तेवरी आंदोलन को प्रारंभ हुए तीन दशक से अधिक बीत चुके हैं। इस अवधि में हिंदी का यह काव्यांदोलन इतिहास की पुस्तकों में तो अपनी जगह नहीं बना पाया, लेकिन इससे जुड़े रचनाकारों ने अपनी आवाज़ को किसी प्रकार के समझौते नहीं करने दिए। उन्होंने प्रारंभ में जिस तरह नगरों, गाँवों, सड़कों और खेतों से जुड़ाव घोषित किया था, वह कम नहीं हुआ। इस समय वे जहाँ-जहाँ हैं, अपने चारों ओर फैली विषाक्त हवाओं के विरुद्ध अवसर निकाल-निकाल कर आवाज उठा रहे हैं। कई बार इनकी आवाज़ें दूर तक अपनी गूँज का विस्तार करती महसूस की जाती हैं और कई बार उन्हें अनसुना कर दिया जाता है। यह तरह-तरह की सत्ताओं का प्रतिरोध की कविता के साथ किया जाने वाला व्यवहार है, जो हमेशा से होता आया है। तेवरी आंदोलन से जुड़े रचनाकार इस तथ्य को जानते हैं, इसीलिए वे सत्ता को निरंतर नकारते हैं और जनता की सही आवाज़ बनने के रास्ते तलाशते रहते हैं। उनकी संख्या कम है, और कम होती चली जाए, उनके साथ आने से सुविधाजीवी रचनाकार कतराते रहें या और जो भी हो, उनकी बला से।
ऋषभदेव शर्मा के लिए भी सत्ता नाराज़ हो जाए, उनकी बला से, वे जनाक्रोश का पसीना पोंछ-पोंछ कर उसे उकसाते रहेंगे और मौक़ा मिलते ही जनांदोलन में बदल जाने को प्रेरित करते रहेंगे। उनके लिए सत्ता ख़ूबसूरत से ख़ूबसूरत रूप धारण करने की कोशिश करके लगातार भ्रमबिंबों का एक जाल रचती रहती है। इस जाल में असंख्य सूर्य, चंद्रमा, तारे, धरा-गोलार्ध, आपस में गड्ड-मड्ड हुए उल्टे-सीधे चक्कर काटते रहते हैं, ज्वालामुखियों से लावे की जगह बर्फ फूट-फूट कर पहाड़ों-जंगलों से उनकी असली पहचान छीनने की साजिश रचती रहती है और स्थानीयता से वैश्विकता के बीच का शोर विमर्शों की दलदल में बदलता रहता है। भ्रमबिंबों के इस जाल का शिकार भी जनता होती है और उत्तर भी वही बनती है। यहाँ से सत्ता, जनता और रचनाकार के रिश्तों का अग्नि-मार्ग निर्मित होता है, जिस पर चलना सत्ता के लिए कभी संभव नहीं होता, जबकि शेष दोनों सहयात्री बन कर आगे बढ़ते रहते हैं।
‘धूप ने कविता लिखी है’ की तेवरियाँ मुझे इस अहसास के सामने लाकर खड़ा करती हैं। इनकी आँच को सहना मेरे लिए कठिन है। ये कभी भी, कहीं भी जला सकती हैं। किसी भी बिंदु पर असहज कर देने वाले सवालों के दायरे निर्मित करके मुझे उनके भीतर खींच सकती हैं। मुझे लगता है कि अगर आपने इन्हें एक से अधिक बार पढ़ने की हिम्मत दिखाई, तो आप भी इनके आसान शिकार बन सकते हैं, सो इन तेवरियों को अधलेटे होकर या बिस्तर पर चादर ओढ़ कर या मन समझाने के लिए न पढ़ें। इन्हें वे लोग भी न पढ़ें, जिनकी रीढ़ की हड्डी सीधी न हो और जो सत्ता की दलाली को जीवन-ध्येय बना चुके हों। जनता की पक्षधरता का हलफ उठाने वाले इन तेवरियों को पढ़ते हुए सहजता अनुभव करेंगे। उन्हें इनके संगसाथ में संघर्ष के नए रास्ते भी आवाज़ लगाते दिख जाएँगे।
ऋषभदेव शर्मा के इस नए संग्रह की अधिकांश तेवरियाँ बरसों पहले रची गई हैं और शहरी गोष्ठियों से लेकर गंगधाडी के आसपास खलिहानों में किसानों की प्रशंसा बटोर चुकी हैं। किताब में इन्हें देर से जगह मिल रही है, इसके पीछे तेवरीकार का संकोच है या कुछ और, यह केवल रचनाकार को ही पता है। मेरे लिए यह संग्रह संतोष का बड़ा कारण इसलिए है कि इसके प्रकाशन से तेवरी काव्यांदोलन को पुनर्वार नवीन ऊर्जा प्राप्त होगी।
शुभकामनाएँ................
विजयादशमी, 2014 देवराज
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
गांधी हिल्स, वर्धा-442 005 (महाराष्ट्र)
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