मंगलवार, 4 जुलाई 2017

(पुस्तक) 'अँधेरे में' : पुनर्पाठ @ मुक्तिबोध-शताब्दी-संदर्भ

'अँधेरे में'' : पुनर्पाठ/ (सं) ऋषभ देव शर्मा, गुर्रमकोंडा नीरजा
परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद
2017, पृष्ठ 224, मूल्य : 250/- 
ISBN : 978-93-84068-54-7
वितरक : srisahitiprakashan@yahoo.com







आज अर्थात 4 जुलाई, 2017 को प्रो. ऋषभ देव शर्मा ऑफिशियली साठ वर्ष के अर्थात 'सीनियर सिटिजन' हो रहे हैं. यह सुखद संयोग है कि आज ही उनके साथ संपादित चिरप्रतीक्षित पुस्तक 'अँधेरे में : पुनर्पाठ' प्रकाशित होकर आई है. मुझे विश्वास है कि सर इसे देखकर प्रसन्न और गदगद होंगे. मुक्तिबोध की रचना 'अँधेरे में' की अर्धशती के अवसर पर सर ने इस किताब का सपना देखा था और उसे साकार करने की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी थी. सहयोगी विद्वानों की कृपा से अब मुक्तिबोध की जन्म शती के वर्ष में वह सपना साकार हुआ है. इसमें विविध लेखों के अलावा प्रो. गोपाल शर्मा की एक पूरी किताब भी शामिल है. हम यह पुस्तक 'त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये' की तर्ज पर प्रो. गोपाल शर्मा जी को ही समर्पित कर रहे हैं.
                                                                   - गुर्रमकोंडा नीरजा  
 


भूमिका

यह वर्ष (2017) आधुनिक भारतीय कविता के एक शलाका पुरुष गजानन माधव मुक्तिबोध (1917-1964) का जन्म-शताब्दी वर्ष है. उनके निधन को, और उनकी कालजयी कृति ‘अँधेरे में’ के प्रकाशन को, भी पचास वर्ष से अधिक बीत चुके हैं. इन्हीं दोनों संदर्भों को ध्यान में रखते हुए हम विनम्रतापूर्वक यह पुस्तक (‘अँधेरे में’ : पुनर्पाठ) आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. बार-बार कहा जाता रहा है कि मुक्तिबोध ‘कठिन समय के कठिन कवि’ हैं और खास तौर से ‘अँधेरे में’ अपनी वैचारिकता और शिल्पगत नवीनता के कारण जटिल कविता है – न उसका कोई पूर्वज है और न वंशज. आलोचकों की फतवेबाजी ने एक ऐसा रहस्यलोक इस कवि और कविता के इर्दगिर्द बुन दिया है कि 20 वीं शताब्दी की इस एक श्रेष्ठ अभिव्यक्ति के निकट जाता हुआ पाठक इस तरह डरता है मानो उसे अँधेरे में किसी ब्रह्मराक्षस के पास जाना पड़ रहा हो. 

तरह-तरह की विचारधाराओं में दीक्षित होकर इस कृति और कृतिकार को समझने की कोशिश करना रेनकोट पहनाकर स्नान का आनंद लेने का पाखंड है. हमारा मानना है कि कठिन परिस्थितियों और संश्लिष्ट अनुभूतियों से घिरे होने के बावजूद मुक्तिबोध और ‘अँधेरे में’ – दोनों ही बेहद कोमल और सरल हैं. उतने ही कोमल और सरल जितना रिमझिम बरसता हुआ सावन. जटिलता उत्पन्न हुई है अपरिचय के कारण. अपरिचय है पहले से अर्जित दीक्षा के कारण. इस दीक्षा के रेनकोट को उतार दें तो मुक्तिबोध की दुनिया हमें हमारी अपनी दुनिया लगने लगती है. इस दुनिया को देखने के, झेलने के, भोगने के, जीने के और इससे लड़ने और इसे बदलने के अनेक कोण हो सकते हैं. ये कोण हमारी स्थिति पर निर्भर करते हैं कि हम महाकाव्यात्मक चेतना के इस कवि और काव्य को कहाँ से और कैसे देख रहे हैं. यहीं से’अँधेरे में’ कविता के अलग-अलग पाठों की संभावनाओं के दरीचे खुलते हैं. यह पुस्तक मुक्तिबोध के ‘अँधेरे में’ के प्रवाह में डूबकर इसके गर्भ में निहित प्रकाश बीजों के पहचान करने का एक यत्न भर है. आइए, आप भी इसमें गोता लगाइए. 

इस पुस्तक में एक प्रयोग भी शामिल है. वह यह कि इसमें अंतिम आलेख के रूप में पूरी एक पुस्तक शामिल की गई है – प्रो. गोपाला शर्मा द्वारा लिखित अँधेरे में : देरिदा-दृष्टि से एक जगत-समीक्षा – जिसे इस पुस्तक के लिए ही विशेष रूप से लिखा गया है. हम प्रो. गोपाल शर्मा सहित सभी सहयोगी लेखकों और परिलेख प्रकाशन के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं. 

होली : 13 मार्च, 2017                                                                                                                                         
      - संपादक द्वय 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें