उद्घाटन दीप प्रज्वलित करते हुए मुख्य अतिथि प्रो. एम. वेंकटेश्वर. साथ में बाएं से - प्रो. ऋषभ देव शर्मा, वी.एन. हेगडे, प्रो. हीरालाल बाछोतिया, प्रो. दिलीप सिंह व अन्य |
इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे इफ्लू के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य का पठन-पाठन सतही स्तर पर करना या व्याख्या भर करना काफी नहीं होता. गहन अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता आज की माँग है. पाठक को चिंतन एवं भावनात्मक स्तर पर किसी भी साहित्यकार के साथ तादात्म्य करना चाहिए. उन्होंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को बधाई देते हुए कहा कि प्रो. दिलीप सिंह जी के नेतृत्व में सभा ऐसी सफल संगोष्ठियाँ करती आ रही है और आगे यह भी कहा कि आज की यह संगोष्ठी निश्चय ही चुनौती से भरी हुई संगोष्ठी है चूंकि यह ऐसे साहित्यकारों पर केंद्रित है जिन्होंने साहित्य, भाषा, आलोचना, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रों के लिए दिशा निरेदेश्कों पर केंद्रित है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद से प्रकाशित द्विभाषी मासिक 'स्रवंति' का मार्च 2014 का अंक इस राष्ट्रीत संगोष्ठी के लिए कर्टन रेसर है क्योंकि यह अंक विशेष रूप से परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राजेंद्र यादव और अमरकांत के पुण्य स्मरण पर केंद्रित है.
बीज भाषण प्रस्तुत करते हुए प्रमुख समाजभाषावैज्ञानिक उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने विजयदान देता को मनुष्य की जिजीविषा को अभिव्यक्त करने वाले तथा राजस्थानी लोककथाओं को हिंदी में लाने वाले कथाकार के रूप में याद किया तो के.सी. सक्सेना को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वे ऐसे हास्य-व्यंग्य जीवट कथाकार हैं जो अपने ऊपर भी हंस सकते हैं.
डॉ. रघुवंश के साथ जुड़ी यादों को ताजा करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ. रघुवंश के साथ उन्होंने समसामयिक कविता पर काम किया जिससे प्रेरित होकर उन्होंने उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के एम.ए. पाठ्यक्रम के लिए 'समसामयिक हिंदी कविता' पुस्तक का संपादन किया. उन्होंने आगे कहा कि वे डॉ. रघुवंश से प्रभावित थे क्योंकि दोनों हाथों से लाचार होते हुए भी उन्होंने पैर की अंगूठी और उंगली के बीच कलम रखकर लिखने का अभ्यास किया. उन्होंने कहा कि रघुवंश अच्छे काव्यालोचक थे. वे आलोचना से ज्यादा पाठक को महत्व देते थे.
डॉ. सी. प्रसाद को अच्छी बाल साहित्यकार के रूप में याद किया तो शैलेश मटियानी के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि शैलेश मटियानी ने मजदूर की जिंदगी जी. इसलिए उनकी कलम कटु यथार्थ की अभिव्यंजना का हथियार है. अमरकांत के बारे में उनका मत दो-टूक है. उन्होंने कहा कि कस्बाई जीवन के पहलुओं को अपने लेखन में समेटने में अमरकांत दक्ष थे. वे लिखते नहीं थे, बोलते थे.
डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया का स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि वे हिंदी भाषा के गहरे अध्येता एवं चिंतक थे.
'आलोचना' के संपादक परमानंद श्रीवास्तव हमेशा नए आलोचकों को केंद्र में रखते थे. उनकी 'निजता' सिर्फ उनकी ही थी. वे जीवन पर्यंत मार-काट वाली आलोचना का विरोध करते थे तथा शैलीवैज्ञानिक आधारों को लेकर काम करना पसंद करते थे. उन्होंने परमानंद श्रीवास्तव को 'नई राहों के अन्वेषी आलोचका' कहा.
राजेंद्र यादव के बारे में स्पष्ट करते उन्होंने हुए कि हिंदी साहित्य जगत में जयादा बखेड़े किसी और साहित्याकर ने नहीं की जितनी राजेंद्र यादव ने की. राजेंद्र यादव की भाषा पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि उनकी भाषा ललकार की भाषा थी. आग की शैली थी.
हिंदी साहित्य जगत में पहली बार दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को लाने वाले साहित्यकार के रूप में उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि को याद करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी कविताएँ वस्तुतः छोटी छोटी चित्रावलियाँ लगती हैं. उन्होंने यह भी कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का सारा साहित्य स्वयं में दलित आंदोलन है.
अध्यक्षीय भाषण में दिल्ली से पधारे वरिष्ठ कवि एवं भाषाविद प्रो. हीरालाल बाछोतिया ने कहा कि प्रो. दिलीप सिंह ने बीज भाषण में बीज बोते बोते एक विशाल वटवृक्ष को खड़ा कर दिया है तथा आज की धारा को, सही नब्ज को पकड़ लिया है.
उद्घाटन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ की अध्यक्ष प्रो. अमरज्योति ने किया.
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