धूप ने कविता लिखी है गुनगुनाने के लिए
ऋषभदेव शर्मा का कवि-कर्म :
तेवरी, तरकश, ताकि
सनद रहे और देहरी
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’ऋषभदेव जी’ इसी तरह
मैं उन्हें पुकारता हूँ। मान और स्नेह, दोनों भाव इस संबोधन में निहित हैं। ’डॉक्टर शर्मा’ कहूँ तो
मामला अति औपचारिक हो जाए और ’ऋषभ’ बुलाऊँ तो बदसलूकी लगेगी। वे मुझे ’डॉक्टर साहब’ या ’सर’ ही कहते
हैं और आदर बड़े भाई जैसा देते हैं। पहली भेंट उनसे मद्रास में बरसों पहले हुई थी।
एक बैठक थी। अटैची लिए सभा (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा) प्रांगण में
घुसा ही था कि प्रो. भीमसेन’निर्मल’ दिख गये। अटैची वहीं धर के हम दोनों डाकख़ाने
वाले चबूतरे पर बैठ गए। बातें होने लगीं कि एक स्वस्थ-सुदर्शन-सा नवयुवक
नमस्कार-नमस्कार करते हुए सामने आया। निर्मल जी ने परिचय कराया। मैं चलने को हुआ
कि बिना किसी संकोच के युवक ने मेरी अटैची उठा ली और अतिथि-गृह के कमरे तक पहुँचा दिया।
उनकी इस सरलता ने मन मोह लिया। फिर वे हैदराबाद आ गए, मेरे साथ काम करने। और मेरे साथ आत्मीयता का
इतिहास रचा।
छोटे कद, भारी
शरीर और गौरवर्ण के ऋषभ जी ’देखनउक’ लगते हैं। फ़िट-फ़ाट रहते हैं – हर धजा उन पर फबती भी खूब है। हमारी तरफ़ देसी
मेलों में मिट्टी का ’बबुआ’ मिलता है – बैठा हुआ, सुदर्शन, गोल-मटोल;ऋषभ जी
को देखकर अजाने ही उसकी याद आती है। यह बबुआ बड़ा लोकप्रिय है। सभी उसे लेते हैं, अपने घर में सजाते हैं। उसे प्यार करते हैं।
हैदराबाद के हिंदी जगत् में ऋषभदेव जी अत्यंत लोकप्रिय हैं। सब उनका साथ चाहते
हैं, और वे भी
किसी को निराश नहीं करते।
शुरू शुरू में हैदराबाद आए तो कुछ अलग-अलग से रहे। सन् 1997 ई. में मैंने हैदराबाद में प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की स्मृति में एक संगोष्ठी
आयोजित की। बड़ी संगोष्ठी थी, बड़े-बड़े लोग आए थे। तीन दिन की थका देने वाली
गतिविधियाँ थीं। उसमें पीछे छिपकर चुपके-चुपके सब काम करते रहे। मैं भी गुपचुप
उन्हें ’ऑबज़र्व’करता रहा। फिर ’पूर्णकुंभ’ (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा – आंध्र की मासिक पत्रिका। का रवींद्रनाथ
श्रीवास्तव स्मृति अंक निकालने की योजना बनी। उनसे जम कर काम लिया और कहा कि आपका
नाम सहायक संपादक के रूप में जाएगा। अभिभूत हो गए। फिर संयोग कि ’पूर्णकुंभ’ का
संपादन मेरे जिम्मे आ गया। पाँच-छह साल हम दोनों ने मिलकर उसके लिए काम किया।
कितने ही विशेषांक निकाले। हर अंक को जानदार बनाया। सच कहूँ, मैं तो निमित्त मात्र था। सारी मेहनत उनकी होती
थी। यहाँ तक कि ’संपादकीय’ लिखने के
लिए भी वे मेरे पीछे पठान की तरह पड़े रहते थे। कभी-कभी तो मुझे खाली देखते ही
कागज़-क़लम लेकर हाज़िर हो जाते कि सर, लिखा दीजिए, प्रेस में जाना है। इसी तरह पीछे पड़-पड़ के
उन्होंने मुझसे बहुत कुछ लिखवा लिया है। इस मामले में कई बार वे मेरे ’गणेश’ भी बने
हैं। इसके लिए मेरा रोम-रोम उन्हें असीसता है।
हम दोनों ने कई अकादमिक कार्य साथ-साथ किए हैं। अनुवाद संगोष्ठी का आयोजन और
उससे संबंधित तीन क़िताबों की तैयारी। श्री मुनींद्र जी के अभिनंदन-ग्रंथ का
संपादन। अपने संस्थान और नगरद्वय की अनेक गोष्ठियों – कार्यशालाओं की योजना और उनमें धमाकेदार
शिरक़त। तथा संस्थान के पत्रकारिता डिप्लोमा पाठ्यक्रम को बनाने से लेकर चलाने -
सँवारने तक का काम। जानता हूँ कि मेरे हैदराबाद से धारवाड़ जाने का जितना क्लेश
उन्हें हुआ, शायद ही
किसी को हुआ हो।
ऋषभदेव जी का मेरे साथ सांसारिक संबंध ही नहीं है, वे मेरी अकादमिक-आत्मा का भी एक हिस्सा हैं; और जीवन के अंत तक रहेंगे। लिखते अच्छा हैं, बोलते उससे भी अच्छा हैं। उनकी आवाज़ में
आवेश-जनित खनक होती है। मंच-संचालन भी वे बड़ी तन्यता के साथ करते हैं। कहा जाए, ढीली-ढाली सभा में भी उनका संयोजन जान डाल देता
है। हम सब उनकी इस ताक़त को भकुआए ताकते रह जाते हैं। वे अध्यापक, कवि और समीक्षक एक साथ हैं। अध्यापक वे कैसे
हैं, यह तो
उनके छात्रों से पूछिए। कवि वे संस्कारी हैं। और समीक्षक गंभीर। इन तीनों ही रूपों
में उनकी धाक है। पर उनका सबसे उज्ज्वल गुण मुझे लगता है – नया सीखने और नया करने की उनकी अदम्य इच्छा।
नया लिखने, नए
विषयों पर शोध कराने का जब भी कोई काम उन्हें सौंपा, उन्होंने करके दिखाया, और अच्छा करके दिखाया। निरर्थक गप्पें मारने तो
वे कभी घर पर भी नहीं आए। जब आए,कुछ
सीखने, कुछ करने, कुछ पढ़ने-लिखने। लगन के साथ काम करने की
दीवानगी ने ही शायद हम दोनों के बीच ’ट्यूेनिंग’ बना दी थी। मेरे हैदरबाद से धारवाड़ जाने पर
उनकी कमी मुझे बेतरह खलती रही – जैसे दाहिना हाथ कट गया हो। उनके और अपने
रिश्तों पर कितना लिखूँ, क्या
क्या लिखूँ – कहि न जाय का कहिए।
उनकी कविताएँ मंच से कई बार सुनी हैं। तड़प कर सुनाते हैं। एक-एक शब्द स्पष्ट।
उनका उच्चारण बहुत साफ़ है। बोलते समय ध्वनि-लोप भी नहीं होता। औपचारिकता की हद तक
वे भाषा को परिष्कृत कर देते हैं। यहाँ तक कि बातचीत भी वे बातचीत के लहज़े में
नहीं कर पाते, भाषा का
साहित्यिक रूप वहाँ भी सिर चढ़ा रहता है। उनकी यह ’अदा’ मुझे थोड़ी अटपटी भी लगती है पर – जासे जो सध जाय। ’पूर्णकुंभ’ में ’ताकि सनद
रहे’’शीर्षक के अंतर्गत हर माह वे अपनी एक कविता
देते थे। उन्हें संगृहीत कर ’ताकि सनद
रहे’ (2002) शीर्षक
से ही पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है। पूरी पांडुलिपि मैंने देखी थी।
प्रसन्नतापूर्वक ’भूमिका’ भी लिखकर
दी थी।
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यहाँ पर पहले ‘तेवरी’ (देवराज
: ऋषभ : 1982 ई.) और ’तरकश’ (ऋषभ : 1996 ई.) में छपी उनकी तेवरियों पर बात करूँगा। तेवरी की घोषणा में तेवर वाली
कविताओं की जो विशेषताएँ गिनाई गई हैं उन्हें मैं कथ्य और भाषा दो स्तरों पर
पाठकों की सुविधा के लिए बाँट देता हूँ। कथ्य के स्तर पर यह कहा गया है कि
अंसतोषजन्य आक्रोश इसका मुख्य भाव है, रचनात्मक क्रांति इसका लक्ष्य है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश इसकी भावभूमि है, दुरभिसंधियों का पर्दाफ़ाश करना इसकी मंशा है
और जागृति प्राप्तव्य है। भाषा के स्तर पर इस घोषणा में शैली और शिल्प दोनों पर
विचार हैं कि – संप्रेषणीयता इसका मूल धर्म है, ऐसी भाषा जो पाठक की स्मृति में स्थापित हो सके, जो अभिजात प्रवृत्ति से मुक्त हो, जो आम आदमी के मनोभावों से जुड़े, अभिव्यक्ति’अक्खड़’ हो अर्थात् साफ़-साफ़ बेलाग बात कही जाए, भाषा ग़ैर-सांप्रदायिक, सार्वजनीन और समर्थ हो जो समाज के प्रत्येक
स्तर पर संवाद स्थापित कर सके, भाषा के उस रूप को विकसित करना जो सामान्य
संपर्क की भाषा होगी। इस भाषा को पाने का तरीक़ा होगा भीड़ के बीच से शब्द उठाना
और अभिप्रेत होगा; (श्रोता/पाठक के) मस्तिष्क में उसे बो देना।
इस घोषणा में कथ्य और रूप को समान महत्व देने वाली बात मार्के की है। और इससे
भी ज़्यादा समझदारी की बात है इन दोनों को पाठक से सीधे जोड़े रखने की चाहत। अन्यथ
इन दोनों को अलग-अलग देखने और बहसने वालों की कमी कभी नहीं रही है। रामचंद्र शुक्ल
का यह कथन इस प्रकार की अलगाववादी मनोवृत्ति वालों पर ज़ोरदार टिप्पणी है – “वे समझते हैं कि विचारों का कर्ता एक पुरुष हो सकता है और वाणी या भाषा का
दूसरा। ... सो ’विचार’ और ’शब्द’ किसी-किसी
की समझ में दो पृथक वस्तुएँ हैं। भाषा के लोकसिद्ध, बेलाग और संवादी होने वाली बात भी कम
महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि व्यापकता की दृष्टि से बोलचाल की भाषा में कविता लिखना
विशेष उपयोगी है। (मैथिलीशरण गुप्त)।“ ऋषभदेव जी की इन तेवरियों की भाषा नपी-तुली है।
उनके विचार भी पारदर्शी हैं और भाषा भी। हिंदी की कविताओं में अक्सर यह दीखता है
कि विचारों में धुँधलापन व्याप्त होता है जिसकी छाया भाषा में भी दिखाई देने लगती
है और कविता आम पाठक की समझ से बाहर हो जाती है। ॠषभदेव जी संप्रेषणीयता को अगर
कविता का मूल धर्म मानते हैं तो अपने लेखन में इसका निर्वाह भी करते हैं – इसे निबाहने में कई जगह सपाटता भी आ गई है या
बेतरह बात का बतंगड़ बनाने की प्रवृत्ति भी। पर अधिकतर उनकी ये रचनाएँ समय के
अनुरूप हैं और उनके शब्द भावों के अनुरूप। यही गुण उनके काव्य-संसार को निराला की
त्रि-आयामी कसौटी पर खरा सिद्ध करता है : (आदर्श कविता वह है) जिसमें कविता का
स्वाभाविक प्रवाह, कल्पना
की उन्मुक्त गति और स्वतः स्फूर्त भाव गुंथे हुए हों।
’घोषणा’ के
अनुसार ही इस पाठ की समीक्षा की जाए तो ऋषभ जी के लिखने की तर्ज़ (स्टाइल), भाषा-प्रयोग में उनकी स्वच्छंदता तथा उनकी
कल्पनाशक्ति (इमेजिनेशन) की परख की जा सकती है। और उनकी वैचारिकता भी जाँची जा
सकती है जिसमें टुच्ची राननीति, धर्मांधता, सांप्रदायिकता और अपसंस्कृति; अर्थात् क्रूर व्यवस्था के विरुद्ध गुस्सा भी
है और भविष्य के लिए उम्मीद भी। प्रतिरोध, इन तेवरियों के मूल में है। और हमारा समय इनमें
मुहरबंद है – जब भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र को लेकर घोर संकीर्णतावाद और सनक उभार
पर है। हिंसा का वर्चस्व है। सब ओर हत्याएँ हैं।... खाते-पीते संसार में असहमति
अपराध है (परमानंद श्रीवास्तव)। अपने विचारों को स्वर देने में ऋषभ की कविताएँ यह
सुखद एहसास कराती हैं कि यहाँ लिखी भाषा और बोली जाने वाली भाषा का अंतर कम से कम
है। तभी तो संप्रेषणीयता के मूल धर्म का निर्वाह वे कर पाते हैं।
संप्रेषण, भाषा का
मूल दायित्व है। ऋषभ ने आम आदमी से संप्रेषण-सूत्र बनाने की ठानी है। हिरनी की
आँखों में प्रतिशोधी ज्वाला है, आदमी की बौनसाई पीढ़ियों को/रोज़ गमलों में
उगाया जा रहा है, हो गया
पत्थर निवाला देख लो, मैं
पंक्ति में पीछे खड़ा विराम की तरह, बोझ कितने ही गधों का ढो गया मेरा शहर, एक दूसरे की तरफ़ भौंक रहे हैं लोग, मिमियाना छोड़ो तुम शेर हो गुर्राओ, जैसी पंक्तियाँ स्वतः संप्रेषणीय हैं – इनका टोन (तेवर) आम आदमी की सोच से संबद्ध है।
सबसे ख़ास बात है शब्दों का संयोजन – एक तरह का शरारतपूर्ण सहसंयोजन (लक्ष्मीकांत
वर्मा) भी, जिसके
पीछे से व्यंग्य भी झाँकता है। ऋषभ के इस पूरे पाठ में वाग्वैदग्ध्य (विट), वक्रोक्ति (आयरनी) और व्यंग्य (सटायर) का फिंटा
भाषारूप बनता-रचता रहता है। उनके शरारतपूर्ण सहसंयोजन में मात्र आक्रामकता नहीं है, उन्होंने अपने व्यंग्य को नया सामाजिक आशय भी
दिया है इसीलिए वह गंभीर है और उसमें जीवित भाषा की गरमाई (परमानंद श्रीवास्तव) भी
है। इस व्यापक संप्रेषणीयता की सिद्धि की पहली शर्त है कि (काव्य-कथन) पाठक की
स्मृति में स्थापित हो और कविता अपनी ज़मीन से जुड़ी हुई हो। ऐसा तभी संभव है जब
पाठ का ढाँचा सादगी में पगा हो और उसकी जड़ें यथार्थ में हों। काँख में खाते दबाये
आ गया मौसम, आग लगाकर
हाथ सेंकने लड़वाने में माहिर हूँ, तेरी क़लम क़लम नहीं युग की ज़बान है,यह क़लम है खुरपी नहीं/छीलना घास बंद करो, आँखों में आँज दिया कुर्सी ने धुँआ-धुँआ, राजनीति के धनुष से संप्रदाय के तीर, कुर्सी की शतरंज में हत्यारी गोट – जैसी पंक्तियाँ ज़बान पर चढ़ जाती हैं – काँख में दबाना, हाथ सेंकना, समय की ज़बान होना, घास छीलना, आँज देना, राजनीति का धनुष, संप्रदाय के तीर, कुर्सी की शतरंज,हत्यारी
गोट जैसी अभिव्यक्तिया ज़मीनी हैं। कविता को सीधे जनता के बीच ले जाने के लिए लोक
संवेदना की पहचान और उस पर गहरी पकड़ ज़रूरी है। ये दोनों क्षमताएँ ऋषभ में हैं।
(उन्होंने) जनभाषा और साहित्यिक भाषा का भेद मिटा दिया है (परमानंद श्रीवास्तव)।
तेवरी की भाषा अभिजात प्रवृत्ति से मुक्त हो और आम आदमी के मनोभावों से जुड़े, ये दोनों शर्तें लोकानुभूति और जन-साधारण से
जुड़ाव के माध्यम से ही पूरी हो सकती हैं – जाति पूछ कर बँट रही लोकतंत्र की खीर, क्या पता था खेल ऐसे खेलने होंगे/रक्त-आँसू
गूँथ पापड़ बेलने होंगे, बाज़ों
के मुँह ख़ून लगा है/ रोज़ कबूतर ये मारेंगे, जूझने का जुल्म से संकल्प दे/आज ऐसी पाठशाला
लाइए, उन सबको
नंगा करो जिनके मन में खोट, आ गई
हाँका लगाने की घड़ी/क्यों अभी तक तू खड़ा खामोश है। ये पंक्तियाँ अपने समय के
रू-ब-रू हैं। यह जान लें कि रचना एक समय-यात्रा भी है, पर संवेदन-स्तर पर (प्रेमशंकर)। ऋषभ जी के पाठ
में संवेदन का यह स्तर लोक-संवेदना (मिथ) से भी लबरेज है। ये मिथक घोषणा के अन्य
पक्षों को भी पूरा करते हैं – अभिजात से मुक्त, आम आदमी के मनोभाव और अपनी ज़मीन से जुड़ी
संवेदना मिथकीय संरचना में ढलकर सम्प्रेषणीयता और स्मरणीयता वाले लक्ष्य को भी
बख़ूबी साधती है – एक ओर ऋषभ के पाठ में पौराणिक मिथक हैं जो आज
लोगों की रग-रग में बसे हैं – कई प्रह्लाद लेंगे आग हाथों पर, रावणों की वाटिका में भूमिजा सीता, राहू चला गुलेल, रावण की नगरी बना आज राम का देश, अश्वमेध वालों से कह दो/अबकी तो लगकुश आये हैं, देव तक्षकों के रक्षक हैं, जनमेजय ने एक बार फिर नागयज्ञ की ठानी है, चीर दी फिर किस जनक ने भूमि की छाती, वोटों का भस्मासुर पीछे पड़ा हुआ है, भीष्म-द्रोणाचार्य सारे रोटियों पर बिक
रहे/अर्जुनों का मोह टूटे एक ऐसा युद्ध हो। दूसरे कुछ मिथक लोककथा के रास्ते से भी
आए हैं, ये लोक
कथाएँ जो दादी-नानी की कहानी के रूप में लोक को घुट्टी में मिलती चली आ रही हैं –क्रूर भेड़िए छिपकर बैठे नानी की पोशाकों में, न्याय को बंधक बनाकर बंदरों का/ वे मिटायेंगे
लड़ाई बिल्लियों की। कुछ मिथक इतिहास और साहित्य से भी संबद्ध हैं – मत जयचंदों को दोरंगा होने दो/मेरा शहर गया
होरी/खुरपी ले आए धनिया/जग जाएँ गोबर – झुनियाँ/’खुसरो’ कैसे घर जाएगा रैन हुई चहुँ देश।
अक्खड़ अभिव्यक्ति या बेलाग कहने और कथा-संवाद स्थापित करने वाली भाषा के अनेक
उपरूप (सब फ़ार्म्स) इस पाठ में मिलते हैं। यहाँ भावों की भिड़ंत (मैथिलीशरण
गुप्त) भी दर्शनीय है और सीधा-सादा दृढ़ बयान (परमानंद श्रीवास्तव) भी, दोनों मिलकर ऋषभ की रचनाशीलता को घनीभूत करते
हैं। भावों की टकराहट और बयानों की सुदृढ़ता की वजह से ही कई भावों, अनुभूतियों और विचारों का ही नहीं, बिंबों-प्रतीकों का भी दुहराव है इस पाठ में।
अक्खड़ता और साफ़-साफ़ बेलाग बात कहने के संदर्भ में इस दुहराव को देखें –
1) बौनी जनता, उँची कुर्सी; एक ऊँचा तख़्त जिस पर भेड़िया आसीन है।
2) देव तक्षकों के रक्षक हैं; मत तक्षक को ऐसे उन्मुक्त विचरने दो।
3) केंचुओं की भीड़ आँगन में बढ़ी/आदमी अब रीढ़
वाला लाइए;मैंने कहा कि हे प्रभो! मैं केंचुआ बनूँ/बदले
में सीधी रीढ़ की मुझको सज़ा मिली।
4) श्वेत टोपियाँ पहनकर उगल रहे है रोग;/टोपियों के हर महल के द्वार छोटे हैं;/टोपीवाले
नटवर नागर! मेरे तुम्हें प्रणाम;/टोपी
वाले बाँट रहे हैं मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे;/कुर्ते
का टोपी का कोई विश्वास नहीं।
5) सूर्य की किरणें चलीं लावा बहाने के लिए;जम गया है मोम सारी देह में/गर्म फौलादी निवाला लाइए; जब नसों में पीढ़ियों की हिम समाता है/शब्द ऐसे
ही समय तो काम आता है, सूर्य
उगा है अब पिघलेगा शहर तुम्हारा।
यही दुहराव संवाद स्थापित करने में भी प्रकट है पर एक अलग तरह से। श्रोता/पाठक
को अपने सामने खड़ा करके, उन्हें
सम्मिलित करके ऋषभ ने इस पाठ को गुफ़्तगू बनाया है। आइए साहब, मित्रवर, भैया, भैया जी जैसे संबोधन पाठक के लिए हैं और ये
पंक्तियाँ –
मित्र! श्वेत टोपी वालों की स्याही में डूबा मन है, टोपियों का चूर कर दें राजमद, बुझे हुए चूल्हों की तुमको फिर से आँच जलानी
होगी, फिर
क़यामत आज बनकर छाइए साहब, रोटी के
हक़ की ख़ातिर तलवार उठाओ रे,तलघरों
की क़ैद को तोड़ें चलो, जो फसल
में ज़हर भरती उस हवा को चीर डालो।
यहाँ पाठ-विमर्श की दृष्टि से कुछ बातें ख़ास हैं। एक तो यह कि इन तेवरियों की
विषयवस्तु राजनैतिक छल, सांप्रदायिकता और सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन से
उपजी छटपटाहट है। और इन सबके पीछे यह यथार्थ कि राजनीति लुच्चे-लफंगों का अंतिम
आश्रय बन गई है (प्रेमशंकर)। दूसरे यह कि ये विचार इस पाठ में ख़ून की तरह दौड़ते
हैं। तीसरे यह कि इनका प्राप्तव्य है जागृति – बस समाज पर एक भयानक चुप्पी छाई है (रघुवीर
सहाय) की हालत में कुछ सार्थक बचा लेने की कोशिश (परमानंद श्रीवास्तव) है यह पाठ, जिसमें कविता का ताप भी है गहन मानवीय संवेदना
भी। निश्चित ही इस चुप्पी को तोड़ने, जागने-जगाने, कुछ सार्थक बचा पाने के लिए ज़रूरी है ऐसी भाषा
का चयन जिसके शब्द भीड़ के बीच से उठाए गए हों और जिनका गहरा प्रभाव जनमानस पर
पड़े (मस्तिष्क में उसे बो देना)। ’जागृति’ के आद्य-प्रारूप (आर्कीटाइप) के रूप में ऋषभ ने
सूर्य,किरण, धूप, दोपहरी, प्रकाश, रोशनी, रोशनदान को चुना है और इनके माध्यम से अनेक
अर्थच्छटाएँ बिखेरी हैं जिनका संबंध सत्य की प्रतिष्ठा, मानव-जीवन और सामाजिक विद्रूपताओं से है – अँधियारे युद्धों में किरणों का मर खपना, रोज़ धूप का क़त्ल हो रहा, दोपहरी इनकी रखेल है/अपने तो साथी साये हैं, रोशनी का इक दुशाला लाइए, बालियों पर अब उगेंगे धूप के अक्षर/सूर्य का
अंकुर धरा में कुलबुलाता है, खिल जाय धूप गाँव में हो जाय सवेरा, उग रहा सूरज अँधेरा चीर कर फिर से, मैं सूरज को खोज रहा था संविधान की पुस्तक में/
मेरा बेटा बोला-पापा, रोशनदान
ज़रूरी है।
यहाँ ताप भी है, ललकार भी
और क्षीण ही सही, आशा की
एक किरण भी। ऋषभ का पाठ कहीं-कहीं बड़बोला भी लग सकता है पर यह घुमावदार नहीं है।
वह बोलना चाहता है, दुरभिसंधियों
का पर्दाफ़ाश करना चाहता है और अ-व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश दर्ज़ करना चाहता
है – मैं बोलना चाहता हूँ/वो मेरी ज़बान पकड़ लेताहै
: इस तरह मत बोलो/ मैं उँगली दिखाता हूँ कि उधर देखो/उधर ग़लत हो रहा है/वह रोकता
है कि उँगली मत दिखाओ/यह ख़तरनाक है (राजेश जोशी : मैं बोलना चाहता हूँ)। ऋषभ अपनी
तरह से बोलते हैं, लोकभाषा
का सहारा लेकर; लोकभाषा
की यह ठसक और स्पष्टोक्ति उनकी पंक्ति-पंक्ति में प्रवाहित है – शीश अपने आग धरती (धरना-रखना – क्रिया एकाधिक जगहों पर प्रयुक्त है), मेह बरसो रे, साँझ परती, छाँह बरगदी, भोर से अंटा चढ़ा कर सो गया मेरा शहर, बहुत मरखनी हो गयी डालो इसे नकेल, उनके पास न कानी कौड़ी फूटा नहीं छदाम, हर कोई बावन गज़ का, पानी उतर चुका सबका, भूख में होता भजन यारो नहीं, कब्र में पाँव लटके हैं कंठ में प्राण हैं अटके, क्या उत्ती के पाथोगे, ऐसी होली खेलियो खींच मुखौटे यार, घर में आग लगाय जमालो, गाल बजाये जाते हैं – जैसी ख़ास देसी रहेटरिक्स, मुहावरों और लोकोक्तियों से बिंधी ये
अभिव्यक्तियाँ घोषणा के एकाधिक बिंदुओं के सफल निर्वाह का स्वतः साक्ष्य हैं।
ऋषभ अपनी बात चाहे जैसे कहें सोचते जनहित की हैं – अबकी अगर घर लौटा तो/हताहत नहीं/सबके हिताहित
को सोचता/पूर्णतर लौटूँगा (कुंवर नारायण)। ऋषभ का कविता-पाठ सामाजिक अनुभव के
प्रति हमें सचेत करता है। उनकी बातों में सार है। उनकी अभिव्यंजना कई स्थलों पर
हृदय को हिला देती है। उनका पाठ केवल प्रचार, घोषणा और वक्तव्य नहीं है, वे खुद भी इसमें गहरे रमे हैं – तभी उनका स्वर अलग-सा है – तल्ख़,व्यंग्यभरा, सीधा और तीक्ष्ण। ऋषभ जी की कविता के लिए डॉ.
प्रेमशंकर के शब्द उधार ले रहा हूँ जो उन्होंने नागार्जुन की कविता पर विचार करते
हुए लिखे हैं, ऋषभ के
पाठ के संदर्भ में भी ये सोलह आने सही उतरते हैं : ‘’वे एक निश्छल मन की सहज भावुक अभिव्यक्तियाँ हैं जिन्हें बिना किसी लागलपेट के
रख दिया गया है। वहाँ आक्रोश प्रधान है। ... उसका मुख्य आशय अपनी बात जनता तक
पहुँचाना है, कबीरी
ढंग से।‘’
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अब बात करें उनके तीसरे कविता संग्रह ’ताकि सनद
रहे’ (ऋषभ : २००२) की।
सामयिक घटनाओं को पैनी अभिव्यंजना में बाँधकर एक दस्तावेजी संदर्भ देने की
कोशिश है ’ताकि सनद रहे’। तात्कालिकता की क्षणभंगुरता के खतरे से इन
कविताओं को साफ़ बचाते हुए कवि ऋषभ देव शर्मा ने इनमें भविष्य के अनगिन सपने भर
दिए हैं। चुनौती, साहस, संघर्ष और चेतावनी के भावों में पिरोया इस
संग्रह का हर मनका अपने में अनूठा है, आबदार है जिसे पैदा करने के लिए भाषा और शिल्प
के मँजाव की जिस प्रक्रिया को अपनाया गया है वह कवि के सच्चे और साझे अनुभव की
तस्वीर है। कविताओं में मिथकीय धरातल भी
यहाँ खूब उभरे हैं। कृष्ण-अर्जुन, दुष्यंत-शकुंतला, नल-दमयंती, कामधेनु, कल्पतरु, प्रह्लाद-होलिका, रावण और नचिकेता एक संसार रचते हैं यहाँ। दंगे, नारी राजनीति और कारगिल जैसे बहुलिखित विषय भी
इस संग्रह की कविताओं में वस्तु/काव्य बोध की दृष्टि से टटके लगते हैं। भाषा का तो अचरजकारी प्रयोग है।
हिंदी भाषा की बहुस्रोतीय संभावनाओं को कवि ने खन डाला है – फिर बोए हैं अपनी अनुभूतियों के बीज और पोस-पोस
कर उगाई हैं कविताएँ। शैली-शिल्प अध्ययन के लिए, मैं समझता हूँ, सभी कविताओं में अकूत संभावनाएँ हैं। सही मायनों में ये कविताएँ हैं
क्योंकि न तो ये झंडाबरदारी करती हैं और न ही विद्रोह, क्रांति या कुंठा का छद्मे ओढ़ कर किसी ख़ास
पाँत में बैठने को आतुर दीखती हैं। सही, सजग और
सन्नद्ध कविता का माकूल ख़ाका है – ’ताकि सनद
रहे’।
सामाजिक सत्य से भरेपूरे इस काव्य संग्रह को पढ़कर आपको ज़रूर लगेगा कि केवल
विचारधारा या ’इमोशंस’ही कविता को कविता नहीं बनाते; कविता बनती है – भाषा, शैली और पद के ठेठपन से, ठोस अनुभवों से।
आधुनिकताबोध की सरमायेदार बनी ज़्यादातर हिंदी कविताओं में आज लोक और संस्कृति
से जुड़ाव कम हो गया है। कड़वाहट और आक्रोश ने कविता के ऊपरी स्वर को तो तीखा
बनाया है, लेकिन
कविता बनने का सुख इनसे छिन गया है। यही वजह कविता के जनमानस से दूर होते जाने की
भी है। जब हम कवि-रूप में अपने को आम आदमी से ऊपर उठा हुआ मानकर गर्वीले दर्प के
साथ और भाषा के ऐसे छलावे भरे रूप में बात करेंगे जिससे जमीनी रिश्ता ही नहीं हो, तो ऐसी कोई भी कृति आस्वाद और टीस दोनों पैदा
नहीं कर सकती। इस लिहाज से ’ताकि सनद रहे’ की
कविताओं में संभावना दिखाई देती है।
एक तो कवि ने आज के माहौल की सारी विसंगतियों को परखा है और इसके संदर्भों को
भारतीय पुराणैतिहासिक कथाओं से संबद्ध करने का अच्छा प्रयास किया है। ऐसा करने से
काव्यार्थ की दिशाएँ भी फैली हैं और पाठक के लिए उनकी पकड़ भी आसान हुई है।
दूसरी बात यह कि इन कविताओं े विषय सीधे हमारे आसपास की घटनाओं से लिए गए हैं
या हमारी बहुत जानी-बूझी समस्याओं से उठाए गए हैं। इनकी ज्वलंतता में कोई संदेह
नहीं है, लेकिन
इन्हें अनदेखा करने,इनके प्रति उदासीन रहने की प्रवृत्ति पर चोट
करने के कारण भी इन कविताओं का महत्व बढ़ जाता है।
तीसरी बात यह कि किसी भी रचना के लिए पठनीयता का होना, और सिर्फ़ पठनीयता का ही नहीं, संप्रेषण और प्रवाह की निरंतरता का होना बहुत
ज़रूरी है जिसके लिए भाषा के सधाव और शैलीय वृत्तियों के कलात्मक उपयोग से कवि को
दो चार होना पड़ता है। इन कविताओं में हिन्दी भाषा की व्यापक अभिव्यक्ति क्षमता को
कुशलता के साथ इस्तेमाल करने का भाव दिखाई देता है जो और भी मँजकर अधिक अच्छे
परिणाम दे सकता है।
ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ छंदमुक्त होते हुए भी लय की निरंतरता से बँधी हुई
हैं। गति के साथ भावों-प्रतिभावों का उन्नयन प्रभावशाली बन पड़ा है। कविता और
गद्यभाषा के बीच का संतुलन भी अपेक्षित अनुभूतियों को संप्रेषित करनें में कई
जगहों पर सहायक बना है।
इन कविताओं की भावनापरक ऊर्जा कथनों में लिपटकर भी प्रकट हुई है और शाब्दिक
छवियों के संश्लिष्ट रचाव से भी। जहाँ एक भाव टूटकर स्थिर होना चाहता है, वहाँ ये दोनों ही प्रक्रियाएँ रंजक तत्व का काम
करती हैं। कथनों में मुहावरों का आलोक भी छिपकर झाँकता है जिनमें हिंदी-उर्दू
दोनों की साझा विरासत को सम्हाले रखा गया है। कफ़न धारण किए हैं, मूल्य जिनकी उँगलियों पर नाचते हैं, साजिशों में कैद है, कील हम जड़ने चले हैं,बो रहा है आग वह, चीख के
होठों पड़ा ताला, सत्य ने
खतरा उठाया, मौत से
पंजा भिड़ादें, कयामत
टूट पड़े तुम्हारे ऊपर, डुबकी
लगा गए तुम तो, चोर
नज़रों से तुम्हारी ओर देखा – जैसे कथन काव्यसंदर्भ या पूरी कविता की बुनावट
में अर्थ भर देते हैं।
इसी तरह इन कविताओं में कई ऐसी शाब्दिक छवियाँ भी उभरी हैं जहाँ दो नितांत
भिन्न जातियों के शब्दों का संयोजन विस्तृत भावभूमि को प्रकाशित कर देता है। ऐसे
प्रयोग अर्थ की छवियों को भी नया आयाम दे देते हैं। भावबद्धता का यह क्रम
काव्यशिल्प को भी प्रखर बनाता है जिसे कवि का भाषाकौशल मानना चाहिए। लाल जबड़े
कड़कड़ाती, कुर्सी
के कंठ हकलाए हुए हैं, लोभ के
पंजे पसारे, चले हम
धोने रंज मलाल, कुर्सियों
के कान में कलरव पड़ा, मैंने
किताबें पहन रखीं थीं, झूठ की
चादर लपेटे जल रही होली, वह
कामधेनु भी हुई परती-से जो शब्दछवियाँ बनती हैं, वे चित्रात्मक होने के साथ ही भाव के उद्रेक को
भी द्विगुणित कर देती हैं। अच्छी बात यह है कि इस तरह के काव्यभाषिक ढलाव में कवि
ने भाषा के लोकपक्ष की भी सुध ली है। ऐसा करने से भाव प्रखर हुए हैं और वह कहा जा
सका है जो आभिजात्य भाषा उतनी प्रभावी बनकर न कह पाती। क्यों बवाल उठाते हो, जनगण करें धमाल, भींज कर पाँखें, जब शून्य ताके, दूधों नहाई, पौध धान की, नाव काठ की, देह का बाना, जलाकर धर दिया, अपना नाम गोदने के लिए, बैर मत रोपो, बौरा उठे आम्रवन – यह बताते हैं कि लोक भाषा का सही जगह पर एक
कोने में किया गया प्रयोग भी पूरे संदर्भ को प्रकाशित कर देता है।
कविताओं के भाव सामयिक हैं और हार्दिक उद्वेग के साथ प्रकट हुए हैं। इसीलिए
भावोद्वेलन में सिमटे लघु भाव पुनरावृत्ति से प्रकट करने की जैसी दक्षता कवि ने
दिखलाई है, वह इस
बात का भी संकेत है कि एक बड़े भाव को किस तरह अभिव्यक्ति के टुकड़ों में बाँटकर
फिर से उन्हें संश्लिष्ट करके ’महाभाव’ में परिणत किया जाता है। इस प्रकार की कुछ
पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा :
यह बिंदु है बदलाव का
यह बिंदु है भटकाव का
यह बिंदु है बहकाव का
*****
और हमारा धर्म?
हमारा धर्म क्या है??
क्या ह हमारा धर्म????
***
छ्त गिरा दो
छीन लो छतरी,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को
उड़ा ले जाओ भले।
***
पहली बार छुआ-
महकती हुई धरती ने,
गमकती हुई हवा ने,
लहराते हुए पानी ने,
सहलाती हुई आग ने
और गाते हुए आकाश ने।
इन कविताओं में व्यंग्य, प्रहार, आक्रोश, तल्खी, क्रोध, जुगुप्सा के भाव अंतर्निहित हैं, लेकिन एक अंतर्धारा की तरह। सामाजिक सच्चाइयाँ
हैं जिनमें परिस्थितियों ने विसंगतियाँ भरी हैं, लेकिन इनके ऊपर भी ऐसा बहुत कुछ है जिससे बँधकर
कलुष को पार किया जा सकता है। ऐसे ही बदलाव की तलाश है ये कविताएँ, जो नारों में समाधान नहीं ढूँढतीं। ये मुड़ती
हैं जड़ों की ओर। ये परखती हैं अपने आदर्शों और मूल्यों को; और चेताती हैं भटकाव के उन रास्तों के प्रति
जिनका अस्तित्व ही खोखला है। इस पृष्ठभूमि में ’ताकि सनद
रहे’ की कुछ
पंक्तियाँ देकर अपनी बात कहूँगा :
आदमी तो
भूमि का बेटा,
भूमि पर वह लोटता,
धूलि में सनता,
निखरता धूप में है।
देह से झरता पसीना,
गंध बहती रोम कूपों से उमड़कर।
ये पंक्तियाँ मनुष्य के श्रम और उस श्रम से निर्मित पहचान को उकेरती हैं जहाँ
श्रम का संतोष ही आदमी को माथा उठाकर जीने की टेक देता है। व्यंग्य की दो
पंक्तियाँ यह जताती हैं कि राजा निर्दोष और प्रजा को दोषी माननेवाली रीति का भीतरी
सच क्या है, इस सच की
परख कवि ने प्रह्लाद के जरिये की है :
मुकुट तो गलती नहीं करता
केवल प्रजा दोषी रही है।
जो श्रम के भागी नहीं हैं और जो समस्त दोषों से भी मुक्त हैं, उन्हें भी कवि ने चेतावनी दी है कि वे ज़मीन पर
उतरें, सबके साथ
चलें :
जो चढ़े सिंहासनों पर
भूमि पर उतरें अभी,
हल धरें कांधे,
जो धरा जोते ’जनक’ वह,
वही शासक धरा का
वह धराधिप हो!
कहीं कहीं कविताओं में सामयिक संदर्भ भी प्रमुख बने हैं लेकिन यहाँ भी
स्पष्टता और परंपरा से जुड़ाव ने नई काव्यभंगिमा प्रस्तुत कर दी है।
’आपरेशन विजय’ के दो
संदर्भ हैं :
युद्ध है अभिशाप
लेकिन
भूमिजा की लाज का जब
हो रहा अब
अतिक्रमण है;
- युद्ध तो अनिवार्य है।
***
साधुवेशी रावणों ने
हरण सीता का किया है,
जाल फैलाया हिरण का,
वध जटयू का किया है।
ये कविताएँ सपनों और आदर्शों का भी अलग धरातल ढूँढती हैं जहाँ एक ओर सामाजिक
बोध की स्वीकृति है :
तुम समझने लगे थे अब
माँ और गुड़िया के फ़र्क को।
चाभी के खिलौने और
बाप का अंतर.......
तो दूसरी ओर भविष्य को कुछ दे जाने का संकल्प:
आज यह संकल्प लेकर
रोपता हूँ बीज तुममें,
कल्पतरु अब तुम उगाओ।
कहीं यहाँ ’नीम’ के बहाने
पिता की याद है और कहीं ’रंग’ के साथ सकल सृष्टि के सपनों की बात है।
यह देखकर अच्छा लगता है कि ये कविताएँ बिना किसी लागलपेट के खुद बोलती हैं और
बहुत साफ बोलती हैं। यह सफाई कुछ कविताओं की संबोध्यता से भी आँकी जा सकती है। कभी
पंक्तियाँ सीधे पाठक को संबोधित हैं :
हाथ में रथचक्र लेकर
व्यूह से लड़ने चले हो!
***
तुम न दुहराना कहीं
गाथा वही,
हो न जाए फिर कहीं
अहसास की हत्या!
इंद्र पर भी पाप यह भारी पड़ा।
***
सावधान! होशियार!
कोई अपने घर से बाहर न निकले,
कोई खिड़कियों से झाँकने की
ज़ुर्रत न करे!
***
गलतफहमी है आपको।
सिर्फ़ आधी आबादी नहीं हैं वे।
बाकी आधी दुनिया भी
छिपी है उनके गर्भ में।
वे घुस पड़ीं अगर संसद के भीतर
तो बदल जाएगा
तमाम अंकगणित आपका।
***
कुछ ऐसा करो
कि वे चीखें, चिल्लाएँ,
आपस में भिड़ जाएँ
और फिर
सुलह के लिए
हमारे पास आएँ।
कहीं कविता में अवस्थित पात्र को :
ओ छली दुष्यंत
तुमको तापसी का शाप।
***
घेरकर अभिमन्यु को
तुम मार सकते हो,
किंतु
अर्जुन के
’विजय अभियान’ का
बस एक प्रण है-
अब विजय है – या मरण है;
- युद्ध अब अनिवार्य है!
***
जूझ रहा था जिस समय पूरा देश
समूचे पौरुष के साथ
हर रात
हर दिन
नए नए मोर्चों पर;
बताओ तो सही
तब तुम कहाँ थे, दोस्त?
कहाँ थे?
***
पिता,
जबसे तुम गए हो
बहुत याद आता है
गाँव वाले अपने घर का
वह नीम
जो तुम्हारी उमर का था।
’ताकि सनद रहे’ कविता
में पूरे मनुष्य को देखने वाला संग्रह है। पूर्ण पुरुष की संभावना कहाँ होती है, लेकिन कमियों से लड़-जूझ कर ही नई दिशाएँ खुलती
हैं – ऋषभ की इन सभी कविताओं में मानवीयता का यह पक्ष
सर्वोपरि है; और जो
साहित्य मानव और मानवता की धुरी से ही छिटका हुआ हो उसे कविता मानने का मैं तो कोई
कारण नहीं देखता।
कवि में एक पाठक की तरह मुझे कई स्तरों पर भावप्रवणता दिखाई दी है। मैं आशा
करता हूँ कि भविष्य में यह कवि अपने इस भावबोध को सच्चे भारतीय बोध की नसैनी पर
चढ़ाने का प्रयत्न करेगा; और यह भी
कि इस पठनीय और रस बोध से युक्त काव्य का हिंदी का साहित्यप्रेमी समाज स्वागत
करेगा।
:: 4 ::
ऋषभ देव शर्मा के चौथे कविता संग्रह ‘देहरी’ (ऋषभ : 2011) में उनकी चर्चित ‘स्त्रीपक्षीय’ कविताएँ
प्रकाशित हैं.
संवेदना यदि कविता का उत्स है तो ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ संवेदनापरक
अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाएँगी. कुछ कविताओं में संवेदना की
स्मृतिजन्य उपस्थिति में भावुकता भी दिखलाई पड़ती है. यह ख़ास इसलिए है कि भावुकता
प्रकट करने वाली भाषिक अभिव्यंजना आज की कविता से क्रमशः दूर होती जा रही
है.
कहने को तो ये कविताएँ स्त्रीवादी कविताएँ हैं; और अपनी विषयवस्तु में हैं भी. लेकिन ये स्त्री
के इर्द गिर्द आकर ही ठहर नहीं गई हैं. इनमें पारिवारिक
संरचना के बदलते स्वरूप की परख है, सामाजिक ढाँचे और मूल्यों के विघटन की आवाज़
है. पुराकथाओं के जरिये पुरुष-स्त्री संबंधों की, और स्त्री की, यातनागाथा की अभिव्यक्ति जैसे घटक भी इस तरह
मिलाए हुए हैं कि इनमें स्त्री एक अलग इकाई की तरह नहीं बल्कि धुरी की तरह चित्रित
है गोकि उसकी शोषणक्रिया के अनुष्ठान कम ही बदल पाए हैं.
कविताएँ इन्हें बदलना चाहती हैं. जो कविताएँ स्त्री की ओर से प्रथमपुरुष में लिखी
गई हैं, उनमें
बदलाव की यह तड़प अधिक मुखर है.
स्त्री की अनेक छवियाँ इन कविताओं में उभरी हैं. आदिवासी से लेकर घर परिवार की, महानगरों की, गाँवों-कस्बों की स्त्रियों की - घुटन, भीतर भीतर पक रही अनपूरी चाहें जब उनकी ललकार
और चुनौती में बदलती हैं तो यह अलग-अलग कविताओं का संग्रह प्रबंध काव्य का गठन पाता सा
लगता है.
कवि ने अनुभूत ही लिखा है इसलिए हर कविता सच्ची है. झूठ इनमें इतना ही है जितना आए बिना कोई अच्छी
कविता बनती भी नहीं.
'देहरी' संग्रह
की कविताएँ देहरी के भीतर वाली स्त्री के अनेक रूपों का चित्र खींचती हैं और देहरी
के बाहर निकल सकने की उसकी इच्छाओं, और इसके
बावज़ूद नागपाश की तरह जो सामाजिक रूढ़ियाँ उसे जकड़े हुए हैं उन्हें तोड़ने की
जद्दोजहद, को दर्ज करती हैं. साथ ही, देहरी
के भीतर जाने और फिर बाहर न निकल पाने की एकतरफा आमद को इस संग्रह की कविताएँ
दृढ़ता से नकारती हैं.
- प्रो.
दिलीप सिंह
पूर्व कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण
भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास