शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

गोइन्का पुरस्कार/सम्मान की घोषणा

रमेश गुप्त नीरद 
कमला गोइन्का फाउण्डेशन के प्रबंध न्यासी श्री श्यामसुन्दर गोइन्का जी ने एक प्रेस विज्ञप्ति द्वारा सूचित किया है कि कमला गोइन्का फाउण्डेशन द्वारा दक्षिण भारत के सर्वश्रेष्ठ हिंदी सेवियों के लिए घोषित "बालकृष्ण गोइन्का हिन्दी साहित्य सम्मान" से इस वर्ष चेन्नई निवासी गणमान्य हिंदी' साहित्यकार श्री रमेश गुप्त 'नीरद' जी को सम्मानित किया जाएगा।

पवित्रा अग्रवाल 

कमला गोइन्का फाउण्डेशन द्वारा मूल हिंदी कृति के लिए घोषित रु.31000/- रुपये का "बाबूलाल गोइन्का हिंदी साहित्य पुरस्कार" इस वर्ष हैदराबाद निवासी श्रीमती पवित्रा अग्रवाल जी को उनकी मूल हिंदी कृति "उजाले दूर नहीं" के लिए दिया जाएगा।

डॉ. वी. पद्मावती 



संग-संग हिंदी से तमिल या तमिल से हिंदी में अनूदित साहित्य के लिए घोषित रु.31000/- रुपए का "बालकृष्ण गोइन्का अनूदित साहित्य पुरस्कार" इस वर्ष कोयम्बतूर की निवासी डॉ. वी पद्मावती जी को दिया जाना निर्णीत हुआ है।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

रामेश्वर सिंह के हैदराबाद आगमन पर स्नेह मिलन समारोह संपन्न


एम. वेंकटेश्वर और गुर्रमकोंडा नीरजा सहित 7 लेखकों को 
अंतरराष्ट्रीय हिंदी भास्कर, 2 को हिंदी रत्नाकर तथा
 रामेश्वर सिंह को संस्कृति-सेतु सम्मान प्रदत्त


आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के गगन विहार, हैदराबाद स्थित सभाकक्ष में संपन्न सम्मान समारोह में मास्को स्थित रूसी-भारतीय मैत्री संघ ‘दिशा’ के संस्थापक डॉ. रामेश्वर सिंह को ‘साहित्य मंथन संस्कृति-सेतु सम्मान’ प्रदान करते हुए
 तेलुगु विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. एन. गोपि.
 साथ में (बाएँ से) डॉ. अनिल कुमार सिंह, डॉ. एम. वेंकटेश्वर, डॉ. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. पूर्णिमा शर्मा, डॉ. आर. जयचंद्रन,
डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा  डॉ. बाबू जोसफ एवं डॉ. प्रदीप कुमार सिंह.


हैदराबाद, 20 अक्टूबर, 2016 (मीडिया विज्ञप्ति).

‘’हिंदी केवल भारत की ही नहीं विश्व की बेहद शक्तिशाली भाषा है जो बहुत बड़े जन-समुदाय को तरह-तरह की भिन्नताओं के बावजूद जोड़ने का काम करती है. मैंने देश-विदेश की अपनी साहित्यिक यात्राओं में कभी भी अकेलापन अनुभव नहीं किया है क्योंकि हिंदी मेरे साथ हमेशा रहती है. आज जब विश्व-पटल पर भारत और रूस के मैत्री संबंध नई दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे समय भारतीय-रूसी मैत्री संघ ‘दिशा’ के संस्थापक डॉ. रामेश्वर सिंह का हैदराबाद में सम्मान तथा उनकी संस्था की ओर से भारत के कुछ हिंदी सेवियों का सम्मान हिंदी के माध्यम से परस्पर मैत्री को मजबूत बनाने की खातिर एक सराहनीय कदम है.’’

ये विचार अग्रणी तेलुगु साहित्यकार प्रो. एन. गोपि ने रूसी-भारतीय मैत्री संघ 'दिशा' (मास्को), साहित्यिक-सांस्कृतिक शोध संस्था (मुंबई) तथा 'साहित्य मंथन' (हैदराबाद) के संयुक्त तत्वावधान में आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के सभाकक्ष में संपन्न 'स्नेह मिलन एवं सम्मान समारोह' की अध्यक्षता करते हुए प्रकट किए.

इस अवसर पर मास्को से आए डॉ. रामेश्वर सिंह को श्रीमती लाड़ो देवी शास्त्री की पावन स्मृति में प्रवर्तित ''साहित्य मंथन संस्कृति-सेतु सम्मान : 2016'' प्रदान किया गया. अपने कृतज्ञता भाषण में डॉ. रामेश्वर सिंह ने कहा कि कोई भी भाषा अपने बोलने वालों के दम पर विकसित होती है और विश्व भर में हिंदी अपने प्रयोक्ताओं की बड़ी संख्या तथा अपनी सर्व-समावेशी प्रकृति के कारण निरंतर विकसित हो रही है, अतः आने वाले समय में सांस्कृतिक से लेकर कूटनैतिक संबंधों तक के लिए हिंदी को बड़ी भूमिका अदा करनी है.

‘दिशा’ और ‘शोध संस्था’ की ओर से डॉ. आर. जयचंद्रन (कोचिन) और डॉ.मुकेश डी. पटेल (गुजरात) को ''हिंदी रत्नाकर अंतरराष्ट्रीय सम्मान'' से तथा डॉ. बाबू जोसेफ (कोट्टायम), डॉ. एम. वेंकटेश्वर (हैदराबाद), डॉ. अनिल सिंह (मुंबई), डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (हैदराबाद), डॉ. वंदना पी. पावसकर (मुंबई), डॉ. सुरेंद्र नारायण यादव (कटिहार) और डॉ. कांतिलाल चोटलिया (गुजरात) को ''हिंदी भास्कर अंतरराष्ट्रीय सम्मान'' से अलंकृत किया गया. पुरस्कृत साहित्यकारों ने हिंदी भाषा के प्रति अपने पूर्ण समर्पण का संकल्प जताया.

कार्यक्रम के प्रथम चरण में आगंतुक और स्थानीय साहित्यकारों के परस्पर परिचय के साथ ‘चाय पर चर्चा’ का अनौपचारिक दौर चला तथा दूसरे चरण में सम्मान समारोह संपन्न हुआ. आरंभ में स्वस्ति-दीप प्रज्वलित किया गया तथा कवयित्री ज्योति नारायण ने वंदना प्रस्तुत की. साहित्यिक-सांस्कृतिक शोध संस्था के सचिव डॉ. प्रदीप कुमार सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया और विश्व-मैत्री के लिए हिंदी की संभावित भूमिका पर विचार प्रकट किए. 

अपनी सक्रिय भागीदारी और उपस्थिति से चर्चा-परिचर्चा को जीवंत बनाने में डॉ. बी. सत्यनारायण, डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. रोहिताश्व, डॉ. करण सिंह ऊटवाल, वुल्ली कृष्णा राव, डॉ. बी, बालाजी, डॉ. मंजु शर्मा, डॉ. बनवारी लाल मीणा, प्रभा कुमारी, मो. आसिफ अली, प्रवीण प्रणव, शशि राय, भंवर लाल उपाध्याय, जी. परमेश्वर, पवित्रा अग्रवाल, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, डॉ. राजेश कुमार, संपत देवी मुरारका, डॉ. मोनिका शर्मा, वर्षा, डॉ. सुनीला सूद, डॉ. राजकुमारी सिंह, टी. सुभाषिणी, संतोष विजय, अशोक तिवारी, आलोक राज, शरद राज, श्रीधर सक्सेना, श्रीनिवास सावरीकर, डॉ. रियाज़ अंसारी, मदन सिंह चारण और डॉ. पूर्णिमा शर्मा आदि ने महत्वपूर्ण योगदान किया.

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

[शताब्दी समारोह संपन्न] अखंड हिंदी भक्ति के प्रतीक वेमूरि आंजनेय शर्मा

हैदराबाद, 10 नवंबर,2016 [महानवमी].  श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट  ने आज रवींद्र भारती सम्मलेन कक्ष में हिंदी सेवी वेमूरि आंजनेय शर्मा  शताब्दी समारोह का आयोजन किया. समारोह की अध्यक्षता डॉ. के. शिवा रेड्डी ने की तथा मुख्य अतिथि मंडलि बुद्ध प्रसाद रहे. विशेष वक्ता के रूप में डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने वेमूरि आंजनेय शर्मा के व्यक्तित्व और अवदान पर प्रकाश डाला. प्रस्तुत है उनका  वक्तव्य जो इस अवसर पर प्रकाशित और लोकार्पित ''शतजयंती विशेषांक'' में सम्मिलित है.  

जन्मशती के संदर्भ में वेमूरि आंजनेय शर्मा जी की मानसिक छवि मेरे समक्ष आज अखंड हिंदी भक्ति के विग्रह के रूप में उभरती है. पीढ़ियाँ उन्हें राष्ट्रभाषा के ऐसे समर्पित साधक के तौर पर याद करेंगी जिन्होंने अपना सारा जीवन हिंदी की सेवा के लिए समर्पित कर दिया. अपनी किशोरावस्था में वे स्वतंत्रता आंदोलन के अंग के रूप में स्वभाषा और स्वदेशी की ओर आकृष्ट हुए. उस काल में एक ओर तो आंध्र प्रदेश में हिंदी को तुरुक भाषा कहकर हिकारत की नज़र से देखा जाता था तथा दूसरी ओर उसे सीखना-सिखाना राजद्रोह के समान वर्जित कर्म था. शर्मा जी ने इन दोनों ही बातों की परवाह नहीं की और न केवल हिंदी सीखी बल्कि उसके प्रचार में भी सक्रियता से संलग्न हो गए. राष्ट्रभाषा प्रचार के प्रति उनकी निष्ठा के कारण ही उन्हें व्यावहारिक भाषा के नैसर्गिक वातावरण में हिंदी अध्ययन के लिए उत्तर भारत भेजा गया, जहाँ से उन्होंने हिंदी के मुहावरे पर मातृभाषावत अधिकार अर्जित किया. इस वातावरण के प्रभाव से वे अटल हिंदीव्रती बन गए और अपने बाद आने वाले असंख्य हिंदी सेवियों व प्रचारकों के प्रेरणास्रोत भी. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के बीच परस्पर आदान-प्रदान के लिए जो वे आजीवन सचेष्ट रहे, इसके पीछे भी उनके इसी काल के अनुभव विद्यमान थे.

मैंने वेमूरि आंजनेय शर्मा को पहली बार यों तो दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास में प्राध्यापक पद के अपने साक्षात्कार के समय देखा था. उन्होंने ही मुझसे यह प्रश्न किया था कि मैं आसूचना ब्यूरो छोड़कर सभा में क्यों आना चाहता हूँ. पर तब मुझे उनका नाम और पद ज्ञात न था. जब 15 मार्च, 1990 की सुबह मैं कार्यभार ग्रहण करने के उद्देश्य से सभा में पहुँचा तो द्वारपाल मुझे कुल सचिव के आवास पर ले गया और जिस विभूति ने वहाँ सहज घरेलू शिष्टाचार के साथ मेरा स्वागत किया वह शर्मा जी थे. कुछ ही मिनट की मुलाकात में उन्होंने यह दर्शा दिया कि उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुल सचिव के रूप में उनकी पहली चिंता शिक्षा के स्तर और भाषा के सम्यक व्यवहार की है. वे सच्चे अर्थ में भारतीय थे और उत्तर-दक्षिण या हिंदी-अहिंदी के भेदभाव से घृणा करते थे. वे ऐसे ही विचार वाले शिक्षकों को चाहते थे. उँगलियों से बाँसुरी सी बजाते हुए बोले थे – हमने तो विशेषज्ञों से कह दिया था कि सबसे उत्तम कैंडीडेट चुनकर हमें दें; हम कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे. विद्वत्ता का वे ह्रदय से सम्मान करते थे और आयु-भेद की सारी सीमाओं को लांघकर लघुतम व्यक्ति की भी सही बात को सहर्ष स्वीकार करते थे. अफ़सोस की बात है कि उनके जैसा उदार राष्ट्रीय सोच अब वहाँ नहीं रहा! 

वेमूरि आंजनेय शर्मा दिग्गज विद्वान होते हुए भी स्वयं को सदा विद्यार्थी समझने वाले आदर्श के रूप में भी याद आते हैं. पहले ही दिन उन्होंने मुझे ‘तमिल स्वयंशिक्षक’ पुस्तक दिखाते हुए बताया था कि कैसे वे ज़रुरत पड़ने पर उसका उपयोग करते हैं. उनके साधारण पहनावे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के ज़माने के संस्मरण सुनाते जाने से यह भ्रम होने की पूरी गुंजाइश थी कि वे अतीत में ठहरे हुए होंगे. लेकिन ऐसा था नहीं. उनके निकट जाने पर मुझे पता चला कि उनका व्यक्तित्व तो सतत प्रवाहशील सदानीरा नदी जैसा था. वे अधुनातन ज्ञान-विज्ञान से सीधे जुड़े हुए थे. अस्तित्ववाद के सैद्धांतिक और साहित्यिक पक्षों से उनका गहरा परिचय था. इस विषय को उन्होंने मौलिक लेखन और अनुवाद द्वारा भी तेलुगु पाठकों तक पहुँचाया. आज भी ऐसे ‘महापुरुषों’ की कमी नहीं जो कंप्यूटर और प्रौद्योगिकी से अछूतों सा बरताव करते हैं; लेकिन शर्मा जी भारत में कंप्यूटर की चौथी पीढी के अवतरण के ज़माने से ही उसे हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए सक्षम बनाने के लिए उद्यमशील थे. वे इस बारे में उत्साही और आशावान थे कि शायद देशभर में हिंदी माध्यम से कंप्यूटर की उच्चस्तरीय शिक्षा (एम सी ए) आरंभ करने की चुनौती सभा ने उनके नेतृत्व में सफलतापूर्वक स्वीकार की. एक और चुनौती उन्होंने एम ए हिंदी का भाषाविज्ञान प्रधान पाठ्यक्रम चलाने की भी उस वक़्त स्वीकार की थी जब अनेक पोंगापंथी संस्थाओं को ऐसा करना पागलपन लगता था. शर्मा जी इन चुनौतियों को स्वीकार सके क्योंकि उन्हें भाषा और शिक्षा के उस भविष्य का अनुमान था जिसमें प्रौद्योगिकी और प्रयोजनमूलकता को केंद्रीय महत्त्व मिलने वाला था. अतः कहना ही होगा कि वेमूरि आंजनेय शर्मा क्रांतदृष्टा भाषाचिंतक और शिक्षाविद थे.

मुझे याद आता है कि एक बार शर्मा जी ने हिंदी प्रचार और मीडिया के संबंध की चर्चा छिड़ने पर बताया था कि हिंदी प्रचार के आरंभिक दशकों में नाटक जैसे परंपरागत मीडिया का भी उपयोग किया जाता था और कि वे स्वयं ऐसी नाटक मंडलियों से जुड़े थे और कई नाटकों में उन्होंने अभिनय भी किया था. हिंदी को राजभाषा के रूप में अखिल भारतीय स्वीकृति मिलने के लिए वे संवैधानिक व्यवस्था को नाकाफी मानते थे. साथ ही, वे चाहते थे कि सारे देश में त्रिभाषा सूत्र ‘ईमानदारी’ और सख्ती से लागू किया जाए. इसके अलावा, वे अनुवाद के साथ ही हिंदीतर भाषियों के सृजनात्मक लेखन को भी हिंदी साहित्य में सही (हाशिए पर नहीं) स्थान दिए जाने की माँग के समर्थक थे. 

अंततः इतना ही कि गंगाशरण सिंह और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के संस्मरण सुनाते समय शर्मा जी की गद्गद हो उठते थे; आज शर्मा जी का स्मरण करते हुए मैं उसी भाव की अनुभूति कर रहा हूँ. 



- डॉ. ऋषभदेव शर्मा, 
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद – 500 004.

शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

साठये महाविद्यालय में द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न


26-27 सितंबर, 2016 को विले पार्ले, मुंबई स्थित साठये महाविद्यालय में संपन्न द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में इसके केंद्रीय विषय के विविध आयामों को समटते 528 पृष्ठीय ग्रंथ ''भूमंडलीकरण  के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा'' का लोकार्पण करते हुए (बाएँ से) डॉ. सिराजुद्दीन एस. नुर्मातोव (उज्बेकिस्तान), डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर (चीन), डॉ. रामकिशोर शर्मा (बीज भाषणकर्ता), डॉ. रामेश्वर सिंह (रूस), डॉ. सुरेश चंद्र शुक्ल (नार्वे), डॉ. कविता रेगे (सत्र अध्यक्ष), डॉ. विद्योत्तमा कुंजल (मारीशस), डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह (अयोध्या), डॉ. प्रदीप कुमार सिंह (संयोजक व संपादक) एवं डॉ. ऋषभदेव शर्मा (संचालक).


26-27 सितंबर, 2016 को विले पार्ले, मुंबई स्थित साठये महाविद्यालय में संपन्न द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में इसके केंद्रीय विषय के विविध आयामों को समटते 528 पृष्ठीय ग्रंथ ''भूमंडलीकरण  के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा'' का लोकार्पण करते हुए (बाएँ से) डॉ. सिराजुद्दीन एस. नुर्मातोव (उज्बेकिस्तान), डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर (चीन), डॉ. रामकिशोर शर्मा (बीज भाषणकर्ता), डॉ. रामेश्वर सिंह (रूस), डॉ. सुरेश चंद्र शुक्ल (नार्वे), डॉ. कविता रेगे (सत्र अध्यक्ष), डॉ. विद्योत्तमा कुंजल (मारीशस), डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह (अयोध्या), डॉ. प्रदीप कुमार सिंह (संयोजक व संपादक) एवं डॉ. ऋषभदेव शर्मा (संचालक).