सोमवार, 31 मार्च 2014

बेलगाम - राष्ट्रीय संगोष्ठी - समापन सत्र

बाएं से - डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. टी.आर. भट्ट, डॉ. जयशंकर यादव और डॉ. अर्जुन चव्हाण 

30 मार्च 2014

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा स्नातकोत्तर केंद्र, डॉ. बी.डी. जत्ती शिक्षा महाविद्यालय, बेलगाम के आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी 'पुण्य स्मरण : कैलाशचंद्र भाटिया, राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, ओमप्रकाश वाल्मीकि' का समापन सत्र संपन्न हुआ. 

समापन समारोह की अध्यक्षता डॉ. जयशंकर यादव ने की. डॉ. टी. आर. भट्ट और डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने संगोष्ठी पर प्रतिक्रया व्यक्त की और आशा की कि यह रागात्मक और भावनात्मक संबंध बना रहे. बतौर मुख्य अतिथि डॉ. अर्जुन चव्हाण ने संगोष्ठी के आयोजकों को बधाई दी और आशा व्यक्त की कि भविष्य में इसी तरह के आयोजन होते रहें. 

अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए डॉ. जयशंकर यादव ने कहा कि बेलगाम के इस स्नातकोत्तर भवन में दो दिनों तक भाषाई सौहार्द अंतःसलिला के रूप में प्रवाहित होता रहा. यह आनंद ही साहित्य का और जीवन का सरोकार है.

समापन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, बेलगाम केंद्र के प्रभारी डॉ. वी.एन. हेगडे ने किया. उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, बेलगाम केंद्र के प्राध्यापक डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने धन्यवाद ज्ञापित किया तथा सामूहिक जन-गण-मन के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ. 

बेलगाम - राष्ट्रीय संगोष्ठी - विचार सत्र 4

बाएं से - डॉ. रामजन्म शर्मा, डॉ, हीरालाल बाछोतिया, डॉ. दिलीप सिंह, डॉ. एम. वेंकटेश्वर और डॉ. ऋषभ देव शर्मा 

30 मार्च 2014.

भाषाविद डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया पर केंद्रित चौथे विचार सत्र की अध्यक्षता प्रमुख समाजभाषाविज्ञानी प्रो. दिलीप सिंह ने की. साथ में, डॉ. रामजन्म शर्मा, डॉ. एम. वेंकटेश्वर, डॉ. ऋषभ देव शर्मा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया मंचासीन थे. 

प्रो. एम. वेंकटेश्वर 
डॉ. एम. वेंकटेश्वर ने डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया के कोशकार रूप को रेखांकित किया. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि भाटिया जी के कोश 'अंग्रेजी-हिंदी अभिव्यक्ति कोश', 'हिंदी-अंग्रेजी मुहावरा लोकोक्ति कोश', 'अंग्रेजी-हिंदी प्रशासनिक कोश' आदि बहुत ही महत्वपूर्ण हैं तथा उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अनुवाद, राजभाषा, प्रयोजनमूलक क्षेत्र, प्रशासन आदि क्षेत्रों से जुड़े लोगों के लिए ये महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं. विशिष्ट प्रयुक्तिगत क्षत्रों में शब्द चयन के लिए मानक कोश हैं. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि कैलाशचंद्र भाटिया कोश निर्माण और कोश प्रयोग पर बल देते थे. वे जूनून के साथ काम करते थे. भाटिया जी ने द्वितीय भाषा शिक्षण के लिए भी सहायक सामग्री तैयार की थी. वे कुशल शिक्षक थे. 

प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने यह भी स्पष्ट किया कि इन हस्ताक्षरों के जाने से हिंदी भाषा, साहित्य और भाषाविज्ञान के क्षेत्र में रिक्तता पैदा हो गई है चूंकि दूसरी पीढ़ी अभी तक तैयार नहीं हो पाई. अतः उन्होंने साहित्य, भाषा, शिक्षण आदि क्षेत्रों से जुड़े हस्ताक्षरों से यह अपील की कि वे दूसरी पीढ़ी को तैयार करें. उन्होंने इस अवसर पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह को बधाई दी क्योंकि वे निरंतर अगली पीढ़ी को तैयार करने में जुटे हुए हैं. इतना ही नहीं उन्होंने युवा पीढ़ी से कहा कि अहंकार को त्याग कर कार्य करने में जूनून के साथ जुट पड़े. उन्होंने आगे यह भी कहा कि यह सिर्फ गुरु के समक्ष अपने आपको समर्पित करने से संभव होगा.

डॉ. हीरालाल बाछोतिया 
डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने कैलाशचंद्र भाटिया के अनुवाद चिंतन को उदाहरणों के साथ स्पष्ट किया और कहा कि भाटिया जी भाषा की मानकता की रक्षा करने के पक्षधर थे. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भाटिया जी ने प्रयोजनमूलक रूप को पारिभाषित करने के लिए विविधतापूर्ण सामग्री तैयार की और उनकी दृष्टि हमेशा भाषा के अनुप्रयोग पक्ष पर  रहती थी. आगे उन्होंने भाटिया जी के अनुवाद चिंतन को स्पष्ट करते हुए कहा कि वे अनुवाद और अनुवादक को दोयम दर्जे का न मानकर उच्च कोटि का मानते थे तथा उन्होंने हिंदी भाषा के आधुनिकीकरण के आलोक में अनुवाद की चर्चा की है. उनकी मान्यता है कि हर भाषा की अपनी निजी क्षमताएँ होती हैं. वे लोक बोलियों के पक्षधर थे. वे मानते थे कि भाषा मूलतः शब्द है और शब्द 'संस्कृति' के वाहक.  वे अक्सर इस बात पर बल देते थे कि जिस भाषा से अनुवाद कर रहे हैं उस भाषा से टकराना अनिवार्य है चूंकि दो शब्दोंकी  टकराहट से ही अर्थ की आग पैदा होती है. उन्होंने कैलाशचंद्र भाटिया के साथ गुजारे हुए क्षणों को भी याद किया.

प्रो. ऋषभ देव शर्मा 
डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने कैलाशचंद्र भाटिया के काव्य भाषा संबंधी विचारों की व्याख्या करते हुए कहा कि भाटिया जी साहित्य के मर्मज्ञ ऋषि थे. उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण थी. उन्हें प्राचीन कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक की अनेक काव्य पंक्तियाँ कंठस्थ थीं. काव्यभाषा के अध्ययन के लिए उन्होंने अपना निजी मॉडल अपनाया जो  ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का अनुप्रयुक्त मॉडल है. वे यह मानते थे कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अन्योन्याश्रय संबंध है. उनकी मान्यता है कि वस्तु और रूप को अलग अलग नहीं देखा जा सकता. उनकी पुस्तक 'हिंदी काव्य भाषा की प्रवृत्तियाँ' में राउलवेल (शिलांकित काव्य) से लेकर नई कविता तक 22 निबंध सम्मिलित हैं. वे इन निबंधों में भाषा विकास के वर्तन बिंदुओं  को बार बार रेखांकित करते चलते हैं. वे साधारणता की ओर जाते हैं. वे मानते हैं की सृजनात्मकता के लिए तद्भवता और देशजता अनिवार्य है. वे हर निबंध के अंत में निर्भ्रांत टिप्पणी के रूप में अपनी स्थापना देते हैं. उनकी भाषा में वागाडम्बर नहीं है. वे मानते हैं  कि  काव्यभाषा के रूप में समय समय पर जनभाषा को ही अपनाया गया.

प्रो. रामजन्म शर्मा 
डॉ. रामजन्म शर्मा ने कैलाशचंद्र भाटिया के साथ बिताए हुए क्षणों को याद करते हुए कहा कि वे सरल और कोमल व्यक्ति थे; साथ ही कठोर, नियमबद्ध और अनुशासनप्रिय व्यक्ति भी. वे हालात से समौझाता नहीं करते. वे मानते थे कि  समाज ही भाषा का वास्तविक रजिस्टर होता है.

अत्यंत भावपूर्ण अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि कैलाशचंद्र भाटिया ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की धारा बदल दी. वे बोलीविज्ञान और क्षेत्रीय भाषाविज्ञान पर बल देते थे. उन्होंने यह आक्रोश वक्त किया कि कैलाशचंद्र भाटिया के बाद भाषाविज्ञान विशेष रूप से अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान में बहुत बड़ा गैप पैदा हो चुका है जिसे कवर पाना बहुत ही कठिन कार्य है. उन्होंने बल देते हुए कहा कि धीरेंद्र वर्मा और भाटिया जी ने हिंदी के लिए बहुत काम किया है जिसे देखना और समझना हमारा कर्तव्य है. उन्होंने आगे यह कहा कि आज वे भी लड़खड़ाते हुए उन्हीं पगडंडियों पर चलते हैं. उन्होंने कहा  कि सबकी अपनी अपनी मातृभाषाएँ हैं. इन मातृभाषाओं में  क्षेत्रीय विकल्प हैं. उन्होंने सबके सामने प्रश्न चिह्न लगाया कि उन बोलियों की ओर कितने लोगों का ध्यान जा रहा है. क्या उन विकल्पों पर कोई काम करेगा, उन बोलियों में लिखे गए साहित्य का अनुवाद किया जाएगा, या फिर पिछड़ों और दलितों की भाषा कहकर उन्हें यों ही नष्ट होने दिया जाएगा. ये ऐसे प्रश्न हैं जो बार बार प्रो. दिलीप सिंह को कचोट रहे हैं. वे इस बात से विचलित हैं कि आगे इन भाषाओं का क्या होगा! उन्होंने यह भी प्रश्न उठाया कि भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कितना शोधकार्य हो रहा है? उन्होंने कहा कि भाटिया जी के साथ साथ दस लोगों ने इस क्षेत्र में कार्य किया अपने निजी मॉडल के साथ, पर उनकी भी अपनी अपनी सीमा थी.

प्रो.दिलीप सिंह के साथ
प्रो. एम. वेंकटेश्वर और प्रो. ऋषभ देव शर्मा
 
प्रो. दिलीप सिंह ने यह याद दिलाया कि रमानाथ सहाय, कैलाशचंद्र भाटिया और रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ने मिलकर एन सी ई आर टी के लिए हिंदी का व्याकरण तैयार किया था जिसमें कामताप्रसाद गुरु जी के व्याकरण की सीमाओं को पहचान कर आधुनिक और व्यावहारिक व्याकरण का निर्धारण किया गया था  क्योंकि गुरु जी के समय तक  आधुनिक हिंदी का इतना विकास नहीं हुआ था. लेकिन आज तक भी व्याकरण की यह किताब एन सी ई आर टी के गोदाम में  धूल फाँक रही है.  उन्होंने यह भी कहा कि भाटिया जी बोली के बिना भाषा की बात स्वीकार नहीं करते. उनकी मान्यता है कि बोलियों का एसेंस/ स्वाद/ ज़ायका किसी भी साहित्य के लिए अनिवार्य तत्व है.

इस सत्र का संचालन स्नातकोत्तर कॉलेज, बेलगाम के प्राध्यापक डॉ. माधव बागी ने किया.
प्रबुद्ध श्रोता गण

बेलगाम - राष्ट्रीय संगोष्ठी - विचार सत्र 3

बाएं से - डॉ. संजय मादर, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. टी.आर. भट्ट,
डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. वी.एन. हेगड़े , डॉ. मंजुनाथ अंबिग और डॉ. मृत्युंजय सिंह  

30 मार्च 2014 -
दूसरे दिन का पहला सत्र (विचार सत्र-3) ओमप्रकाश वाल्मीकि पर केंद्रित रहा.  अध्यक्ष थे प्रो. टी.आर. भट्ट.

डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. मंजुनाथ अंबिग, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. संजय मादर और डॉ. वी.एन. हेगडे ने क्रमशः आत्मकथा साहित्य, कथा साहित्य, काव्य, सौंदर्यशास्त्र, दलित प्रश्न तथा भाषिक वैशिष्ट्य की दृष्टि से ओमप्रकाश वाल्मीकि के योगदान का विश्लेषण किया. 

अध्यक्षीय टिप्पणी में प्रो. टी.आर. भट्ट ने कहा कि आज के अवर्णों के बीच एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा है जो अपने आपको उच्च मानता है और दूसरे अवर्णों को निम्न. आज सवर्ण और अवर्णों के बीच नहीं बल्कि अवर्ण और अवर्ण के बीच जातिभेद प्रबल होता जा रहा है. उन्होंने कन्नड़ दलित साहित्य की बात करते हुए कहा कि वेंकट सुब्बय्या और देवनूर महादेव जैसे अनेक साहित्यकारों ने  दलित लेखन को आगे बढाया है. उन्होंने आगे कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की भांति कन्नड़ में भी देवनूर महादेव (1948) दलित साहित्य के अत्यंत सशक्त व प्रतिनिधि कथाकार हैं जिन्होंने  भोगे हुए यथार्थ को अपने कथासाहित्य में सशक्त रूप से अभिव्यक्त किया. उनका लेखन स्वानुभूतिपरक सृजनात्मक लेखन है. उन्होंने 1971 में मैसूर जनजातियों की भाषा में उपन्यास का सृजन किया. यह ध्यान देने की बात है कि देवनूर महादेव को उनके उपन्यास 'कुसुम बाले' के लिए 1990 में केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार से तथा 2011 में 'पद्मश्री' पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. 

इस सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, एरणाकुलम केंद्र के प्राध्यापक डॉ. बिष्णुकुमार राय ने किया. 

रविवार, 30 मार्च 2014

बेलगाम - राष्ट्रीय संगोष्ठी - विचार सत्र 2


29 मार्च 2014 को भोजनोपरांत राजेंद्र यादव की स्मृतियों को समर्पित दूसरा विचार सत्र प्रारंभ हुआ. इस सत्र की अध्यक्षता कोल्हापुर विश्विद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. अर्जुन चव्हाण ने की.

इस सत्र में एर्णाकुलम से पधारी प्रो. पी. राधिका ने राजेंद्र यादव के साहित्य में निहित स्त्री पक्ष को उजागर किया तो धारवाड़ से पधारे डॉ. एच.आर. घरपणकर ने दलित पक्ष से संबंधित राजेंद्र यादव के विचारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया. डॉ. के.एस. पाटील ने उनके विचारों में निहित सांप्रदायिकता के संदर्भ को रेखांकित किया.

यह सत्र विचारोत्तेजक सत्र रहा. अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए हैदराबाद से पधारे प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि हिंदी में आज दलित साहित्य की स्थिति मजबूत है. आज हिंदी में दलित पत्रकारिता भी सशक्त है. दलित समस्या किसी वर्गगत समस्या नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय समस्या है. उन्होंने आगे कहा कि हिंदू धार्मिकता के लिए राजेंद्र यादव ने 'तालिबानी' नाम दिया. राजेंद्र यादव मानवतावादी संवेदना से युक्त साहित्यकार है, पाश्चात्य साहित्य के गजब अध्येता. उन्होंने इस बात पर बल दिया कि जीवन को डिक्टेट नहीं किया जा सकता है बल्कि उसे ऐसी ही जीना पड़ता है. इतना ही नहीं दूसरों के लिए जीने योग्य बनाना भी आवश्यक है. 

अपने अध्यक्षीय में डॉ. अर्जुन चव्हाण ने कहा कि राजेंद्र यादव एक व्यक्ति का नहीं है बल्कि एक संस्था का नाम है. वे जिंदगी से भागने वाले व्यक्ति नहीं थे, जिंदगी में सबको साथ लेकर चलने वाले कर्मठ और जीवट व्यक्ति हैं. वे किसी भी मुद्दे पर बेबाक टिप्पणी करते थे. 

सत्र का संयोजन डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने किया.

बेलगाम - राष्ट्रीय संगोष्ठी - पुण्य स्मरण : विचार सत्र 1


29 मार्च 2014 को उद्घाटन सत्र के बाद पहला विचार सत्र प्रारंभ हुआ. परमानंद श्रीवास्तव को समर्पित इस सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे प्रो. रामजन्म शर्मा ने की. डॉ. नजीम बेगम (चेन्नै), डॉ. शकीला बेगम (धारवाड़), डॉ. बिष्णुकुमार राय (एरणाकुलम) और डॉ. सी.एन. मुगुटकर (बेलगाम) के साथ मैं भी मंचासीन थी. इस सत्र में पाँच शोधपत्र प्रस्तुत किए गए. 

डॉ. नजीम बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के संपादक रूप को उदाहरणों सहित उभारा तो डॉ. शकीला बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के चिंतक रूप को काव्य भाषा के संदर्भ में स्पष्ट किया. डॉ. बिष्णुकुमार राय ने काव्य प्रयोजन के संदर्भ में उनके चिंतक रूप को स्पष्ट किया तो डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने उनके चिंतन में निहित साहित्य और मनुष्य के संबंध को रेखांकित किया. मैंने डॉ. परमानंद श्रीवास्तव के कवि-आलोचक पक्ष पर अपना शोध पत्र पढ़ा. 

अध्यक्षीय भाषण में प्रो. रामजन्म शर्मा ने परमानंद श्रीवास्तव के साथ बिताए हुए क्षणों का स्मरण करते हुए कहा कि वे कर्मठ और सुशील व्यक्ति थे. वे नए लोगों को प्रोत्साहित करते थे और उन्हें कविता और लेखन कर्म के गुर सिखाते थे. गोरखपुर में अनेकाने कवियों और लेखकों को बनाने का काम उन्होंने किया. उन्होंने यह भी याद दिलाया कि दिल्ली एन सी ई आर टी के पास उनसे संबंधित दुर्लभ पांडुलिपि है 'साहित्यकारों के पत्र' जो आज तक अप्रत्याशित कारणों से अप्रकाशित है. उन्होंने ठोंक बजाकर यह कहा कि हिंदी साहित्य जगत में परमानंद श्रीवास्तव ही ऐसे व्यक्ति थे जो लगातार कविता और आलोचना कर्म को एक साथ साधे हुए थे. उन्होंने आगे कहा कि परमानंद श्रीवास्तव ने जीवनपर्यंत साहित्य की सेवा की. सामाजिक सरोकार उनकी कविता की अंतर्वस्तु है तथा लोकतत्व उनकी कविता का अनुगूंज. यदि वे किसी रचना को उठाते हैं तो उसकी जड़ तक पहुँचते हैं और उस रचना की वस्तु से लेकर शिल्प और शैली तक की संरचना की बात करते हैं. परमानंद श्रीवास्तव का साहित्य उत्तर आधुनिक ही नहीं बल्कि उत्तरोत्तर साहित्य है.      

सत्र का सचालन डॉ. के.एस. पाटील (बेलगाम) ने किया. 

शनिवार, 29 मार्च 2014

बेलगाम में राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन

उद्घाटन दीप प्रज्वलित करते हुए मुख्य अतिथि प्रो. एम. वेंकटेश्वर.
साथ में बाएं से - प्रो. ऋषभ देव शर्मा, वी.एन. हेगडे, प्रो. हीरालाल बाछोतिया, प्रो. दिलीप सिंह
व अन्य 

आज 29 मार्च 2014 - दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के तत्वावधान में बेलगाम [कर्नाटक] में 'पुण्य स्मरण : कैलाश चंद्र भाटिया, राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, ओमप्रकाश वाल्मीकि' विषयक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन संपन्न हुआ.

इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे इफ्लू के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य का पठन-पाठन सतही स्तर पर करना या व्याख्या भर करना काफी नहीं होता. गहन अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता आज की माँग है. पाठक को चिंतन एवं भावनात्मक स्तर पर किसी भी साहित्यकार के साथ तादात्म्य करना चाहिए. उन्होंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को बधाई देते हुए कहा कि प्रो. दिलीप सिंह जी के नेतृत्व में सभा ऐसी सफल संगोष्ठियाँ करती आ रही है और आगे यह भी कहा कि आज की यह संगोष्ठी निश्चय ही चुनौती से भरी हुई संगोष्ठी है चूंकि यह ऐसे साहित्यकारों पर केंद्रित है जिन्होंने साहित्य, भाषा, आलोचना, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रों के लिए दिशा निरेदेश्कों पर केंद्रित है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद से प्रकाशित द्विभाषी मासिक 'स्रवंति' का मार्च 2014 का अंक इस राष्ट्रीत संगोष्ठी के लिए कर्टन रेसर है क्योंकि यह अंक विशेष रूप से परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राजेंद्र यादव और अमरकांत के पुण्य स्मरण पर केंद्रित है.

बीज भाषण प्रस्तुत करते हुए प्रमुख समाजभाषावैज्ञानिक उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने विजयदान देता को मनुष्य की जिजीविषा को अभिव्यक्त करने वाले तथा राजस्थानी लोककथाओं को हिंदी में लाने वाले कथाकार के रूप में याद किया तो के.सी. सक्सेना को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वे ऐसे हास्य-व्यंग्य जीवट कथाकार हैं जो अपने ऊपर भी हंस सकते हैं.

डॉ. रघुवंश के साथ जुड़ी यादों को ताजा करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ. रघुवंश के साथ उन्होंने समसामयिक कविता पर काम किया जिससे प्रेरित होकर उन्होंने उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के एम.ए. पाठ्यक्रम के लिए 'समसामयिक हिंदी कविता' पुस्तक का संपादन किया. उन्होंने आगे कहा कि वे डॉ. रघुवंश से प्रभावित थे क्योंकि दोनों हाथों से लाचार होते हुए भी उन्होंने पैर की अंगूठी और उंगली के बीच कलम रखकर लिखने का अभ्यास किया. उन्होंने कहा कि रघुवंश अच्छे काव्यालोचक थे. वे आलोचना से ज्यादा पाठक को महत्व देते थे.

डॉ. सी. प्रसाद को अच्छी बाल साहित्यकार के रूप में याद किया तो शैलेश मटियानी के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि शैलेश मटियानी ने मजदूर की जिंदगी जी. इसलिए उनकी कलम कटु यथार्थ की अभिव्यंजना का हथियार है. अमरकांत के बारे में उनका मत दो-टूक है. उन्होंने कहा कि कस्बाई जीवन के पहलुओं को अपने लेखन में समेटने में अमरकांत दक्ष थे. वे लिखते नहीं थे, बोलते थे.

डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया का स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि वे हिंदी भाषा के गहरे अध्येता एवं चिंतक थे.

'आलोचना' के संपादक परमानंद श्रीवास्तव हमेशा नए आलोचकों को केंद्र में रखते थे. उनकी 'निजता' सिर्फ उनकी ही थी. वे जीवन पर्यंत मार-काट वाली आलोचना का विरोध करते थे तथा शैलीवैज्ञानिक आधारों को लेकर काम करना पसंद करते थे. उन्होंने परमानंद श्रीवास्तव को 'नई राहों के अन्वेषी आलोचका' कहा.

राजेंद्र यादव के बारे में स्पष्ट करते उन्होंने हुए कि हिंदी साहित्य जगत में जयादा बखेड़े किसी और साहित्याकर ने नहीं की जितनी राजेंद्र यादव ने की. राजेंद्र यादव की भाषा पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि  उनकी भाषा ललकार की भाषा थी. आग की शैली थी.

हिंदी साहित्य जगत में पहली बार दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को लाने वाले साहित्यकार के रूप में उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि को याद करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी कविताएँ वस्तुतः छोटी छोटी चित्रावलियाँ लगती हैं. उन्होंने यह भी कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का सारा साहित्य स्वयं में दलित आंदोलन है.

अध्यक्षीय भाषण में दिल्ली से पधारे वरिष्ठ कवि एवं भाषाविद प्रो. हीरालाल बाछोतिया ने कहा कि प्रो. दिलीप सिंह ने बीज भाषण में बीज बोते बोते एक विशाल वटवृक्ष को खड़ा कर दिया है तथा आज की धारा को, सही नब्ज को पकड़ लिया है.

उद्घाटन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ की अध्यक्ष प्रो. अमरज्योति ने किया.   

गुरुवार, 27 मार्च 2014

बेलगाम में राष्ट्रीय संगोष्ठी 29-30 मार्च को

हैदराबाद, 27 मार्च 2014 [मीडिया विज्ञप्ति]

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के तत्वावधान में आगामी 29-30 मार्च को द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संस्थान के बेलगाम [कर्नाटक] केंद्र में आयोजित की जा रही है. यह राष्ट्रीय संगोष्ठी गत दिनों दिवंगत हुए चार साहित्यकारों राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया और ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुण्य-स्मृति को समर्पित है. इस अवसर पर आंध्र-सभा की पत्रिका ‘स्रवंति’ का इन्हीं साहित्यकारों पर केंद्रित विशेषांक भी प्रकाशित किया गया है.

संगोष्ठी का बीज-भाषण संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह देंगे तथा उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता समकुलपति आर. एफ. नीरलकट्टी करेंगे. मुख्य अतिथि के रूप में केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक प्रो. केशरी लाल वर्मा तथा बतौर विशेष अतिथि अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य प्रो. एम. वेंकटेश्वर शिरकत करने वाले हैं.

विभिन्न विचार सत्रों में डॉ. एस. वी. एस. एस. नारायण राजू, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. नजीम बेगम, डॉ. शकीला बेगम, डॉ. बिष्णु कुमार राय, डॉ. सी. एन. मुगुटकर, डॉ. के एस. पाटिल, डॉ. वेद प्रकाश, डॉ. निर्मला एस. मौर्य, डॉ. अर्जुन चह्वाण, डॉ. पी राधिका, डॉ. एच. आर. घरपणकर, डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. मंजुनाथ अंबिग, डॉ. गोरख नाथ तिवारी, डॉ. संजय मदार, डॉ. पी. एन. हेगडे, डॉ. दिलीप सिंह, डॉ. राम जन्म शर्मा, डॉ.ऋषभ देव शर्मा, डॉ. एम. वेंकटेश्वर और डॉ. हीरा लाल बाछोतिया शोधपत्र प्रस्तुत करेंगे. सत्रों की अध्यक्षता प्रो. चंदू लाल दुबे, प्रो. प्रभा भट्ट, प्रो. टी. आर. भट्ट और प्रो. एम.एल. दखनी करेंगे.

संगोष्ठी के निदेशक प्रो. दिलीप सिंह और संयोजक डॉ. वी. एन. हेगडे ने साहित्य प्रेमियों, प्राध्यापकों और शोधार्थियों से दो दिन के इस राष्ट्रीय समारोह में सम्मिलित होने की अपील की है.

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

‘हिंदी-कन्नड़ आधुनिक काव्य की प्रवृत्तियाँ’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

बीजापुर कर्नाटक में आयोजित
 ‘हिंदी-कन्नड आधुनिक काव्य की प्रवृत्तियाँ’ 
विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी केउद्घाटन सत्र में 
दीप प्रज्वलित करते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा. 
साथ में (दाएं से) डॉ. एस.टी. मेरवाडे, प्रो. एस.एच. लगली, 
प्रो. एस.जी.गनी, डॉ. श्रीशैल नागराल और डॉ. एस.जे. पवार.
बीजापुर (कर्नाटक), 14 मार्च 2014.

एस.बी. कला एवं विज्ञान महाविद्यालय तथा रानी चन्नम्मा विश्वविद्यालय कॉलेज हिन्दी प्राध्यापक संघ के संयुक्त तत्वावधान में ‘हिंदी-कन्नड़ आधुनिक काव्य की प्रवृत्तियाँ’ विषय पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया. प्रो. एस.एच. लागली ने संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए कहा कि ऐसी संगोष्ठियाँ दो भिन्न भाषियों को जोड़ने के लिए सेतुओं काम करती हैं और ऐसी समेकित संगोष्ठियों का सभी प्रांतों में करने से देश की अखंडता को पुष्ट किया जा सकता है. 

हैदराबाद से पधारे कवि एवं समीक्षक प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने अपने बीज वक्तव्य में इक्कीसवीं सदी कीं हिंदी कविता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज कविता भी भूमंडलीकरण और ‘भूमंडीकरण’ की चपेट में आ गई है और सत्य को टुकड़ों-टुकड़ों में देख व बखान रही है. आगे कहा कि स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, मुस्लिम विमर्श, आदिवासी विमर्श, पर्यावरण विमर्श के नाम प्रचारित साहित्य की बहुकेंद्रीयता का ही यह परिणाम है कि आज की कविता कोई प्रतिरोध खड़ा करती नहीं दिखाई देती.

विशेष अतिथि डॉ. श्रीशैल नागराल ने कन्नड़ की आधुनिक कविता पर बीज व्याख्यान में कहा कि आज का कन्नड कवि अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक है. नूतन कला महाविद्यालय, तिकोटा (बीजापुर) के प्राचार्य प्रो. एस जी गनी ने उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता की और ‘भारतीय भाषाएँ: नई सदी का कथा साहित्य’ और ‘वचनगल प्रस्तुतते’ नामक दो पुस्तकों का लोकार्पण किया. प्रो. एस जे जहागीरदार ने संचालन किया.

विचार सत्रों में कर्नाटक विश्वविद्यालय धारवाड़ की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. प्रभा भट्ट ने ‘इक्कीसवी सदी की हिंदी कविता और स्त्री विमर्श’ तथा किरण पाटिल ने आधुनिक कन्नड़ काव्य में तकनीक के प्रयोग पर विषय प्रवर्तन किया जिसकी अध्यक्षता प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने की. 

समापन समारोह में मुख्य अतिथि प्रो. एम.बी. दिलशाद ने साहित्यकार को संवेदनशील मानते हुए सामाजिक परिवर्तन में योगदान का स्मरण कराया. प्रो. के.एस. बिरादार ने समारोह की अध्यक्षता की. डॉ. एस.जे. पवार तथा प्रो. एस.बी. हडलगेरी मंच पर उपस्थित थे. संगोष्ठी में डॉ. एस.टी. मेरवाडे, प्रो. ई.एम. सिद्दीकी, प्रो.बी.बी. डेगनवर और प्रो. आर.वी. पाटिल सहित सैंकड़ों हिंदी तथा कन्नड़ प्रेमियों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया.

(रिपोर्ट : प्रो.एस.जे.जहागीरदार) 

गुरुवार, 13 मार्च 2014

गीतकार ईश्वर करुण के सम्मान में होली मिलन कवि गोष्ठी संपन्न




दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में संपन्न सम्मान समारोह के अवसर पर 
‘साहित्य मंथन’ और ‘श्री साहिती प्रकाशन’ की ओर से गीतकार ईश्वर करुण को 
प्रशस्ति पत्र समर्पित करते हुए 
डॉ. राधेश्याम शुक्ल, नरेंद्र राय, डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, 
वेणुगोपाल भट्टड और होमनिधि शर्मा. 

फागुन का मौसम आया है/ यौवन फिर से गदराया है/ 
कामदेव के कंधे चढ़कर/ बूढ़ा छोरा बौराया है   –               ईश्वर करुण

हैदराबाद, 13 मार्च (प्रेस विज्ञप्ति). 

भारतीय संस्कृति में उत्सव और उल्लास की प्रधानता है. हमारे सभी पर्व आनंदमय हैं. होली सामूहिक आनंद का सार्वजनिक पर्व है. इसके साथ यह रोचक कथा जुड़ी है कि होलिका नाम की राक्षसी को यह वरदान प्राप्त था कि वह केवल बच्चों की हँसी की आवाज से ही मर सकती थी. आग के बीच में भी हँसते खेलते अबोध बालक प्रह्लाद की हँसी की किलकारियों ने उसे मार डाला. इसी घटना को उत्सव का रूप देकर होली को हास परिहास और रंगों की बौछार के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है. 

ये विचार ‘भास्वर भारत’ के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मेलन कक्ष में चेन्नै से पधारे प्रमुख गीतकार ईश्वर करुण के सम्मान में ‘साहित्य मंथन’ द्वारा आयोजित होली मिलन कवि गोष्ठी के भव्य समारोह का उद्घाटन करते हुए व्यक्त किए. डॉ. शुक्ल ने आगे कहा कि साहित्य का धर्म भी होली के साथ जुड़ी पौराणिक कथा जैसा ही है. वह हँसाता और मनोरंजन तो करता ही है, समाज में व्याप्त अमंगलकारी शक्तियों का नाश भी करता है. उन्होंने अतिथि गीतकार की रचनाओं में हास्य और शृंगार के साथ लोक रक्षण की प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हुए उन्हें एक सफल गीतकार बताया. 

समारोह की अध्यक्षता अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त हास-व्यंग्यकार वेणुगोपाल भट्टड और वरिष्ठ वैज्ञानिक, चिंतक एवं कवि डॉ. देवेंद्र शर्मा ने की. इस अवसर पर वरिष्ठ गीतकार एवं चित्रकार नरेंद्र राय, राजभाषाकर्मी होमनिधि शर्मा, कवयित्री अहिल्या मिश्र, हिंदी सेवी सी.एस.होसगौडर, एस. वेंकटेश्वर एवं कवि-समीक्षक प्रो. ऋषभ देव शर्मा विशेष अतिथि के रूप में मंचासीन हुए. ज्योति नारयण ने सरस्वती वंदना की तथा अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम आरंभ हुआ.

संयोजक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने मुख्य अतिथि का परिचय देते हुए बताया कि ईश्वर करुण चार दशक से अधिक समय से निरंतर गीतिकाव्य की समृद्धि और हिंदी कविता के मंच की गरिमा की रक्षा के कार्य में लगे हुए हैं. उन्होंने करुण के ताजा कविता संग्रह ‘चुप नहीं है ईश्वर’ पर समीक्षात्मक चर्चा भी की. इसके पश्चात ‘साहित्य मंथन’ और ‘श्री साहिती प्रकाशन’ की ओर से ईश्वर करुण का सारस्वत अभिनंदन करते हुए उन्हें व्यक्तिगत गुणों और हिंदी सेवा के लिए प्रशस्ति पत्र समर्पित किया गया. साथ ही विश्वम्भरा, हिंदी अकादमी - संकल्य, कादम्बिनी क्लब, ऑथर्स गिल्ड, स्रवंति, सांझ के साथी, आनंदऋषि साहित्य निधि, आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रतिनिधियों ने मुख्य अतिथि को स्मृति चिह्न, पुष्प गुच्छ, उत्तरीय, पुस्तकें और लेखन सामग्री भेंट कर के सम्मानित किया. 

इस अवसर पर सम्मानित कवि ईश्वर करुण ने विभिन्न चक्रों में अपने दस चुनिंदा गीतों का सस्वर वाचन किया. ‘’नेह के नगर में विश्वास की धरोहर/ लुटने न पाए कभी मीत इसे देखना’’, ‘’तुमको घायल करें जब निराशा के क्षण/ आडी तिरछी लकीरों को तुम चूम लो’’, छेड़ती है फागुनी हवा/ उसको ज़रा डाँटो भाभी जी’’, अपना गुस्सा मुझे सारा दे दो प्रिये/ माँगता हूँ यही तुमसे मैं बावला/ तुम निखर जाओगी राधिका की तरह/ मैं भी बन जाऊंगा कृष्ण सा सांवला’’, ‘’फागुन का मौसम आया है/ यौवन फिर से गदराया है/ कामदेव के कंधे चढ़कर/ बूढ़ा छोरा बौराया है’’, ‘’कौन सता गहेगा अब/ ये रामजी जाने’’, ‘’एक चिट्ठी आयी है/ मुझको मेरे घर से दोस्तो’’, ‘’कोयल की पुकार पर/ मीठी मनुहार पर/ आई होली रे / मितवा आई तेरे द्वार पर’’ – जैसी काव्य पंक्तियों ने श्रोताओं को भाव विभोर और रसमग्न कर दिया. 

कवि गोष्ठी में नगर के विशिष्ट कवियों और हिंदी सेवियों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया जिनमें डॉ. बी. बालाजी, डॉ. के. बी. मुल्ला, डॉ. गोरख नाथ तिवारी, डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. ए.जी.श्रीराम, संतोष काम्बले, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, अजित गुप्ता, पवित्रा अग्रवाल , मीना मुथा, गुरु दयाल अग्रवाल , भावना पुरोहित, भँवर लाल उपाध्याय, विनीता शर्मा, सुषमा बैद, ज्योति नारायण, तेजराज जैन, बिशन लाल संघी , आशीष नैथानी सलिल, अजित गुप्ता, जी. संगीता, उमा गौरी देवी, टी. सुभाषिनी, एस.वी.एस.एन.पल्लवी, रेणु कुमारी, संतोष विजय , गहनी नाथ और एन. अप्पल नायुडु के नाम सम्मिलित हैं. 

सारस्वत सम्मान स्वीकार करते हुए ईश्वर करुण ने हैदराबाद के साहित्य जगत का आभार व्यक्त किया और कहा कि इस आत्मीय अभिनंदन से मुझे अवर्णनीय आनंद और साहित्य सृजन के लिए ऊर्जा प्राप्त हुई है. 

कवि गोष्ठी का संचालन लक्ष्मी नारायण अग्रवाल ने किया तथा कार्यक्रम संयोजक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ समारोह का समापन हुआ.

बुधवार, 12 मार्च 2014

[निमंत्रण] गीतकार ईश्वर करुण का सारस्वत सम्मान 12 मार्च को

ईश्वर चंद्र झा  ''ईश्वर करुण''


आदरणीय महोदय/ महोदया,
सादर नमस्कार.

होली की सतरंगी शुभकामनाएँ देते समय आपको यह सूचित करते हुए हम हर्षित हैं कि चेन्नई के प्रमुख हिंदी गीतकार  ईश्वर करुण के हैदराबाद आगमन के अवसर पर उनके सम्मान में ''होली मिलन कवि गोष्ठी'' का आयोजन खैरताबाद [हैदराबाद - 500004] स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन-कक्ष में 12 मार्च 2014 [बुधवार] को सायं 5 बजे किया जा रहा है.

आप इस कार्यक्रम में सादर आमंत्रित हैं.

सादर 
नीरजा



शनिवार, 8 मार्च 2014

21वीं शती के साहित्य पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

खालसा कॉलेज, मुंबई में 21 वीं शती के हिंदी साहित्य पर केंद्रित 
द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का 
उद्घाटन दीप प्रज्वलित करते हुए 
[बाएँ से] डॉ. रमेश दवे, डॉ. दामोदर खडसे, डॉ.अजीत सिंह और 
डॉ. सत्यकाम तथा [माइक पर] डॉ. मृगेंद्र राय.
मुंबई, 8 मार्च 2014. 
गुरुनानक खालसा कॉलेज के हिंदी विभाग तथा महारष्ट्र राज्य हिंदी समिति के संयुक्त तत्वावधान में ‘भूमंडलीकरण : 21वीं शती के प्रथम दशक का हिंदी साहित्य’ विषय पर द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई. 

संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए ‘समीक्षा’ के संपादक और इग्नू के प्रोफ़ेसर डॉ. सत्यकाम ने हिंदी साहित्य की कालजयी कृतियों के हवाले से यह कहा कि ‘बाजार हमेशा मौजूद रहा है. वह ईमानदार आदमी को खरीदता है. हिंदी में आधी रचनाएँ विरोध से आशंकित हैं. आज हमारे समक्ष केवल बाजार का ही संकट नहीं बल्कि साहित्य और पर्यावरण का भी संकट उपस्थित है.’ उन्होंने आगे कहा कि ‘बाजार इतना मजबूत हो चुका है कि वह साहित्य से दोस्ताना करने का प्रयास कर रहा है. आज हिंदी साहित्य से गाँव लुप्त होते जा रहे हैं.’ 

भोपाल से पधारे प्रो. रमेश दवे ने कहा कि ‘आज के इस बनावटी संसार में साहित्य में जंग हो रही है, मीडिया में नहीं. भूमंडलीकरण के इस युग में साहित्य मंडी के हाथों कठपुतली बनकर रह गया है.’ 

उद्घाटन सत्र के अध्यक्षीय संबोधन में अकादमी के कार्याध्यक्ष डॉ. दामोदर खडसे ने कहा कि ‘वैश्वीकरण के इस युग में साहित्य पूरी तरह से बाजार से प्रभावित होता दिखाई दे रहा है. कलम की स्वतंत्रता बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव से बाधित है.’

शुरू में खालसा कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अजीत सिंह ने अतिथियों का स्वागत-सत्कार किया. डॉ. रत्ना शर्मा ने विषय की प्रस्तावना प्रस्तुत की. उद्घाटन सत्र का संचालन डॉ. मृगेंद्र राय ने किया. 

‘भूमंडलीकरण और वर्तमान परिप्रेक्ष्य’ पर आधारित प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो. रामजी तिवारी ने की. मुख्य वक्ता डॉ. त्रिभुवन राय ने कहा कि ‘भूमंडलीकरण के इस दौर में पश्चिम की चकाचौंध से युवा वर्ग अधिक प्रभावित है. वर्तमान समय में साहित्यकारों के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं जिनसे उन्हें निरंतर जूझते रहना है.’ इस अवसर पर डॉ. हूबनाथ पांडेय, डॉ. मनप्रीत कौर, डॉ. विनीता सहाय और डॉ. वंदना शर्मा ने शोधपत्र प्रस्तुत किए. 

दो दिन के इस कार्यक्रम में विभिन्न सत्रों में भूमंडलीकरण और काव्य, भूमंडलीकरण और कथासाहित्य, भूमंडलीकरण और जनसंचार तथा साहित्य की अन्य विधाओं पर विस्तार से चर्चा हुई. इस चर्चा में इलाहाबाद से आए डॉ. रामकिशोर शर्मा, हैदराबाद से पधारे डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. रतन कुमार पांडेय, डॉ. चंद्रदेव कवडे, डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी, डॉ. विष्णु सर्वदे, डॉ. मधुलिका पाठक, दयानंद भुबाल, डॉ. उषा श्रीवास्तव, डॉ. उषा मिश्रा, डॉ. शीला अहुजा, भुवेंद्र त्यागी और डॉ. सूर्यबाला ने विभिन्न सत्रों में अध्यक्ष तथा विषय प्रवर्तक के रूप में अपने विचार व्यक्त किए.

यहाँ भी देखें
खबर प्लस