हैदराबाद, 8 सितंबर 2012.
अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति एवं महिला दक्षता समिति डिग्री कॉलेज के संयुक्त तत्वावधान में चंदानगर स्थित रामगोपाल गोयनका सभागृह में उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के आचार्य डॉ. ऋषभ देव शर्मा की अध्यक्षता में हिंदी समारोह आयोजित किया गया. इस अवसर पर डॉ. राधेश्याम शुक्ल मुख्य अतिथि, रामगोपाल गोयनका, डॉ. पूर्णिमा शर्मा, रेणु केवडिया, ब्रजभूषण बजाज और डॉ. भारत भूषण विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित थे.
मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार व भाषाविद डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि सारी सृष्टि सरस्वतीस्वरूपा है क्योंकि उनका स्वरूप शब्दमय है. उन्होंने हिंदी को मनुष्यता की भाषा बताते हुए कहा कि कभी पूरे हिंदुस्तान की लोक व्यवहार की भाषा को हिंदी नाम दिया गया था. तब संस्कृत भी हिंदी थी. पालि, अवधी या यों कहें कि देश भर की सभी प्राकृत व संस्कृत भाषाएँ हिंदी थीं. पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार केस्पियन सागर के नीचे के भूभाग की भाषा संस्कृत थी. ईरान के प्रसिद्ध राजा नौशेरवां (531 – 579 ई.) ने बजरोया नाम के एक विद्वान को ‘पंचतंत्र’ का अनुवाद फ़ारसी में करने के लिए भारत भेजा. ‘पंचतंत्र’ संस्कृत का ग्रन्थ है. लेकिन इस अनुवाद की भूमिका में बजरोया ‘पंचतंत्र’ की भाषा को ‘ज़बाने हिंदी’ कहता है. यहाँ इतना स्पष्ट है कि बाहर के लोगों ने सिंधु नदी के पूर्व के सारे लोगों को हिंदू, उनकी भाषा को हिंदी और पूरे समुद्र पर्यंत क्षेत्र को हिन्दुस्तानी कहा. 15 अगस्त 1947 को आजाद राष्ट्र के रूप में अंग्रेजों का दिया देश हमने स्वीकार किया तो भाषा के रूप में उनकी दी हुई भाषा भी अपना ली और उनके द्वारा प्रदत्त बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषी खिचड़ी (Plural) पहचान भी स्वीकार कर ली. इतना ही नहीं उस पर गर्व भी करने लगे. अपनी इस नई पहचान में राष्ट्रीय एकता की भावना का कोई तत्त्व शेष नहीं रह गया – न भाषा, न जाति, न धर्म, न संस्कृति.
हिंदी आज भी व्यवहारतः राजभाषा का पद प्राप्त नहीं कर सकी है इस बात पर दुःख व्यक्त करते हुए डॉ.शुक्ल ने कहा कि हमारे देश की आजादी के बाद आजादी प्राप्त करने वाले छोटे से देश इजराइल ने हिब्रू को राष्ट्रभाषा घोषित किया जो कि उस समय उपेक्षित व् विस्मृत स्थिति में थी, और उसी प्रकार तुर्की ने स्वतंत्रता प्राप्त करते ही तुर्की भाषा को तत्काल राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया; परंतु हमारे राजनेताओं में ऐसी संकल्पशक्ति और राष्ट्रीयभावना का अभाव रहा.
अध्यक्ष के रूप में संबोधित करते हुए प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने पूर्ण आत्मविश्वास से कहा कि आने वाला समय विश्वभाषा हिंदी का है. पूरे देश में 1652 परिगणित मातृभाषाएँ हैं परंतु एक हिंदी ही उनमें से अधिकतर के प्रयोक्ताओं को परस्पर जोड़ती है. उन्होंने स्मरण कराया कि एक समय में संपर्क भाषा संस्कृत थी – राम का निषाद, ऋषिगण, जटायु, सुग्रीव, विभीषण, रावण से संवाद इसे प्रमाणित करता है. उन्होंने हिंदी की विविध भूमिकाओं की चर्चा करते हुए बताया कि भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) की असफलता का एक बड़ा कारण संप्रेषणीयता का अभाव था. इससे सीख लेकर बाद में देशव्यापी प्रभावी संप्रेषण के लिए स्वीकार की गई हिंदी ने संपर्क भाषा और राष्ट्रभाषा की भूमिका बखूबी निभाई. 1917-1918 के अधिवेशनों और सम्मेलनों में महात्मा गांधी ने हिंदी को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए राष्ट्भाषा के रूप में अपनाते समय यह अनुभव किया था कि पूरे देश को एक साथ संबोधित करना हिंदी के माध्यम से ही संभव है क्योंकि यह अधिसंख्य भारतीयों की भाषा है.
डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने कहा कि हिंदी भाषा का शब्दभंडार सबसे बड़ा है क्योंकि एक ओर तो यह संस्कृत जैसी उर्वर भाषा के शब्दों से भरी है तथा दूसरी ओर अपनी 17 बोलियों की लोकशब्दावली उसे संपन्न बनाती है. साथ ही वह अंग्रेजी, उर्दू और विविध भारतीय भाषाओं के शब्दों को भी निःसंकोच ग्रहण कर लेती है. हिंदी की सबसे बड़ी शक्ति उसका लचीलापन है. उन्होंने दीपक की रश्मियों से इसकी तुलना करते हुए कहा कि जैसे एक दीपक का प्रकाश विस्तार प्राप्त कर दूर तक अंधेरे को दूर करता है वैसे ही केन्द्रापसारी प्रवृत्ति से युक्त हिंदी भाषा संकीर्णता को छोड़कर सब दिशाओं में फैलती है इसीलिए यह निरंतर प्रगति-पथ-गामिनी है. हिंदी की सर्वप्रथम भूमिका है – मातृभाषा की. द्वितीय भूमिका – संपर्क की भाषा की – यही व्यापार-व्यवसाय, तीर्थाटन से लेकर नाटक-फिल्म आदि में प्रयुक्त होती है – यही इसकी राष्ट्रीय भूमिका भी है. तीसरी भूमिका है राजभाषा की – सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में.
प्रो.शर्मा ने स्पष्ट किया कि आज का संसार ग्लोबल विलेज बन रहा है जिसमें हमें ग्लोबल भाषाएँ चाहिए तथा हिंदी इस अपेक्षा को पूरा करती है. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत भाषाओं को अंतरराष्ट्रीय भाषा कहा और बताया कि यह आवश्यक नहीं है कि वे ‘ग्लोबल भाषा’ हों. उदाहरण के लिए चीनी (मंदारिन) संयुक्त राष्ट्र की भाषा (अंतरराष्ट्रीय भाषा) है पर वह ग्लोबल भाषा (विश्वभाषा) नहीं है. दुनिया के बाजार की भाषाई आवश्यकता हिंदी है. इसके माध्यम से आज बीस प्रतिशत दुनिया को अर्थात बृहत उपभोक्ता समाज को संबोधित किया जा सकता है. इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर भारतवर्ष के बाहर लगभग 200 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है. इसके अलावा हिंदी की आज के समय में महत्वपूर्ण भूमिका इंटरनेट या इन्फोर्मेशन टेक्नालॉजी के क्षेत्र में है. इस भूमिका में अपना दायित्व निबाहने के लिए हम सभी का विशेष कार्य/ सहयोग/ सेवा तीव्रता से अपेक्षित है. यह संस्कृत की उत्तराधिकारिणी, कंप्यूटर संबंधी सभी संभावनाओं से संपन्न, लचीली भाषा है. बड़े भावुक स्वर में आपने सभी देशी-विदेशी भाषाभाषियों का आह्वान करते हुए कहा “अन्य भाषाभाषियो, मिलेगा मनमाना सुख/ हिंदी के हिंडोले में ज़रा तो बैठ जाइए.”
विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित राम गोपाल गोयनका ने कहा कि तकनीकी युग में उसी भाषा का अस्तित्व बना रह सकेगा जो मनुष्य की जरूरतों को पूरा करती हुई तकनीकी के साथ साथ सह-अस्तित्व में रहेगी. हिंदी में अन्यान्य भाषाओं और बोलियों का महासागर बनने की असंदिग्ध क्षमता है.
समितिद्वय की अध्यक्ष डॉ. सरोज बजाज ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों की सफलता विश्वभाषा के रूप में हिंदी की प्रबलता का द्योतक है . संस्कृति की आवश्यकता की प्रतिपूर्ति करने वाली हिंदी भाषा का विस्तार विश्व व मानव कल्याण के लिए अमोघ अस्त्र साबित होगा. अमेरिका में माता-पिता प्रति शनिवार व रविवार को अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाने की अलग व्यवस्था करते हैं. कंपीटीशनों में हिंदी को एक विषय की तरह स्वीकार किया जाता है तथा उसके अंक जोड़े जाते हैं.
कार्यक्रम का प्रारंभ दीप प्रज्वलन के द्वारा हुआ तथा अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति की सहसचिव ज्योति नारायण ने सरस्वती वन्दना की.
प्रस्तुति – गुर्रमकोंडा नीरजा
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