गुरुवार, 29 जुलाई 2021

प्रेमचंद की कहानियों में मनोविज्ञान : ईदगाह ( डॉ. सुपर्णा मुखर्जी)

प्रेमचंद की कहानियों में मनोविज्ञान : ईदगाह


- डॉ. सुपर्णा मुखर्जी


मनोविज्ञान, यह शब्द ही अपने आप में रहस्यमय है क्योंकि हरेक व्यक्ति अपनी सोच, अपनी विचरधारा के द्वारा अपने जीवन को चलाता है और उस जीवनशैली के द्वारा सामाजिक जीवन भी प्रभावित होता है। चूँकि, मनोविज्ञान और सामाजिक जीवन के बीच इस प्रकार से एक सहसंबंध स्थापित होता है और साहित्य समाज का दर्पण है इसी कारण से दर्पणरूपी साहित्य के साथ मनोविज्ञान का सम्बन्ध जुड़ जाना स्वाभाविक तथ्य ही है। साहित्यकार अनादिकाल से अपने साहित्य में कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष रूप में मनोविज्ञान को स्थान देते आएँ हैं। 'कथा सम्राट प्रेमचंद' इससे अछूते कैसे रह सकते थे? 'कथा सम्राट प्रेमचंद' ने वैसे तो सभी वर्गों के मनुष्यों के मनोविज्ञान को लेकर साहित्य रचना का काम किया है पर उनकी कहानियों में वर्णित बाल मनोविज्ञान की अपनी एक अलग जगह है। बच्चों के प्रति अपने विचार को व्यक्त करते हुए सन् 1930 में 'हंस' पत्रिका के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा, 'बालक को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से देखें'। मुख्यतः प्रेमचंद बच्चों को अनुशासित और संयमित देखना चाहते थे। 


मध्यकाल में सूर और तुलसी ने बाल साहित्य को व्यापक रूप प्रदान किया। इन दोनों कवियों ने अपनी रचनाओं के द्वारा यह प्रकट किया था कि बालकों के लिए न कोई राजा होता है न प्रजा। बालक तो प्रेम के भूखे होते हैं और उनके प्रेम के सामने बड़े-बड़े राजाओं का सिर भी झुक जाता है। प्रेमचंद ने इन दोनों कवियों की इसी चिंतनशैली को अपनी कहानी रचना का आधारस्तम्भ बनाया था।  


ईदगाह, गुल्ली डंडा, कजाकी, कुत्ते की कहानी, सच्चाई का उपहार आदि प्रेमचंद द्वारा लिखित प्रमुख बाल कहानियाँ है। इनमें से 'ईदगाह' कहानी का हामिद अपने भोलेपन के साथ-साथ अपनी परिपक्वता के कारण पाठकों का वर्षों से लोकप्रिय बालक रहा है। जब भी आप दुखी हों एक बार 'ईदगाह' कहानी के हामिद के निराशाओं के बीच घिरे आशाओं के संसार को देखें, 'वह भोली सूरत का चार-पाँच साल का दुबला-पतला लड़का। उसके पिता गत वर्ष हैज़े की भेंट हो गए थे और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला कि क्या बीमारी थी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न रहता है। उसके अब्बाजान रुपये कमाने गए हैं। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बहुत-सी अच्छी चीज़ें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज़ है। हामिद के पाँव में जूते नहीं है, सिर पर एक पुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है'।


मानव मनोविज्ञान का महत्वपूर्ण अंग है 'आशा'। कथाकार ने एक चार-पाँच साल के बालक के माध्यम से आशावान बने रहने का कैसे देखिए मूलमंत्र दे दिया है। पर है तो वह बच्चाही, तभी तो 'हामिद खिलौनों को ललचाई आँखों से देखता है'। पर जहाँ निराशा को आशा ने पराजित कर दिया है वहाँ लालच कैसे टिक सकता है?  तभी तो 'हामिद को ख्याल आता है, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती है तो हाथ जल जाता है, अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वे कितनी प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उँगलियाँ कभी न जलेंगी'।


ऐसी परिपक्वता तो बहुत बार सयानों में भी नहीं मिलती। उपभोक्तावादी संस्कृति के जाल में जहाँ व्यक्ति केंद्रकता ही सब कुछ है। स्वार्थी समाज में जहाँ सब लाभ कमाने में लगे हुए हैं वहाँ हामिद वर्षों से 'ईदगाह' से बंदूक की तरह चिमटा पकड़कर मानव को मानवता का सही अर्थ समझाता हुआ आता दिखाई पड़ता है।


हम बात करते हैं त्याग, सद्भाव की, विवेक की। बड़े-बड़े ज्ञानियों ने तो बाकयदा त्याग, सद्भाव, विवेक सिखाने के पाठशालाएँ भी खोल ली हैं, लेकिन प्रेमचंद के हामिद ने तो अपने अनमोल 'तीन पैसे' खर्च करके समाज को यह ज्ञान दे दिया है। ●


डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हिंदी प्राध्यापिका

सेंट ऐन्स डिग्री कॉलेज फॉर विमेन

मलकाजगिरी

हैदराबाद- 500047