15 नवंबर 2014 को हैदराबाद में 'साहित्य मंथन' के तत्वावधान में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में
आयोजित एक समारोह में
तेलुगु के प्रमुख कवि प्रो. एन. गोपि ने
डॉ. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा लिखित पुस्तक
'तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय'
का लोकार्पण किया.
इस अवसर पर प्रो. एम. वेंकटेश्वर (अध्यक्ष),
पद्मश्री जगदीश मित्तल (उद्घाटनकर्ता), प्रो. देवराज (मुख्य अतिथि),
डॉ. जोराम यालाम नाबाम और विवेक नाबाम के साथ लेखकद्वय .
परिचय वक्तव्य : डॉ. बी. बालाजी
तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय
‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’ प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी और डॉ. जी नीरजा जी द्वारा रचित पुस्तक तेलुगु और हिंदी साहित्य के अध्येताओं, शोधार्थियों और प्रेमियों के लिए एक अभिनव भेंट है।
भेंट इसलिए कह रहा हूँ कि एक पॉकेट डिक्शनरी की तरह मात्र 64 पृष्ठों की यह पुस्तक तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद के इतिहास को प्रस्तुत करती है। साथ ही अनुवाद के माध्यम से हिंदी साहित्य के पाठकों के समक्ष तेलुगु भाषी लोक की संस्कृति, लोकाचार और प्रथाएँ, तेलुगु प्रदेश की जीवन शैली, लोक विश्वास और लोकोक्तियाँ, नामकरण की शब्दावली का हिंदी में प्रवेश भी उद्घाटित करती है। यह समय कॉम्पैक्ट -डिजिटल का है। हमें सारी चीजें कॉम्पैक्ट में चाहिए ‘देखने में छोटे लगें, मगर प्रकट करें सारा संसार’। जी हाँ, यह पुस्तक इसी वाक्य को चरितार्थ करती है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी और डॉ. जी नीरजा जी ने बहुत परिश्रम किया होगा इसे कॉम्पैक्ट बनाने के लिए।
इस पुस्तक की एक और विशेषता की ओर आप सब का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। लेकिन इससे पहले यह बताना मैं अपना दायित्व समझता हूँ कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी चाहे कोई साधारण लेख लिख रहे हों, किसी पुस्तक की भूमिका या समीक्षा लिख रहे हों या किसी विषय पर शोध करा रहे हों, एक वैज्ञानिक की तरह काम करते हैं। हर रचना की प्रक्रिया के समय वे वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हैं। विषय की सैद्धांतिकी को व्यावहारिक रूप देते हैं। और डॉ. जी नीरजा जी भी इसी राह पर चल पड़ी हैं। यह पुस्तक इस बात का प्रमाण है।
अब मैं, विशेषता की बात करूंगा। इस पुस्तक का प्रत्येक लेख अपने आप में एक स्वतंत्र लेख है। पाठक इसे कहीं से भी पढ़ना आरंभ कर सकता है। यदि मान लीजिए पाठक पुस्तक का अंतिम लेख – ‘नामकरण’ पढ़ना चाहता है तो उसे ‘ तेलुगु साहित्य के अनुवाद की परंपरा’ जो पहला लेख है, पढ़ने की मजबूरी महसूस नहीं करनी पड़ेगी। यही बात सभी लेखों पर लागू होती है। जैसे दूसरा लेख - अनुवाद की विकास यात्रा, तीसरा लेख - स्रोत भाषा की शब्दावली का प्रसार, चौथा लेख- सांस्कृतिक संदर्भ, पाँचवां लेख- लोकाचार और प्रथाएँ, छठा लेख- स्रोत भाषासमाज की जीवन शैली, सातवाँ लेख - उपपाठों की पहचान, आठवाँ लेख- सूचना संप्रेषण, नौवां लेख - लोकोक्तियाँ। इस तरह हम देखते हैं कि इस अनुपम पुस्तक में कुल मिलाकर ग्यारह संक्षिप्त लेख सम्मिलित हैं।
अंत में संदर्भ भी दिए गए हैं। यह तेलुगु से हिंदी अनुवाद पर तथा तुलनात्मक शोध की इच्छा रखने वाले शोधार्थी के लिए बहुत उपयोगी सामग्री है। यह पुस्तक अपने-आप में एक मार्ग दर्शिका है।
विवेच्य पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’ के लेखन के पीछे (लिखने का कारण) हिंदी भाषा और साहित्य के लिए काम करते हुए दोनों लेखकों की कर्म भूमि - ‘तेलुगु प्रदेश और उसके साहित्य’ के प्रति दायित्व का निर्वाह है। इस दायित्व को दोनों लेखकों ने पूरी ईमानदारी से निभाया है। यह बात इस लेखकीय टिप्पणी से पुष्ट हो जाएगी – “तेलुगु से भी हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में अनेक रचनाओं का अनुवाद हुआ है। परंतु खेद का विषय है कि तेलुगु या अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित साहित्य को गंभीरता से नहीं लिया गया। प्राय: यह कहकर इन अनुवादों की उपेक्षा की जाती रही है कि अनुवाद ठीक नहीं हो रहे हैं या अनुवाद में प्रयुक्त भाषा कहीं-कहीं त्रुटिपूर्ण होती है या व्याकरण सम्मत होते हुए भी अनुवाद की भाषा पाठकों को उबाऊ लगती है। ये तमाम आलोचनाएँ अपनी जगह हैं और अनुवादकों की निरंतर साधना अपनी जगह है। इसलिए तेलुगु से हिंदी में अब तक अनेक रचनाओं का अनुवाद हो चुका है तथा अब भी हो रहा है।“
तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद के प्रदेय को पुस्तक में उद्धृत उद्दरण से बताने का प्रयास करूंगा -
इस पुस्तक के माध्यम से लेखकद्वय ने उद्घाटित किया है कि तेलुगु साहित्य का हिंदी में अनुवाद होने से भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य को लाभ हुआ है। इस संदर्भ में लेखक द्वारा उद्धृत प्रो. देवराज के कथन का उल्लेख करना चाहूँगा – “तेलुगु के कालजयी रचनाकार सी. नारायण रेड्डी ने काव्य में पंचपदी शैली के कुछ अद्भुत प्रयोग किए थे। उनकी पंचपदियों का हिंदी में अनुवाद प्रो. भीमसेन निर्मल ने किया था। कोई बीस साल पहले मैंने ये अनुवाद मणिपुरी भाषा के कवियों की एक सभा में पढे थे। मूल पाठ हिंदी में और व्याख्या मणिपुरी में। आयोजन स्थल से बाहर आते समय निर्मल जी के अनुवादों की वह पुस्तक मुझसे कवि लनचेनबा मीतै ने मांग ली। लगभग एक साल के बाद एक दिन लनचेनबा वह पुस्तक लौटाने आए। उनके हाथ में कागजों का एक पुलिंदा भी था। बोले, ‘सर, मेरी कुछ कविताएं सुनिए’। उन्होंने काफी देर तक जिन कविताओं का पाठ किया, वे सब पंचपदी शैली में थीं। इनमें जीवन के असंख्य अनुभव प्रभावशाली बिंबों में आकार ग्रहण करते प्रतीत हो रहे थे। मणिपुरी कविता में यह एक नवीन रचना शैली थी, जिसे तेलुगु के सी. नारायण रेड्डी की पंचपदियों से ग्रहण किया गया था। कवि लनचेनबा को इस बात का गर्व भी था कि उन्होंने अपनी मातृभाषा की काव्य परंपरा में एक नवीन वैशिष्ट्य जोड़ा। स्मरणीय है कि ‘येंङ्लु येंङ्लुबदा’ नाम से इन कविताओं का एक संग्रह छपा, जिसने मणिपुरी युवा कविता आंदोलन की महत्वपूर्ण कृति होने का गौरव प्राप्त किया और इसका हिंदी में अनुवाद सिद्धनाथ प्रसाद द्वारा किया गया, जो ‘जित देखूँ’ नाम से 1998 में प्रकाश में आया। इस घटना से तेलुगु, मणिपुरी और हिंदी के संबंध भी सामने आते हैं तथा भारतीय साहित्य के निर्माण की प्रक्रिया पर भी प्रकाश पड़ता है।“
तेलुगु साहित्यकारों की रचनाधर्मिता और सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूकता भी इस पुस्तक के माध्यम से हिंदी पाठकों के समक्ष प्रकट होती है। इस संदर्भ में पुस्तक में ‘ऋषभ उवाच’ से उद्धृत कथन दृष्टव्य है – “निखिलेश्वर का मत है कि तेलुगु साहित्यकार सामाजिक यथार्थ के प्रति अत्यंत सजग रहे हैं तथा पश्चिमी साहित्य में जो परिवर्तन 300 वर्षों में हुए, तेलुगु में वे 100 वर्ष में संपन्न हो गए।“
कहने का अभिप्राय यह है कि तेलुगु साहित्यकारों ने जिन विधाओं और विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है, उन विधाओं और विषयों का अनुवाद के माध्यम से हिंदी में तथा भारत की अन्य भाषाओं में आदान-प्रदान होता है तो उन भाषाओं के साहित्य को समृद्ध होने के अवसर मिलने लगते हैं। इस कार्य में आलोचनाओं की परवाह न करते हुए साधना कर रहे सारे अनुवादक बधाई के पात्र हैं और इस महत्तर कार्य की जानकारी हिंदी पाठक तक पहुंचाने में यह कृति सफल हुई है।
लेखकद्वय ने तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद संबंधी अनेक आलेखों तथा कतिपय अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर तेलुगु से हिंदी में अनूदित साहित्य को विधावार सूची बद्ध किया है। और 1954 से अबतक काव्य के 100, उपन्यास के 49, कहानी संग्रहों के 49 तथा विविध विधाओं जिनके अंतर्गत निबंध, एकांकी, नाटक, जीवनी, इतिहास, भाषाविज्ञान, काव्यशास्त्र, व्याख्या-टीका, दर्शनशास्त्र, आत्मकथा, समीक्षा, अनुवादशास्त्र आदि शामिल हैं के 65 अनुवादों की सूची उपलब्ध कराई गई है।
भारत की बहुभाषिकता अनुवाद के माध्यम से ही सम भाषिकता के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है। भारत का हर नागरिक कम से कम तीन भाषाओं का ज्ञाता होता है और बहुभाषिकता को ग्रहण कर सम भाषिक होने के प्रमाण देता रहता है। अनुवाद के माध्यम से राष्ट्रीय एकता प्रकट होती है। इसे बहुत ही सटीक रूप में रेखांकित करती है यह पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’।
अंत में मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि यह पुस्तक हिंदी पाठक के समक्ष तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद और उसके प्रदेय को बड़ी शालीनता से, बिना किसी शोर और आडंबर के उद्घाटित करती है। लेखकद्वय ने बड़े परिश्रम से विवेच्य कृति की रचना की है। दोनों को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। साथ ही, प्रकाशक परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद को भी धन्यवाद.
- तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय, ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा, 2015, परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद, 50 रु., 64 पृष्ठ, ISBN - 978-93-84068-11-0
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