्ट्रीयता, धर्म निरपेक्षता, सकारात्मक चिंतन, शुभ संकल्प, उच्च जीवनादर्श और आत्म निरीक्षण का महत्व बताने के साथ ‘दुनिया को मनुष्य जाति के लिए बेहतर स्थान’ बनाने का सन्देश दिया.

आरम्भ में अंजुमन महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने ईश वंदना और देश वंदना की. प्रो. साहिब हुसैन जहागीरदार ने मुख्य अतिथि का परिचय दिया. प्राचार्य डॉ.ए. जी. नवलगुंड ने समारोह की अध्यक्षता करते हुए कहा कि सर्वतोमुखी व्यक्तित्व विकास में ही शिक्षा की सार्थकता है. उन्होंने जोर देकर कहा कि शिक्षा हमें सही अर्थों में ‘इन्सान’ बनाए तभी हम समूचे समाज और विश्व के लिए अनुकरणीय मूल्य स्थापित कर सकते हैं. संचालन श्रीमती रुकैया ने किया तथा धन्यवाद प्रो. सैयद रिजवान ने व्यक्त किया. सामूहिक राष्ट्रगान के साथ समारोह संपन्न हुआ.

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

[नई पुस्तक] ''हिंदी भाषा के बढ़ते कदम'' : ऋषभदेव शर्मा

हिंदी भाषा के बढ़ते कदम / ऋषभदेव शर्मा /
 आईएसबीएन 978-81-89531-23-2 /
पहला संस्करण : 2015 /
304 पृष्ठ  / 650 रूपए : सजिल्द /
तेज प्रकाशन, 98, प्रथम तल, निकट कमर्शियल स्कूल, दरियागंज,
 नई दिल्ली-110002 / फोन : 011-65285328 / ईमेल :  tejprakashan@gmail.com


शुभाशंसा

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के आचार्य तथा अध्यक्ष डॉ. ऋषभदेव शर्मा से भेंट का सुयोग मेरे लिए अत्यंत सुखद रहा. मैं 28, 29, 30 मार्च को इस प्रतिष्ठित संस्थान में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में अपने आदरणीय 'गुरुजी' डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ के साथ जब 'उद्घाटन-सत्र' के मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुआ, तो डॉ. ऋषभदेव शर्मा की बहुमुखी प्रतिभा और आकर्षक संचालन को देख कर गद्-गद् हो उठा. गुरुजी डॉ. ‘अरुण’ से मैं जान चुका था कि डॉ. शर्मा मूलतः 'खतौली' के हैं और लगभग तीन दशकों से दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के ध्वजवाहक बने हुए हैं.

संगोष्ठी के पश्चात मुझे डॉ. ऋषभदेव शर्मा के सद्य प्रकाशित होने वाले निबंध संकलन "हिंदी भाषा के बढ़ते कदम" की पांडुलिपि देखने का सुअवसर भी मिला. मुझे यह देख कर प्रसन्नता हुई कि डॉ. शर्मा ने अपनी साधना को प्रभावशाली ढंग से निबंधों में संजो कर जिज्ञासुओं तक पहुँचाने का प्रयास किया है. उनके इस ग्रंथ के दूसरे खंड के कुछ निबंधों को देख कर तो मैं अत्यंत प्रभावित हूँ और कह सकता हूँ कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा के ये अनुभव उत्तर भारत के लोगों को भी दिशा देंगे. मैं इस ग्रंथ को प्रकाशित रूप में पढ़ने के लिए लालायित हूँ. मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिंदी की समृद्धि में उनके इन निबंधों से बहुत सकारात्मक सहायता मिलेगी.

- डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’
कवि, कथाकार एवं संस्कृतिवेत्ता,
पूर्व मुख्य मंत्री, उत्तराखंड एवं 
सांसद, हरिद्वार

दो शब्द

समर्पित अक्षर-साधक एवं विद्वान डॉ. ऋषभ देव शर्मा द्वारा लिखित निबंधों के संग्रह "हिंदी भाषा के बढ़ते कदम" को मैंने मनोयोगपूर्वक देखा और पढ़ा है. मैं बेझिझक कह सकता हूँ कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अपने इन निबंधों में हिंदी भाषा को लेकर अपना जो सुदीर्घ चिंतन दिया है, वह हिंदी और हिंदी की अस्मिता से जुड़े अनेक प्रश्नों के समाधान तलाशने में जिज्ञासुओं की भरपूर मदद करेगा. उत्तर भारत से लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण भारत में हिंदी के शिक्षण की अपनी महत्वपूर्ण यात्रा पर निकले ‘तेवरी-आंदोलन’ के सूत्रधार डॉ. ऋषभदेव ने अपने इन निबंधों में उन अनेक भ्रांतियों का तर्कपूर्ण निवारण किया है, जिन्हें उत्तर और दक्षिण भारत में संभवतः ‘राजनैतिक साज़िश’ के तहत निरंतर फैलाया जाता रहा है और हिंदी को फलने-फूलने से रोका जाता रहा है.

‘हिंदी का हिंडोला’ खंड में ‘जनभाषा की अखिल भारतीयता’ शीर्षक से लिखा गया निबंध मेरी इस धारणा को संपुष्ट करेगा और पाठकगण अनुभव करेंगे कि विद्वान लेखक हिंदी के 'अखिल भारतीय' महत्व को किस तार्किक दृष्टि से रखते हैं कि सारी की सारी भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है तथा हिंदी के अखिल भारतीय स्वरूप को स्वीकार करने में सहज ही कोई बाधा शेष नहीं बचती. ऐसा ही विचारोत्तेजक और प्रेरक संक्षिप्त निबंध है ‘इंग्लिश हैज़ नो प्लेस’, जिसमें भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में ‘अंग्रेज़ी’ की असमर्थता और अधूरेपन को ऐतिहासिक संदर्भ में उजागर किया गया है.

डॉ. ऋषभदेव के इस मूल्यवान ग्रंथ का ‘दखिन पवन बहु धीरे’ खंड निस्संदेह बेहद प्रासंगिक और अर्थवान है, जिसमें उन्होंने ‘दक्खिनी हिंदी’ के प्रदेय और सौष्ठव पर प्रकाश डालने के अलावा जहाँ 'दक्षिण' भारत में हिंदी की स्वीकार्यता और बढ़ते कदमों का प्रामाणिक विवेचन किया है, वहीं ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषा-वैज्ञानिक आधारों पर हिंदी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं के अंतस्संबंधों को भी बखूबी परखने का प्रयास किया है.

इसी प्रकार ‘संप्रेषण की शक्ति’ खंड में संकलित निबंधों में जहाँ हिंदी की ‘प्राण-शक्ति’ अर्थात ‘संप्रेषण-शक्ति’ की विवेचना हुई है, वहीं आधुनिक दृष्टि और वैश्विक परिदृश्य के अनुसार हिंदी की उपयोगिता को रेखांकित करने का सजग प्रयास देखा जा सकता है. इस खंड के निबंधों में हिंदी को वर्तमान ‘बाज़ारवाद’ के संदर्भ में देखने का जो प्रयास किया गया है, उसके आधार पर डॉ. ऋषभदेव शर्मा का यह कार्य स्तुत्य ही माना जाएगा क्योंकि इन निबंधों से हिंदी को 'कंप्यूटर' के साथ-साथ आधुनिकतम संचार माध्यमों के लिए 'सक्षम' सिद्ध करने में वे नितांत सफल रहे हैं. 

मुझे पूर्ण आशा और विश्वास है कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा के इन सुचिंतित निबंधों का हिंदी-जगत में भरपूर स्वागत होगा और इनसे हिंदी की अभिवृद्धि भी निश्चित रूप से होगी. मैं अपनी हार्दिक मंगलकामनाओं के साथ डॉ. ऋषभदेव शर्मा का अभिनंदन करता हूँ.

- डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ’अरुण’ 
पूर्व प्राचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष,
बी.एस.एम. कॉलेज, रुड़की.
आवास : 74/3, न्यू नेहरु नगर,
रुड़की-247667

भूमिका 

यह निर्विवाद सत्य है कि भारत बहुभाषी और संस्कृतिबहुल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. इस देश में जनसंख्या की विशालता के साथ साथ देशवासियों की अपनी मातृभाषाओं और उनके साथ शताब्दियों से बँधी हुई सांस्कृतिक विरासत से कोई जन समुदाय अलग नहीं होना चाहता. भाषिक तथा सांस्कृतिक बहुवचनीयता इस देश की हजारों वर्षों में स्वत:निर्मित परंपरा है. इस परंपरा को सुदृढ़ एवं सुरक्षित बनाए रखते हुए वर्तमान स्थितियों में राष्ट्रीय संदर्भ में देश की बहुभाषिक स्थिति के मध्य, संविधान में राजभाषा के रूप में परिभाषित और निर्वचित ‘हिंदी’ की स्वीकार्यता पर आज तक भी टंका हुआ प्रश्नचिह्न चिंता का विषय है. इसे दिनोंदिन एक समस्या के रूप में जटिल से जटिलतर बनाया जाना और भी चिंतनीय है. हिंदी का त्रिआयामी स्वरूप (राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्कभाषा) समूचे देश में बिना किसी विवाद एवं पूर्वाग्रह के जनमानस को स्वीकार्य होना चाहिए किंतु संयोग से हम इस लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सके हैं. शिक्षा, कामकाज और बोलचाल के स्तर पर अंग्रेजी बनाम हिंदी का भीतरी और बाहरी द्वंद्व जगजाहिर है. इस गतिरोध को दूर करने के प्रयास शिक्षाविदों और भाषाविदों के साथ साथ संस्कृतिकर्मियों द्वारा भी जारी हैं. इसी गतिरोध को दूर करने की दिशा में सुप्रसिद्ध भाषा एवं शिक्षाविद डॉ.ऋषभदेव शर्मा का प्रस्तुत ग्रंथ ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ एक महत्वपूर्ण अभियान है . 

ऋषभदेव शर्मा ने अपने सृजनशील लेखन एवं प्रखर समालोचनात्मक चिंतन दृष्टि से साहित्य जगत में विशेष जगह बनाई है. ‘तेवरी’ काव्यांदोलन के प्रणेता, रागात्मक संवेदनाओं के रसमय कवि और भारतीय साहित्य के समर्पित अध्येता के रूप में इन्होंने ख्याति अर्जित की है. भाषा, साहित्य, संस्कृति और शिक्षा लेखक की अभिरुचि, सृजन एवं चिंतन के विशेष क्षेत्र हैं. वे सृजनशील लेखन के साथ साथ समीक्षात्मक एवं आलोचनात्मक साहित्य की रचना में सतत सक्रिय रहे हैं. प्रस्तुत कृति ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ हिंदी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध में लेखक की निर्बाध क्रियाशीलता का ही परिणाम है. 

छह खंडों में सुनियोजित यह ग्रंथ हिंदी भाषा के विकास एवं उसके अनुप्रयोग की वर्तमान चुनौतियों को विभिन्न कोणों से विश्लेषित करता है. लेखक द्वारा रचित हिंदी भाषा केंद्रित चिंतनपरक और विश्लेषणात्मक निबंधों का यह संग्रह भाषा-प्रौद्योगिकी, भाषा चिंतन, भाषिक संप्रेषणीयता, भाषिक प्रयोजन तथा भारतीयता के संदर्भ में महत्वपूर्ण वैचारिक भावभूमि को निर्मित करता है. ग्रंथ में संकलित लेख आलोचनात्मक निबंध शैली में लिखे गए हैं जो लेखक की हिंदी भाषा के विकास की गतिमान दिशाओं की सूक्ष्म पड़ताल की क्षमता को रेखांकित करते हैं. हिंदी भाषा एवं उसके अनुप्रयोग की बढ़ती हुई उपभोक्तावादी जरूरतों के साथ साथ हिंदी के उपयोग की अपरिहार्यता को भी वे बलपूर्वक स्थापित करते हैं. अंग्रेजी भाषा से हिंदी की कभी न खत्म होने वाली सत्ता–पोषित प्रतिद्वंद्विता को जिस प्रतिबद्धता के साथ लेखक ने अपने ग्रंथ के ‘हिंदी का हिंडोला’ खंड में प्रस्तुत किया है, वह द्रष्टव्य है. लेखक की पैनी और धारदार आलोचनात्मक शैली इन निबंधों को रुचिकर बनाती है और इन्हें वैचारिक शुष्कता से बचाती है. इस ग्रंथ में समाविष्ट लेख, हिंदी भाषा और भारतीय जनमानस के अंतस्संबंधों को पर्याप्त प्रमाणों के साथ सुस्पष्ट करते हैं. अंग्रेज सरकार द्वारा सन् 1904 में जारी राजकीय आदेश ‘इंग्लिश हैज़ नो प्लेस‘ एक महत्वपूर्ण प्रमाण है जो यह सिद्ध करता है कि अंग्रेजी को भारतीय जीवन शैली का अपरिहार्य अंग बनाने वाले अंग्रेज़ नहीं बल्कि भारतीय सत्ताधारी राजनयिक ही थे. लेखक ने संविधान में उल्लिखित हिंदी एवं अन्य भाषाओं से संबंधित अनुच्छेदों में कार्यान्वयन के स्तर पर व्याप्त अंतर्विरोधों की भी विश्लेषणात्मक व्याख्या की है. वे संविधान में व्याप्त उन गतिरोधकों की ओर विशेष ध्यान दिलाते हैं जो व्यावहारिक स्तर पर हिंदी के क्रियाशील होने में बाधक बने हुए हैं. लेखक की निर्द्वंद्व तथा पारदर्शी व्याख्याएँ इस विषय को ठोस निर्णयात्मक दिशा की ओर अग्रसर करने में सहायक हैं. प्रकारांतर से हिंदी भाषा के संवर्धन के लिए विदेशों में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलनों की सार्थकता पर भी लेखक ने ध्यानाकर्षक प्रकाश डाला है जो कि बहस का विषय है. यही नहीं, लेखक ने हिंदी भाषा की राष्ट्रीय अस्मिता के संबंध में सरकार की अस्पष्ट नीतियों की ओर भी संकेत किया है. 

‘दखिन पवन बहु धीरे’ खंड में लेखक ने दक्खिनी हिंदी की परंपरा और उसमें विकसित सूफी साहित्य को अपनी मौलिक शोधपरक दृष्टि से विश्लेषित किया है. दक्षिण भारत में हिंदी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की समस्याओं को लेखक ने स्वानुभव के आधार पर भाषाविदों एवं शिक्षाविदों के चिंतन हेतु वास्तविक तथ्यों सहित प्रस्तुत किया है. इस प्रकार भारतीय भाषाओं के मध्य हिंदी की समावेशी और संबंधकारक भूमिका को स्वीकार्य बनाने का प्रयास लेखक ने तार्किक दक्षता के साथ किया है. 

‘संप्रेषण की शक्ति’ खंड की वैचारिकी वर्तमान संदर्भ में विभिन्न प्रकार्यात्मक आवश्यकताओं के लिए हिंदी भाषा की सक्षमता, परिपक्वता और तत्परता को सिद्ध करती है. इस खंड के लेख संचार माध्यमों में हिंदी की वृद्धिमान लोकप्रियता तथा बाजार की आवश्यकताओं एवं भूमंडलीकरण की उपभोक्तावादी संस्कृति को संपोषित करती हुई हिंदी के प्रकार्यात्मक स्वरूप को पुष्ट करते हैं. वर्तमान मीडिया में हिंदी की मजबूत स्थिति की ओर लेखक ने इशारा किया है. आज मीडिया में हिंदी की माँग और उसका अधिकाधिक उपयोग बाजार की विवशता है. हिंदी का प्रयोग बाजार की अर्थ नीति का नियामक हो चुका है. इस स्थिति को लेखक ने दृढ़ता से प्रस्तुत किया है, जो कि हिंदी के वर्चस्व को बल प्रदान करता है. 

वर्तमान मीडिया और बाजार की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ का क्षेत्र है. इस विषय की जटिलता को साधकर लेखक ने ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ के स्वरूप को हिंदी के संदर्भ में न केवल स्पष्ट किया है अपितु उसके अनुप्रयोग के विभिन्न आयामों पर प्रचुर मात्रा में प्रकाश डाला है. सोशल मीडिया (फेसबुक, वाट्स ऐप, ब्लॉग, ट्विटर) में आज हिंदी का प्रयोग लोकप्रिय हो चुका है. कंप्यूटर साधित हिंदी आज उपर्युक्त सोशल मीडिया स्थलों (साइट) में सरल, संक्षिप्त तथा आशु भाषिक प्रतीकों एवं संकेतों एवं मनभावन प्रयुक्तियों के साथ प्रयोग में लाई जा रही है. लेखक स्वयं एक सक्रिय और जागरूक ब्लॉगर एवं सोशल मीडियाकार हैं. स्वयं सोशल मीडिया में हिंदी के प्रमुख प्रयोक्ता हैं. सोशल मीडिया में उनकी सक्रिय सहभागिता इन लेखों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. 

हिंदी भाषा शिक्षण के विविध आयामों को लेखक ने अपने निबंधों में प्रमुख स्थान दिया है. अन्य भाषा और द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषा शिक्षण लेखक के शोधपरक अध्ययन का विशेष क्षेत्र है. इन विषयों की सार्थकता को उन्होंने कई निबंधों में व्यक्त किया है. भारत की बहुभाषिकता के संदर्भ में अनुवाद की भूमिका को लेखक ने अपने वैचारिक निबंधों में स्पष्ट किया है जो कि पाठकों को अनुवाद की आवश्यकता के प्रति सजग बनाता है. भाषा, साहित्य और संस्कृति के अंतस्संबंधों को शिक्षा से संबद्ध कर ‘संरक्षण के निमित्त’ खंड में लेखक ने एक नवीन अंतर-अनुशासनिक अध्ययन के क्षेत्र को निरूपित किया है. ‘भाषा ही संस्कृति की वाहिका होती है’ इस कथन को सिद्ध करने हेतु लेखक ने स्वाध्याय से अपनी विशिष्ट चिंतन शैली में संस्कृति के उन्नयन में भाषा की भूमिका और उसकी संप्रेषण शक्ति को सिद्ध किया है. 

ग्रंथ का अंतिम खंड ‘भाषा चिंतन’ पर आधृत है जो कि लेखक की वैचारिक विविधता को दर्शाता है. हिंदी भाषा चिंतन विषयक लेखन में लेखक ने हिंदी भाषा की अनमोल विरासत को भारतीयता की भावना और संस्कृति के संरक्षण एवं विस्तार के लिए अनिवार्य माना है. इस खंड में सम्मिलित आलोचनात्मक लेख भाषा चिंतन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. इन निबंधों में लेखक ने कृष्णा सोबती, हजारी प्रसाद द्विवेदी और कैलाशचंद्र भाटिया की भाषिक दृष्टि की विश्लेषणात्मक व्याख्या की है जो कि लीक से हटकर नवीन भावबोध कराते हैं. 

वस्तुत: लेखक ने इस ग्रंथ में हिंदी भाषा एवं उसके अनुप्रयोग के विभिन्न पक्षों पर अपनी विविधोन्मुखी वैचारिक आलोचना दृष्टि को सफलतापूर्वक निरूपित किया है. ग्रंथ में संकलित लेखों में लेखक की संदर्भोचित भाषा शैली तथा उनका अपना विशिष्ट संप्रेषण कौशल अध्येताओं को आकर्षित करता है. इस विशिष्ट संप्रेषण कौशल में लेखक की निजी मौलिक सृजनशीलता प्रतिबिंबित होती है. अपनी संकल्पनाओं को समुचित रीति से स्थापित करने के लिए संदर्भोचित प्रयुक्तियों एवं भाषिक मुहावरों को लेखक स्वयं गढ़ लेता है जो कि पाठ को गतिशील और प्रवहमान बना देते हैं. 

लेखक की प्रस्तुत रचना भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के गंभीर अध्येताओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ सिद्ध होगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है. इस ग्रंथ के प्रणयन के लिए ऋषभदेव शर्मा ने जो परिश्रम किया है, उसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ. यह ग्रंथ उनकी वैचारिक शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनकर भाषा एवं साहित्य के अध्येताओं के बीच समादृत होगा. मैं उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ प्रदान करता हूँ. अस्तु. शुभमस्तु. 

14 फरवरी 2015                                                                                                     - डॉ. एम. वेंकटेश्वर 
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष 
हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग 
 अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय
 हैदराबाद 
संपर्क : 09849048156

हिंदी भाषा के बढ़ते कदम :
पुस्तक के बारे में 

भारत की शास्त्रोक्त और जन-परंपराओं का जो दाय सभी देशीय भाषाओं के पास है, हिंदी अपनी जन्माधिकारिणी थाती के साथ उसे भी सहेजे हुए निरंतर व्यापक स्वीकृति प्राप्त कर रही है. अब उसके हिस्से विश्व परिदृश्य पर अहर्निश उभरती उपलब्धियाँ भी आने लगी हैं, क्योंकि समस्त भाषा-समाजों से जुड़े सुधी-जन हिंदी को अपनी सहज अभिव्यक्ति के अनिवार्य माध्यम के रूप में अपना रहे हैं. वर्तमान में हिंदी की भाषायी-भूमिका जितनी महत्वपूर्ण हो उठी है, उतनी ही सांस्कृतिक सचेतनता भी और उतनी ही अधुनातन वैश्विक परिवर्तनों के प्रति सतेज दृष्टि भी. 

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के इस ग्रंथ में इन समस्त संदर्भों पर व्यापक विचार-विमर्श उपलब्ध है. छह खंडों में नियोजित इस ग्रंथ के पहले खंड ‘हिंदी का हिंडोला’ में हिंदी भाषा के ऐतिहासिक और समसामयिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करते हुए यह दर्शाया गया है कि इस भाषा का आधार व्यापक स्वीकृति प्राप्त जनभाषा है. लेखक ने संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा और विश्वभाषा के रूप में हिंदी की शक्ति को बार-बार रेखांकित किया है और यह प्रतिपादित किया है कि भारतीय संदर्भ में शिक्षा से लेकर ज्ञान-विज्ञान और राजकाज तक अंग्रेजी की स्थिति एक थोपी हुई भाषा जैसी है. संवैधानिक संदर्भ में लेखक ने याद दिलाया है कि हिंदी की लगातार उपेक्षा करने वाला समाज और राष्ट्र संविधान की आत्मा की उपेक्षा करने का अपराधी है. 

दूसरे खंड ‘दखन पवन बहु धीरे’ में दक्खिनी हिंदी और उसकी प्रशस्त साहित्य परंपरा का विवेचन करने के अतिरिक्त दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार, पठन-पाठन तथा अनुसंधान की दशा और दिशा पर प्रकाश डाला गया है और भारतीय भाषाओं के आपसी संबंध पर बल दिया गया है. 

खंड तीन ‘संप्रेषण की शक्ति’ में हिंदी के विविध अद्यतन प्रयोग क्षेत्रों और उनकी प्रयुक्तियों का विश्लेषण किया गया है. पत्रकारिता, अनुवाद, फिल्म, विज्ञापन, नया मीडिया और सोशल मीडिया हिंदी के बनने-बिगड़ने में क्या भूमिका निभा रहे हैं. इस खंड में विस्तार से इसका सोदाहरण विश्लेषण किया गया है. साथ ही बाजार से लेकर रोजगार तक के संदर्भ में हिंदी की संप्रेषण शक्ति को रेखांकित किया गया है. 

ग्रंथ का चौथा खंड ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ पर केंद्रित है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अपने बाजार-दोस्त और कम्प्यूटर-दोस्त होने के गुण के कारण हिंदी तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम भाषा सिद्ध हो चुकी है तथा उसने प्रौद्योगिकी के साथ जुड़कर वैश्वीकरण के युग में अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान का अभियान शुरू कर दिया है. 

पाँचवे खंड ‘संरक्षण के निमित्त’ में भाषा के समाज-सांस्कृतिक पहलुओं को दृष्टिपथ में रखते हुए साहित्य, संस्कृति और शिक्षा से लेकर व्याकरण तक के समस्त सैद्धांतिक प्रश्नों पर व्यवहारिक विमर्श सम्मिलित है. 

ग्रंथ के छठे खंड ‘भाषा चिंतन’ में भाषाविज्ञान और साहित्यशास्त्र से जुड़े चार आधुनिक हिंदी भाषाचिंतकों की मान्यताओं और स्थापनाओं का विवेचन इस ग्रंथ को परिपूर्णता प्रदान करता है. 

ऐतिहासिक महत्व की यह सुचिंतित सामग्री सभी तक पहुँचनी चाहिए. 

- प्रो. देवराज 
म.गा. अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, 
गांधी हिल्स, वर्धा – 442 005 

सोमवार, 13 जुलाई 2015

उत्तर आधुनिकता, साहित्य और मीडिया पर एक उपयोगी पुस्तक

पुस्तक : ''उत्तरआधुनिकता : साहित्य और मीडिया''
संपादक : ऋषभदेव शर्मा, गुर्रमकोंडा नीरजा 
प्रकाशक : जगत भारती प्रकाशन , सी-3, 77 दूरवाणी नगर, 
एडीए, नैनी, इलाहाबाद-211008 / मो. 09936079167.
संस्करण : 2015.
ISBN : 978-93-5104-236-5.
पृष्ठ : 135.
मूल्य : 295 रुपए (हार्ड बाउंड).




पुस्तक समीक्षा

उत्तर आधुनिकता, साहित्य और मीडिया पर एक उपयोगी पुस्तक 

यों तो उत्तर आधुनिक विमर्श पर केंद्रित अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं जो विद्वत्तापूर्ण सामग्री से लबरेज हैं, किंतु उनकी एक बड़ी सीमा यह है कि प्रायः विद्वत्ता के बोझ के कारण विषय की संप्रेषणीयता खतरे में पड़ जाती है और सामान्य पाठक कोई दिशा प्राप्त करने के बजाय फतवेबाजी के भवंरजाल में फँसकर रह जाता है. ऐसी क्लिष्ट पांडित्यपूर्ण पुस्तकों के नीचे दबे पाठक को ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ (2015) को देख-पढ़कर अवश्य ही ताजी हवा के झोंके का अहसास होगा. इसमें दो राय नहीं कि हिंदी साहित्य और समसामयिक मीडिया की विभिन्न विधाओं और धाराओं को कथ्य, रूप, भाषा और प्रस्तुती के स्तर पर उत्तर आधुनिक विमर्श ने गहराई तक प्रभावित किया है. ख़ासतौर से हाशिए के समुदायों की अधिकारचेतना की जो अभिव्यक्ति लिखित और मौखिक शब्द के माध्यम से पिछले दशकों में निरंतर तीव्रतर होती गई है, वह उत्तर आधुनिकता का ही प्रताप है – भले ही हम उसे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, पर्यावरण विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, किन्नर विमर्श, समलैंगिक विमर्श, मीडिया विमर्श जैसे अनेकानेक बहुकेंद्रीयता सूचक नाम देते रहें. दरअसल यह लोतांत्रिक बहुकेंद्रीयता ही उत्तर आधुनिक विमर्श की पहचान और उपलब्धी है. इसे सरल-सहज ढंग से रेखांकित करने में प्रस्तुत पुस्तक पूर्णतः सफल है. इस हेतु संपादकद्वय और पुस्तक में सम्मिलित लेखकगण साधुवाद के पात्र हैं. 

उत्तर आधुनिक विमर्श को पाठ, संरचना और उत्तर संरचना के संदर्भ में नए आयाम प्रादान करेने वाला प्रो. दिलीप सिंह का आलेख ‘उत्तर आधिनिक विमर्श : एक बहस’ इस पुस्तक का घोषणापत्र कहा जा सकता है जिसमें यह दर्शाया गया है कि ‘भाषा और साहित्य के स्तर पर हिंदी में उत्तर आधुनिकता के लक्ष्ण भारतेंदु युग से ही दिखाई देने लगते हैं तथा आज समाज और संस्कृति को प्रभावित करने वाले तमाम ज्वलंत मुद्दे उत्तर आधुनिक हैं.’ इसके अतिरिक्त प्रो. एम. वेंकटेश्वर का ‘उत्तर आधुनिक विमर्श का स्वरूप’ और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का ‘विभिन्नता की बुनियाद पर उत्तर आधुनिक विमर्श’ भी उत्तर आधुनिकता की सैद्धांतिकी की सरल शब्दों में व्याख्या करने वाले आलेख हैं. डॉ. मृत्युंजय सिंह के ‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है’ और डॉ. बलविंदर कौर के ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और पहचान का संकट’ शीर्षक आलेखों में भी इस विमर्श को खोलने की खोशिश दिखाई देती है जबकि डॉ. पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव और डॉ. भीम सिंह ने अपने आलेखों में क्रमशः स्त्री और दलित लेखन के सवाल उठाए हैं. आदिवासी संदर्भ डॉ. घनश्याम और डॉ. प्रणव कुमार ठाकुर के आलेखों में बखूबी विवेचित है. डॉ. करन सिंह ऊटवाल का लेख नाटक और रंगमंच की उत्तर आधुनिकता को खोजता है तो डॉ. विष्णु भगवान शर्मा उत्तर आधुनिक भाषा संकट के संदर्भ में राजभाषा हिंदी से जुड़े विचारोत्तेजक प्रश्न उठाते दिखाई देते हैं. 

यह तो हुई उत्तर आधुनिकता की सैद्धांतिकी तथा साहित्य और भाषा पर पड़ रही उसकी छाया की बात. प्रो. गोपाल शर्मा इनसे आगे बढ़कर समकालीन मीडिया लेखन और उत्तर आधुनिक मीडिया विमर्श की पड़ताल करते हैं जबकि डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा प्रयोजनमूलक हिंदी और प्रिंट मीडिया पर दैनिक पत्रों के संदर्भ में प्रकाश डालते हुए यह दर्शाती है कि उत्तर आधुनिकता के विस्फोट के कारण हिंदी में नई नई प्रयुक्तियों तथा उप-प्रयुक्तियों का विकास अत्यंत शुभलक्ष्ण है. 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा के इस पुस्तक में चार आलेख हैं. एक आलेख में उन्होंने भूमंडलीकरण की चुनौतियों के साथ जोड़कर मीडिया के रूपों और हिंदी के स्वरूप पर चर्चा की है तो दूसरे में उत्तर आधुनिक मीडिया और साहित्य के संबंधों की पड़ताल की है. उनका तीसरा आलेख कुछ हटकर है – ‘स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति’. इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि उपभोक्तावाद और उपभोक्ता संस्कृति दो भिन्न चीजें हैं तथा स्त्री समूह उपभोक्ता संस्कृति के निर्माण में रचनात्मक भूमिका निभाकर स्त्री को ‘भोग्या’ छवि से निकालकर ‘नारी से नागरिक’ बनाने की क्षमता रखते हैं. डॉ. शर्मा का अंतिम आलेख ‘हिंदी सिनेमा की उत्तर आधुनिकता’ अपने आप में एक पूरे शोधप्रबंध की रूपरेखा सरीखा है जिसमें उत्तर आधुनिक कला के बारह लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए हिंदी सिनेमा की विवेचना की गई है. कहना न होगा कि यह शोधपूर्ण आलेख इस पुस्तक को अत्यंत मूल्यवान बनाने में समर्थ है. 

कुलमिलाकर ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ संदर्भित विषय पर एक ऐसी पुस्तक है जिसे छात्र और शोधार्थी तो उपयोगी पाएँगे ही सामान्य जिज्ञासु पाठक भी रोचक और जानकारीपूर्ण पाएँगे. 

- अमन कुमार 
सह-संपादक ‘मनमीत’ और ‘शार्प रिपोर्टर’ 
 ए 7, आदर्श नगर, नजीबाबाद – 246763 
मोबाइल – 09897742814 
ईमेल - amankumarnbd@gmail.com