सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

डॉ. रामनिवास साहू की आत्मकथा 'मुझे कुछ कहना है' लोकार्पित


हैदराबाद, 19 फरवरी, 2017.
कादंबिनी क्लब के तत्वावधान में रविवार  को श्रीकृष्णदेवराय सभागार में प्रो. ऋषभ देव शर्मा की अध्यक्षता में क्लब की 295वीं मासिक गोष्ठी आयोजित की गई जिसमें मैसूर से पधारे डॉ. रामनिवास साहू की आत्मकथा  ‘मुझे कुछ कहना है’ के प्रथम भाग तथा क्लब द्वारा प्रकाशित  'पुष्पक -33’ का लोकार्पण संपन्न हुआ.

क्लब अध्यक्षा डॉ. अहिल्या मिश्र एवं कार्यकारी संयोजिका मीना मुथा ने प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि इस अवसर पर डॉ. गोपाल शर्मा (मुख्य अतिथि एवं पुस्तक लोकार्पणकर्ता ), डॉ. शकुंतला रेड्डी (विशेष अतिथि), डॉ. रामनिवास साहू (लेखक, क्षेत्रीय निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, मैसूर) और डॉ. अहिल्या मिश्र मंचासीन हुए. सर्वप्रथम दीप प्रज्वलन कर माँ शारदा का आशीष लिया गया. शुभ्रा महंतो ने निराला रचित सरस्वती वन्दना ‘वर दे वीणावादिनी वर दे’ की सुमधुर प्रस्तुति दी. डॉ. मिश्र ने स्वागत भाषण में संस्था की संक्षिप्त जानकारी व अतिथियों का परिचय दिया तथा मैसूर के रचनाकार डॉ. साहू का इस मंच पर आना क्लब के लिए गौरव की बार बताया. इस अवसर पर मंचासीन अतिथियों का क्लब की ओर से सम्मान किया गया. डॉ. रमा द्विवेदी और सरिता सुराणा ने व्यवस्था में सहयोग प्रदान किया.

प्रथम सत्र में महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के रचना संसार पर केंद्रित चर्चा सत्र में अपने विचार रखते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने कहा कि निराला का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में हुआ तथा बसंत पंचमी को अपनी जन्मतिथि मनाना उन्होंने खुद ही तय किया. गुलामी के युग में अपनी संस्कृति के प्रति गहरा लगाव जगाने का कार्य निरालाजी ने किया. उन्होंने विषयवस्तु और शिल्प दोनों ही दृष्टि से हिंदी कविता को एक नया आयाम दिया. हालांकि अधिक प्रसिद्धि उन्हें अपनी कविताओं से मिली लेकिन उनके लिखे उपन्यास और कहानियाँ भी हिंदी साहित्य में उतने ही महत्वपूर्ण हैं. ‘वर दे वीणावादिनी वर दे’ के अलावा उन्होंने कई और भक्ति गीत और प्रभातगीत लिखे. अध्यात्म से भी उनका जुड़ाव रहा, वे रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद से प्रभावित थे. प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने नौचंदी मेले में आयोजित कविसम्मेलन का जिक्र करते हुए निराला की पंक्तियों को उद्धृत किया.

डॉ. अहिल्या मिश्र ने कहा कि निराला ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं को समेटते हुए 3 खंडों की पहले ग्रंथावली निकली और बाद में 13 खंडों में रचनावली निकली है. स्वाभिमानी निराला ने स्त्री विमर्श पर प्रमुखता से लेखन किया है. उनकी रचना ‘भिक्षुक’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ का डॉ. मिश्र ने पाठ किया.

डॉ. मदनदेवी पोकरणा ने ‘पुष्पक-33’ का परिचय देते हुए कहा कि सशक्त संपादकीय के साथ साथ विभिन्न साहित्य विधाओं से यह अंक सुसज्जित है. रचनाकारों का उल्लेख करते हुए उनकी कृतियों की संक्षिप्त समीक्षा करते हुए उन्होंने संपादक मंडल को साधुवाद दिया. डॉ रामनिवास साहू ने ‘पुष्पक-33’ को लोकार्पित किया.

द्वितीय सत्र में डॉ. रामनिवास साहू की आत्मकथा ‘मुझे कुछ कहना है’ [प्रथम भाग] को लोकार्पित करते हुए मुख्य अतिथि डॉ. गोपाल शर्मा ने अपने वक्तव्य में कहा कि इस किताब को पढ़ते समय पाठक सहसा इस कहानी में अपने आपको ढूंढने लगता है. यह उपन्यास अनेक विमर्शों का जाल है जो एक नहीं अपितु अनेक दृष्टियाँ ले कर चलता है. यहाँ बनवासी विमर्श पर प्रमुखता से बात की गई है. लेखक आज लिखते हुए पीछे मुड़कर देखता है तो पाता है कि आज भी कुछ भी नहीं बदला है. यह किताब बार-बार पढ़ने योग्य है. 

‘मुझे कुछ कहना है’ की समीक्षा करते हुए लक्ष्मी नारायण अग्रवाल ने कहा कि छत्तीसगढ़ी भाषा की आंचलिकता, बनवासी प्रथा, बनवासियों की जीवन शैली, उस कालखंड की परिस्थितियाँ आदि का सशक्त चित्रण इस पुस्तक में मौजूद है. इस रचना में चित्रित चरवाहे के पात्र को लक्ष्मी नारायण अग्रवाल ने सराहते हुए कहा कि अपने मैनेजमेंट और अर्थशास्त्री गुणों के बल पर उसने अपने गाँव को जिस तरह से सूखा पीड़ित होने से बचाया वह प्रेरणास्पद है. लेखक ने अपनी स्मरण शक्ति के बल पर काफी कुछ लिखा है और इस कृति को कहीं भी क्लिष्ट नहीं होने दिया है. ठाकुर, मुखिया, सौतेला व्यवहार, षड्यंत्र, शादी-ब्याह के समय होने वाले छल-कपट, प्रथा-कुप्रथा सब इस आत्मकथा में मौजूद हैं. आत्मकथा केवल मैं पर केन्द्रित नहीं है बल्कि इर्द गिर्द घूमते सभी किरदारों को भी उतना ही महत्त्व दिया गया है. ऐसा लेखन बहुत कम पढ़ने को मिलता है. अंग्रेजी शासन काल में जो स्थितियां थी आज भी उनमे कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया है. डॉ. साहू ने आत्मकथा विधा की सीमाओं में रहकर जो भी लिखा है, सराहनीय है, साहसिक है. 

डॉ. शकुंतला रेड्डी ने संस्था एवं डॉ. साहू को साधुवाद दिया. प्रवीण प्रणव ने कहा कि यह आत्मकथा आदि से अंत तक पाठकों को बांधे रखती है. कुछ प्रसंग बेहद ही भावपूर्ण लिखे गए हैं. डॉ.अहिल्या मिश्र ने कहा कि बहुत आसान है दूसरों पर हँसना पर बहुत कठिन है खुद पर हँसना, बहुत आसान है दूसरों पर लिखना पर बहुत कठिन है खुद पर लिखना. मेले, बाइस्कोप की यादों को टटोलते हुए स्त्री विमर्श पर सुन्दर बातें रखी गई है. यह आत्मकथा हर भारतीय की आम कहानी है. डॉ. साहू के लेखन ने फणीश्वरनाथ रेणु की याद दिला दी. लालटेन, दलदल, कीचड़, पहाड़ आदि का सुन्दर वर्णन है तथा पात्रों के सजीव वर्णन से सत्यता का जुड़ाव नज़र आता है. 

आत्म्कथाकार डॉ. रामनिवास साहू ने कहा कि मैं एक ऐसे बनवासी गाँव से आया हूँ जहाँ से पढ़कर कोई इस मुकाम पर पहुँचता है तो बहुत दुर्लभ उदाहरण के रूप में यह देखा जाएगा. इस सफ़र में मार्गदर्शन दे रहे सभी गुरुओं को वंदना. 238 देशों में हमारी भारतीयता फैली है परन्तु दुर्भाग्य है कि दिया तले अँधेरा. 'जिओ और जीने दो' का संदेश पहले भी हुआ करता था, आज भी है, लेकिन हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते जा रहे हैं.

प्रो० ऋषभ देव ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि मैंने डॉ. साहू से कहा था कि आप जिस अंचल से आते हैं उस पर कोई प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है और आपको अपनी आत्मकथा आंचलिक संस्कृति और आंचलिक जीवन के संघर्षों को उभारते हुए लिखनी चाहिए. डॉ. साहू ने इस चुनौती के अनुरूप बहुत स्पष्टता के साथ विशिष्ट देश-काल की घटनाओं का बहुत बेबाकी से चित्रण किया है. डॉ. शर्मा ने पुस्तक से कुछ अंशों पर प्रकाश डाला और इस आत्मकथा के 4 और भागों के प्रकाशन की योजना की सूचना दी. प्रो. शर्मा ने कहा कि वनवासी गाँवों का कोई लिखित इतिहास नहीं होता. मौखिक परंपरा के आधार पर यह खड़ा होता है. मेरा ‘मैं’ सबका ‘मैं’ बन जाए, यह रचनाकार की सफलता है जिस पर डॉ. साहू खरे उतरते हैं. अंचल के निर्माण, विकास और इस दौरान मनुष्य के संघर्ष का पुस्तक में बेहतर चित्रण है. आगे के खण्डों को पढ़ने की उत्सुकता बनी रहेगी.

इस अवसर पर डॉ. साहू ने मंचासीन विद्वानों को स्मृतिचिह्न के रूप में छात्रकोष की प्रति भेंट की. प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने डॉ. साहू का व ज्योतिनारायण ने डॉ. गोपाल शर्मा का व्यक्तिगत तौर पर सम्मान किया. लोकार्पण समारोह का संचालन प्रवीण प्रणव और मीना मुथा ने किया, डॉ. रमा द्विवेदी ने  धन्यवाद ज्ञापित किया.

समापन सत्र में ऋतुराज वसंत पर आधारित कवि गोष्ठी नरेंद्र राय की अध्यक्षता में हुई. प्रो० ऋषभदेव शर्मा, डॉ. रामनिवास साहू, अजित गुप्ता और डॉ.अहिल्या मिश्र मंचासीन हुए. भंवरलाल उपाध्याय के संचालन में भावना पुरोहित, सरिता गर्ग, डॉ. गीता जांगिड़, मंगला अभ्यंकर, सुषमा वैद्य, जी० परमेश्वर, दर्शन सिंह, सूरज प्रसाद सोनी, उमा सोनी, प्रवीण प्रणव, देविदास घोडके, ज्योति नारायण, श्रीमन्नारायण चारी ‘विराट’, एल. रंजना, दीपा ठाकर, डॉ. साहू, अजित गुप्ता, प्रो० ऋषभ देव शर्मा, डॉ. अहिल्या मिश्र और मीना मुथा ने काव्यपाठ किया. नरेन्द्र राय ने अध्यक्षीय काव्यपाठ किया. सुरेश जैन, देवा प्रसाद मायला, जुगल बंग जुगल, डॉ. जी० नीरजा, जी० कृष्णा राव, श्रीसाहिती, मधुकर मिश्र, भूपेंद्र मिश्र, डॉ. बुधप्रकाश सागर, डॉ. मिथिलेश सागर, डॉ. अनीता गांगुली, पवित्रा अग्रवाल, चन्द्र प्रताप सिंह, श्रुतिकांत भारती, शोभा महाबल आदि की उपस्थिति रही. मीना मुथा के आभार एवं सामूहिक राष्ट्रगान के साथ समारोह का समापन हुआ. 
[प्रस्तुति : कादंबिनी क्लब, हैदराबाद]

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