शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

[नई पुस्तक] ''हिंदी भाषा के बढ़ते कदम'' : ऋषभदेव शर्मा

हिंदी भाषा के बढ़ते कदम / ऋषभदेव शर्मा /
 आईएसबीएन 978-81-89531-23-2 /
पहला संस्करण : 2015 /
304 पृष्ठ  / 650 रूपए : सजिल्द /
तेज प्रकाशन, 98, प्रथम तल, निकट कमर्शियल स्कूल, दरियागंज,
 नई दिल्ली-110002 / फोन : 011-65285328 / ईमेल :  tejprakashan@gmail.com


शुभाशंसा

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के आचार्य तथा अध्यक्ष डॉ. ऋषभदेव शर्मा से भेंट का सुयोग मेरे लिए अत्यंत सुखद रहा. मैं 28, 29, 30 मार्च को इस प्रतिष्ठित संस्थान में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में अपने आदरणीय 'गुरुजी' डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ के साथ जब 'उद्घाटन-सत्र' के मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुआ, तो डॉ. ऋषभदेव शर्मा की बहुमुखी प्रतिभा और आकर्षक संचालन को देख कर गद्-गद् हो उठा. गुरुजी डॉ. ‘अरुण’ से मैं जान चुका था कि डॉ. शर्मा मूलतः 'खतौली' के हैं और लगभग तीन दशकों से दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के ध्वजवाहक बने हुए हैं.

संगोष्ठी के पश्चात मुझे डॉ. ऋषभदेव शर्मा के सद्य प्रकाशित होने वाले निबंध संकलन "हिंदी भाषा के बढ़ते कदम" की पांडुलिपि देखने का सुअवसर भी मिला. मुझे यह देख कर प्रसन्नता हुई कि डॉ. शर्मा ने अपनी साधना को प्रभावशाली ढंग से निबंधों में संजो कर जिज्ञासुओं तक पहुँचाने का प्रयास किया है. उनके इस ग्रंथ के दूसरे खंड के कुछ निबंधों को देख कर तो मैं अत्यंत प्रभावित हूँ और कह सकता हूँ कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा के ये अनुभव उत्तर भारत के लोगों को भी दिशा देंगे. मैं इस ग्रंथ को प्रकाशित रूप में पढ़ने के लिए लालायित हूँ. मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिंदी की समृद्धि में उनके इन निबंधों से बहुत सकारात्मक सहायता मिलेगी.

- डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’
कवि, कथाकार एवं संस्कृतिवेत्ता,
पूर्व मुख्य मंत्री, उत्तराखंड एवं 
सांसद, हरिद्वार

दो शब्द

समर्पित अक्षर-साधक एवं विद्वान डॉ. ऋषभ देव शर्मा द्वारा लिखित निबंधों के संग्रह "हिंदी भाषा के बढ़ते कदम" को मैंने मनोयोगपूर्वक देखा और पढ़ा है. मैं बेझिझक कह सकता हूँ कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अपने इन निबंधों में हिंदी भाषा को लेकर अपना जो सुदीर्घ चिंतन दिया है, वह हिंदी और हिंदी की अस्मिता से जुड़े अनेक प्रश्नों के समाधान तलाशने में जिज्ञासुओं की भरपूर मदद करेगा. उत्तर भारत से लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण भारत में हिंदी के शिक्षण की अपनी महत्वपूर्ण यात्रा पर निकले ‘तेवरी-आंदोलन’ के सूत्रधार डॉ. ऋषभदेव ने अपने इन निबंधों में उन अनेक भ्रांतियों का तर्कपूर्ण निवारण किया है, जिन्हें उत्तर और दक्षिण भारत में संभवतः ‘राजनैतिक साज़िश’ के तहत निरंतर फैलाया जाता रहा है और हिंदी को फलने-फूलने से रोका जाता रहा है.

‘हिंदी का हिंडोला’ खंड में ‘जनभाषा की अखिल भारतीयता’ शीर्षक से लिखा गया निबंध मेरी इस धारणा को संपुष्ट करेगा और पाठकगण अनुभव करेंगे कि विद्वान लेखक हिंदी के 'अखिल भारतीय' महत्व को किस तार्किक दृष्टि से रखते हैं कि सारी की सारी भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है तथा हिंदी के अखिल भारतीय स्वरूप को स्वीकार करने में सहज ही कोई बाधा शेष नहीं बचती. ऐसा ही विचारोत्तेजक और प्रेरक संक्षिप्त निबंध है ‘इंग्लिश हैज़ नो प्लेस’, जिसमें भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में ‘अंग्रेज़ी’ की असमर्थता और अधूरेपन को ऐतिहासिक संदर्भ में उजागर किया गया है.

डॉ. ऋषभदेव के इस मूल्यवान ग्रंथ का ‘दखिन पवन बहु धीरे’ खंड निस्संदेह बेहद प्रासंगिक और अर्थवान है, जिसमें उन्होंने ‘दक्खिनी हिंदी’ के प्रदेय और सौष्ठव पर प्रकाश डालने के अलावा जहाँ 'दक्षिण' भारत में हिंदी की स्वीकार्यता और बढ़ते कदमों का प्रामाणिक विवेचन किया है, वहीं ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषा-वैज्ञानिक आधारों पर हिंदी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं के अंतस्संबंधों को भी बखूबी परखने का प्रयास किया है.

इसी प्रकार ‘संप्रेषण की शक्ति’ खंड में संकलित निबंधों में जहाँ हिंदी की ‘प्राण-शक्ति’ अर्थात ‘संप्रेषण-शक्ति’ की विवेचना हुई है, वहीं आधुनिक दृष्टि और वैश्विक परिदृश्य के अनुसार हिंदी की उपयोगिता को रेखांकित करने का सजग प्रयास देखा जा सकता है. इस खंड के निबंधों में हिंदी को वर्तमान ‘बाज़ारवाद’ के संदर्भ में देखने का जो प्रयास किया गया है, उसके आधार पर डॉ. ऋषभदेव शर्मा का यह कार्य स्तुत्य ही माना जाएगा क्योंकि इन निबंधों से हिंदी को 'कंप्यूटर' के साथ-साथ आधुनिकतम संचार माध्यमों के लिए 'सक्षम' सिद्ध करने में वे नितांत सफल रहे हैं. 

मुझे पूर्ण आशा और विश्वास है कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा के इन सुचिंतित निबंधों का हिंदी-जगत में भरपूर स्वागत होगा और इनसे हिंदी की अभिवृद्धि भी निश्चित रूप से होगी. मैं अपनी हार्दिक मंगलकामनाओं के साथ डॉ. ऋषभदेव शर्मा का अभिनंदन करता हूँ.

- डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ’अरुण’ 
पूर्व प्राचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष,
बी.एस.एम. कॉलेज, रुड़की.
आवास : 74/3, न्यू नेहरु नगर,
रुड़की-247667

भूमिका 

यह निर्विवाद सत्य है कि भारत बहुभाषी और संस्कृतिबहुल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. इस देश में जनसंख्या की विशालता के साथ साथ देशवासियों की अपनी मातृभाषाओं और उनके साथ शताब्दियों से बँधी हुई सांस्कृतिक विरासत से कोई जन समुदाय अलग नहीं होना चाहता. भाषिक तथा सांस्कृतिक बहुवचनीयता इस देश की हजारों वर्षों में स्वत:निर्मित परंपरा है. इस परंपरा को सुदृढ़ एवं सुरक्षित बनाए रखते हुए वर्तमान स्थितियों में राष्ट्रीय संदर्भ में देश की बहुभाषिक स्थिति के मध्य, संविधान में राजभाषा के रूप में परिभाषित और निर्वचित ‘हिंदी’ की स्वीकार्यता पर आज तक भी टंका हुआ प्रश्नचिह्न चिंता का विषय है. इसे दिनोंदिन एक समस्या के रूप में जटिल से जटिलतर बनाया जाना और भी चिंतनीय है. हिंदी का त्रिआयामी स्वरूप (राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्कभाषा) समूचे देश में बिना किसी विवाद एवं पूर्वाग्रह के जनमानस को स्वीकार्य होना चाहिए किंतु संयोग से हम इस लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सके हैं. शिक्षा, कामकाज और बोलचाल के स्तर पर अंग्रेजी बनाम हिंदी का भीतरी और बाहरी द्वंद्व जगजाहिर है. इस गतिरोध को दूर करने के प्रयास शिक्षाविदों और भाषाविदों के साथ साथ संस्कृतिकर्मियों द्वारा भी जारी हैं. इसी गतिरोध को दूर करने की दिशा में सुप्रसिद्ध भाषा एवं शिक्षाविद डॉ.ऋषभदेव शर्मा का प्रस्तुत ग्रंथ ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ एक महत्वपूर्ण अभियान है . 

ऋषभदेव शर्मा ने अपने सृजनशील लेखन एवं प्रखर समालोचनात्मक चिंतन दृष्टि से साहित्य जगत में विशेष जगह बनाई है. ‘तेवरी’ काव्यांदोलन के प्रणेता, रागात्मक संवेदनाओं के रसमय कवि और भारतीय साहित्य के समर्पित अध्येता के रूप में इन्होंने ख्याति अर्जित की है. भाषा, साहित्य, संस्कृति और शिक्षा लेखक की अभिरुचि, सृजन एवं चिंतन के विशेष क्षेत्र हैं. वे सृजनशील लेखन के साथ साथ समीक्षात्मक एवं आलोचनात्मक साहित्य की रचना में सतत सक्रिय रहे हैं. प्रस्तुत कृति ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ हिंदी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध में लेखक की निर्बाध क्रियाशीलता का ही परिणाम है. 

छह खंडों में सुनियोजित यह ग्रंथ हिंदी भाषा के विकास एवं उसके अनुप्रयोग की वर्तमान चुनौतियों को विभिन्न कोणों से विश्लेषित करता है. लेखक द्वारा रचित हिंदी भाषा केंद्रित चिंतनपरक और विश्लेषणात्मक निबंधों का यह संग्रह भाषा-प्रौद्योगिकी, भाषा चिंतन, भाषिक संप्रेषणीयता, भाषिक प्रयोजन तथा भारतीयता के संदर्भ में महत्वपूर्ण वैचारिक भावभूमि को निर्मित करता है. ग्रंथ में संकलित लेख आलोचनात्मक निबंध शैली में लिखे गए हैं जो लेखक की हिंदी भाषा के विकास की गतिमान दिशाओं की सूक्ष्म पड़ताल की क्षमता को रेखांकित करते हैं. हिंदी भाषा एवं उसके अनुप्रयोग की बढ़ती हुई उपभोक्तावादी जरूरतों के साथ साथ हिंदी के उपयोग की अपरिहार्यता को भी वे बलपूर्वक स्थापित करते हैं. अंग्रेजी भाषा से हिंदी की कभी न खत्म होने वाली सत्ता–पोषित प्रतिद्वंद्विता को जिस प्रतिबद्धता के साथ लेखक ने अपने ग्रंथ के ‘हिंदी का हिंडोला’ खंड में प्रस्तुत किया है, वह द्रष्टव्य है. लेखक की पैनी और धारदार आलोचनात्मक शैली इन निबंधों को रुचिकर बनाती है और इन्हें वैचारिक शुष्कता से बचाती है. इस ग्रंथ में समाविष्ट लेख, हिंदी भाषा और भारतीय जनमानस के अंतस्संबंधों को पर्याप्त प्रमाणों के साथ सुस्पष्ट करते हैं. अंग्रेज सरकार द्वारा सन् 1904 में जारी राजकीय आदेश ‘इंग्लिश हैज़ नो प्लेस‘ एक महत्वपूर्ण प्रमाण है जो यह सिद्ध करता है कि अंग्रेजी को भारतीय जीवन शैली का अपरिहार्य अंग बनाने वाले अंग्रेज़ नहीं बल्कि भारतीय सत्ताधारी राजनयिक ही थे. लेखक ने संविधान में उल्लिखित हिंदी एवं अन्य भाषाओं से संबंधित अनुच्छेदों में कार्यान्वयन के स्तर पर व्याप्त अंतर्विरोधों की भी विश्लेषणात्मक व्याख्या की है. वे संविधान में व्याप्त उन गतिरोधकों की ओर विशेष ध्यान दिलाते हैं जो व्यावहारिक स्तर पर हिंदी के क्रियाशील होने में बाधक बने हुए हैं. लेखक की निर्द्वंद्व तथा पारदर्शी व्याख्याएँ इस विषय को ठोस निर्णयात्मक दिशा की ओर अग्रसर करने में सहायक हैं. प्रकारांतर से हिंदी भाषा के संवर्धन के लिए विदेशों में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलनों की सार्थकता पर भी लेखक ने ध्यानाकर्षक प्रकाश डाला है जो कि बहस का विषय है. यही नहीं, लेखक ने हिंदी भाषा की राष्ट्रीय अस्मिता के संबंध में सरकार की अस्पष्ट नीतियों की ओर भी संकेत किया है. 

‘दखिन पवन बहु धीरे’ खंड में लेखक ने दक्खिनी हिंदी की परंपरा और उसमें विकसित सूफी साहित्य को अपनी मौलिक शोधपरक दृष्टि से विश्लेषित किया है. दक्षिण भारत में हिंदी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की समस्याओं को लेखक ने स्वानुभव के आधार पर भाषाविदों एवं शिक्षाविदों के चिंतन हेतु वास्तविक तथ्यों सहित प्रस्तुत किया है. इस प्रकार भारतीय भाषाओं के मध्य हिंदी की समावेशी और संबंधकारक भूमिका को स्वीकार्य बनाने का प्रयास लेखक ने तार्किक दक्षता के साथ किया है. 

‘संप्रेषण की शक्ति’ खंड की वैचारिकी वर्तमान संदर्भ में विभिन्न प्रकार्यात्मक आवश्यकताओं के लिए हिंदी भाषा की सक्षमता, परिपक्वता और तत्परता को सिद्ध करती है. इस खंड के लेख संचार माध्यमों में हिंदी की वृद्धिमान लोकप्रियता तथा बाजार की आवश्यकताओं एवं भूमंडलीकरण की उपभोक्तावादी संस्कृति को संपोषित करती हुई हिंदी के प्रकार्यात्मक स्वरूप को पुष्ट करते हैं. वर्तमान मीडिया में हिंदी की मजबूत स्थिति की ओर लेखक ने इशारा किया है. आज मीडिया में हिंदी की माँग और उसका अधिकाधिक उपयोग बाजार की विवशता है. हिंदी का प्रयोग बाजार की अर्थ नीति का नियामक हो चुका है. इस स्थिति को लेखक ने दृढ़ता से प्रस्तुत किया है, जो कि हिंदी के वर्चस्व को बल प्रदान करता है. 

वर्तमान मीडिया और बाजार की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ का क्षेत्र है. इस विषय की जटिलता को साधकर लेखक ने ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ के स्वरूप को हिंदी के संदर्भ में न केवल स्पष्ट किया है अपितु उसके अनुप्रयोग के विभिन्न आयामों पर प्रचुर मात्रा में प्रकाश डाला है. सोशल मीडिया (फेसबुक, वाट्स ऐप, ब्लॉग, ट्विटर) में आज हिंदी का प्रयोग लोकप्रिय हो चुका है. कंप्यूटर साधित हिंदी आज उपर्युक्त सोशल मीडिया स्थलों (साइट) में सरल, संक्षिप्त तथा आशु भाषिक प्रतीकों एवं संकेतों एवं मनभावन प्रयुक्तियों के साथ प्रयोग में लाई जा रही है. लेखक स्वयं एक सक्रिय और जागरूक ब्लॉगर एवं सोशल मीडियाकार हैं. स्वयं सोशल मीडिया में हिंदी के प्रमुख प्रयोक्ता हैं. सोशल मीडिया में उनकी सक्रिय सहभागिता इन लेखों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. 

हिंदी भाषा शिक्षण के विविध आयामों को लेखक ने अपने निबंधों में प्रमुख स्थान दिया है. अन्य भाषा और द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषा शिक्षण लेखक के शोधपरक अध्ययन का विशेष क्षेत्र है. इन विषयों की सार्थकता को उन्होंने कई निबंधों में व्यक्त किया है. भारत की बहुभाषिकता के संदर्भ में अनुवाद की भूमिका को लेखक ने अपने वैचारिक निबंधों में स्पष्ट किया है जो कि पाठकों को अनुवाद की आवश्यकता के प्रति सजग बनाता है. भाषा, साहित्य और संस्कृति के अंतस्संबंधों को शिक्षा से संबद्ध कर ‘संरक्षण के निमित्त’ खंड में लेखक ने एक नवीन अंतर-अनुशासनिक अध्ययन के क्षेत्र को निरूपित किया है. ‘भाषा ही संस्कृति की वाहिका होती है’ इस कथन को सिद्ध करने हेतु लेखक ने स्वाध्याय से अपनी विशिष्ट चिंतन शैली में संस्कृति के उन्नयन में भाषा की भूमिका और उसकी संप्रेषण शक्ति को सिद्ध किया है. 

ग्रंथ का अंतिम खंड ‘भाषा चिंतन’ पर आधृत है जो कि लेखक की वैचारिक विविधता को दर्शाता है. हिंदी भाषा चिंतन विषयक लेखन में लेखक ने हिंदी भाषा की अनमोल विरासत को भारतीयता की भावना और संस्कृति के संरक्षण एवं विस्तार के लिए अनिवार्य माना है. इस खंड में सम्मिलित आलोचनात्मक लेख भाषा चिंतन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. इन निबंधों में लेखक ने कृष्णा सोबती, हजारी प्रसाद द्विवेदी और कैलाशचंद्र भाटिया की भाषिक दृष्टि की विश्लेषणात्मक व्याख्या की है जो कि लीक से हटकर नवीन भावबोध कराते हैं. 

वस्तुत: लेखक ने इस ग्रंथ में हिंदी भाषा एवं उसके अनुप्रयोग के विभिन्न पक्षों पर अपनी विविधोन्मुखी वैचारिक आलोचना दृष्टि को सफलतापूर्वक निरूपित किया है. ग्रंथ में संकलित लेखों में लेखक की संदर्भोचित भाषा शैली तथा उनका अपना विशिष्ट संप्रेषण कौशल अध्येताओं को आकर्षित करता है. इस विशिष्ट संप्रेषण कौशल में लेखक की निजी मौलिक सृजनशीलता प्रतिबिंबित होती है. अपनी संकल्पनाओं को समुचित रीति से स्थापित करने के लिए संदर्भोचित प्रयुक्तियों एवं भाषिक मुहावरों को लेखक स्वयं गढ़ लेता है जो कि पाठ को गतिशील और प्रवहमान बना देते हैं. 

लेखक की प्रस्तुत रचना भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के गंभीर अध्येताओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ सिद्ध होगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है. इस ग्रंथ के प्रणयन के लिए ऋषभदेव शर्मा ने जो परिश्रम किया है, उसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ. यह ग्रंथ उनकी वैचारिक शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनकर भाषा एवं साहित्य के अध्येताओं के बीच समादृत होगा. मैं उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ प्रदान करता हूँ. अस्तु. शुभमस्तु. 

14 फरवरी 2015                                                                                                     - डॉ. एम. वेंकटेश्वर 
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष 
हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग 
 अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय
 हैदराबाद 
संपर्क : 09849048156

हिंदी भाषा के बढ़ते कदम :
पुस्तक के बारे में 

भारत की शास्त्रोक्त और जन-परंपराओं का जो दाय सभी देशीय भाषाओं के पास है, हिंदी अपनी जन्माधिकारिणी थाती के साथ उसे भी सहेजे हुए निरंतर व्यापक स्वीकृति प्राप्त कर रही है. अब उसके हिस्से विश्व परिदृश्य पर अहर्निश उभरती उपलब्धियाँ भी आने लगी हैं, क्योंकि समस्त भाषा-समाजों से जुड़े सुधी-जन हिंदी को अपनी सहज अभिव्यक्ति के अनिवार्य माध्यम के रूप में अपना रहे हैं. वर्तमान में हिंदी की भाषायी-भूमिका जितनी महत्वपूर्ण हो उठी है, उतनी ही सांस्कृतिक सचेतनता भी और उतनी ही अधुनातन वैश्विक परिवर्तनों के प्रति सतेज दृष्टि भी. 

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के इस ग्रंथ में इन समस्त संदर्भों पर व्यापक विचार-विमर्श उपलब्ध है. छह खंडों में नियोजित इस ग्रंथ के पहले खंड ‘हिंदी का हिंडोला’ में हिंदी भाषा के ऐतिहासिक और समसामयिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करते हुए यह दर्शाया गया है कि इस भाषा का आधार व्यापक स्वीकृति प्राप्त जनभाषा है. लेखक ने संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा और विश्वभाषा के रूप में हिंदी की शक्ति को बार-बार रेखांकित किया है और यह प्रतिपादित किया है कि भारतीय संदर्भ में शिक्षा से लेकर ज्ञान-विज्ञान और राजकाज तक अंग्रेजी की स्थिति एक थोपी हुई भाषा जैसी है. संवैधानिक संदर्भ में लेखक ने याद दिलाया है कि हिंदी की लगातार उपेक्षा करने वाला समाज और राष्ट्र संविधान की आत्मा की उपेक्षा करने का अपराधी है. 

दूसरे खंड ‘दखन पवन बहु धीरे’ में दक्खिनी हिंदी और उसकी प्रशस्त साहित्य परंपरा का विवेचन करने के अतिरिक्त दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार, पठन-पाठन तथा अनुसंधान की दशा और दिशा पर प्रकाश डाला गया है और भारतीय भाषाओं के आपसी संबंध पर बल दिया गया है. 

खंड तीन ‘संप्रेषण की शक्ति’ में हिंदी के विविध अद्यतन प्रयोग क्षेत्रों और उनकी प्रयुक्तियों का विश्लेषण किया गया है. पत्रकारिता, अनुवाद, फिल्म, विज्ञापन, नया मीडिया और सोशल मीडिया हिंदी के बनने-बिगड़ने में क्या भूमिका निभा रहे हैं. इस खंड में विस्तार से इसका सोदाहरण विश्लेषण किया गया है. साथ ही बाजार से लेकर रोजगार तक के संदर्भ में हिंदी की संप्रेषण शक्ति को रेखांकित किया गया है. 

ग्रंथ का चौथा खंड ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ पर केंद्रित है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अपने बाजार-दोस्त और कम्प्यूटर-दोस्त होने के गुण के कारण हिंदी तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम भाषा सिद्ध हो चुकी है तथा उसने प्रौद्योगिकी के साथ जुड़कर वैश्वीकरण के युग में अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान का अभियान शुरू कर दिया है. 

पाँचवे खंड ‘संरक्षण के निमित्त’ में भाषा के समाज-सांस्कृतिक पहलुओं को दृष्टिपथ में रखते हुए साहित्य, संस्कृति और शिक्षा से लेकर व्याकरण तक के समस्त सैद्धांतिक प्रश्नों पर व्यवहारिक विमर्श सम्मिलित है. 

ग्रंथ के छठे खंड ‘भाषा चिंतन’ में भाषाविज्ञान और साहित्यशास्त्र से जुड़े चार आधुनिक हिंदी भाषाचिंतकों की मान्यताओं और स्थापनाओं का विवेचन इस ग्रंथ को परिपूर्णता प्रदान करता है. 

ऐतिहासिक महत्व की यह सुचिंतित सामग्री सभी तक पहुँचनी चाहिए. 

- प्रो. देवराज 
म.गा. अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, 
गांधी हिल्स, वर्धा – 442 005 

सोमवार, 13 जुलाई 2015

उत्तर आधुनिकता, साहित्य और मीडिया पर एक उपयोगी पुस्तक

पुस्तक : ''उत्तरआधुनिकता : साहित्य और मीडिया''
संपादक : ऋषभदेव शर्मा, गुर्रमकोंडा नीरजा 
प्रकाशक : जगत भारती प्रकाशन , सी-3, 77 दूरवाणी नगर, 
एडीए, नैनी, इलाहाबाद-211008 / मो. 09936079167.
संस्करण : 2015.
ISBN : 978-93-5104-236-5.
पृष्ठ : 135.
मूल्य : 295 रुपए (हार्ड बाउंड).




पुस्तक समीक्षा

उत्तर आधुनिकता, साहित्य और मीडिया पर एक उपयोगी पुस्तक 

यों तो उत्तर आधुनिक विमर्श पर केंद्रित अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं जो विद्वत्तापूर्ण सामग्री से लबरेज हैं, किंतु उनकी एक बड़ी सीमा यह है कि प्रायः विद्वत्ता के बोझ के कारण विषय की संप्रेषणीयता खतरे में पड़ जाती है और सामान्य पाठक कोई दिशा प्राप्त करने के बजाय फतवेबाजी के भवंरजाल में फँसकर रह जाता है. ऐसी क्लिष्ट पांडित्यपूर्ण पुस्तकों के नीचे दबे पाठक को ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ (2015) को देख-पढ़कर अवश्य ही ताजी हवा के झोंके का अहसास होगा. इसमें दो राय नहीं कि हिंदी साहित्य और समसामयिक मीडिया की विभिन्न विधाओं और धाराओं को कथ्य, रूप, भाषा और प्रस्तुती के स्तर पर उत्तर आधुनिक विमर्श ने गहराई तक प्रभावित किया है. ख़ासतौर से हाशिए के समुदायों की अधिकारचेतना की जो अभिव्यक्ति लिखित और मौखिक शब्द के माध्यम से पिछले दशकों में निरंतर तीव्रतर होती गई है, वह उत्तर आधुनिकता का ही प्रताप है – भले ही हम उसे दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, पर्यावरण विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, किन्नर विमर्श, समलैंगिक विमर्श, मीडिया विमर्श जैसे अनेकानेक बहुकेंद्रीयता सूचक नाम देते रहें. दरअसल यह लोतांत्रिक बहुकेंद्रीयता ही उत्तर आधुनिक विमर्श की पहचान और उपलब्धी है. इसे सरल-सहज ढंग से रेखांकित करने में प्रस्तुत पुस्तक पूर्णतः सफल है. इस हेतु संपादकद्वय और पुस्तक में सम्मिलित लेखकगण साधुवाद के पात्र हैं. 

उत्तर आधुनिक विमर्श को पाठ, संरचना और उत्तर संरचना के संदर्भ में नए आयाम प्रादान करेने वाला प्रो. दिलीप सिंह का आलेख ‘उत्तर आधिनिक विमर्श : एक बहस’ इस पुस्तक का घोषणापत्र कहा जा सकता है जिसमें यह दर्शाया गया है कि ‘भाषा और साहित्य के स्तर पर हिंदी में उत्तर आधुनिकता के लक्ष्ण भारतेंदु युग से ही दिखाई देने लगते हैं तथा आज समाज और संस्कृति को प्रभावित करने वाले तमाम ज्वलंत मुद्दे उत्तर आधुनिक हैं.’ इसके अतिरिक्त प्रो. एम. वेंकटेश्वर का ‘उत्तर आधुनिक विमर्श का स्वरूप’ और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का ‘विभिन्नता की बुनियाद पर उत्तर आधुनिक विमर्श’ भी उत्तर आधुनिकता की सैद्धांतिकी की सरल शब्दों में व्याख्या करने वाले आलेख हैं. डॉ. मृत्युंजय सिंह के ‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है’ और डॉ. बलविंदर कौर के ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और पहचान का संकट’ शीर्षक आलेखों में भी इस विमर्श को खोलने की खोशिश दिखाई देती है जबकि डॉ. पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव और डॉ. भीम सिंह ने अपने आलेखों में क्रमशः स्त्री और दलित लेखन के सवाल उठाए हैं. आदिवासी संदर्भ डॉ. घनश्याम और डॉ. प्रणव कुमार ठाकुर के आलेखों में बखूबी विवेचित है. डॉ. करन सिंह ऊटवाल का लेख नाटक और रंगमंच की उत्तर आधुनिकता को खोजता है तो डॉ. विष्णु भगवान शर्मा उत्तर आधुनिक भाषा संकट के संदर्भ में राजभाषा हिंदी से जुड़े विचारोत्तेजक प्रश्न उठाते दिखाई देते हैं. 

यह तो हुई उत्तर आधुनिकता की सैद्धांतिकी तथा साहित्य और भाषा पर पड़ रही उसकी छाया की बात. प्रो. गोपाल शर्मा इनसे आगे बढ़कर समकालीन मीडिया लेखन और उत्तर आधुनिक मीडिया विमर्श की पड़ताल करते हैं जबकि डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा प्रयोजनमूलक हिंदी और प्रिंट मीडिया पर दैनिक पत्रों के संदर्भ में प्रकाश डालते हुए यह दर्शाती है कि उत्तर आधुनिकता के विस्फोट के कारण हिंदी में नई नई प्रयुक्तियों तथा उप-प्रयुक्तियों का विकास अत्यंत शुभलक्ष्ण है. 

डॉ. ऋषभदेव शर्मा के इस पुस्तक में चार आलेख हैं. एक आलेख में उन्होंने भूमंडलीकरण की चुनौतियों के साथ जोड़कर मीडिया के रूपों और हिंदी के स्वरूप पर चर्चा की है तो दूसरे में उत्तर आधुनिक मीडिया और साहित्य के संबंधों की पड़ताल की है. उनका तीसरा आलेख कुछ हटकर है – ‘स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति’. इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि उपभोक्तावाद और उपभोक्ता संस्कृति दो भिन्न चीजें हैं तथा स्त्री समूह उपभोक्ता संस्कृति के निर्माण में रचनात्मक भूमिका निभाकर स्त्री को ‘भोग्या’ छवि से निकालकर ‘नारी से नागरिक’ बनाने की क्षमता रखते हैं. डॉ. शर्मा का अंतिम आलेख ‘हिंदी सिनेमा की उत्तर आधुनिकता’ अपने आप में एक पूरे शोधप्रबंध की रूपरेखा सरीखा है जिसमें उत्तर आधुनिक कला के बारह लक्षणों का प्रतिपादन करते हुए हिंदी सिनेमा की विवेचना की गई है. कहना न होगा कि यह शोधपूर्ण आलेख इस पुस्तक को अत्यंत मूल्यवान बनाने में समर्थ है. 

कुलमिलाकर ‘उत्तर आधुनिकता : साहित्य और मीडिया’ संदर्भित विषय पर एक ऐसी पुस्तक है जिसे छात्र और शोधार्थी तो उपयोगी पाएँगे ही सामान्य जिज्ञासु पाठक भी रोचक और जानकारीपूर्ण पाएँगे. 

- अमन कुमार 
सह-संपादक ‘मनमीत’ और ‘शार्प रिपोर्टर’ 
 ए 7, आदर्श नगर, नजीबाबाद – 246763 
मोबाइल – 09897742814 
ईमेल - amankumarnbd@gmail.com 

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

25 वें आनंदऋषि साहित्य पुरस्कार हेतु डॉ. एम. रंगय्या चयनित

25 वां आनंदऋषि  साहित्य पुरस्कार 78 वर्षीय तेलुगुभाषी कवि डॉ. एम. रंगय्या को हिंदी में उनके मौलिक साहित्य सृजन के लिए प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है.