प्राक्कथन
उनके शब्द बोलते हैं, चिल्लाते नहीं। अभिव्यक्ति चोट नहीं करती, बल्कि मरहम लगाती है। तल्ख़ी और तुर्शी कभी-कभार ही झलकती है। किंतु अधिकतीक्ष्णहोने से पहले ही सँभल जाती है। ऋषभ के लेखन में आक्रोश कम है। आसक्ति अधिक है। ‘संपादकीयम्’ इन्हीं सबका ‘कॉक्टेल’ है। हिंदी भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है। चाहते तो विशुद्ध हिंदी में लिखकर भी पाठकों तक पहुँच सकते थे। किंतु आम बोलचाल की भाषा, जिसमें अन्य भाषाओं के भी शब्द होते हैं, उनके लेखन को ‘सर्वग्राह्य’ बना देती है। हाँ, कभी-कभी ठेठ हिंदीदाँ होने का आभास मिलता है और कतिपयआंचलिकता भी झलकती है। लेकिन किसी उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के सर्वेसर्वा रह चुकने वाले किसी शिक्षाविद् को ‘अखबारी’ दुनिया से जुड़ने के बाद भाव, भाषा, भंगिमा और भूमिका आदि को नए सिरे से साधना पड़ता है। और इस मुहिम में वे सफल हुए हैं।
ऋषभ के आलेखों की एक और विशेषता है। उनकी ‘पत्रकारिता’ में ‘पक्षकारिता’ फ़िलहाल तो नहीं मिलती। ऐसे में, जबकि पूरा मीडिया जगत ‘पक्षकारिता’ का शिकार है, ऋषभ अपने लेखन में किसी का पक्षकार होने से बचते हैं। हमारा मानना है कि ‘संपादकीयम्’ का यही रंग होना चाहिए। ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।‘ उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि मोदी को लाओ या हटाओ। शेर-ओ-शायरी तथा कविताओं के अंश उद्धृत करके वे अपनी बात को, अपने निष्कर्ष को, धार देते हैं।
विषय के चयन से स्पष्ट हो जाता है कि वे रस्म-अदायगी के लिए नहीं, सोद्देश्य लिखते हैं। चयनित विषय को, शैलीगत सौंदर्य में लपेट कर वे आलेख को पठनीय बना देते हैं। चुटीलापन होता है, मगर वह चुभता नहीं। उनके लेखन में कर्कशता नहीं है, लावण्य है।
व्यंग्य, उनके संपादकीय लेखों में कभी-कभार ही आटे में नमक जैसा रहता है। पता नहीं, लेख का ताना-बाना बनाने में वे क्या मशक़्क़त करते हैं, किंतु शैलीगत मर्मज्ञता बता देती है कि कच्ची कपास को धुन-धुनाकर वे विषय को कोमल फाहा और गाला बना लेते हैं। कभी-कभार ऐसे विषय भी उन्होंने चुने हैं, जिनपर कलम चलाते वक़्त शायद ग़ुस्सा, झुँझलाहट, झल्लाहट ज़रूर उभरी होगी। किंतु शब्द-संयम के सहारे उन्होंने उन तमान विकारों को दूर रखा।
और अंत में, अपनी बात। अनेक कारणों से हम ऋषभदेव जी को ‘मित्र’ कम, ‘हितैषी’ ज़्यादा मानते हैं। उन्हें ‘मिलाप’ से जोड़ने के पीछे भी ‘स्वहित-सिद्धि’ का भाव प्रबल रहा है। ‘अख़बार’ में उनके लायक ‘स्पेस’ बनाने में हमें काफ़ी समय लगा। अन्यथा ‘संपादकीयम्’ का कलेवर बहुत बड़ा हो जाता। उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि और समृद्धि की कामना के साथ, हमें यह स्वीकारने में संकोच नहीं है कि उन्होंने हमारी थकन को विश्राम दिया है। इसके लिए धन्यवाद।
26 जनवरी, 2019 - रवि श्रीवास्तव
संयुक्त संपादक, डेली हिंदी मिलाप
हैदराबाद।
अभिनन्दन !
जवाब देंहटाएंस्वागत है। डॉ ऋषभ देव को पढ़ना अर्थात् अपने दिल,दिमाग और दुनिया को पढ़ना है।आज जब सभी अपने में ही घुसे का रहे हैं तो इसका भी साहित्यिक आनंद लेकर चलें।अपने को लिखना बहुत रोमांचक है तो अपे को पढ़ना कितना रोमांचक हो सकता है।पढ़कर देखो।शुभ कामनाएं
जवाब देंहटाएंईमानदारी पूर्ण लेखन ।
जवाब देंहटाएंपत्रकारिता में निष्पक्षता बनाए रखना आज के युग में काफी मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन प्रोफेसर ऋषभदेव जी शर्मा ने उसे बनाए रखने में अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है और वे इस कोशिश में कामयाब भी हुए हैं। इसलिए वे बधाई और साधुवाद के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंऋषभ जी के लेखन की प्रशंसा में कुछ कहना सूर्य को दीप दिखाने जैसा है। इसलिए उन्हें केवल बधाई देना ही सबसे उपयुक्त, सहज व सुरक्षित पाती हूँ। रवि जी ने जिस प्रकार ऋषभ जी के प्रति स्नेह, आदर व विचारपूर्वक लिखा है उस से सहज सहमत हूँ। उनके वाक्यों में सहज स्वीकार्यभाव का साक्ष्य बन गत बीस वर्ष स्मृति में उभर आए हैं।
जवाब देंहटाएंअशेष शुभकामनाओं सहित