जैन दर्शन, हिंदी साहित्य और अपभ्रंश भाषा के प्रख्यात विद्वान और विचारक गुरुवर डॉ. प्रेमचंद्र जैन अगले महीने आज ही की तारीख को उन्यासीवें वर्ष में प्रवेश करेंगे. आज है 3 दिसंबर 2016. अर्थात गुरुजी का जन्म 3 जनवरी, 1939 ई. को हुआ. जन्म स्थान ग्राम नगला बारहा, जनपद बदायूँ, उत्तर प्रदेश.
पिता श्री शोभाराम जैन निष्ठावान अध्यापक थे. उन्होंने अपने पुत्र को शिक्षा की मूल्यवान विरासत सौंपी, जिसे गुरुजी ने स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान और भगवान महावीर केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ में अध्ययन, स्वाध्याय और अनुसंधान द्वारा अनेकगुणित करके कृतार्थता प्राप्त की. साथ ही, आपके सारस्वत व्यक्तित्व के निर्माण में पंडित फूलचंद शास्त्री के पांडित्य, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के फक्कड़पन और डॉ. शिवप्रसाद सिंह की सर्जनात्मक मेधा का योगदान अविस्मरणीय है. यही कारण है कि आप इस गुरु-त्रिमूर्ति के गुण गाते नहीं थकते.
1962 में बीए, ’63 में सिद्धांत शास्त्री, ’64 में एमए, ’68 में शास्त्री के उपरांत गुरुजी ने 1969 में पीएचडी उपाधि अर्जित की. आपका शोधप्रबंध "अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक" 1975 में प्रकाशित हुआ जिससे आपको विद्वत्समाज में विशिष्ट ख्याति प्राप्त हुई. इस बीच 1972 में आपने नजीबाबाद, उत्तर प्रदेश के साहू जैन कॉलेज में हिंदी प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति पाई और उसे ही अपना काबा-काशी मानकर वहीं के होकर रह गए. वहीं रहते हुए आपने अध्यापन, शोध, साहित्य सृजन तथा हिंदी सेवा के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए एवं शिष्यों से लेकर आम जन तक में अनन्य लोकप्रियता प्राप्त की. यदि यह कहा जाए कि आप ही के कारण नजीबाबाद को हिंदी की सार्वदेशिक गतिविधियों के मानचित्र पर स्थायी पहचान मिली, तो अतिशयोक्ति न होगी. निश्चय ही इस उपलब्धि के पीछे उनके अनेक समर्पित साथियों का अविचल सहयोग विद्यमान रहा, जिनकी गाथाएँ गुरुजी सदा उल्लसित होकर सुनाते हैं.
गुरुवर डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने अनेक कविताओं, ललित निबंधों और कुछ कहानियों का भी प्रणयन किया है जिनमें उनका दिल धड़कता सुनाई देता है. लेकिन उनकी विशेष प्रसिद्धि जैन दर्शन, अपभ्रंश भाषा और मध्यकालीन हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ अध्येता और व्याख्याता के रूप में है. उनके मौलिक और संपादित ग्रंथों में - अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक, रहस्यवादी जैन अपभ्रंश काव्य का हिंदी पर प्रभाव, हिंदी संत साहित्य में श्रमण साहित्य का योगदान, हम तो कबहुँ न निज घर आए, पंडित जी, माता कुसुम कुमारी हिंदीतर भाषी हिंदी साधक सम्मान : अतीत एवं संभावनाएँ, बीहड़ पथ के यात्री – जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ शामिल हैं.
गुरुजी के भीतर-बाहर संत कबीर जैसी निर्भीकता और निःशंकता की सात्विक ऊर्जा लहराती है. यही कारण है कि अपने शिष्यों के लिए वे ‘’निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’’ हैं.
[प्रस्तुति : डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह-संपादक, ‘स्रवंति’, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद-500004]
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