पुस्तक समीक्षा
केवल शिक्षामंत्री नहीं हैं रमेश पोखरियाल 'निशंक'
- समीक्षक: डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
समकालीन भारत में अगर आपको चर्चित होना है, तो आप राजनेता और अभिनेता बन जाइए, रातों रात आप प्रसिद्धि के चरमशिखर पर पहुँच जाएँगे। पर साहित्यकार बनकर प्रसिद्धि पाने में समय और संयम दोनों की आवश्यकता पड़ती है। उसमें भारतीय भाषाओं के साहित्यकार को प्रसिद्धि के साथ-साथ पाठकों की संख्या बढ़ोतरी के लिए भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। चेतन भगत, शोभा डे आदि अंग्रेज़ी-लेखकों के बारे में यहाँ बात नहीं हो सकती, वे दूसरे कारणों से अपवाद हैं। यह भारत का सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों है। अब देखिए, हमें पता है रमेश पोखरियाल 'निशंक' केंद्रीय शिक्षा मंत्री हैं, पर पूरे देश में कितने लोगों को पता है कि 'निशंक' जी यशस्वी साहित्यकार भी हैं? शायद बहुत कम। '1990 में साहित्यांचल संस्था (कोटद्वार) ने उन्हें 'निशंक' उपनाम दिया'। (तत्त्वदर्शी निशंक, पृष्ठ 293)। 'निशंक' शब्द का अर्थ है शंकाहीन; निडर। हिमालय पुत्र रमेश पोखरियाल वाकई इस उपनाम को सुशोभित करने का सामर्थ्य रखते हैं। केवल देश ही नहीं विदेशों तक उनकी पहचान है। लेकिन अभी भी उन्हें लेकर जितनी गहन चर्चा होनी चाहिए, नहीं हुई है। संपादक प्रो. ऋषभदेव शर्मा और सह संपादक शीला बालाजी के नेतृत्व में छपी विवेच्य पुस्तक 'तत्वदर्शी निशंक' (2021) इस शून्य को भरने का एक सार्थक और सफल प्रयास है। जैसा कि डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा 'अरुण' जी ने आशीर्वचन देते हुए लिखा है, 'हिमालय-पुत्र रमेश पोखरियाल 'निशंक' की साहित्य-साधना का जैसा अभूतपूर्व भावभिनंदन 'तत्त्वदर्शी निशंक' ग्रन्थ के माध्यम से किया गया है, वैसा अभी तक नहीं हुआ है।' आगे अरुण जी ने यह भी लिखा है, 'कुल छह खंडों में विनयस्त करके बहुआयामी साहित्य-साधक रमेश पोखरियाल 'निशंक' के सम्पूर्ण रचना-कर्म का गहन मूल्यांकन दक्षिण भारत के हिन्दी-सेवी साहित्य-साधकों द्वारा कराया जाना, स्वयं में ही एक विलक्षण कार्य कहा जा सकता है।' (तत्त्वदर्शी निशंक, पृष्ठ 7)। निजी अनुभवों से 'निशंक' ने जो साहित्य-विवेक अर्जित किया है, संघर्ष उसका बीज-शब्द है। वे मानते हैं कि, "संघर्ष और चुनौतियों से जो रिश्ता हमारे जीवन का है, वही रिश्ता सार्थक साहित्य का भी है। प्रतिबद्धता की मशाल जलाए निरंतर अन्याय व अँधेरे से जूझना इन दोनों का धर्म है। जीवन और साहित्य तभी सार्थक हैं, जब ये जनोन्मुखी और जन-सरोकारी हों। लोकहित की भावना से अनुप्राणित हों। साहित्य की भी इसलिए कलागत उपयोगिता से जीवनगत उपयोगिता ज्यादा है।" (पृष्ठ 11)।
साहित्य की बात हो और सौन्दर्य की चर्चा न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? आत्मवादी दार्शनिक क्रोचे मानते हैं, 'Aesthetics is the science of the expressive activity'. प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं, 'सौन्दर्यशास्त्र दर्शन का एक अंग है, जिसका उद्देश्य सौन्दर्य तथा उसकी अनुभूति की व्याख्या करना है'। 'निशंक' ने साहित्य और सौन्दर्य के इस सहसंबंध को न केवल समझा, बल्कि उसे स्वीकार भी किया है। उनकी रचनाओं में बलपूर्वक सौन्दर्य को नहीं खोजना पड़ता। उन्होंने अपनी रचनाओं में साहित्यिक सौन्दर्य को मानवीय मूल्यों में स्थापित किया है। कवि की संवेदना इन शब्दों में व्यक्त होती है - 'सदा शांति पथ पर चलना है,/हमने ध्येय बनाया था।/ राग द्वेष हिंसा को तज कर,/ स्नेहिल विश्व बनाया था।।' (पृष्ठ 53)।
'प्रतीक्षा' खंडकाव्य के 'क्रांति पर्व' में कवि की सामाजिकता में मानवीय सौन्दर्य के दर्शन होते हैं- 'मानवता के नाते हमने,/ सबको ही सम्मान दिया।/ छल बल करनेवालों से तो, /हम निपट आएँगे ठान लिया।।' (पृष्ठ 59)। सौन्दर्यशास्त्र के प्रमुख अंग हैं- कल्पना, प्रतीक, बिम्ब, अलंकार, नव रस आदि। 'निशंक' की कविताओं में सौन्दर्य के इन सभी प्रतिमानों को भली भाँति देखा जा सकता है और डॉ. निर्मला एस. मौर्य ने 'उद्देश्य की महानता में सौन्दर्य का रहस्य' नामक आलेख के द्वारा 'निशंक' की रचनाओं में व्याप्त सौन्दर्य का विस्तृत विश्लेषण किया है।
जहाँ डॉ. एन. लक्ष्मीप्रिया ने यह दर्शाया है कि, 'निशंक जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज और साहित्य के बीच सेतु का कार्य किया है।" (पृष्ठ 88)। वहीं 'देशप्रेम की चेतना' में डॉ. सुपर्णा मुखर्जी ने लक्षित किया है कि, 'आज के यांत्रिक युग में जब किसी के घर में बच्चे के जन्म के होने पर वह डॉक्टर बनेगा या इंजीनियर, वकील या कलाकार, इन बातों को लेकर हँसी-मज़ाक, वाद-विवाद का माहौल बन जाता है, ऐसे समय में 'प्रतीक्षा' (खंडकाव्य) की माँ ईश्वर से प्रार्थना कर रही है -हे ईश्वर मेरे दीपू को/ परम शक्तिशाली कर दो।/ रहे देश-सेवा में तत्पर/ ममता भी मन में भर दो।।/ अरमानों को कुचल न देना।/ हे प्रभु, इतना तो सुन लो।।/ बेटा वीर बने मेरा फिर/ मुझको तुम जितना दुख दो।।' (पृष्ठ 69)। इसी प्रकार डॉ. भागवतुल हेमलता का मत है कि, 'निशंक की कविताओं में एक खास तरह की सृजनात्मकता एवं रचनात्मक ऊर्जा दिखाई पड़ती है। उनकी प्रत्येक पंक्ति एक प्रेरणा होती है और प्रत्येक प्रेरणा मार्गदर्शी होती है।' (पृष्ठ 84)।
'निशंक' का हिन्दी साहित्य में पदार्पण कवि के रूप में हुआ। उनके काव्य का मूल स्वर राष्ट्रीयता होने के कारण उनकी गणना राष्ट्रीय कवि के रूप में की जाती है।' (पृष्ठ 45)। लेकिन कहानीकार तथा उपन्यासकार के रूप में भी उनकी पहचान कुछ कम नहीं है। उनकी कहानियों में 'आदर्श और यथार्थ' के सम्मिलित रूप को देखा जा सकता है। 'रमेश पोखरियाल 'निशंक' एक ऐसे समसामयिक साहित्यकार हैं जिन्होंने अपनी अनुभूत सच्चाइयों को अपनी रचनाओं की विषय-वस्तु बनाया है। उनकी कहानियों में एक ओर आदर्श का प्रतिफलन है तो दूसरी ओर यथार्थ का।' (पृष्ठ 104)। डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने उनकी कहानियों में व्याप्त 'आदर्श और यथार्थ' से सम्बन्धित चेतना का गहन अध्ययन इस पुस्तक में किया है। उन्होंने अपने आलेख को 13 भागों में बाँटकर, 'निशंक' की कहानियाँ 'आदर्श और यथार्थ' के धरातल पर कितनी खरी उतरती है, इसका गंभीर अध्ययन किया है। उनके इस अध्ययन के सहारे ही हम पाठक इस तथ्य से अवगत हो सके हैं कि 'निशंक' विवेकानंद के विचारों से प्रभावित हैं, अतः उनकी सोच सकारात्मक है।
'निशंक' विवेकानंद के विचारों से कितने प्रभावित हैं, यह समझने के लिए उनकी रचना 'संसार कायरों के लिए नहीं' का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है। सन् 2014 में यह रचना प्रकाशित हुई, जिसमें 72 लेखों के माध्यम से व्यक्तित्व निर्माण से संबंधित तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक को ही डॉ. सुरेश भीमराव गरुड़ ने अपने आलेख का विषय बनाया है। इस पुस्तक की महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें 'स्वामी विवेकानंद के उन मृत्युंजयी विचारों को लिया गया है, जिनसे आज के संदर्भों में कायाकल्प लाया जा सकता है।' (पृष्ठ 281)। 'स्वामी विवेकानंद ने 1897 में ही यह घोषित किया था कि भारत अगले पचास वर्षों में स्वतंत्र हो जाएगा। उन्हें यह चिंता कदापि नहीं थी कि भारत स्वतंत्र होगा कि नहीं होगा, पर उनकी चिंता यह थी कि क्या भारत यह स्वतन्त्रता कायम रख सकेगा। इस दिशा में ही उन्होंने कार्य किया। प्रत्येक भारतवासी को भीतर से संस्कारित करने का कार्य स्वामी जी ने किया।' (पृष्ठ 283)। 'निशंक' जी ने स्वामीजी के इन विचारों का गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन का प्रभाव उनके व्यक्तित्व तथा उनकी रचनाओं पर भी पड़ा। वे सकारात्मक बन सके और इसी सकारात्मक सोच के कारण उन्होंने अपनी कहानियों के अनेक मानवीय पात्रों के साथ-साथ जीव-जन्तुओं में भी समर्पण भाव को दिखाया है। 'और मैं कुछ नहीं कर सका' शीर्षक कहानी का डब्बू (घोड़ा) अपने मालिक दयाल की जान बचाने के लिए अपनी जान दाँव पर लगा देता है। यह इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प के सहारे ही सम्भव है। (पृष्ठ 107)। दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ ही बलिदान भाव, श्रद्धा और समर्पण भाव का होना भी आवश्यक है। 'निशंक' ने अपनी कहानी 'अंतिम क्षण तक' में इन भावनाओं को दर्शाया है। जंगल में लगे दावानल को बुझाने के लिए जब कोई आगे नहीं आता, तब चंदू अकेले ही जूझ पड़ता है। जंगल ही मानो उसका घर है- 'आदमी को अपनी औलाद से जितना लगाव होता है, उससे भी अधिक लगाव उसे इन पेड़-पौधों से हो गया था। सारा जीवन ही उसने इसमें बिता दिया था।' (पृष्ठ 107)।
डॉ. डॉली मौर्य ने इस प्रसंग को लेकर चर्चा की है कि 'निशंक' जी की कहानियाँ 'समकालीन परिवेश' के साथ कैसे जुड़ती हैं। आज के लॉकडाउन की परिस्थिति में उनकी कहानी 'आशियाना' को देखना प्रासंगिक है। 'इसमें यह दिखाया गया है कि ये मजदूर जहाँ बस जाते हैं, वहीं अपना घर बना लेते हैं।' (पृष्ठ 127)। रुक्मिणी, उसकी बहू और बेटा शहर आकर एक औद्योगिक निर्माण में मजदूरी करने लगते हैं। वे जिस बस्ती में रहते थे, उस बस्ती की ज़मीन को सेठ रतनलाल हथियाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बस्ती में आग लगवा दी। उन्होंने लोगों की जान की भी परवाह नहीं की। अंत में यह दिखाया गया है कि मजदूर इतना सब होने के बाद भी हताश नहीं होते, 'बस कर उजड़ना और फिर से बसना ही उनकी जैसे नियति बन गई है।' (पृष्ठ127)।
डॉ. श्रीलता विष्णु और डॉ. सुषमा देवी ने 'निशंक' की 'टूटते दायरे', 'जग की रीत', 'अतीत की परछाइयाँ,' 'खड़े हुए प्रश्न', 'अंतहीन', 'कैसे संबंध', 'एक थी जूही', 'अनजान रिश्ता' आदि अनेक कहानियों का गहन अनुशीलन किया और इस अनुशीलन का निष्कर्ष यही निकला कि, 'लेखक की पैनी दृष्टि से जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है। उन्होंने समाज की सदियों की परम्परा को आगे बढ़ानेवाली इन सारी बातों को अपनी कहानियों में उकेरा है।' (पृष्ठ 172)। ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने 'समाज दर्शन और राष्ट्रवाद' नामक अपने आलेख में बहुत सही प्रतिपादन किया है कि, 'निशंक का समाज दर्शन और राष्ट्रवाद उन कोणों पर टिका हुआ है, जो सामाजिकता के सतरंगी सपनों से निर्मित होते हैं, परन्तु इन सपनों को धड़कने के लिए अमानवीय वेदना से गुजरना पड़ता है। ये सपने कभी टूटते भी हैं, बिखरते भी हैं, रोते और बिलखते भी हैं, परन्तु वे अपने साथ एक सशक्त और उन्नत राष्ट्र की अवधारणा लेकर चलते हैं। इन सपनों के रंगों में ऊँच-नीच, अमीर-गरीब और छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं है।' (पृष्ठ 141)।
प्रो. गोपाल शर्मा 'तत्वदर्शी निशंक' के सम्बन्ध में लिखते हैं,"निशंक के कथा-सागर में समाज भी है और समाज की अच्छी-बुरी रीतियाँ भी, पर जनरुचि को विकृत करनेवाले प्रसंग नहीं। समाज के विद्रूप का चित्रण है तो इसलिए, क्योंकि परिदृश्य समकालीन है।" (पृष्ठ 344)। इस संदर्भ में उनकी 'कैसे संबंध' कहानी की चर्चा डॉ. संगीता शर्मा ने की है। उसके मूल तत्व को यहाँ देखना समीचीन होगा। 'लिव- इन- रिलेशनशिप को न्यायिक प्रक्रिया द्वारा वैध ठहराया गया है। भावी पीढ़ी धीरे-धीरे विवाह जैसी संस्था को निरस्त कर देगी और सामाजिक मूल्यों का पतन हो जाएगा। हमारी संस्कृति का ह्रास हो जाएगा, जिसकी चिंता लेखक को भी है, इसलिए उन्होंने 'कैसे संबंध' जैसी कहानी द्वारा एक तरह से चेतावनी दी है और यह जताने की कोशिश की है कि यदि हमारी संस्कृति और हमारे संस्कारों को नकारा जाएगा तो वह आनेवाली पीढ़ी के लिए हज़ारों मुश्किलों को न्योता देने के समान होगा।" (पृष्ठ 313)।
'बालपन से ही कर्मठ रहे बालक रमेश को विद्याध्ययन के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। बचपन से पढ़ाई में रुचि होने के कारण वे प्रतिदिन ऊँची पहाड़ी की सात किलोमीटर की पैदल यात्रा किया करते थे। गाँव से स्कूल के बीच घने जंगल और गाड़-गधेरों को पार करना पड़ता था। एक बार तो वे उफनते गधेरे में बह गए थे। मगर अपने विवेक और ईश्वर की कृपा से बच गए।' (पृष्ठ 40)। उनके साहित्य के गंभीर अध्येता प्रवीण प्रणव ने 'आपदा के वह भयावह दिन' और 'प्रलय के बीच' नामक निशंक जी के दो संस्मरणों को अपने आलेख का विषय बनाया है। प्रवीण प्रणव लिखते हैं, "निशंक का लेखन सरल और प्रभावी है। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत संदर्भों का विवरण इस बारीकी से किया गया है कि पाठक अपने आप को भी 'निशंक' के साथ आपदा की इस घड़ी में गाँववालों के साथ खड़ा पाते हैं।" (पृष्ठ 227)। 'आपदा के वह भयावह दिन' नामक संस्मरण में 'निशंक' जी ने उत्तराखंड के बारे में लिखा है, "भारत के मस्तक पर सुशोभित हिमालय के हृदय, इस उत्तराखंड का कण-कण इसी हिमालय से पोषित, पल्लवित और पुष्पित है। यहाँ की अलौकिक छटा, प्राकृतिक सम्पदाओं का अनुपम खजाना और आध्यात्मिक चेतना का अद्भुत संसार इसी दिव्य हिमालय की देन है। दिखने में भले ही मिट्टी, पत्थर और बर्फ से निर्मित प्रकृति की बेजान कृति लगता है, मगर है यह साक्षात् 'शिव स्वरूप', 'जाग्रत और चैतन्यशील', इसलिए शिव की तरह सृजन और संहार इसके स्वभाव में है।" (पृष्ठ 226)। 'निशंक' ने इस सृजन तथा संहार दोनों को बहुत पास से देखा। इसी कारण से ये संस्मरण केवल संस्मरण न होकर 'आपदा प्रबंधन और आपदा की स्थिति में बचाव कार्य कैसे किया जाना चाहिए, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। दोनों संस्मरण न केवल उत्तराखंड प्रशासन और सरकार से जुड़े सभी लोगों के लिए, बल्कि किसी भी पर्वतीय राज्य के निवासियों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि आपदा की घटनाओं में ये सफलता और विफलता दोनों की कहानी समेटे हैं।' (पृष्ठ 255)।
ऐसे जीवटभरे रचनाकार के उपन्यासों में 'पहाड़ी जीवन का जीवंत दस्तावेज' न दिखाई पड़े, यह कैसे हो सकता है? विवेच्य ग्रंथ 'तत्वदर्शी निशंक' के चतुर्थ खंड 'उपन्यास सृष्टि' में डॉ. बी. बालाजी और डॉ. मंजु शर्मा ने निशंक के उपन्यासों में वर्णित विभिन्न पहाड़ी आयामों का विश्लेषण किया है। डॉ. बी. बालाजी ने मेजर निराला, बीरा, निशांत, कृतघ्न, प्रतिज्ञा, छूट गया पड़ाव आदि उपन्यासों का गहन अध्ययन करने के बाद निष्कर्षतः बहुत अच्छी बात कही है कि, 'रमेश पोखरियाल 'निशंक' समकालीन संदर्भ में पहाड़ी जनजीवन की पृष्ठभूमि पर भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अंकन का कार्य कर रहे हैं। उन्होंने एक ओर जहाँ पर्वतीय जनसमुदाय की जीवन-शैली के विभिन्न रूप-रंग, संस्कृति को अपनी लेखनी से उकेरा है, वहीं उसके उत्थान के लिए जीवन की विभिन्न समस्याओं के समाधान भी खोज निकाले हैं। हिंदी साहित्य में प्रेमचंद, बाबा नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, मिथिलेश्वर आदि ग्रामीण परिवेश की कथा लिखने में सिद्धहस्त साहित्यकारों की सूची में रमेश पोखरियाल 'निशंक' के रूप में एक और नाम जोड़ा जा सकता है।" (पृष्ठ 206)।
डॉ. मंजु शर्मा ने डॉ. बी. बालाजी की विचार-शृंखला को आगे बढ़ाते हुए इस विषय को ठोस तथ्यों के द्वारा प्रेषित किया है कि पहाड़ी जीवन में 'चेतना के विविध आयाम' कैसे उभरते हैं और उन्हें 'निशंक' ने अपने उपन्यासों में कैसे उभारा है। 'लेखक ने पहाड़ी जीवन का अध्ययन बहुत नजदीक से किया है, तभी वे लिख सके कि पहाड़ की अर्थव्यवस्था को मनीआर्डर-व्यवस्था कहते हैं। प्रायः पहाड़ के हर परिवार का एक आदमी फौज में होता है, जो छुट्टियों में कैंटीन से सस्ती शराब लाता है और पूरा गाँव संग बैठकर उसका आनंद उठाता है, लेकिन यह क्षणिक आनंद युवाओं संग अन्यों को भी शराब का आदी बना देता है, जिससे नशे की हालत में वे दुष्कर्म तक का प्रयत्न करते हैं। उनकी कुचेष्टा का शिकार प्रत्यक्ष रूप से लड़कियों को होना पड़ता है। दूर-दराज जाकर पढ़नेवालों की पढ़ाई तक रोक दी जाती है, सुरक्षा के नाम पर।' (पृष्ठ 304)।
उल्लेखनीय है कि साहित्यकार 'निशंक' जी का मानना है कि, 'उनके लिए रचनाकार होने की कोई बुनियादी शर्त नहीं है; बस इतना ही कि संवेदनशील कल्पना और सपनों को साकार करने के संकल्प ने उन्हें साहित्य की विविध विधाओं से जोड़ा है। उनके लिए लिखना बस लिखना नहीं, बल्कि ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढ़ावों को जीवंतता से अपनी रचनाओं में उड़ेलना है- उनके सारे सृजन की बुनियाद अंतःस्थल की यही संवेदनशीलता है।" (भूमिका: तत्वदर्शी 'निशंक', ऋषभदेव शर्मा)। प्रो. गोपाल शर्मा ने, तत्वान्वेषी साहित्यकार की क्या पहचान होती है, इस विषय में कहा है कि ,'एक तत्वान्वेषी साहित्यकार के लिए जीवन का ध्येय सत्य से साक्षात्कार होता है।' (पृष्ठ 333)। आगे प्रो. गोपाल शर्मा लिखते हैं, 'उपनिषदों के सार तत्व श्रीमद्भगवद्गीता में जीवन के दो आदर्श बताए गए हैं- आत्म-लाभ और लोक-संग्रह। 'निशंक' को इस अर्थ में तत्वदर्शी कहा जा सकता है, क्योंकि वे एक ओर तो व्यक्तित्व विकास और आत्म-कल्याण के लिए साहित्य और साहित्येतर लेखन करते हैं, दूसरी ओर लोक में मर्यादा बनाए रखने के लिए लोक-संग्रह की भावना से रचनात्मक लेखन की ओर प्रवृत्त होते हैं।' (पृष्ठ 336)। यह स्थापना शत-प्रतिशत सही है और 'निशंक' जी इस निकष पर खरे उतरते हैं। उनके कविता संग्रह 'मुझे विधाता बनना है' में मनुष्य के अदम्य साहस की पराकाष्ठा है। 'ऋतुपर्ण' शीर्षक कविता में कवि ने अपने देशप्रेम की ऊंचाइयों को छूते हुए कहा है कि- जिसने मुझको जन्म दिया है/ और महत मानव का तन/ उसी राष्ट्र को है मेरा/ सदा समर्पित यह तन-मन।" (पृष्ठ 311)।
डॉ. रमेश पोखरियाल की 'विश्व दृष्टि' अत्यंत प्रशस्त और उदार है। मिलन विश्नोई ने 'निशंक की विश्व दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए कहा है,'निशंक की कहानियों को पढ़कर पहले-पहल यकीन नहीं होता कि एक राजनेता के दिल में इतनी संवेदनाएँ हो सकती हैं। 'निशंक' के साहित्य को पढ़ने से अनुभव होता है कि लेखक ने गरीब मजदूरों और महिलाओं की करुण कहानी को यथार्थ अनुभव के आधार पर गढ़ा है।' (पृष्ठ 318)। निशंक 'अब गाँव चलें' कविता के माध्यम से समाज के युवाओं के साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश करते हैं- 'बाट तुम्हारी राह जोहती,/ नदियाँ हैं अकुलाई,/ पवन के झोंके तो ठहरे हैं, कलियाँ भी मुरझाई।/ ईर्ष्या की लपटों से बचकर तरु की छाँव चलें/ छोड़ सभी आडंबर जग के, आ अब गाँव चलें।' (तत्वदर्शी निशंक, पृष्ठ संख्या-319)।
डॉ. उषा रानी राव ने 'निशंक' की विश्व दृष्टि पर चर्चा करते हुए बड़ी अच्छी बात कही है, 'एक लेखक साहित्यिक मूल्यों की सजीवता को व्यक्त करने के लिए संवेदना जगत के परिवर्तित जगत में विचरण करता है, जहाँ उसे कविता, कहानी, खंडकाव्य उपन्यास आदि विभिन्न विधाओं में जीवन और जगत के चाक्षुष तानों-बानों से विकसित अपनी अनुभूति को शब्द देना होता है। रमेश पोखरियाल 'निशंक' इसी प्रकार के सार्थक रचनाकर्म में निरत व्यक्तित्व रहे हैं।' (पृष्ठ 330)। यही कारण है कि उनके समग्र साहित्य का अनुशीलन करके डॉ. चंदन कुमारी इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि, 'रमेश पोखरियाल निशंक का साहित्य जीवन में आस्था बढ़ानेवाला है। वह विपरीत परिस्थितियों से जूझने की प्रेरणा देते हुए मानव मन में अदम्य साहस भरता है और जीने का उल्लास जगाता है।' (पृष्ठ 308)
यहाँ एक बात और कहना चाहूँगी कि यह एक दुष्प्रचार ही है कि 'दक्षिण में हिंदी को लेकर काम नहीं होता या हिंदीभाषियों को ही हिन्दी की अच्छी समझ होती है। प्रस्तुत पुस्तक में लिखनेवाले लेखक हिंदीभाषी ही नहीं, मराठीभाषी, तेलुगुभाषी, बांग्लाभाषी, मलयालमभाषी, कन्नड़भाषी और तमिलभाषी हैं। ये सभी तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल तथा सुदूर अंडमान और निकोबार में हिंदी की सेवा अध्यापक, पत्रकार और लेखक के रूप में समर्पण-भाव से कर रहे हैं। इस प्रकार यह ग्रंथ दक्षिण में हिंदी की स्थिति को दर्शाने वाला प्रामाणिक ग्रंथ भी है। ///
समीक्षित पुस्तक- "तत्त्वदर्शी निशंक"
संपादक- प्रो. ऋषभदेव शर्मा
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2021
मूल्य- सात सौ रुपए
पृष्ठ- 352 (सजिल्द)। "
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समीक्षक-
डॉ. सुपर्णा मुख़र्जी,
हिंदी प्राध्यापक,
सेंट ऐंस जूनियर एंड डिग्री कॉलेज फॉर गर्ल्स एंड वीमेन,
मल्काजगिरी,
हैदराबाद - 500047.
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