बुधवार, 5 मई 2021

(पुस्तक समीक्षा) हिंदी साधक डॉ. निशंक का भावाभिनंदन

हिंदी साधक डॉ. निशंक का भावाभिनंदन

- डॉ. चंदन कुमारी

भारत के शिक्षामंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक (1959) का व्यक्तित्व बहुआयामी है| वे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं| इससे पूर्व वे स्वयंसेवक, शिक्षक एवं पत्रकार की भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं| राजनीति के क्षेत्र में उनका पदार्पण माननीय अटल बिहरी वाजपेयी के स्नेहादेश से हुआ| उनके कार्यकाल के दौरान उनकी सेवाभावना और कर्तव्यपरायणता से सभी स्वतः परिचित हो रहे हैं| तथापि एक संवेदनशील और भावुक व्यक्ति हमेशा सेवा और कर्तव्य का पालन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता| वह अपने अनुभवों को सबके साथ साझा करना चाहता है| अपने साहित्य के माध्यम से डॉ. निशंक ने भी यह किया है| उनका साहित्य अनुभव से उपजा है| वैश्विक स्तर पर अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें बारंबार विविध सम्मानों से नवाजा गया है| देश-विदेश की कई भाषाओँ में उनके साहित्य का अनुवाद किया गया है। साथ ही वैश्विक स्तर पर उनकी बहुत-सी रचनाएँ पाठ्यक्रम में भी शामिल की गई हैं| एक सामान्य मनुष्य जिसने संघर्षों में तपकर अपने जीवन को प्रकाशवान बनाया है, निश्चित ही वह राष्ट्र के भावी कर्णधारों के लिए प्रेरणास्रोत है| अभावों और विपदाओं को अपने संघर्षशील जुनून से मात देकर जिस तरह डॉ. निशंक ने उन्नति और उच्चता तक का सफर तय किया है; वह उनकी कर्मठता का द्योतक है| उनकी कर्मठता एवं संवेदनशीलता का साक्षात्कार देशवासियों ने केदारनाथ के भयावह जलप्लावन के दौर में भी किया है| उन्होंने अपने साहित्य में दिखाया है कि आज किस तरह सुविधाभोगी और दिशाहीन जीवन जीने की मानसिकता के बोझ से मनुष्यता कराह रही है| स्वार्थांधता ने अपनत्व को दबोच रखा है| अपने ही दुःख से व्याकुल प्राणी नीतिशून्य और मर्यादापतित-सा आचरण कर रहा है| सामाजिक परिवेश के यथार्थ चित्रण के साथ इनके साहित्य में जो पक्ष प्रबलता से उभरा है, वह है ‘जिजीविषा’| इसलिए इनके साहित्य में मनुष्यता जिंदा है| आत्मीयता जिंदा है| नीति और मर्यादा जिंदा है। साथ ही प्रतिभाएँ निखरी हुई और सफलता की पराकाष्ठा को चूमनेवाली हैं| यहाँ असहाय और लाचार व्यक्ति भी ईमानदारी और कर्मठता का संदेश देता है| जीवन से पलायन आवश्यक नहीं, आवश्यक है जीवन में छाए दुखों और अनिष्टों का उन्मूलन या उनका स्वरूप परिवर्तन|

निशंक के साहित्य में निहित इन्हीं आशावादी स्वरों की समेकित पड़ताल के रूप में ‘तत्त्वदर्शी निशंक’(2021) ग्रंथ का प्रणयन हुआ है| इसके संपादक दक्षिण भारत के मूर्धन्य हिंदीसेवी, शिक्षाविद, समीक्षक एवं साहित्यकार डॉ. ऋषभदेव शर्मा हैं एवं सह संपादक शीला बालाजी हैं| यह ग्रंथ दक्षिण के अध्येताओं की ओर से यशस्वी राजनेता एवं साहित्यकार डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक को ही समर्पित है| यह डॉ. निशंक का भावाभिनंदन है|

विवेच्य ग्रंथ में छह खंड हैं जो क्रमशः इस प्रकार हैं- विषय प्रवेश, काव्य जगत, कहानियों का संसार, उपन्यास सृष्टि, अकाल्पनिक गद्य और विश्व दृष्टि| पहले खंड में सबसे पहले लेखक की विभिन्न पुस्तकों की भूमिकाओं का वैदुष्यपूर्ण विवेचन प्रो. गोपाल शर्मा ने किया है| इसमें उन्होंने देश और विदेश के विद्वानों द्वारा पुस्तक की भूमिका संबंधी विचारों पर प्रकाश डालते हुए निशंक के साहित्य की रचना प्रक्रिया, उद्देश्य एवं विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखी गई उनकी पुस्तकों की भूमिकाओं से महत्वपूर्ण सूत्रों को निकालकर सामने रखा है| इसी खंड में शीला बालाजी ने अपने शोधपत्र के माध्यम से निशंक के साहित्यिक और राजनीतिक जीवन पर प्रकाश डाला है|

दूसरे खंड में प्रो. निर्मला एस. मौर्य ने निशंक के काव्य संसार के भाव पक्ष और कला पक्ष में निहित सौंदर्य का विश्लेषण किया है| डॉ. एन. लक्ष्मीप्रिया ने कविता के कला पक्ष के अंतर्गत ही शब्द प्रयोग, संवाद, देह भाषा, संबोधन एवं स्थिति चित्रण इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला है| डॉ. सुपर्णा मुखर्जी और डॉ. भागवतुल हेमलता ने निशंक की कविताओं में राष्ट्रभूमि और संस्कृति के प्रति अनन्य प्रेम देखा है|

तीसरा खंड कहानी केंद्रित है| इस खंड में डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने यथार्थ और आदर्श के आलोक में कहानियों की समर्थता का आकलन किया है| इस क्रम में कथ्य के साथ कहानियों के शिल्प पर भी प्रकाश पड़ा है| इनके साथ डॉ. डॉली, श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ, प्रो. श्रीलता विष्णु एवं डॉ. सुषमा देवी ने कहानियों में व्यक्त मानवीय संवेदनाओं की जटिलता, राष्ट्र-समाज से जीवन की घनिष्ठता, मानवता, और आशावादी स्वर को समसामयिक परिवेश से जोड़कर विश्लेषित किया गया है|

चौथा खंड उपन्यास केंद्रित है| इसके अंतर्गत डॉ. बी.बालाजी ने स्थापित किया है कि पहाड़ी लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का यथार्थ चित्रण डॉ. निशंक के उपन्यासों में सर्वाधिक जीवंत बन पड़ा है| साहित्य और भाषा के अंतःसंबंध को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने डॉ. निशंक की कथाभाषा गठन प्रक्रिया की ओर भी ध्यान खींचा है| डॉ. मंजु शर्मा ने चेतना की दृष्टि से जीवन और संस्कृति को केंद्र में रखकर डॉ. निशंक के उपन्यासों का अनुशीलन किया और पात्रों की आत्मनिर्भरता और दृढ़ता को लक्षित किया है|

पाँचवाँ खंड यात्रा वृत्तांत और संस्मरण केंद्रित है| इस खंड के दो शोधपत्र ‘केदारनाथ सहित अन्य आपदाओं पर आधारित संस्मरण’ एवं ‘नेपाल, भूटान, इंडोनेशिया और मारीशस की यात्रा आधारित यात्रा-वृत्तांत’ पर केंद्रित हैं। ये दोनों श्री प्रवीण प्रणव द्वारा लिखे गए हैं| इनमें यथार्थ के अंकन का तटस्थ विश्लेषण निश्चित ही विशिष्ट है| स्वामी विवेकानंद की व्यक्तित्व निर्माण वाली शिक्षाओं पर आधारित डॉ. निशंक की पुस्तक ‘संसार कायरों के लिए नहीं’ पर डॉ. सुरेश भीमराव गरुड़ ने प्रेरणास्पद चर्चा की है|

अंतिम और छठे खंड में यथार्थ और संवेदना की दृष्टि से डॉ. निशंक के साहित्य का मूल्यांकन किया गया है| डॉ. संगीता शर्मा एवं मिलन बिश्नोई के अनुसार डॉ. निशंक ने देशप्रेम, ग्रामीण चेतना, समसामयिक समस्यायों, स्त्री की स्थिति और वर्ग संघर्ष को अपने साहित्य में चित्रित किया है| इन सबके साथ ही देशप्रेम की कविताओं में उषारानी राव ने अनुभूति की अभिव्यक्ति में सौंदर्यबोध देखा है| इस खंड में ‘तू धरा पर फ़ैल इतना लौ तेरी आकाश ले’ शीर्षक शोधपत्र शोधपत्र में डॉ. चंदन कुमारी ने डॉ. निशंक के साहित्य में निहित उदात्त जीवन मूल्यों की पड़ताल की है|

ग्रंथ का अंतिम शोधपत्र है ‘तत्वदर्शी निशंक’। इसमें डॉ. निशंक के लिए प्रयुक्त ‘तत्त्वदर्शी’ विशेषण का विश्लेषण करते हुए प्रो. गोपाल शर्मा ने डॉ. निशंक के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विशिष्टताओं पर सोदाहरण चर्चा की है| इस ग्रंथ की ‘भूमिका’ में प्रो. ऋषभदेव शर्मा एवं ‘आशीर्वचन’ में गुरुवर प्रो. योगेंद्रनाथ शर्मा 'अरुण' ने भी इन बिंदुओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला है| ‘निशंक की दृढ़ मान्यता है कि युवा वर्ग किसी भी राष्ट्र की नींव होता है, युवा वर्ग की ऊर्जा और क्षमता को सही दिशा में प्रवाहित करते हुए राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की आधारशिला तैयार करना समाज और संस्कृति की पहली आवश्यकता होती है|’(भूमिका से उद्धृत)| कुल मिला कर यह ग्रंथ इस निष्कर्ष को भली भाँति प्रतिपादित करता है कि डॉ. निशंक का साहित्य साधारण से जुड़ा हुआ है, पर उसका लक्ष्य विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण पर टिका हुआ है| डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के साहित्यिक अवदान को समझने और परखने के लिए यह एक अनिवार्य ग्रंथ है। 000


समीक्षित कृति: तत्वदर्शी निशंक
संपादक: प्रो. ऋषभदेव शर्मा
सह संपादक: शीला बालाजी
संस्करण: प्रथम, 2021
प्रकाशन: प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 700 रुपए

समीक्षक : डॉ. चंदन कुमारी,
द्वारा श्री संजीव कुमार, 
आईएफए, एयर फ़ोर्स स्टेशन, 
जामनगर_361003 (गुजरात)
chandan82hindi@gmail.com
मोबाइल 8210915046

रविवार, 2 मई 2021

'बस एक ही इच्छा' का संदर्भ : गोपाल शर्मा







आलेख

‘बस एक ही इच्छा’ का संदर्भ

- गोपाल शर्मा

(देश की प्रसिद्ध संस्था ‘स्याही ब्लू’ की रविवारीय पुस्तक वार्ता के पार्ट -5 में दिनांक 14 मार्च 2021 को डॉ निशंक के प्रारम्भिक कहानी संग्रह ‘बस एक ही इच्छा’ पर देश के कई विद्वान समीक्षकों ने चर्चा की। इस वार्ता शृंखला में प्रति-सप्ताह डॉ निशंक के रचना संसार से एक पुस्तक लेकर उस पर केन्द्रित चर्चा होती है। यू ट्यूब से इसे सुनकर डॉ गोपाल शर्मा के वक्तव्य का पाठ डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने लिपिबद्ध किया है।– संपादक)

“जो उसको जानता है, उसके लिए वह अज्ञात है । जो उसको नहीं जानता उसके लिए वह ज्ञात है- केन उपनिषद का ब्रहम के लिए कहा गया यह कथन डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ पर मेरे लिए सौलह आने सही बैठता है। निशंक जी ने कुछ सोचकर ही अपना उपनाम ‘निशंक’ रखा हो । दरअसल उनको जानने वाले देश के करोड़ों लोग उन्हें राजनेता के रूप में जानते हैं, पर उन्हें कवि-साहित्यकार के रूप में जानने वाले अभी उतनी बड़ी संख्या में नहीं हैं। मैं उन्हें व्यक्ति के रूप में नहीं जानता, न मैं राजनेता के रूप में ही उनसे परिचित हूँ। पर उनको उनकी रचनाओं से अब पहचानने लगा हूँ। मेरा डॉ. निशंक व्यक्ति से कोई साक्षात परिचय नहीं है, पर मैं उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से उसी प्रकार परिचित हूँ जैसा परिचय हंस राज रहबर का प्रेमचंद से रहा होगा। उन्हें दूर से देखा जरूर है और यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि डॉ. निशंक ज़्यादातर पुराने हिंदी लेखकों की तरह दीन हीन नहीं एक दम कुलीन और भद्र दिखाई देते हैं।

साहित्यकार के रूप में निशंक के दो रूप हैं । एक तो कवि रूप ही है जहाँ कविता और निज देश एकाकार हो गए हैं। दूसरी ओर कथाकार निशंक हैं और इस रूप में वे अपने 'परिवेश के कथाकार' हैं। वे "जादुई यथार्थ" के स्थान पर "जमीनी यथार्थ" के पुरस्कर्ता हैं। यदि केवल दस मिनट में निशंक जी केप्रारंभिक कहानी संग्रह “बस एक ही इच्छा” की कहानियों पर चर्चा की जाए तो सबसे पहले यह कहना होगा कि यहाँ प्रस्तुत दर्जन भर कहानियाँ, कहानियाँ कम आप-बीती अधिक हैं। इन कहानियों में कथाकार के रूप में निशंक जी की उपस्थिति तो है ही, वे कई कहानियों में एक पात्र के रूप में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

किसी ने ठीक ही कहा था – We are just stories in the end. Just make it a good one. शेक्सपियर तो जीवन को ही किसी मूर्ख के द्वारा कही गई कहानी कह डालता है। कहानियाँ सर्वत्र हैं। हम ही कहानियाँ नहीं कहते, कहानियाँ भी हमें कहतीं हैं। यदि कहानियाँ सर्वत्र हैं तो हम भी इन कहानियों में सर्वत्र हैं। कहानी एक नहीं होती, कहानियाँ होती हैं। एक वह जो कहानीकार लिख कर हमें देता है और दूसरी वह जो उसने देखी होती है, सुनी होती है या स्वयं भोगी होती है।

अब एक कहानी को लें। “ बस एक ही इच्छा” कहानी में कहानी तो बस इतनी ही है कि होटल में काम करने वाला वेटर लड़का “मैं” को अपना दुख दर्द सुना देता है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह ‘मैं’ के साथ उसके उपनाम “पोखरियाल” के कारण ‘पहाड़ी’ होने से बादरायण संबंध मान लेता है। ‘मैं’ इस कहानी को इसलिए लिखता है क्योंकि वह इस संघर्षशील लड़के के आत्मविश्वास से प्रभावित होता है – बाबूजी, मेरी तो बस एक ही इच्छा है कि चाहे मैं जिस हाल में भी रहूँ किंतु अपने भाइयों को खूब पढ़ाऊँगा। इतना पढ़ाऊँगा कि वे एक दिन बहुत बड़े साहब बन जाएँ। हर कहानी में कोई न कोई इच्छा है जिसका कोई न पात्र किसी न किसी इच्छा प्राप्ति के लिए कर्मरत है। विक्रम जैसे पात्र आपको अपने इर्दगिर्द मिल जाएँगे । स्वार्थ का परमार्थ में परिवर्तन हो जाना इन पात्रों की विशेषता है।

मासूम चेहरा जो इस कथा का नायक है वह अब पाठक के स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हो जाता है। "उसने कहा था" के रचनाकार को तो जीवन में केवल तीन चार कहानियाँ लिखनी थीं इसलिए पहली कहानी में ही वे सब कुछ बाँच गए। "ग्यारह वर्ष का समय" लिखकर रामचंद्र शुक्ल इस राह से किनारा कर गए। पर युवक रमेश पोखरियाल ने "निशंक" बनकर संख्या की दृष्टि से प्रेमचंद के समकक्ष आ जाने का यत्न किया। दूसरी कहानी ‘मैं ओर तुम’ में ‘मैं’ का एक नाम है – शशांक । और तुम का नाम है –दीप्ति । शशांक दहेज रहित विवाह करना चाहता है। पर उसके भाई भाभी ही नहीं दीप्ति और उसके परिवार वाले भी मानते हैं कि "दहेज न देकर अपने आप को अपने रिश्तेदारों व समाज के बीच अपमानित महसूस कराना घाटे का सौदा होगा।" किसी को भी यह मंजूर नहीं। कथित आदर्शवादियों के बीच आदर्शवादी कथानायक अपनी दुर्गति पर खिन्न है और मेरे जैसा कुलीन पाठक सोचता है – मैंने अपनी शादी के समय चुप रहकर एक तरह से अच्छा ही किया। पहाड़ का यह आम व्यक्ति कैसे उदात्त व्यक्तित्व बन जाता है, अद्भुत है।

तीसरी कहानी है ‘कितना संघर्ष और’। इस कहानी में कथानायक है – रमेश । वह श्वेता नामक संघर्षशील लड़की की कहानी सुनाता है। पर मैं चौथी कहानी “संकल्प” पर बात करके अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा । इस कहानी में “मैं” का नाम “निशीथ” है और यहाँ तब के उभरते युवा कथाकार और शिक्षक रमेश पोखरियाल इस कहानी के द्वारा अपनी बनती और बदलती मनस्थिति का आभास देते हैं। आम व्यक्ति के हितों की बात करना, शोषितों के लिए जूझना उसे अच्छा लगने लगा था। समाज में फैली अराजकता, अव्यवस्था और दुराचार के खिलाफ उसके मन में भारी आक्रोश पैदा होता है। और फिर उसे वह मार्ग दिखाई देता है जिसे वह सहर्ष अपना लेता है । वह अपनी जन्मदात्री माता को अपना संकल्प प्रेषित कर देता है । वह अपना सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि को सौंपने का संकल्प करते हुए एक श्लोक पढ़ता है –

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम् ।
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ॥

(हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूँ।)

दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं – एक तो कथाकार कवि-हृदय है और दूसरे संवेदना के धरातल पर वह इतना आंदोलित है कि अभिव्यक्ति के लिए छटपटाहट अनुभव करता है इसलिए भाषाई उछलकूद के स्थान पर सहजता को शैली बनाने का प्रयत्न करता है। शिक्षक से शिक्षामंत्री तक के इस सफर में यह लेखकीय “संकल्प” रेखांकित किया जा सकता है , किया जाना चाहिए। आज इस कहानी को पढ़ना इस संकल्प को आत्मार्पित करना भी तो है। इसलिए यह रचना इन अर्थों में कालजयी कही जा सकती है। अब मैं और किसी कहानी का जिक्र न करके यह कहकर अपनी बात समाप्त करूंगा कि इस संग्रह की सब कहानियाँ उस समय की हैं जब कथाकार ने लिखना शुरू भर किया था। वह लगभग सभी कहानियों में “मैं” बनकर उपस्थित है।

कई बार भाषा-प्रयोग में "मूकता” जैसे शब्द चौंका देते हैं। वह किसी शायर या कवि को उद्धृत भी करता है तो अपनी तरह से और स्मृति के आधार पर । एक आलोचक ने विश्व-विख्यात कथाकार जेन ऑस्टिन की प्रारम्भिक रचनाओं को "ओपिन, अम्यूज्ड, ईज़ी इंटेलेक्चुयल" का लेखन कहा था। मैं भी इन प्रारम्भिक कथाओं "बस एक ही इच्छा और अन्य कहानियाँ" के रचनाकार को इसी तर्ज़ पर “सहज-पारिवारिक, देशानुरागी-चिंतक” कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आप शेष कहानियों को पढ़कर मेरे इस कथन की परीक्षा स्वयं करेंगे , यह मैं जानता हूँ। धन्यवाद।

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अंग्रेजी प्रोफेसर, अरबा मींच विश्वविद्यालय, इथियोपिया # आवास – 6-3-120/23, एनपीए कालोनी, शिवरामपल्ली, हैदराबाद – 500 052

प्रेमचंद्र जैन की कविताएँ













मध्यांतर

प्रेमचंद्र जैन की कविताएँ


फासला

आत्मा-आर्मात्मा

है एक ही

बीच दोनों के बहुत कम फासला है

फासला उतना कि जितना

आदमी से और उसकी छाँव से ही

या समझ लो यों कि –

जितना चंद्रमा और ज्योत्सना में

या कहो उतना कि जितना

इक नदी के पार से उस पार में है

ज्ञान-दर्शन-चरित बाल की नाव से

फासला यदि दूर हो जाए

तभी

हर आत्मा, बहिरात्मा, परमात्मा है।

 

अवचेतन मन

चाँदनी रात में भी

उमस जैसी प्यास है

ताप-संताप –

विरह-विदग्ध भी नहीं हूँ मैं

हर इंसान

अपने मन की बात जानता है

अनजाने, अनचाहे में ही

मन बहुत उदास है

समाधान नहीं होता – तो

सोचते-सोचते

खीझ उठता हूँ अपने पर ही

नींद लेने का होता विफल प्रयास है

प्यास बराबर बढ़ती है

प्रत्यक्ष नहीं कारण कुछ

तो क्या माँ लूँ?

अवचेतन मन का यह –

शाप है।
 

मैं चलता हूँ एक अकेला

प्रदत्त

सम्मानित मनुज से –

डायरी के पृष्ठ खाली

भर रहे मन को

अतुल आमोद से।

मैं अकिंचन

कर सकूँ उपयोग – इनका

सत्य से

तथ्य से और

दिल के दर्द से इनको भरूँ

अभाव से सद्भाव के ये पृष्ठ पूरे हों

नमन करता हूँ तुम्हें

विश्राम दो।



एक और अवधारणा

पूरा किया

एक और अध्याय

जिसका था उसको सौंपकर

चेहरे के बाल धुलवाए

हँसे –

दूसरों की हंसी

पेट भरकर मिल गई

खो गए लेकर किसी की नींद : आधी रात खासे

तुम नहीं आए –

अच्छा किया

दूसरा बिस्तर नहीं था


इष्ट फल

जागते-सोते

सदा ‘शिव’ हो

तुम्हारा और –

सबका

साध्य –

साधन –

इष्ट फल।


ध्रुव पौरुष

‘अज्ञेय' व्यक्तित्व

ध्रुव पौरुष

वेदना-तप्त

यातना-पूत

दृष्टा

युग-निर्माता

‘अज्ञेय’ को

जानने के लिए –

जिज्ञासा;

खोजना पड़ेगा


वह धरातल पर नहीं

‘तल’ में मिलता है।

 
नौकरी


नौकरी की है

मालिक की दया पर –

जो काम लिया

अनथक किया

मालिक का काम

माह के अंत में

मांगने पर दाम –

मिल गए तो खुश

नहीं तो उदास

बीवी के पास

खाने का घास
 

जनतंत्र

नारा समाजवाद का

दूध : गए-बछेड़े का

वोट हिंदुस्तानी का

नहीं पड़ा जहाँ पड़ना था

और ..

वही हुआ जो होना था

जातिवाद, भाई-भतीजावाद

खंड-खंड बिखर गए

समय की करवट से

फिर पिसेगी जनता

सुबह तक नई कांग्रेस और बढ़ेगी सर्वत्र

जीत-हार, हार-जीत का जनतंत्र।
 

रे कलियुग के देव

रे कलियुग के देव!

तुम्हारा काम भेंट पाने का

मानवता की बलि लेना

पर-छीन स्वयं खाने का

मनु ने भी आँसू पोंछे

जब दी गई मानवता

पर देवोचित्त प्रतिभा से

कब झुकी नहीं दानवता

साहित्यिक बन गए तो छोड़ो –

नोक-झोंक की आदत

लाओ तलवार कलम की

हो चोट, बचो भी साफ

कितने तांडव हो चुके

प्रलय के कितने झोंके आए

कुछ ही खुशहालों ने मिल –

बेहद बेहाल बनाए

हम मनु की हैं संतान

सृजन से करते हैं कल्याण

बढ़ेगा या जो नहीं रुका है

इतिहास कहे –

संहार सृजन के आगे सदा झुका है।

मरी स्मृति का पटल

आज है कुंद

न लेता साँस

वाष्प से गला हुआ वरुद्ध

मौत की छाया लहराई

कल का साहस का विश्वास

मौन सब करते हैं उपहास

यह है जग देखी रीति

शक्ति के मीत सभी भाई

न धन की शक्ति

कर्म की –

मन की शक्ति है

इसी पर सोता-खाता हूँ

इसी को रोज बजाता हूँ


मुझे पर्वत की इच्छा नहीं

यह बस शेष रहे राई।
 

प्रेम

सारीरिक संबंधों के रिश्ते

टूट ही जाते हैं – एक दिन

भावनाओं से जुड़ा प्रेम

अटूट होता है

लेकिन –

यह तुम्हें दर्शन की बात लगती है

क्योंकि

तुम्हारे मिकत भावना निर्मूल है

यह मेरा नसीब है

जिसे बदलना असंभव जैसा है

व्यर्थ की मृगतृष्णा है

चूँकि मैं जिस मिट्टी से बना हूँ –

वह रेतीली कतई नहीं है

अपने स्तर को गिराने का अहसास

अब कई बार हो चुका है

होता ही रहता है – और

आज तो प्रतिक्षण-प्रतिपाल हो रहा है

क्या मैं अपने को क्षणा कर लूँ

अथवा

आत्मदाह!
 

मैं आदमी हूँ

मैं आदमी हूँ

खाने के लिए जीता हूँ

जीने के लिए खाता हूँ

कौन जाने?

एक साथ कितने जीवन जीता हूँ

सुनाने के लिए –

नहीं कह पाऊँगा अपनी बात

नौकरी करता हूँ

ऑफिस के नाम से नहीं

घर के नाम से डरता हूँ

मरने को है नौकरी

या

नौकरी के लिए मारना है

कौन जाने – एक साथ

इसीलिए कहता हूँ –

इन जानवर हूँ –

खटता हूँ

टेबलेट सुलाती है

चक्की जगाती है

भूख चलाती है

आबकी अपनी –

अपनी कहानी है।

 

अहसास

दूसरों की व्यथा के अहसास से -

निज मन का व्यथित हो जाना

अहेतुक द्वित होना भी;

शोषक की व्यथा भिन्न है और विकट भी;

इसी विकटता का, दो टूक उत्तर –

साहित्यकार का दायित्व है!


नियति

शिशु के मन सम मन मेरा

मुकरवत् हृद है

वज़्रांगलोह सम देह

कुटिलता कम है

सब कुछ झिलमिल हो जाता

दीपक लौ जब जलती है

पर अंधकार का मोह

पुनः डस लेता

यह और नहीं कुछ मित्र!

मात्र नियति है।

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

'तत्वदर्शी निशंक’ : साहित्य साधना का समग्र मूल्यांकन

पुस्तक समीक्षा 

'तत्वदर्शी निशंक’ : साहित्य साधना का समग्र मूल्यांकन 

हुडगे नीरज



देवभूमि हिमालय के वरद पुत्र के नाम से प्रख्यात साहित्यकार रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ का जन्म १५ अगस्त, १९५९ को हुआ। निशंक जी का बचपन अत्यंत गरीबी में गुजरा। उन्होंने कई कठिनाइयों और संघर्षों का सामना कर अपने सपनों को साकार किया। सर्वप्रथम शिक्षक के रूप में जाने गए। इसके बाद उन्होंने पत्रकारिता जगत में अपने कदम बढ़ाए और फिर राजनीति की ओर उन्मुख हुए। वर्तमान में वे भारत के शिक्षा मंत्री हैं और उन्हें ‘नई शिक्षा नीति-२०२०’ का श्रेय प्राप्त है। साहित्यिक क्षेत्र के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी उनकी ख्याति में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हुई है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं बल्कि अपने सतत कर्म का ही सुफल ‘निशंक’ जी को मिल रहा है।

हिंदी साहित्य जगत को प्रख्यात साहित्यकार रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने अनेक साहित्यिक रचनाएँ दी हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, बाल साहित्य, पर्यटन, तीर्थाटन तथा व्यक्तित्व विकास जैसी अनेक विधाओं में अब तक उनकी पाँच दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं। उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए उन्हें देश के तीन राष्ट्रपतियों द्वारा सम्मान भी प्राप्त हो चुका है। उन्हें भारत गौरव, राष्ट्र गौरव, साहित्य भारती, साहित्य गौरव, साहित्यचेता सम्मान के साथ-साथ मॉरीशस सरकार द्वारा प्राप्त मॉरीशस सम्मान एवं अंतरराष्ट्रीय असाधारण उपलब्धि सम्मान तथा राहुल सांकृत्यायन राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार सम्मान से भी विभूषित किया गया है। ऐसे साहित्यकार को समर्पित ग्रंथ ‘तत्वदर्शी निशंक’ (2021) हिमालय पुत्र डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की साहित्य-साधना का दक्षिण भारत की ओर से हिंदी सेवी प्रतिभाओं द्वारा पहली बार किया गया समग्र विवेचनात्मक व विश्लेषणात्मक मूल्यांकन है।

इस ग्रंथ के संपादक प्रो. ऋषभदेव शर्मा कहते हैं कि आपदाओं को अवसरों में बदलने का संकल्प इस ग्रंथ के नायक रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ को ‘तत्वदर्शी निशंक’ बनाता है। (पृ.9) कहना ही होगा कि निशंक जी अपने संघर्षमय जीवन को एक नया मोड़ देकर सारे दुखों को अवसरों में रूपांतरित कर संवेदनशीलता और सृजनात्मकता को साहित्यिक रचनाओं के द्वारा प्रतिफलित कर साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। ‘तत्वदर्शी निशंक’ ग्रंथ में उनकी समग्र साहित्यिक रचनाओं का सूक्ष्म विवेचन करते हुए समग्र साहित्यिक मूल्यांकन किया गया है।

रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की रचनाएँ एक ऐसे दस्तावेज के रूप में है, जिसका समग्र अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने जीवन को सिर्फ देखा नहीं, बल्कि उसे भोगा भी है। इस बात का पता हमें उनकी इन पंक्तियों से चलता है- “प्रतिक्षण मैं संघर्षों की मालाओं से बँधा हुआ हूँ/ राजनीति के चक्रव्यूह में अभिमन्यु सा घिरा हुआ हूँ।” (पृ.12) तभी जाकर उन्होंने साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में अपनी छाप छोड़ी और साहित्यिक रचनाओं को केंद्र में लाकर सुशोभित कर दिया।

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के संपादकत्व में ‘तत्वदर्शी निशंक’ ग्रंथ को कुल 6 खंडों में विभक्त कर साहित्य-साधक रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के संपूर्ण रचनाकर्म का गहन अनुशीलन एवं मूल्यांकन किया गया है। इस समग्र मूल्यांकन के अंतर्गत कुल मिलाकर 19 लेखकों ने विलक्षण कार्य किया है। डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ ‘तत्वदर्शी निशंक’ ग्रंथ के बारे में कहते हैं कि- “नि:संदेह, यह भावाभिनंदन ग्रंथ दक्षिण भारत की हिंदी सेवी प्रतिभाओं द्वारा देवभूमि हिमालय के वरद पुत्र रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ का भावभीना अविस्मरणीय अभिनंदन ही है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह ग्रंथ उत्तर और दक्षिण के हिंदीसेवियों के बीच स्नेह-सेतु बनेगा।” (पृ.8)। विवेच्य ग्रंथ के विषय प्रवेश के रूप में जो पहला खंड है, उसके अंतर्गत प्रो. गोपाल शर्मा ने ‘भूमिका-दर-भूमिका’ में ‘निशंक’ जी की सभी पुस्तकों में स्वयं निशंक जी एवं विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखित भिन्न-भिन्न भूमिकाओं को बहुत ही सुंदर ढंग से विवेचित किया है। इसके अलावा उन्होंने ‘निशंक’ जी की रचना प्रक्रिया को बखूबी बताया है। साथ ही साथ उनके साहित्य सृजन के उद्देश्य को प्रतिपादित किया है। प्रो. गोपाल शर्मा ने निशंक जी की रचनाओं को लोक जीवन की संवेदनाओं से जोड़ा है। इसके अलावा निशंक की उदात्त दृष्टि का विवेचन भी किया है। सह संपादक शीला बालाजी ने ‘निशंक’ जी का जीवन परिचय देते हुए, उनके पारिवारिक, राजनीतिक, साहित्यिक परिवेश और सृजनशील व्यक्तित्व को बतलाते हुए उनकी समग्र रचनाओं की जानकारी उपलब्ध कराई है। दूसरे खंड का शीर्षक ‘काव्य जगत’ है। इस खंड के अंतर्गत प्रो. निर्मला एस. मौर्य ने रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के कृतित्व की महत्ता में निहित सौंदर्य का रहस्य जीवन सत्य को बताया है। उन्होंने सत्य और शिव को साहित्य से जोड़कर विशिष्ट सौंदर्य की सृष्टि की है। यथा- “खुली हुई हैं आँखें उसकी/ अब भी किसी प्रतीक्षा में/ प्राण पखेरू उड़ा छोड़ जग/ एक नई अन्वीक्षा में।” (पृ.56)। रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की अनेक काव्य कृतियों में करुण रस, वीभत्स रस, भयानक रस, वात्सल्य रस, वीर रस, रौद्र रस आदि रसों की सौंदर्य सृष्टि को दिखाते हुए उन्हें कवि को ‘रसराज’ के रूप में प्रतिष्ठित किया है। अंत में प्रो. निर्मला एस. मौर्य ने निशंक जी के जीवन दर्शन का सौंदर्यपरक विवेचन और विश्लेषण किया है। डॉ. सुपर्णा मुखर्जी ने निशंक के काव्य में देशप्रेम की चेतना को प्रतिपादित कर उन्हें राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के समान बताया है। वहीं दूसरी ओर डॉ. भागवतुल हेमलता ने निशंक जी को काव्य जगत का प्रजापति कहा है। इन्होंने निशंक की कविताओं में सृजनात्मक एवं रचनात्मक ऊर्जा को उजागर किया है। डॉ. एन. लक्ष्मीप्रिया ने निशंक की रचनाओं के उद्देश्य और उनमें शब्द प्रयोग के निजीपन को रेखांकित करते हुए संवाद और एकालाप के कई उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। निशंक जी ने मानव समुदाय से बातचीत करने के लिए जिस देह-भाषा का प्रयोग किया है, उसे भी डॉ. लक्ष्मीप्रिया ने बखूबी बतलाते हुए उनकी रचनाओं में संबोधन प्रयोग, चित्रात्मक शैली, गाँव के लोगों की मन:स्थिति के चित्र और दुखियारी स्त्री के चित्रण को भी बखूबी विवेचित किया है।

विवेच्य ग्रंथ के तृतीय खंड का शीर्षक ‘कहानियों का संसार’ है। इस खंड के अंतर्गत डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की कहानियों में आदर्श और यथार्थ का परत दर परत विवेचन किया है। डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा कहती हैं कि “रमेश पोखरियाल निशंक एक ऐसे समसामयिक साहित्यकार हैं जिन्होंने अपनी अनुभूत सच्चाइयों को अपनी रचनाओं की विषयवस्तु बनाया है।” (पृ.104)। अंत में इन्होंने आदर्श और यथार्थ की स्थिति को उजागर करते हुए निशंक की रचनाओं में द्रष्टव्य यथार्थ की अभिव्यक्ति और आक्रोश की अभिव्यक्ति को उदाहरण सहित विवेचित- विश्लेषित किया है। डॉ. डॉली ने रमेश पोखरियाल निशंक की कहानियों में समकालीन परिवेश को दिखलाते हुए ग्रामीण और नगरीय परिवेश की समस्याओं को विवेचित किया है। ज्ञानचंद 'मर्मज्ञ' ने निशंक जी की कहानियों में निहित समाज दर्शन और राष्ट्रवाद को रेखांकित किया है। डॉ. श्रीलता विष्णु ने निशंक की कहानियों की भाषा और तेवर को विलक्षण बतलाते हुए उन्हें मानवीयता का चतुर चितेरा सिद्ध किया है। अंत में उन्होंने कहा है कि ‘निशंक की दृष्टि कबीर की दृष्टि के समान पूर्णत: चरितार्थ है। डॉ. सुषमा देवी ने निशंक की कहानियों में टूटते बिखरते समाज बनाम आशावादी स्वर को भिन्न-भिन्न संदर्भों के द्वारा विवेचित किया है।

चतुर्थ खंड का शीर्षक ‘उपन्यास सृष्टि’ है। इस खंड के अंतर्गत डॉ. बी. बालाजी ने रमेश पोखरियाल निशंक के उपन्यासों में पहाड़ी जीवन के जीवंत दस्तावेज को बखूबी दिखलाने का प्रयास किया है। अंत में इन्होंने कहा है कि निशंक अपने उपन्यासों के अंतर्गत बहुत ही सरलता से मुहावरों, लोकोक्तियों, बिंबों, उपमानों, रूपों का प्रयोग कर कलात्मक शैली का अद्भुत रूप प्रतिफलित करते हैं। डॉ. मंजु शर्मा ने निशंक के उपन्यासों में चेतना के आयाम को प्रतिपादित करते हुए ‘रिश्ते नाते : आदर्श भी विकृत भी’, ‘लोक जीवन और लोक संस्कृति’, ’पलायन और पुनर्वास’, ‘स्त्री जीवन और उसकी समस्याएँ’, ‘पर्वतीय जीवन और उसकी समस्याएँ’ जैसे आयामों द्वारा प्रत्येक मनुष्य के जीवन मूल्य से जोडकर दिखलाने का प्रयास किया है।

पाँचवे खंड का शीर्षक ‘अकाल्पनिक गद्य’ है। इस खंड में प्रवीण प्रणव ने रमेश पोखरियाल निशंक के संस्मरण साहित्य के अंतर्गत प्राकृतिक आपदा में संवेदना के मरहम को परत दर परत दिखाया है। इसके अंतर्गत उन्होंने उत्तराखंड में आई आपदा का चित्रण, आपदा प्रबंधन की खामियों, मौत के तांडव के बीच लोभ की पराकाष्ठा, बाजारीकरण और मीडिया की भूमिका और तीन चार महीने बाद की स्थिति को यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में दिखलाने का प्रयास किया है। इसके आगे प्रवीण प्रणव ने निशंक के यात्रा वृत्तांत के अंतर्गत गोचर पहाड़ों से स्नेह और संस्कृति का पुल बखूबी बाँधकर प्रतिफलित किया है। डॉ. सुरेश भीमराव गरुड़ ने निशंक के गद्य में व्यक्तित्व निर्माण के लिए प्रेरणास्पद ओज को विवेचित-विश्लेषित किया है।

छठे खंड का शीर्षक ‘विश्व दृष्टि’ है। इस खंड के अंतर्गत डॉ. चंदन कुमारी ने रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाओं को इस विषय-पंक्ति के द्वारा प्रगाढ़ बना दिया है- “तू धरा पर फैल इतना लौ तेरी आकाश ले।” (पृ.293)। अंत में इन्होंने कहा है कि साहित्य जीवन में आस्था बढ़ाने वाला काम करता है और निशंक की साहित्यिक रचनाओं में भी आस्था बढ़ाने वाले तत्व अदम्य साहस भरकर जीने का उत्साह जगाते हैं। डॉ. संगीता शर्मा ने रमेश पोखरियाल की रचनाओं को समकालीन समाज की धड़कन बताया है। इनके साहित्य में राष्ट्रप्रेम की गरिमा झलकती है और यही गरिमा समकालीन समाज में राष्ट्रप्रेम की धड़कन बन प्रतिफलित हुई है। मिलन बिश्नोई ने निशंक की रचना को ऐसे धरातल के रूप में प्रतिष्ठित किया है जिसमें भावात्मक और संवेदनात्मक तरलता प्रगाढ़ रूप में द्रष्टव्य है। डॉ. उषारानी राव ने रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाओं में आत्ममंथन तरलता की प्राणवान धारा को प्रतिष्ठित किया है। निशंक जी अपने व्यक्तित्व को बनाने के लिए आत्म संघर्ष करते हुए साहित्यिक कृति कर्म के द्वारा अपने जीवन मूल्यों को परिष्कृत और परिमार्जित कर प्राणवान धारा बन बह रहे हैं। प्रो. गोपाल शर्मा ‘तत्वदर्शी निशंक’ की भावधारा को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि “शिक्षक, राजनेता, समाजसेवी, पत्रकार आदि भूमिकाओं के निर्वहन से प्राप्त होते हुए संस्कारों और चेतना के फलस्वरूप जब उन्होंने गद्य और उसकी अनेक विधाओं के माध्यम से भी सृजनात्मक लेखन किया तो प्रेमचंद से अधिक कहानियाँ और उपन्यास हिंदी जगत को प्राप्त हो गए।” इन्होंने तत्वदर्शी निशंक नाम इसलिए भी दिया चूंकि निशंक की साहित्यिक रचनात्मक दृष्टि ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ से ओतप्रोत है। निशंक साहित्य जीवन के कल्याणकारी स्तंभ के रूप में वर्तमान जगत को अपने ओज से प्रकाशवान कर रहे हैं। दक्षिण भारत की ओर से हिंदी सेवी प्रतिभाओं द्वारा पहली बार किया गया यह समग्र मूल्यांकन ही अंततः ‘तत्वदर्शी निशंक’ ग्रंथ कहलाया।

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पुस्तक का नाम : ‘तत्वदर्शी निशंक’
संपादक : प्रो. ऋषभदेव शर्मा
सह-संपादक : शीला बालाजी
प्रकाशन : प्रभात प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली- 110002
संस्करण : प्रथम , 2021
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हुडगे नीरज,
पीएच.डी. शोधार्थी,
उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद- 500 004.

सोमवार, 15 मार्च 2021

'राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के आलोक में हिंदी की विकास यात्रा' पर एकदिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन


हैदराबाद, 14 मार्च, 2021 (प्रेस विज्ञप्ति).

डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा 'अरुण'
प्रो. रमेश कुमार पाण्डेय 

                    यहाँ जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना के सचिव श्री जी. सेल्वराजन ने यह स्पष्ट किया कि 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के आलोक में हिंदी की विकास यात्रा' विषयक एकदिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन केंद्रीय हिंदी निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 16 मार्च, 2021 को खैरताबाद स्थित सभा परिसर में संपन्न होगा।  इस कार्यक्रम की अध्यक्षता केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक एवं श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रमेश कुमार पांडेय जी करेंगे और मुख्य अतिथि हैं रुड़की के प्रख्यात साहित्यकार और भारतविद्या के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले प्रो. योगेंद्र नाथ शर्मा 'अरुण'  जी। विशिष्ट अतिथि के रूप में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, हैदराबाद के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष प्रो. ऋषभदेव शर्मा, नई दिल्ली के प्रख्यात हिंदी विद्वान डॉ. बेचैन कंडियाल, प्रो. गोपाल शर्मा और केंद्रीय हिंदी निदेशालय के उपनिदेशक तथा 'भाषा' पत्रिका के संपादक डॉ. राकेश कुमार शर्मा उपस्थित रहेंगे। संयोजक ने नगरद्वय के हिंदी प्रेमियों को इस सारस्वत आयोजन में भाग लेने का आग्रह किया है.

डॉ. बेचैन कंडियाल 
डॉ. राकेश कुमार शर्मा 
 



- कार्यक्रम संयोजक
जी. सेल्वराजन
सचिव एवं संपर्क अधिकारी
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा - आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना
खैरताबाद, हैदराबाद - 500004

मंगलवार, 19 जनवरी 2021

ऋषभदेव शर्मा की पुस्तक ‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ लोकार्पित


“साहित्य संस्कृति और भाषा” का लोकार्पण करते हुए प्रो. अबुल कलाम (निदेशक, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मानू, हैदराबाद)। साथ में, बाएँ से : प्रो. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. बी. एल मीना, डॉ. आफताब आलम बेग, डॉ. वाजदा इशरत, डॉ. मोहम्मद नेहाल अफ़रोज, डॉ. इबरार खान और डॉ. मोहम्मद अकमल खान। 000 

हैदराबाद, 19 जनवरी, 2021(मीडिया विज्ञप्ति)। 

आज यहाँ मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय स्थित दूरस्थ शिक्षा निदेशालय में डॉ. ऋषभदेव शर्मा की सद्यः प्रकाशित आलोचना कृति ‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ को लोकार्पित किया गया। पुस्तक का लोकार्पण करते हुए निदेशक प्रो. अबुल कलाम ने कहा कि “भाषा और साहित्य दोनों का मूल आधार संस्कृति होती है। इस पुस्तक में इन तीनों के भीतरी रिश्ते की बखूबी पड़ताल और व्याख्या की गई है।“ 

डॉ. आफताब आलम बेग ने विमोचित पुस्तक में राष्ट्रीयता और समकालीन विमर्शों की उपस्थिति पर चर्चा की। डॉ. मोहम्मद नेहाल अफ़रोज़ ने भारतीय और तुलनात्मक साहित्य की विवेचना के क्षेत्र में लेखक के दृष्टिकोण की व्याख्या की, तो डॉ. अकमल खान ने प्रवासी साहित्य संबंधी अंशों का परिचय दिया। डॉ. इबरार खान ने पुस्तक में दक्षिण भारत की पत्रकारिता और आंध्र प्रदेश के हिंदी रचनाकारों पर केंद्रित शोधपत्रों पर अपने विचार प्रकट किए। डॉ. बी. एल. मीना ने हिंदी की बदलती चुनौतियों के संबंध में लेखक की विचारधारा पर प्रकाश डाला तथा डॉ. वाजदा इशरत ने लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय दिया। अंत में डॉ. शर्मा ने सभी विद्वानों का धन्यवाद ज्ञापित किया। 000 

शनिवार, 2 जनवरी 2021

श्रीलाल शुक्ल का साहित्य और उनका जीवन' पर राष्ट्रीय वेबिनार संपन्न



हैदराबाद, 31 दिसंबर, 2021 (प्रेस विज्ञप्ति)।

श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति, हैदराबाद, तेलंगाना राज्य और लिटिल फ्लावर डिग्री कालेज, उप्पल, हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में “श्रीलाल शुक्ल का साहित्य और उनका जीवन विषय पर राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन सफलता पूर्वक संपन्न हुआ। 


वेबिनार के अध्यक्ष, प्रो. गोपाल शर्मा, आचार्य, अंग्रेज़ी विभाग, अरबामिंच विश्वविद्यालय, इथियोपिया (पूर्वी अफ्रीका), ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि  श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व पहेली से कम नहीं।  व्यंग्य सत्य की खोज नहीं, झूठ की खोज है। आगे उन्होंने कहा कि  श्रीलाल शुक्ल विकृति की सृष्टि नहीं करते, बल्कि विकृति की खोज करके उस पर चोट करते हैं।


मुख्य अतिथि अखिल भारतीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण महासभा (रजि.) कानपुर, के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष पं. शिव सहाय मिश्रा ने अपने वक्तव्य में श्रीलाल शुक्ल के साहित्य का सटीक वर्णन किया। 'राग दरबारी'  का संक्षिप्त विवरण देते हुए, श्रीलाल शुक्ल जी को एक सफल व्यंग्यकार बताया तथा  श्रीलाल शुक्ल जी के अपने पुराने संस्मरण व्यवहार को साझा भी किया।


मुख्य वक्ता अमन कुमार त्यागी (संपादक: शोधादर्श), परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद,  उत्तर प्रदेश, ने श्रीलाल शुक्ल जी के साहित्य को विस्तार देते हुए उनके उपन्यासों का संक्षिप्त विवरण दिया साथ ही उन्होंने बताया कि “अभाव और तनाव, व्यक्ति को जोड़ भी देते हैं और तोड़ भी देते हैं।” श्रीलाल शुक्ल जी के अभावों ने उन्हें जोड़ा और कालजयी लेखक बना दिया।


साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल के पुत्र, लखनऊ, उत्तर प्रदेश निवासी, पंडित आशुतोष  शुक्ल ने सम्मानित अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए अपने पिता के गुणों की चर्चा कर उनकी यादों को साझा किया। उन्होंने  डॉ. सीमा मिश्र के हिंदीतर प्रांत में इस अद्भुत कार्य की प्रशंसा की कि वे विगत 14 वर्ष से निरंतर ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध उपन्यासकार पद्मभूषण  श्रीलाल शुक्ल  की जन्मोत्सव- संगोष्ठी के रूप में यह आयोजन करती आ रही हैं, जिसमें अपने जीवनकाल में स्वयं श्रीलाल शुक्ल फोन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे।

    

विशेष अतिथि आंध्र प्रदेश सरकार के पूर्व आईपीएस अधिकारी पं. श्रीराम तिवारी ने अपने वक्तव्य में बताया कि श्रीलाल शुक्ल का ध्येय था, अपने व्यंग्य साहित्य के माध्यम से बुराइयों का अंत कर अच्छाइयों को बढ़ावा देना। इस प्रकार उन्होंने समाज को एक सही दिशा व अच्छी दशा प्रदान करने का भी कार्य किया।


विशिष्ट अतिथि के रूप में साहित्य गरिमा पुरस्कार समिति, हैदराबाद की संस्थापक अध्यक्ष, डॉ. अहिल्या मिश्रा ने कहा कि कान्यकुब्ज शिरोमणि डॉ. सीमा और पं. अशोक कुमार तिवारी ने निरंतर 14 वर्षों से विश्व के विद्वान अतिथियों  को कार्यक्रम में आमंत्रित कर एवं अलग-अलग विषयों पर साहित्यिक चर्चाएँ  करवा कर एक नया इतिहास रच डाला है और श्रीलाल शुक्ल जी को मानव से महामानव बना दिया है। उन्होंने आगे उत्तर भारतीय संघ के संस्थापक कर्मठ सदस्य एवं प्रथम महामंत्री पं. बाला प्रसाद जी तिवारी, को भी याद करते हुए उनके कई सामाजिक कार्यों  एवं  उनके सरल व्यवहार को अपने विचारों के माध्यम से साझा किया।


आत्मीय अतिथि अखिल भारतीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण महासभा (रजि.) कानपुर, के राष्ट्रीय महामंत्री पं. महेश  मिश्रा ने अपने संबोधन में कहा कि कान्यकुब्ज रत्न पं. श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य के क्षेत्र में जो सेवाएँ  प्रदान कीं, उनकी साहित्यिक सेवाओं की प्रशंसा पूरा साहित्य जगत आज भी करता है।


वेबिनार के निदेशक प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने श्रीलाल शुक्ल के बाल साहित्य का विशेष उल्लेख करते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनकी आस्था  तथा व्यंग्य को एक परिपूर्ण विधा बनाने में उनके योगदान पर चर्चा की। लेखक के साहित्य में जीवन के प्रक्षेपण के बारे में उन्होंने कहा कि सच्चा लेखक जो रचता है, उसमें जीता है। जो जीता है, भोगता है, झेलता है, वही रचता है। तब कहीं जाकर वह एक 'स्वस्थ साहित्य' समाज को सौंप पाता है। इसी विशेषता ने श्रीलाल शुक्ल को कालजयी रचनाकार बना दिया है। 

विषय प्रवर्तन करते हुए संयोजिका डॉ. सीमा मिश्रा ने अपने समाजशास्त्रीय अध्ययन, शोध अनुभवों एवं व्यंग्य सम्राट पं. श्रीलाल शुक्ल जी से पारिवारिक आत्मीयता और समय-समय पर भेंटवार्ता, पत्राचार  एवं शोध संसाधनों में भरपूर सहयोग को अपनी  साहित्यिक चेतना में विशेष वृद्धि का हेतु बताया और आगे कहा कि समाज साहित्य को प्रभावित करता है तो, साहित्य भी समाज  को प्रभावित करता है, दिशा देता है। आगे उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि श्रीलाल शुक्ल एक साधारण व्यक्तित्व के असाधारण लेखक थे। वे सामाजिक बुराइयों/ कुरीतियों को समझते या यह कहिए उसको जीते और व्यंग्य के माध्यम से उसे दूर करने और करवाने में सदा प्रयासरत रहते थे।

आरंभ में मल्ला रेडडी इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी साइंस, मेडचल, हैदराबाद महानगर के  बी.टेक. विद्यार्थी पं. आकाश तिवारी ने शंखनाद एवं मंगलाचरण किया। अखिल भारतीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण महासभा (रजि.) कानपुर की राष्ट्रीय अध्यक्ष (महिला प्रकोष्ठ) डॉ. सीमा मिश्रा ने कार्यक्रम में सभी गणमान्य अतिथियों का स्वागत किया।


राष्ट्रीय वेबिनार का सफल संचालन मिश्र धातु निगम (मिधानि),  हैदराबाद, राजभाषा विभाग के उप-प्रबंधक डॉ. बी. बालाजी ने कुशलतापूर्वक पूर्ण किया। संयोजिका डॉ. सीमा मिश्रा ने इस राष्ट्रीय वेबसंगोष्ठी में देश-विदेश के 193 रजिस्ट्रेशन माध्यम से जुड़े एवं अखिल भारतीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण महासभा (रजि.) कानपुर एवं विशेष कर महिलाओं की सक्रिय भूमिका एवं राष्ट्रीय वेबसंगोष्ठी को  चरम सीमा तक ले जाने के लिए अध्यक्ष का आभार व्यक्त किया।

 

देश-विदेश के साहित्यकारों, विद्वानों, कलाकारों, शोधार्थियों तथा पत्रकारों की सक्रिय सहभागिता एवं वंदे मातरम के साथ करतल ध्वनि से कोरोना वैक्सीन के शुभ आगाज एवं नूतन वर्ष की शुभकामनाओं के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ। ★

                                                                प्रस्तुति: डॉ. सीमा मिश्रा,