29 मार्च 2014 को उद्घाटन सत्र के बाद पहला विचार सत्र प्रारंभ हुआ. परमानंद श्रीवास्तव को समर्पित इस सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे प्रो. रामजन्म शर्मा ने की. डॉ. नजीम बेगम (चेन्नै), डॉ. शकीला बेगम (धारवाड़), डॉ. बिष्णुकुमार राय (एरणाकुलम) और डॉ. सी.एन. मुगुटकर (बेलगाम) के साथ मैं भी मंचासीन थी. इस सत्र में पाँच शोधपत्र प्रस्तुत किए गए.
डॉ. नजीम बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के संपादक रूप को उदाहरणों सहित उभारा तो डॉ. शकीला बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के चिंतक रूप को काव्य भाषा के संदर्भ में स्पष्ट किया. डॉ. बिष्णुकुमार राय ने काव्य प्रयोजन के संदर्भ में उनके चिंतक रूप को स्पष्ट किया तो डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने उनके चिंतन में निहित साहित्य और मनुष्य के संबंध को रेखांकित किया. मैंने डॉ. परमानंद श्रीवास्तव के कवि-आलोचक पक्ष पर अपना शोध पत्र पढ़ा.
अध्यक्षीय भाषण में प्रो. रामजन्म शर्मा ने परमानंद श्रीवास्तव के साथ बिताए हुए क्षणों का स्मरण करते हुए कहा कि वे कर्मठ और सुशील व्यक्ति थे. वे नए लोगों को प्रोत्साहित करते थे और उन्हें कविता और लेखन कर्म के गुर सिखाते थे. गोरखपुर में अनेकाने कवियों और लेखकों को बनाने का काम उन्होंने किया. उन्होंने यह भी याद दिलाया कि दिल्ली एन सी ई आर टी के पास उनसे संबंधित दुर्लभ पांडुलिपि है 'साहित्यकारों के पत्र' जो आज तक अप्रत्याशित कारणों से अप्रकाशित है. उन्होंने ठोंक बजाकर यह कहा कि हिंदी साहित्य जगत में परमानंद श्रीवास्तव ही ऐसे व्यक्ति थे जो लगातार कविता और आलोचना कर्म को एक साथ साधे हुए थे. उन्होंने आगे कहा कि परमानंद श्रीवास्तव ने जीवनपर्यंत साहित्य की सेवा की. सामाजिक सरोकार उनकी कविता की अंतर्वस्तु है तथा लोकतत्व उनकी कविता का अनुगूंज. यदि वे किसी रचना को उठाते हैं तो उसकी जड़ तक पहुँचते हैं और उस रचना की वस्तु से लेकर शिल्प और शैली तक की संरचना की बात करते हैं. परमानंद श्रीवास्तव का साहित्य उत्तर आधुनिक ही नहीं बल्कि उत्तरोत्तर साहित्य है.
सत्र का सचालन डॉ. के.एस. पाटील (बेलगाम) ने किया.
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