मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

श्रीलाल शुक्ल स्मारक संगोष्ठी और ‘अन्वेषी’ का लोकार्पण समारोह 31 दिसंबर को

हैदराबाद, 27 दिसंबर, 2016

श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति के तत्वावधान में आगामी शनिवार, 31 दिसंबर, 2016 को सायं 4 बजे से तिलक रोड स्थित तेलंगाना सारस्वत परिषद के सभा कक्ष में ज्ञानपीठ पुरस्कृत प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल के 92 वें जन्मोत्सव पर ‘युगीन चुनौतियों के संदर्भ में श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. अहिल्या मिश्र करेंगी तथा गृह विभाग, तेलंगाना सरकार के प्रधान सचिव राजीव त्रिवेदी, आई.पी.एस., मुख्य अतिथि का आसन ग्रहण करेंगे. अरबामिंच विश्वविद्यालय, इथियोपिया के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. गोपाल शर्मा विशिष्ट अतिथि एवं इंदौर की कवयित्री अलका जैन और वर्ल्ड मीडिया के निदेशक राजकुमार शुक्ल ‘हंस’ सम्माननीय अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे. संगोष्ठी में डॉ. बी. बालाजी और डॉ. सुपर्णा बंद्योपाध्याय अपने शोधपत्र प्रस्तुत करेंगे. 

उल्लेखनीय है कि श्रीलाल शुक्ल के जन्मदिन पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली यह राष्ट्रीय संगोष्ठी इस वर्ष अपना दशक पूरा कर रही है. इस संदर्भ में इस वर्ष से समिति ने ‘श्रीलाल शुक्ल स्मारक सारस्वत सम्मान’ आरंभ करने का निश्चय किया है. ‘प्रथम श्रीलाल शुक्ल स्मारक सारस्वत सम्मान’ इस समारोह में नगर की युवा हिंदीसेवी विदुषी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा को प्रदान किया जाएगा. 

अन्वेषी
संपादक : ऋषभदेव शर्मा, गुर्रमकोंडा नीरजा
परिलेख प्रकाशन, वालिया मार्केट,
निकट साहू जैन कॉलेज, कोतवाली मार्ग,
नजीबाबाद - 246763
2016
पृष्ठ 240
मूल्य : रु. 250 
इस अवसर पर डॉ. ऋषभदेव शर्मा एवं डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित 37 नवीनतम शोधपत्रों के संकलन ‘अन्वेषी’ को भी लोकार्पित किया जाएगा जिसकी समीक्षा चिरेक इंटरनेशनल स्कूल से संबद्ध डॉ. मंजु शर्मा करेंगी. 

सभी साहित्य प्रेमियों से समारोह में पधारने का अनुरोध है. 

- डॉ. सीमा मिश्रा, संयोजक
पं. श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति
48, तिवारी सदन, संपूर्ण प्रथम एवं द्वितीय तल 
महात्मा गांधी रोड, रामगोपाल पेठ, सिकंदराबाद – 500003
मोबाइल : 9392059767. ईमेल – tiwariaakash110@gmail.com 

रविवार, 11 दिसंबर 2016

[पुस्तक समीक्षा] एक अध्यापक को छात्रों का तोहफा


-    डॉ.बी.बालाजी
सहायक प्रबंधक (राजभाषा)
मिश्र धातु निगम लिमिटेड, हैदराबाद-500058
मो.: 08500920391
ई-मेल:balajib18@gmail.com, balajib18@yahoo.com


जिन व्यक्तियों के शुभकार्यों का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, उनमें अध्यापक का स्थान सर्वोपरि है. समाज का यह कर्तव्य है कि ऐसी विभूतियों के कार्यों का सम्मान करे ताकि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा प्राप्त हो सके. पश्चिमी उत्तरप्रदेश के एक विशाल भौगौलिक क्षेत्र के लोगों के बीच ‘गुरुजी’ के रूप में विख्यात, अपभ्रंश भाषा, जैन आगम और मध्यकालीन साहित्य के विशेषज्ञ आचार्य प्रेमचंद्र जैन एक ऐसी ही विभूति हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व द्वारा केवल छात्रों ही नहीं बल्कि समाज पर भी व्यापक प्रभाव डाला है. लगभग अस्सी वसंत देख चुके डॉ.प्रेमचंद्र जैन को उनके प्रिय शिष्य प्रो.देवराज (अधिष्ठाता, अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा) के नेतृत्व में तैयार किया गया 448 पृष्ठों का ग्रंथ “निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक” गत दिनों, 3 दिसंबर 2016 को, गलगोटिया विश्वविद्यालय, नोएडा में संपन्न एक कार्यक्रम में समर्पित किया गया. इस ग्रंथ का संपादन डॉ.गुर्रमकोंडा नीरजा एवं अन्य ने किया है तथा प्रधान संपादक डॉ.ऋषभ देव शर्मा हैं.           
“निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक” की सामग्री पाँच खंडों में सुनियोजित रूप में प्रस्तुत की गई है. पहले खंड में ‘प्रेम का अंत नहीं’ में सम्मानित विभूति के अंतरंग मित्रों एवं शिष्यों के अत्यंत रोचक संस्मरण हैं, जबकि खंड-2 में स्वयं डॉ. प्रेमचंद्र जैन की सृजनयात्रा के विविध पक्षों की बानगी प्रस्तुत की गई है. ‘कविता में कहा बहुत कुछ’ में उनकी 44 कविताएँ संकलित हैं. ‘विमर्श से विमर्श तक’ में 8 शोधपत्र हैं. ‘अंतरिक्ष में भेजे हुए शब्द’ में 7 रेडियो वार्ताएं हैं. ‘मैं यहाँ से बोल रहा हूँ’ में 2 व्याख्यान हैं. ‘निर्वचन के सीमांत’ में 15 पुस्तकों की भूमिकाएं हैं  तथा ‘कहानी’ में ‘बरगद ढह गया’ शीर्षक एक कहानी दी गई है. यह सारी सामग्री ‘सृजनयात्रा’ खंड में शामिल है. पुस्तक के तीसरे खंड का शीर्षक है ‘संवाद के सशक्त हस्ताक्षर’. इसमें प्रेमचंद्र जैन को मुख्य रूप से डॉ. शिवप्रसाद सिंह और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखे गए पत्रों के साथ स्वयं डॉ. जैन द्वारा समय-समय पर लिखे गए पत्र संगृहीत किए गए हैं. चौथे खंड ‘मेरा काबा मेरी काशी’ में डॉ. प्रेमचंद्र जैन की आत्मकथा का अंश प्रकाशित किया गया है जो एक अध्यापक के सृजन और संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है. पाँचवें खंड में एक अभिनंदन पत्र उद्धृत किया गया है.
कुल मिलाकर, यह एक ऐसा संदर्भ ग्रंथ बन गया है जो एक ओर तो डॉ.प्रेमचंद्र जैन के जीवन और रचना कर्म को पाठकों के सामने लाता है तथा दूसरी ओर अपभ्रंश भाषा और मध्यकालीन साहित्य पर अत्यंत शोधपूर्ण एवं अन्यत्र दुर्लभ सामग्री को प्रस्तुत करता है. किसी अध्यापक को अपने छात्रों की ओर से दिया जा सकने वाला यह उपहार निश्चय ही अत्यंत श्लाघनीय है जिससे अनेक अध्यापकों और उनके शिष्यों को ईर्ष्या होनी चाहिए!

समीक्षित कृति : “निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक”,
संपादक : गुर्रमकोंडा नीरजा एवं अन्य, संपर्क :09849986346.
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, वालिया मार्केट, निकट साहू जैन कॉलेज, कोतवाली मार्ग, नजीबाबाद-246763,
पृष्ठ : 448 (सजिल्द),
मूल्य : 200/- रुपए.

शनिवार, 3 दिसंबर 2016

'निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक' डॉ. प्रेमचंद्र जैन

जैन दर्शन, हिंदी साहित्य और अपभ्रंश भाषा के प्रख्यात विद्वान और विचारक गुरुवर डॉ. प्रेमचंद्र जैन अगले महीने आज ही की तारीख को उन्यासीवें वर्ष में प्रवेश करेंगे. आज है 3 दिसंबर 2016. अर्थात गुरुजी का जन्म 3 जनवरी, 1939 ई. को हुआ. जन्म स्थान ग्राम नगला बारहा, जनपद बदायूँ, उत्तर प्रदेश.

पिता श्री शोभाराम जैन निष्ठावान अध्यापक थे. उन्होंने अपने पुत्र को शिक्षा की मूल्यवान विरासत सौंपी, जिसे गुरुजी ने स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान और भगवान महावीर केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ में अध्ययन, स्वाध्याय और अनुसंधान द्वारा अनेकगुणित करके कृतार्थता प्राप्त की. साथ ही, आपके सारस्वत व्यक्तित्व के निर्माण में पंडित फूलचंद शास्त्री के पांडित्य, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के फक्कड़पन और डॉ. शिवप्रसाद सिंह की सर्जनात्मक मेधा का योगदान अविस्मरणीय है. यही कारण है कि आप इस गुरु-त्रिमूर्ति के गुण गाते नहीं थकते.  

1962 में बीए, ’63 में सिद्धांत शास्त्री, ’64 में एमए, ’68 में शास्त्री के उपरांत गुरुजी ने 1969 में पीएचडी उपाधि अर्जित की. आपका शोधप्रबंध "अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक" 1975 में प्रकाशित हुआ जिससे आपको विद्वत्समाज में विशिष्ट ख्याति प्राप्त हुई. इस बीच 1972 में आपने नजीबाबाद, उत्तर प्रदेश के साहू जैन कॉलेज में हिंदी प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति पाई और उसे ही अपना काबा-काशी मानकर वहीं के होकर रह गए. वहीं रहते हुए आपने अध्यापन, शोध, साहित्य सृजन तथा हिंदी सेवा के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए एवं शिष्यों से लेकर आम जन तक में अनन्य लोकप्रियता प्राप्त की. यदि यह कहा जाए कि आप ही के कारण नजीबाबाद को हिंदी की सार्वदेशिक गतिविधियों के मानचित्र पर स्थायी पहचान मिली, तो अतिशयोक्ति न होगी. निश्चय ही इस उपलब्धि के पीछे उनके अनेक समर्पित साथियों का अविचल सहयोग विद्यमान रहा, जिनकी गाथाएँ गुरुजी सदा उल्लसित होकर सुनाते हैं.

गुरुवर डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने अनेक कविताओं, ललित निबंधों और कुछ कहानियों का भी प्रणयन किया है जिनमें उनका दिल धड़कता सुनाई देता है. लेकिन उनकी विशेष प्रसिद्धि जैन दर्शन, अपभ्रंश भाषा और मध्यकालीन हिंदी  साहित्य के मर्मज्ञ अध्येता और व्याख्याता के रूप में है. उनके मौलिक और संपादित ग्रंथों में - अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक, रहस्यवादी जैन अपभ्रंश काव्य का हिंदी पर प्रभाव, हिंदी संत साहित्य में श्रमण साहित्य का योगदान,   हम तो कबहुँ न निज घर आए, पंडित जी, माता कुसुम कुमारी हिंदीतर भाषी हिंदी साधक सम्मान : अतीत एवं संभावनाएँ, बीहड़ पथ के यात्री – जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ शामिल हैं.

गुरुजी के भीतर-बाहर संत कबीर जैसी निर्भीकता और निःशंकता की सात्विक ऊर्जा लहराती है. यही कारण है कि अपने शिष्यों के लिए वे ‘’निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’’ हैं.

[प्रस्तुति : डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह-संपादक, ‘स्रवंति’, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद-500004]