बुधवार, 5 मई 2021

(पुस्तक समीक्षा) डॉ. निशंक के साहित्य का समग्र विवेचन : तत्त्वदर्शी निशंक'

डॉ. निशंक के साहित्य का समग्र विवेचन 

तत्त्वदर्शी निशंक'

समीक्षक : डॉ सुषमा देवी

जब एक साहित्यकार मनुष्य की संवेदना को जीवन के थपेड़ों में भी संजोए रखने का साहस करे तो समझ जाना चाहिए कि वह हर विपरीत दिशा को मोड़ने में सक्षम है | जीवन तत्वों को अपनी रचनाधर्मिता में विन्यस्त करते हुए ‘तत्वदर्शी निशंक’ जब विविध विद्वानों की लेखनी की धार से पार होकर प्रकट होते हैं, तो वे राष्ट्रवादी, विश्व मानवतावादी डॉ रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ बनकर कालजयी साहित्यकार बन जाते हैं| भारत देश के वर्तमान शिक्षामंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ का राजनीतिक क्षेत्र में आना, वह भी शिक्षामंत्री के रूप में कार्यरत होना, सोने पर सुहागा हो गया है| क्योंकि भारत के स्वर्णिम वर्तमान एवं भविष्य के लिए ऐसे ही तत्वदर्शी की आवश्यकता है, जो ‘सार सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय’ की राह पर चलने का आकांक्षी हो| वे राजनीति के क्षेत्र में एक ऐसे अभिमन्यु हैं , जो चक्रव्यूह के घेरे को तोड़ने में सतत सन्नद्ध हैं| उन्हीं के शब्दों में- ‘दुष्प्रचार की आंधी में भी, निशंक अकेले खड़ा हुआ हूँ| राजनीति के चक्रव्यूह में, अभिमन्यु-सा घिरा हुआ हूँ | (संघर्ष जारी है - पृष्ठ 74)।

‘तत्वदर्शी निशंक’ ग्रंथ को आकार देने में भारत के कई राज्यों के विद्वज्जनों ने सार्थक प्रयत्न किए हैं| इस पुस्तक को छह खंडों में कुछ इस प्रकार विभाजित किया गया है कि साहित्यकार के समस्त गुणों से पाठकों एवं जिज्ञासुओं को परिचित कराया जा सके| खंड - एक में विषय प्रवेश के अंतर्गत गोपाल शर्मा ‘भूमिका दर भूमिका’' में जर्मन दार्शनिक हेगेल का उद्धरण देते हुए कहते हैं, ‘भूमिका किसी परियोजना की घोषणा मात्र है और कोई परियोजना संपूर्ण होने तक कुछ भी तो नहीं है|' (पृष्ठ 23)। इस अंश में रचनाकार निशंक के रचनात्मक वैविध्य को बताते हुए प्रोफेसर गोपाल शर्मा ने निशंक के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत भूमिका बांधी है तथा उन्हें भारतीय एवं विश्व साहित्य में रचनात्मक उद्देश्य के साथ स्थापित किया है| सक्रिय राजनीति के साथ-साथ साहित्यिक क्षेत्र के संघर्षों के बहुविध संतुलन का नाम निशंक है| ’संभावनाओं की तलाश अर्थात लेखक का जीवन मर्म’ शोधपत्र में ग्रंथ की सह-संपादक शीला बालाजी ने रचनाकार निशंक के पारिवारिक, राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक जीवन की गंभीरता से पड़ताल करते हुए इस सन्दर्भ में भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के इस वाक्य को उद्धृत किया है- ‘हिमालय से निकली निशंक की गंगामयी काव्यधारा राष्ट्र निर्माण में नींव का पत्थर बनेगी।’ (पृष्ठ 46 )।

रचनाकार की संवेदनशीलता मात्र समस्याओं के विश्लेषण तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसके समाधान की राहों के अन्वेषण में भी तत्पर है। इसलिए ‘जड़ में चेतन तलाशने निकले निशंक की पुस्तक ‘प्रलय के बीच’ असल में निशंकजी की संवेदनाओं का प्रतीक है|’ (पृष्ठ 47)।

खंड दो ‘काव्य जगत’ नाम से अभिहित है, जिसमें चार विद्वानों के शोधपत्र संकलित हैं| प्रो. निर्मला एस. मौर्य द्वारा ‘उद्देश्य की महानता में सौंदर्य का रहस्य’ आलेख में लेखिका ने रचनाकार निशंक की काव्यपंक्तियों के उद्धरण देते हुए उनके काव्य सौंदर्य के हर कोण से पाठक को परिचित कराने का सफल प्रयत्न किया है| काव्य के उदात्त पक्ष को 'प्रतीक्षा' खंडकाव्य की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘खुली हुई हैं आंखें उसकी/ अभी किसी प्रतीक्षा में,/ प्राण पखेरू उड़ा छोड़ जग/ एक नई अन्वीक्षा में|' (पृष्ठ 56)। लेखिका ने रचनाकार की सौंदर्य दृष्टि, निर्वेद भावना, कठोर पहाड़ी जीवन से पलायन करने की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है| कवि निशंक समाज के ढोंग, पाखंड , अनाचार को मानव कल्याण का सबसे बड़ा रोड़ा मानते हैं। लेखक के विश्व मानवतावाद को रचनाधर्मिता का प्राण कहा जाए तो अन्यथा न होगा| लेखिका ने कवि निशंक की कविताओं में प्रयुक्त काव्य के अन्तर्वाह्य सौंदर्य पक्ष को सोदाहरण निरूपित किया है| रस, छंद, अलंकार, रहस्यवादिता से मंडित कवि की कविताओं का सम्यक चित्रण लेखिका ने किया है| लेखिका के शब्दों में- ‘इनकी कविताओं में हमें जिस सौंदर्य के दर्शन होते हैं, वह यथार्थ, समकालीन और समसामयिकता से परिपूर्ण है|' (पृष्ठ66)। डॉ. सुपर्णा मुखर्जी कृत ‘देशप्रेम की चेतना’ आलेख के अंतर्गत कवि निशंक की देशप्रेमयुक्त काव्य रचनाओं की सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति का विवेचन किया गया है| वीरप्रसू भारतभूमि की माताएँ अपनी संतान को देशसेवा के लिए समर्पित करके कैसे ईश्वर से प्रार्थना करती हैं, इसका उदाहरण कवि की इन पंक्तियों में मिल जाता है- ‘हे ईश्वर मेरे दीपू को/ परम शक्तिशाली कर दो/ रह देश-सेवा में तत्पर/ ममता भी मन में भर दो। (‘प्रतीक्षा’ खंडकाव्य, पृष्ठ 24)। साहित्यकार के त्रिकालदर्शी रूप, स्त्री चेतना के उन्नायक रूप के द्वारा समरसता भाव को लेखिका ने सुदर्शन अभिव्यक्ति दी है- ‘ऐसा क्या कार्य जगत में,/नारी जिसे न कर सकती?/दूजे पर क्यों निर्भर हो वह,/ कष्ट स्वयं निज हर सकती|' (पृष्ठ 71)।

कवि का स्वार्थहीन जीवन देशप्रेम में राष्ट्र के हित हेतु सदैव समर्पित र है| ‘किसी भी देश, समाज, परिवार और संपूर्ण विश्व को नया मार्ग युवा ही दिखा सकता है- ‘मेरे निखिल ‘समर्पण’ से अंकुर/बने हैं तो लो यह ऋतुपर्ण।/मैंने अर्पण में कभी न देखा,/जात - पात क्या कोई वर्ण./ था मेरा यह विश्व समर्पण,/ जिसको सबने ही अपनाया।' (पृष्ठ - 73)। लेखिका ने कवि के राष्ट्रप्रेम को विश्व कल्याणोन्मुखी बताया है।

डॉ. भागवतुल हेमलता कृत ‘है अंधेरा यदि कहीं तो सूर्य से तुम तेज लो’ आलेख में लेखिका ने कवि निशंक की कविता में देश की रक्षा , प्रगति तथा उन्नति हेतु कलम को कृपाण बनाकर पाषाण को भी कर्तव्योन्मुखी बनाने की क्षमता को ढूंढ निकाला है| कवि के काव्य की पावन धार में धरती को स्वर्ग बनाने की क्षमता को दिखाया गया है| ‘संघर्ष जारी है’, ‘समर्पण’, ‘मातृभूमि के लिए’ आदि कविताओं के विवेचन के साथ ही लेखिका ने तेलुगु कवि श्रीश्री द्वारा वर्णित काव्य गुणों को कवि निशंक की कविताओं में पाया है – ‘कदिलेदी कदिलिंचेदी – मारेदी मर्पिंचेदी/ पाडेदी पादिंचेदी – पेनु निद्दुरा वदिलिंचेदी /मुनुमुन्दुकु सांगिंचेदी – परिपूर्णपु ब्रतुकिच्चेदी'। (तेलुगु साहित्य चरित्र, पृष्ठ- 423)। सारांशतः लेखिका ने कवि निशंक की कविता को हिलने-हिलाने , बदलने – बदलवाने, गाने–नींद भगाने, आगे बढ़ाने के साथ ही जीवन की पूर्णता का मर्म कवि कर्म में पाया है|

‘आंधियों में जलता एक शब्द-दीप’ आलेख में डॉ. एन. लक्ष्मीप्रिया ने कवि निशंक का परिचय देते हुए उनकी रचनाओं के उद्देश्य पर प्रकाश डाला है| निशंक की काव्य रचनाओं में शब्द प्रयोग के सौंदर्य को ढूंढते हुए लेखिका ने विविध तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी, अरबी - फारसी, संख्यासूचक, पूर्ण पुनरुक्ति, अपूर्ण पुनरुक्ति शब्द तथा क्रिया रूप आदि की उदाहरण सहित विवेचना की है| लेखिका कविता में संवाद एयर एकालाप के विविध उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं| कवि निशंक ने संवाद शैली में अनेक कविताएँ सृजित की हैं| लेखिका ने रचनाकार के भाषिक बोध को हर कोण से विश्लेषित करते हुए उनकी बहुआयामी रचनाधर्मिता को प्रस्तुत किया है।

खंड –तीन ‘कहानियों का संसार’ में पांच लेखकों ने डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के कहानीकार रूप का विस्तृत विवेचन किया है| लेखिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने ‘आदर्श और यथार्थ’ आलेख के अंतर्गत बताया है कि किस प्रकार कहानीकार निशंक विविध कहानियों के माध्यम से भ्रष्टाचार और अमानवीयता की कलई खोलने का कार्य करते हैं| उनकी ‘केदारनाथ आपदा की सच्ची कहानियां’ तथा ‘प्रलय के बीच’ यात्रावृत्त में केदारनाथ में घटित विभीषिका का जीवंत चित्रण हुआ है| ‘उनकी कथनी और करनी में कहीं भी अंतर दिखाई नहीं देता| आपदा पीड़ितों की सहायता करने के लिए निशंक ही नहीं, बल्कि उनकी कहानियों के पात्र भी हमेशा तैयार रहते हैं | (पृष्ठ- 106)। लेखिका ने देवभूमि के प्रति समर्पित कहानीकार डॉ. निशंक की कहानियों में सत्तालोलुपता, महानगरीय समस्या, स्त्री पर होने वाले अत्याचार, पर्यावरण, अर्थव्यवस्था आदि से जुड़े यथार्थ का विस्तृत विवेचन किया है|

‘समकालीन परिवेश’ से संबद्ध कहानियों में तीव्रतम परिवर्तित युगीन परिप्रेक्ष्य को कहानीकार निशंक के दो कहानी संग्रहों को केंद्र में रखकर डॉ. डॉली ने आद्योपांत विवेचित किया है। वे कहती हैं– चाहे आम आदमी का वर्णन हो या मध्यवर्गीय समस्या, हाशिए का समाज वर्णन हो या बाजारवाद, नई सदी का समाज हो या नैतिक मान्यताओं का विघटन, व्यवस्थाओं के प्रति घोर असंतोष की भावना हो या पारिवारिक विघटन, आम आदमी के जीने की विषम आर्थिक स्थितियां हों, चाहे निराशा और कुंठा हो अथवा राजनीति- अर्थ, धर्म व संस्कृति के बदलते स्वरूप को कहानीकार ने जीवंत अभिव्यक्ति दी है| (पृष्ठ 139)।

कहानीकार निशंक के ‘समाजदर्शन और राष्ट्रवाद’ को ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने उनके ‘एक और कहानी’ , ‘अंतहीन’ और ‘क्या नहीं हो सकता’ कहानी संग्रहों के माध्यम से व्यक्त किया है| लेखक उन्हें प्रेमचंद की परंपरा में खड़े करते हुए मानवीय मूल्यों के प्रबल पक्षधर के रूप में चित्रित करते हैं |

प्रो. श्रीलता विष्णु ने ‘मानवीयता का चतुर चित्रांकन’ आलेख में कहानीकार निशंक के ‘टूटते दायरे’ कहानी संग्रह की विस्तृत व्याख्या की है| बात टूटते दायरे की हो तो वे पहाड़ी जीवन के सौंदर्य एवं विद्रूपता की विसंगति के साथ-साथ भूमंडलीकरण तक टूटते हैं| लेखिका ने रचनाकार के द्रवित मन को टटोलने का प्रयत्न उनकी विविध कहानियों में किया है|

‘टूटता बिखरता समाज बनाम आशावादी स्वर’ आलेख में डॉ. सुषमा देवी ने ‘अंतहीन’, ‘क्या नहीं हो सकता’ तथा ‘एक कहानी और’ कहानी संग्रह की विविध कहानियों को क्रमवार रूप में विश्लेषित किया है| लेखिका ने कहानीकार निशंक के इन तीनों संग्रहों की समस्त कहानियों को आद्योपांत विवेचित करते हुए दुर्दम्य परिस्थितियों में भी रचनाकार के अखंड व्यक्तित्व को विश्व मानवतावाद के सर्वथा योग्य सिद्ध किया है|

खंड - चार ‘उपन्यास सृष्टि’ में डॉ. निशंक के उपन्यासकार रूप का विवेचन किया गया है| डॉ. बी. बालाजी ने ‘पहाड़ी जीवन का ज्वलंत दस्तावेज’ शोधपत्र के अंतर्गत डॉ. निशंक के ‘मेजर निराला’, ‘बीरा’, ‘निशांत’, ‘छूट गया पड़ाव’, ‘प्रतिज्ञा’, ’कृतघ्न’ आदि उपन्यासों को विविध कोणों से विवेचित किया है | इन उपन्यासों में पहाड़ी जीवन की दुर्दमनीयता में भी राष्ट्रभक्ति, समाजसेवा तथा उत्तरदायित्वपूर्ण भावना का सुन्दर विकास दिखाया है| उपन्यासकार ‘निशंक’ द्वारा अपने पात्रों में समाज के प्रति प्रतिबद्धता का भरपूर प्रयोग किया गया है| वे भावी पीढ़ी से सामाजिक विद्रूपताओं से समाज की मुक्ति की पूर्ण अपेक्षा करते हैं| लेखक ने उपन्यासकार निशंक की उपन्यास दृष्टि में समाजसुधार एवं पर्यावरणिक शुद्धीकरण पर अधिक जोर दिया है और दर्शाया है कि पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों के कारण नई पीढ़ी के पलायन, शिक्षा के अभाव, स्त्री शोषण तथा शराब तस्करी में वहां की सुंदर संस्कृति विलीन होती जा रही है, जिसे बचाने का प्रयास लेखक ने अपने विविध उपन्यासों में किया है|

डॉ. मंजु शर्मा द्वारा ‘चेतना के आयाम’ आलेख में ‘बीरा’, ‘छूट गया पड़ाव’, ‘प्रतिज्ञा’ आदि उपन्यासों में उपन्यासकार निशंक की विविध आयामी चेतना दृष्टि को रूपायित किया गया है| रिश्ते-नातों के आदर्श तथा विकृत स्वरूप, लोकजीवन तथा लोक संस्कृति की दृष्टि, पहाड़ी जीवन से पलायन तथा पुनर्वास को प्रमुखता से बताया गया है| स्त्री जीवन एवं पहाड़ी जीवन की समस्याओं को ही नहीं, समाधान को भी इंगित किया गया है|

खंड-पांच ‘अकाल्पनिक गद्य’ के अंतर्गत लेखक प्रवीण प्रणव द्वारा ‘प्राकृतिक आपदा में संवेदना का मरहम : संस्मरण साहित्य’ आलेख में ‘आपदा के वह भयावह दिन’, ‘प्रलय के बीच’ संस्मरणों की परत दर परत पड़ताल की गई है| डॉ. निशंक के शब्दों में– ‘यदि समय रहते 14 या 15 जून को भी तीर्थयात्रियों को ऋषिकेश, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग और गुप्तकाशी आदि प्रमुख पडावों पर ही रोक दिया जाता तो केदारधाम , गौरीकुंड तथा रामबाड़ा में एक साथ इतने यात्री एकत्रित नहीं होते| इससे जनहानि कई गुना कम हो सकती थी , किंतु प्रबंध तंत्र की निष्क्रियता और असंवेदनशीलता ने हजारों यात्रियों की जान जोखिम में डालने का कार्य किया, जिसकी परिणति इस भयंकर त्रासदी के रूप में सामने आई|’ (पृष्ठ 243)। मौत के तांडव के बीच मानव के लोभ की पराकाष्ठा को बताते हुए , बाजारीकरण और मीडिया की भूमिका को ऐसे समय में संस्मरणकार ने उपयोगी माना है| लेखक प्रवीण प्रणव ने ‘पहाड़ों से स्नेह,संस्कृति का पुल: यात्रावृत्तांत’ शोधपत्र में ‘मॉरीशस की स्वर्णिम स्मृतियां’, ‘केदारनाथ से पशुपतिनाथ तक’, ‘एक दिन नेपाल में’, ‘खुशियों का देश भूटान’, ‘भारतीय संस्कृति का संवाहक इंडोनेशिया’ आदि यात्रावृत्तांतों का व्यापक विश्लेषण किया है| इन यात्रावृत्तांतों में यात्री के सूक्ष्म जीवन की संवेदनाओं को वहां के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक परिवेश के चित्रण में देखा जा सकता है|

डॉ. सुरेश भीमराव गरुड़ ने ‘व्यक्तित्व निर्माण के लिए : प्रेरणास्पद गद्य’ आलेख में रचनाकार के व्यक्तित्व विषयक चिंतन की सूक्ष्मता को अंकित किया है| स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ‘संसार कायरों के लिए नहीं’ रचना में निशंक ने आज की भौतिकतावादी अंधी दौड़ में व्यक्ति को नवचेतना तथा मनुष्यता के गुणों से सराबोर किया है| (पृष्ठ 290)।

‘तत्वदर्शी निशंक’ ग्रंथ के अंतिम भाग अर्थात खंड – छह ‘विश्व दृष्टि’ के अंतर्गत ‘महामानव व्यक्तित्व के धनी निशंक’ का विविध धरातल पर परिचय दिया गया है | डॉ. चंदन कुमारी के ‘तू धरा पर फ़ैल इतना लौ तेरी आकाश ले’ शोधपत्र में रचनाकार के विविध साहित्य रूपों को विवेचित किया गया है | ‘इनके साहित्य में वृद्धावस्था विमर्श, स्त्री विमर्श, हरित (पर्यावरण) विमर्श, संस्कृति विषयक चिंतन, अस्तित्व-रक्षण बनाम प्रगति इत्यादि विषय सहज प्राप्य हैं |’ (पृष्ठ 293)।

डॉ. संगीता शर्मा के ‘समकालीन समाज की धड़कन’ आलेख में रचनाकार निशंक के बहुआयामी व्यक्तित्व को उनकी रचनाओं के माध्यम से दर्शाया गया है| मिलन विश्नोई के ‘संवेदना के धरातल’ पाठ में रचनाकार के राष्ट्रप्रेम, मानव संघर्ष और संवेदना को उकेरा गया है| डॉ. उषारानी राव के आलेख ‘आत्म मंथित तरलता की प्राणवान धारा’ में रचनाकार के विभिन्न रचनात्मक सौंदर्य को दर्शाया गया है| रचनाकार का आत्मसंघर्ष, जीवनानुभूति, परिवर्तन की आस्था के साथ व्यक्त हुआ है|

प्रो. गोपाल शर्मा कृत शोधपत्र ‘तत्वदर्शी निशंक’ में तत्वान्वेषी साहित्यकार की ध्येय दृष्टि का मंथन किया गया है| वे अपनी कृतियों में मैं रूप में प्रकट होते हैं| रचनाकार के संस्कारित व्यक्तित्व पर स्वामी विवेकानंद से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा है| रचनाकार के भाषिक संस्कार और देशज संस्कार को उनकी रचनाओं में गहरे तक देखा जा सकता है| रचनाकार के निजी अनुभव उनके साहित्यिक विवेक का परिमार्जन करते हैं|

कुल मिलाकर ‘तत्वदर्शी निशंक’ पुस्तक को लगभग 355 पृष्ठों के साथ सजिल्द सजाया गया है, जिसमें पाठकों और शोधार्थियों को रचनाकार के वृहद् व्यक्तित्व एवं लेखन का परिमार्जित स्वरूप सहज में प्राप्त होता है| पुस्तक के संपादक प्रो. ऋषभदेव शर्मा के शब्दों में– ‘तुच्छताओं और हीनताओं के विषम अनुभव भी साहित्यकार निशंक की मनुष्यता में निष्कंप आस्था को विचलित नहीं कर पाते हैं| वे घृणा को करुणा से काटते हैं और साहित्य की उस भूमिका की साधना में जुट जाते हैं, जहाँ जननी और जन्मभूमि की अनन्य भक्ति की उदात्त भावना ही ‘विश्वबंधुत्व’ की भावना को साकार करने का आधार बनती है|’ (पृष्ठ 13)। ★

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समीक्ष्य कृति : तत्वदर्शी निशंक

सम्पादक तथा सह सम्पादक : डॉ ऋषभदेव शर्मा, श्रीमती शीला बालाजी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, प्रा.लि., 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली -110002

मूल्य : 700/- मात्र

प्रथम संस्करण : 2021

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समीक्षक : डॉ सुषमा देवी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, बद्रुका कॉलेज, हैदराबाद -27, तेलंगाना।★

(पुस्तक समीक्षा) हिंदी साधक डॉ. निशंक का भावाभिनंदन

हिंदी साधक डॉ. निशंक का भावाभिनंदन

- डॉ. चंदन कुमारी

भारत के शिक्षामंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक (1959) का व्यक्तित्व बहुआयामी है| वे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं| इससे पूर्व वे स्वयंसेवक, शिक्षक एवं पत्रकार की भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं| राजनीति के क्षेत्र में उनका पदार्पण माननीय अटल बिहरी वाजपेयी के स्नेहादेश से हुआ| उनके कार्यकाल के दौरान उनकी सेवाभावना और कर्तव्यपरायणता से सभी स्वतः परिचित हो रहे हैं| तथापि एक संवेदनशील और भावुक व्यक्ति हमेशा सेवा और कर्तव्य का पालन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता| वह अपने अनुभवों को सबके साथ साझा करना चाहता है| अपने साहित्य के माध्यम से डॉ. निशंक ने भी यह किया है| उनका साहित्य अनुभव से उपजा है| वैश्विक स्तर पर अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें बारंबार विविध सम्मानों से नवाजा गया है| देश-विदेश की कई भाषाओँ में उनके साहित्य का अनुवाद किया गया है। साथ ही वैश्विक स्तर पर उनकी बहुत-सी रचनाएँ पाठ्यक्रम में भी शामिल की गई हैं| एक सामान्य मनुष्य जिसने संघर्षों में तपकर अपने जीवन को प्रकाशवान बनाया है, निश्चित ही वह राष्ट्र के भावी कर्णधारों के लिए प्रेरणास्रोत है| अभावों और विपदाओं को अपने संघर्षशील जुनून से मात देकर जिस तरह डॉ. निशंक ने उन्नति और उच्चता तक का सफर तय किया है; वह उनकी कर्मठता का द्योतक है| उनकी कर्मठता एवं संवेदनशीलता का साक्षात्कार देशवासियों ने केदारनाथ के भयावह जलप्लावन के दौर में भी किया है| उन्होंने अपने साहित्य में दिखाया है कि आज किस तरह सुविधाभोगी और दिशाहीन जीवन जीने की मानसिकता के बोझ से मनुष्यता कराह रही है| स्वार्थांधता ने अपनत्व को दबोच रखा है| अपने ही दुःख से व्याकुल प्राणी नीतिशून्य और मर्यादापतित-सा आचरण कर रहा है| सामाजिक परिवेश के यथार्थ चित्रण के साथ इनके साहित्य में जो पक्ष प्रबलता से उभरा है, वह है ‘जिजीविषा’| इसलिए इनके साहित्य में मनुष्यता जिंदा है| आत्मीयता जिंदा है| नीति और मर्यादा जिंदा है। साथ ही प्रतिभाएँ निखरी हुई और सफलता की पराकाष्ठा को चूमनेवाली हैं| यहाँ असहाय और लाचार व्यक्ति भी ईमानदारी और कर्मठता का संदेश देता है| जीवन से पलायन आवश्यक नहीं, आवश्यक है जीवन में छाए दुखों और अनिष्टों का उन्मूलन या उनका स्वरूप परिवर्तन|

निशंक के साहित्य में निहित इन्हीं आशावादी स्वरों की समेकित पड़ताल के रूप में ‘तत्त्वदर्शी निशंक’(2021) ग्रंथ का प्रणयन हुआ है| इसके संपादक दक्षिण भारत के मूर्धन्य हिंदीसेवी, शिक्षाविद, समीक्षक एवं साहित्यकार डॉ. ऋषभदेव शर्मा हैं एवं सह संपादक शीला बालाजी हैं| यह ग्रंथ दक्षिण के अध्येताओं की ओर से यशस्वी राजनेता एवं साहित्यकार डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक को ही समर्पित है| यह डॉ. निशंक का भावाभिनंदन है|

विवेच्य ग्रंथ में छह खंड हैं जो क्रमशः इस प्रकार हैं- विषय प्रवेश, काव्य जगत, कहानियों का संसार, उपन्यास सृष्टि, अकाल्पनिक गद्य और विश्व दृष्टि| पहले खंड में सबसे पहले लेखक की विभिन्न पुस्तकों की भूमिकाओं का वैदुष्यपूर्ण विवेचन प्रो. गोपाल शर्मा ने किया है| इसमें उन्होंने देश और विदेश के विद्वानों द्वारा पुस्तक की भूमिका संबंधी विचारों पर प्रकाश डालते हुए निशंक के साहित्य की रचना प्रक्रिया, उद्देश्य एवं विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखी गई उनकी पुस्तकों की भूमिकाओं से महत्वपूर्ण सूत्रों को निकालकर सामने रखा है| इसी खंड में शीला बालाजी ने अपने शोधपत्र के माध्यम से निशंक के साहित्यिक और राजनीतिक जीवन पर प्रकाश डाला है|

दूसरे खंड में प्रो. निर्मला एस. मौर्य ने निशंक के काव्य संसार के भाव पक्ष और कला पक्ष में निहित सौंदर्य का विश्लेषण किया है| डॉ. एन. लक्ष्मीप्रिया ने कविता के कला पक्ष के अंतर्गत ही शब्द प्रयोग, संवाद, देह भाषा, संबोधन एवं स्थिति चित्रण इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला है| डॉ. सुपर्णा मुखर्जी और डॉ. भागवतुल हेमलता ने निशंक की कविताओं में राष्ट्रभूमि और संस्कृति के प्रति अनन्य प्रेम देखा है|

तीसरा खंड कहानी केंद्रित है| इस खंड में डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने यथार्थ और आदर्श के आलोक में कहानियों की समर्थता का आकलन किया है| इस क्रम में कथ्य के साथ कहानियों के शिल्प पर भी प्रकाश पड़ा है| इनके साथ डॉ. डॉली, श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ, प्रो. श्रीलता विष्णु एवं डॉ. सुषमा देवी ने कहानियों में व्यक्त मानवीय संवेदनाओं की जटिलता, राष्ट्र-समाज से जीवन की घनिष्ठता, मानवता, और आशावादी स्वर को समसामयिक परिवेश से जोड़कर विश्लेषित किया गया है|

चौथा खंड उपन्यास केंद्रित है| इसके अंतर्गत डॉ. बी.बालाजी ने स्थापित किया है कि पहाड़ी लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का यथार्थ चित्रण डॉ. निशंक के उपन्यासों में सर्वाधिक जीवंत बन पड़ा है| साहित्य और भाषा के अंतःसंबंध को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने डॉ. निशंक की कथाभाषा गठन प्रक्रिया की ओर भी ध्यान खींचा है| डॉ. मंजु शर्मा ने चेतना की दृष्टि से जीवन और संस्कृति को केंद्र में रखकर डॉ. निशंक के उपन्यासों का अनुशीलन किया और पात्रों की आत्मनिर्भरता और दृढ़ता को लक्षित किया है|

पाँचवाँ खंड यात्रा वृत्तांत और संस्मरण केंद्रित है| इस खंड के दो शोधपत्र ‘केदारनाथ सहित अन्य आपदाओं पर आधारित संस्मरण’ एवं ‘नेपाल, भूटान, इंडोनेशिया और मारीशस की यात्रा आधारित यात्रा-वृत्तांत’ पर केंद्रित हैं। ये दोनों श्री प्रवीण प्रणव द्वारा लिखे गए हैं| इनमें यथार्थ के अंकन का तटस्थ विश्लेषण निश्चित ही विशिष्ट है| स्वामी विवेकानंद की व्यक्तित्व निर्माण वाली शिक्षाओं पर आधारित डॉ. निशंक की पुस्तक ‘संसार कायरों के लिए नहीं’ पर डॉ. सुरेश भीमराव गरुड़ ने प्रेरणास्पद चर्चा की है|

अंतिम और छठे खंड में यथार्थ और संवेदना की दृष्टि से डॉ. निशंक के साहित्य का मूल्यांकन किया गया है| डॉ. संगीता शर्मा एवं मिलन बिश्नोई के अनुसार डॉ. निशंक ने देशप्रेम, ग्रामीण चेतना, समसामयिक समस्यायों, स्त्री की स्थिति और वर्ग संघर्ष को अपने साहित्य में चित्रित किया है| इन सबके साथ ही देशप्रेम की कविताओं में उषारानी राव ने अनुभूति की अभिव्यक्ति में सौंदर्यबोध देखा है| इस खंड में ‘तू धरा पर फ़ैल इतना लौ तेरी आकाश ले’ शीर्षक शोधपत्र शोधपत्र में डॉ. चंदन कुमारी ने डॉ. निशंक के साहित्य में निहित उदात्त जीवन मूल्यों की पड़ताल की है|

ग्रंथ का अंतिम शोधपत्र है ‘तत्वदर्शी निशंक’। इसमें डॉ. निशंक के लिए प्रयुक्त ‘तत्त्वदर्शी’ विशेषण का विश्लेषण करते हुए प्रो. गोपाल शर्मा ने डॉ. निशंक के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विशिष्टताओं पर सोदाहरण चर्चा की है| इस ग्रंथ की ‘भूमिका’ में प्रो. ऋषभदेव शर्मा एवं ‘आशीर्वचन’ में गुरुवर प्रो. योगेंद्रनाथ शर्मा 'अरुण' ने भी इन बिंदुओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला है| ‘निशंक की दृढ़ मान्यता है कि युवा वर्ग किसी भी राष्ट्र की नींव होता है, युवा वर्ग की ऊर्जा और क्षमता को सही दिशा में प्रवाहित करते हुए राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की आधारशिला तैयार करना समाज और संस्कृति की पहली आवश्यकता होती है|’(भूमिका से उद्धृत)| कुल मिला कर यह ग्रंथ इस निष्कर्ष को भली भाँति प्रतिपादित करता है कि डॉ. निशंक का साहित्य साधारण से जुड़ा हुआ है, पर उसका लक्ष्य विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण पर टिका हुआ है| डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के साहित्यिक अवदान को समझने और परखने के लिए यह एक अनिवार्य ग्रंथ है। 000


समीक्षित कृति: तत्वदर्शी निशंक
संपादक: प्रो. ऋषभदेव शर्मा
सह संपादक: शीला बालाजी
संस्करण: प्रथम, 2021
प्रकाशन: प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 700 रुपए

समीक्षक : डॉ. चंदन कुमारी,
द्वारा श्री संजीव कुमार, 
आईएफए, एयर फ़ोर्स स्टेशन, 
जामनगर_361003 (गुजरात)
chandan82hindi@gmail.com
मोबाइल 8210915046

रविवार, 2 मई 2021

'बस एक ही इच्छा' का संदर्भ : गोपाल शर्मा







आलेख

‘बस एक ही इच्छा’ का संदर्भ

- गोपाल शर्मा

(देश की प्रसिद्ध संस्था ‘स्याही ब्लू’ की रविवारीय पुस्तक वार्ता के पार्ट -5 में दिनांक 14 मार्च 2021 को डॉ निशंक के प्रारम्भिक कहानी संग्रह ‘बस एक ही इच्छा’ पर देश के कई विद्वान समीक्षकों ने चर्चा की। इस वार्ता शृंखला में प्रति-सप्ताह डॉ निशंक के रचना संसार से एक पुस्तक लेकर उस पर केन्द्रित चर्चा होती है। यू ट्यूब से इसे सुनकर डॉ गोपाल शर्मा के वक्तव्य का पाठ डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने लिपिबद्ध किया है।– संपादक)

“जो उसको जानता है, उसके लिए वह अज्ञात है । जो उसको नहीं जानता उसके लिए वह ज्ञात है- केन उपनिषद का ब्रहम के लिए कहा गया यह कथन डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ पर मेरे लिए सौलह आने सही बैठता है। निशंक जी ने कुछ सोचकर ही अपना उपनाम ‘निशंक’ रखा हो । दरअसल उनको जानने वाले देश के करोड़ों लोग उन्हें राजनेता के रूप में जानते हैं, पर उन्हें कवि-साहित्यकार के रूप में जानने वाले अभी उतनी बड़ी संख्या में नहीं हैं। मैं उन्हें व्यक्ति के रूप में नहीं जानता, न मैं राजनेता के रूप में ही उनसे परिचित हूँ। पर उनको उनकी रचनाओं से अब पहचानने लगा हूँ। मेरा डॉ. निशंक व्यक्ति से कोई साक्षात परिचय नहीं है, पर मैं उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से उसी प्रकार परिचित हूँ जैसा परिचय हंस राज रहबर का प्रेमचंद से रहा होगा। उन्हें दूर से देखा जरूर है और यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि डॉ. निशंक ज़्यादातर पुराने हिंदी लेखकों की तरह दीन हीन नहीं एक दम कुलीन और भद्र दिखाई देते हैं।

साहित्यकार के रूप में निशंक के दो रूप हैं । एक तो कवि रूप ही है जहाँ कविता और निज देश एकाकार हो गए हैं। दूसरी ओर कथाकार निशंक हैं और इस रूप में वे अपने 'परिवेश के कथाकार' हैं। वे "जादुई यथार्थ" के स्थान पर "जमीनी यथार्थ" के पुरस्कर्ता हैं। यदि केवल दस मिनट में निशंक जी केप्रारंभिक कहानी संग्रह “बस एक ही इच्छा” की कहानियों पर चर्चा की जाए तो सबसे पहले यह कहना होगा कि यहाँ प्रस्तुत दर्जन भर कहानियाँ, कहानियाँ कम आप-बीती अधिक हैं। इन कहानियों में कथाकार के रूप में निशंक जी की उपस्थिति तो है ही, वे कई कहानियों में एक पात्र के रूप में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

किसी ने ठीक ही कहा था – We are just stories in the end. Just make it a good one. शेक्सपियर तो जीवन को ही किसी मूर्ख के द्वारा कही गई कहानी कह डालता है। कहानियाँ सर्वत्र हैं। हम ही कहानियाँ नहीं कहते, कहानियाँ भी हमें कहतीं हैं। यदि कहानियाँ सर्वत्र हैं तो हम भी इन कहानियों में सर्वत्र हैं। कहानी एक नहीं होती, कहानियाँ होती हैं। एक वह जो कहानीकार लिख कर हमें देता है और दूसरी वह जो उसने देखी होती है, सुनी होती है या स्वयं भोगी होती है।

अब एक कहानी को लें। “ बस एक ही इच्छा” कहानी में कहानी तो बस इतनी ही है कि होटल में काम करने वाला वेटर लड़का “मैं” को अपना दुख दर्द सुना देता है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह ‘मैं’ के साथ उसके उपनाम “पोखरियाल” के कारण ‘पहाड़ी’ होने से बादरायण संबंध मान लेता है। ‘मैं’ इस कहानी को इसलिए लिखता है क्योंकि वह इस संघर्षशील लड़के के आत्मविश्वास से प्रभावित होता है – बाबूजी, मेरी तो बस एक ही इच्छा है कि चाहे मैं जिस हाल में भी रहूँ किंतु अपने भाइयों को खूब पढ़ाऊँगा। इतना पढ़ाऊँगा कि वे एक दिन बहुत बड़े साहब बन जाएँ। हर कहानी में कोई न कोई इच्छा है जिसका कोई न पात्र किसी न किसी इच्छा प्राप्ति के लिए कर्मरत है। विक्रम जैसे पात्र आपको अपने इर्दगिर्द मिल जाएँगे । स्वार्थ का परमार्थ में परिवर्तन हो जाना इन पात्रों की विशेषता है।

मासूम चेहरा जो इस कथा का नायक है वह अब पाठक के स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हो जाता है। "उसने कहा था" के रचनाकार को तो जीवन में केवल तीन चार कहानियाँ लिखनी थीं इसलिए पहली कहानी में ही वे सब कुछ बाँच गए। "ग्यारह वर्ष का समय" लिखकर रामचंद्र शुक्ल इस राह से किनारा कर गए। पर युवक रमेश पोखरियाल ने "निशंक" बनकर संख्या की दृष्टि से प्रेमचंद के समकक्ष आ जाने का यत्न किया। दूसरी कहानी ‘मैं ओर तुम’ में ‘मैं’ का एक नाम है – शशांक । और तुम का नाम है –दीप्ति । शशांक दहेज रहित विवाह करना चाहता है। पर उसके भाई भाभी ही नहीं दीप्ति और उसके परिवार वाले भी मानते हैं कि "दहेज न देकर अपने आप को अपने रिश्तेदारों व समाज के बीच अपमानित महसूस कराना घाटे का सौदा होगा।" किसी को भी यह मंजूर नहीं। कथित आदर्शवादियों के बीच आदर्शवादी कथानायक अपनी दुर्गति पर खिन्न है और मेरे जैसा कुलीन पाठक सोचता है – मैंने अपनी शादी के समय चुप रहकर एक तरह से अच्छा ही किया। पहाड़ का यह आम व्यक्ति कैसे उदात्त व्यक्तित्व बन जाता है, अद्भुत है।

तीसरी कहानी है ‘कितना संघर्ष और’। इस कहानी में कथानायक है – रमेश । वह श्वेता नामक संघर्षशील लड़की की कहानी सुनाता है। पर मैं चौथी कहानी “संकल्प” पर बात करके अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा । इस कहानी में “मैं” का नाम “निशीथ” है और यहाँ तब के उभरते युवा कथाकार और शिक्षक रमेश पोखरियाल इस कहानी के द्वारा अपनी बनती और बदलती मनस्थिति का आभास देते हैं। आम व्यक्ति के हितों की बात करना, शोषितों के लिए जूझना उसे अच्छा लगने लगा था। समाज में फैली अराजकता, अव्यवस्था और दुराचार के खिलाफ उसके मन में भारी आक्रोश पैदा होता है। और फिर उसे वह मार्ग दिखाई देता है जिसे वह सहर्ष अपना लेता है । वह अपनी जन्मदात्री माता को अपना संकल्प प्रेषित कर देता है । वह अपना सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि को सौंपने का संकल्प करते हुए एक श्लोक पढ़ता है –

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम् ।
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ॥

(हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूँ।)

दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं – एक तो कथाकार कवि-हृदय है और दूसरे संवेदना के धरातल पर वह इतना आंदोलित है कि अभिव्यक्ति के लिए छटपटाहट अनुभव करता है इसलिए भाषाई उछलकूद के स्थान पर सहजता को शैली बनाने का प्रयत्न करता है। शिक्षक से शिक्षामंत्री तक के इस सफर में यह लेखकीय “संकल्प” रेखांकित किया जा सकता है , किया जाना चाहिए। आज इस कहानी को पढ़ना इस संकल्प को आत्मार्पित करना भी तो है। इसलिए यह रचना इन अर्थों में कालजयी कही जा सकती है। अब मैं और किसी कहानी का जिक्र न करके यह कहकर अपनी बात समाप्त करूंगा कि इस संग्रह की सब कहानियाँ उस समय की हैं जब कथाकार ने लिखना शुरू भर किया था। वह लगभग सभी कहानियों में “मैं” बनकर उपस्थित है।

कई बार भाषा-प्रयोग में "मूकता” जैसे शब्द चौंका देते हैं। वह किसी शायर या कवि को उद्धृत भी करता है तो अपनी तरह से और स्मृति के आधार पर । एक आलोचक ने विश्व-विख्यात कथाकार जेन ऑस्टिन की प्रारम्भिक रचनाओं को "ओपिन, अम्यूज्ड, ईज़ी इंटेलेक्चुयल" का लेखन कहा था। मैं भी इन प्रारम्भिक कथाओं "बस एक ही इच्छा और अन्य कहानियाँ" के रचनाकार को इसी तर्ज़ पर “सहज-पारिवारिक, देशानुरागी-चिंतक” कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आप शेष कहानियों को पढ़कर मेरे इस कथन की परीक्षा स्वयं करेंगे , यह मैं जानता हूँ। धन्यवाद।

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अंग्रेजी प्रोफेसर, अरबा मींच विश्वविद्यालय, इथियोपिया # आवास – 6-3-120/23, एनपीए कालोनी, शिवरामपल्ली, हैदराबाद – 500 052

प्रेमचंद्र जैन की कविताएँ













मध्यांतर

प्रेमचंद्र जैन की कविताएँ


फासला

आत्मा-आर्मात्मा

है एक ही

बीच दोनों के बहुत कम फासला है

फासला उतना कि जितना

आदमी से और उसकी छाँव से ही

या समझ लो यों कि –

जितना चंद्रमा और ज्योत्सना में

या कहो उतना कि जितना

इक नदी के पार से उस पार में है

ज्ञान-दर्शन-चरित बाल की नाव से

फासला यदि दूर हो जाए

तभी

हर आत्मा, बहिरात्मा, परमात्मा है।

 

अवचेतन मन

चाँदनी रात में भी

उमस जैसी प्यास है

ताप-संताप –

विरह-विदग्ध भी नहीं हूँ मैं

हर इंसान

अपने मन की बात जानता है

अनजाने, अनचाहे में ही

मन बहुत उदास है

समाधान नहीं होता – तो

सोचते-सोचते

खीझ उठता हूँ अपने पर ही

नींद लेने का होता विफल प्रयास है

प्यास बराबर बढ़ती है

प्रत्यक्ष नहीं कारण कुछ

तो क्या माँ लूँ?

अवचेतन मन का यह –

शाप है।
 

मैं चलता हूँ एक अकेला

प्रदत्त

सम्मानित मनुज से –

डायरी के पृष्ठ खाली

भर रहे मन को

अतुल आमोद से।

मैं अकिंचन

कर सकूँ उपयोग – इनका

सत्य से

तथ्य से और

दिल के दर्द से इनको भरूँ

अभाव से सद्भाव के ये पृष्ठ पूरे हों

नमन करता हूँ तुम्हें

विश्राम दो।



एक और अवधारणा

पूरा किया

एक और अध्याय

जिसका था उसको सौंपकर

चेहरे के बाल धुलवाए

हँसे –

दूसरों की हंसी

पेट भरकर मिल गई

खो गए लेकर किसी की नींद : आधी रात खासे

तुम नहीं आए –

अच्छा किया

दूसरा बिस्तर नहीं था


इष्ट फल

जागते-सोते

सदा ‘शिव’ हो

तुम्हारा और –

सबका

साध्य –

साधन –

इष्ट फल।


ध्रुव पौरुष

‘अज्ञेय' व्यक्तित्व

ध्रुव पौरुष

वेदना-तप्त

यातना-पूत

दृष्टा

युग-निर्माता

‘अज्ञेय’ को

जानने के लिए –

जिज्ञासा;

खोजना पड़ेगा


वह धरातल पर नहीं

‘तल’ में मिलता है।

 
नौकरी


नौकरी की है

मालिक की दया पर –

जो काम लिया

अनथक किया

मालिक का काम

माह के अंत में

मांगने पर दाम –

मिल गए तो खुश

नहीं तो उदास

बीवी के पास

खाने का घास
 

जनतंत्र

नारा समाजवाद का

दूध : गए-बछेड़े का

वोट हिंदुस्तानी का

नहीं पड़ा जहाँ पड़ना था

और ..

वही हुआ जो होना था

जातिवाद, भाई-भतीजावाद

खंड-खंड बिखर गए

समय की करवट से

फिर पिसेगी जनता

सुबह तक नई कांग्रेस और बढ़ेगी सर्वत्र

जीत-हार, हार-जीत का जनतंत्र।
 

रे कलियुग के देव

रे कलियुग के देव!

तुम्हारा काम भेंट पाने का

मानवता की बलि लेना

पर-छीन स्वयं खाने का

मनु ने भी आँसू पोंछे

जब दी गई मानवता

पर देवोचित्त प्रतिभा से

कब झुकी नहीं दानवता

साहित्यिक बन गए तो छोड़ो –

नोक-झोंक की आदत

लाओ तलवार कलम की

हो चोट, बचो भी साफ

कितने तांडव हो चुके

प्रलय के कितने झोंके आए

कुछ ही खुशहालों ने मिल –

बेहद बेहाल बनाए

हम मनु की हैं संतान

सृजन से करते हैं कल्याण

बढ़ेगा या जो नहीं रुका है

इतिहास कहे –

संहार सृजन के आगे सदा झुका है।

मरी स्मृति का पटल

आज है कुंद

न लेता साँस

वाष्प से गला हुआ वरुद्ध

मौत की छाया लहराई

कल का साहस का विश्वास

मौन सब करते हैं उपहास

यह है जग देखी रीति

शक्ति के मीत सभी भाई

न धन की शक्ति

कर्म की –

मन की शक्ति है

इसी पर सोता-खाता हूँ

इसी को रोज बजाता हूँ


मुझे पर्वत की इच्छा नहीं

यह बस शेष रहे राई।
 

प्रेम

सारीरिक संबंधों के रिश्ते

टूट ही जाते हैं – एक दिन

भावनाओं से जुड़ा प्रेम

अटूट होता है

लेकिन –

यह तुम्हें दर्शन की बात लगती है

क्योंकि

तुम्हारे मिकत भावना निर्मूल है

यह मेरा नसीब है

जिसे बदलना असंभव जैसा है

व्यर्थ की मृगतृष्णा है

चूँकि मैं जिस मिट्टी से बना हूँ –

वह रेतीली कतई नहीं है

अपने स्तर को गिराने का अहसास

अब कई बार हो चुका है

होता ही रहता है – और

आज तो प्रतिक्षण-प्रतिपाल हो रहा है

क्या मैं अपने को क्षणा कर लूँ

अथवा

आत्मदाह!
 

मैं आदमी हूँ

मैं आदमी हूँ

खाने के लिए जीता हूँ

जीने के लिए खाता हूँ

कौन जाने?

एक साथ कितने जीवन जीता हूँ

सुनाने के लिए –

नहीं कह पाऊँगा अपनी बात

नौकरी करता हूँ

ऑफिस के नाम से नहीं

घर के नाम से डरता हूँ

मरने को है नौकरी

या

नौकरी के लिए मारना है

कौन जाने – एक साथ

इसीलिए कहता हूँ –

इन जानवर हूँ –

खटता हूँ

टेबलेट सुलाती है

चक्की जगाती है

भूख चलाती है

आबकी अपनी –

अपनी कहानी है।

 

अहसास

दूसरों की व्यथा के अहसास से -

निज मन का व्यथित हो जाना

अहेतुक द्वित होना भी;

शोषक की व्यथा भिन्न है और विकट भी;

इसी विकटता का, दो टूक उत्तर –

साहित्यकार का दायित्व है!


नियति

शिशु के मन सम मन मेरा

मुकरवत् हृद है

वज़्रांगलोह सम देह

कुटिलता कम है

सब कुछ झिलमिल हो जाता

दीपक लौ जब जलती है

पर अंधकार का मोह

पुनः डस लेता

यह और नहीं कुछ मित्र!

मात्र नियति है।