गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

(पुस्तक समीक्षा) तस्मै श्री गुरवे नमः – ‘इतिहास हुआ एक अध्यापक’


पुस्तक समीक्षा
           

तस्मै श्री गुरवे नमः – ‘इतिहास हुआ एक अध्यापक

                                                                              ­ - डॉ. सुषमा देवी                                               

विवेच्य ग्रंथ इतिहास हुआ एक अध्यापक के ग्रंथनायक डॉ. प्रेमचंद्र जैन का जीवन स्वयं एक महाग्रंथ स्वरूप है। यह महाकाय ग्रंथ साहू जैन कॉलेज, नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश) के आचार्य स्वर्गीय डॉ. प्रेमचंद्र जैन की पुण्य स्मृति को समर्पित है। बतौर शिक्षक वे ज्ञान और मूल्य के जीवंत उदाहरण थे। उन्होंने शिक्षक-जीवन की ऐसी कृतार्थता उपलब्ध की थी, जब समाज में शिक्षक के शब्दों से अधिक उसका व्यवहार बोलने लगता है। निश्चय ही यह  उस समाज की भी धन्यता है। संपादकों ने इस ग्रंथ में जहाँ उनके अप्रकाशित साहित्य - कविता, कहानी, आलोचना, वार्ता और व्याख्यान – को शामिल किया है, वहीं हिंदी सेवियों और साहित्यकारों के साथ उनके पत्राचार को भी सहेजा है। उनसे जुड़े अनेक संस्मरण यहाँ हैं, तो उनके जीवन-संघर्ष की वह गाथा भी, जो ऐतिहासिक महत्व की है। उनके साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख इस सारी सामग्री को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। कुल मिलाकर यह स्मृति ग्रंथ एक अध्यापक के संघर्ष, सामाजिक संपृक्ति, रचनधर्मिता और सर्जना का साक्ष्य है, जिसमें नई पीढ़ी के लिए अनेकविध प्रेरणा विद्यमान है।

डॉ. प्रेमचंद्र जैन की कविताओं की बात करें तोअपना परिचय स्वयं हूँ। वे स्वयं से अधिक अपने आपको विद्यार्थियों का मानते हैं।शनै: शनै: उभर रहा चित्रमें कवि ने स्त्री की अस्मिता के रक्षक कृष्ण से अधिक चारों ओर दुर्योधन के शरविद्ध   होने की कामना की है। समय के फलक पर जीवन-सत्य का उद्घाटन करने वाले कवि ने गरूरमें दर्शाया है कि असाध्य रोग भी शिक्षक को कर्म से विरत नहीं कर सकते। राष्ट्रीय सेवा योजना के वीर में शिक्षा के व्यापारी रूप से त्रस्त कवि चहुँओर भ्रष्टाचार को देखकर आहत हैं।  

डॉ प्रेमचंद्र जैन की  कहानियों में, ‘स्वाभिमानी लाला जीमें नायक के स्वाभिमानी स्वरूप का चित्रण है, तोरानी फूलनदेकहानी में लोककथा के माध्यम से जीवन मूल्य का चित्रण है।  कलजुगावतारीमें लोककथा के माध्यम से शेर द्वारा कथानायक के बहाने भ्रष्टाचारियों पर व्यंग्य किया गया है , यथा मैं तुम जैसे भूखों को नहीं खाता। बड़े-बड़े पैसे वाले, गरीबों का खून चूसकर घर भरने वाले मालदार मोटों को खाता हूँ। (इतिहास हुआ एक अध्यापक , पृष्ठ 37)   विद्या और कला की महिमाकहानी में भी लोककथा के माध्यम से लेखक ने विद्या, कला, वीरता की महिमा का बखान करते हुए इन्हें धन और  राजपाट से अधिक महत्वपूर्ण बताया है। एक राजकुमार का ब्याहकहानी में जीवन में सहीगलत की सीख राजा , रानी और राक्षस पात्र के माध्यम से दी गई है। चार खंडों वाली चाचा की कहानीके पहले खंड में फंतासी के माध्यम से न्याय-व्यवस्था पर कटाक्ष किया गया है। दूसरे खंड में प्राचीन ग्रामीण शिक्षा की व्यावहारिकता  को रोचक ढंग से बताया गया है।  तीसरे में बंदर, राक्षस और पंडित के माध्यम से रोचक कथा बुनी गई है तो चौथे और अंतिम खंड में राजा, रानी, राजकुमारी, सेनापति आदि पात्रों के सहारे कर्म की सर्वोपरिता का प्रतिपादन किया गया है।  नानी की कहानीमें अच्छी और बुरी संगत के बारे में रोचक कहानी कही गई है।  माँ की कहानी ( तू खा गलागल  खिचड़ी, मैं सैलाऊँ तेरी पूँछड़ी )’ में हरियाणवी लोककथा की लेखक ने ऐसी प्रस्तुति की है मानो पाठक कहानी पढ़ न रहे हों, बल्कि उसके साक्षी बने हो।  लघुकथाआपबीतीमें लेखक ने बेरोजगारी पर बड़ी मार्मिक कथा लिखी है। ये सभी कहानियाँ लोकजीवन और लोकमानस से लेखक के गहरे जुड़ाव का तो पता देती ही हैं, संस्कारों के निर्माण में लोक साहित्य की महत्ता के प्रति उनके विश्वास को भी दर्शाती हैं।  

विचार विवेचनमें डॉ. प्रेमचंद्र जैन के शोधपूर्ण लेखन की बानगी प्रस्तुत की गई है।  प्रेमाख्यानक परंपरा और जायसी का पद्मावतमें लेखक ने प्रेम जैसी शाश्वत भावना की कबीरदास के दोहे, डॉ. भगवानदास केसाइंस ऑफ़ इमोशंस’, कार्ल मेनियर केलव अगेंस्ट हेट’, वात्स्यायन केकामसूत्र’, भवभूति, घनानंद आदि के प्रेम के संदर्भ में दिए गए विचारों के साथ जायसी की प्रेमाख्यानक परंपरा का गहन विश्लेषण किया है।  बोधिसत्व का अवतरणमें गौतम बुद्ध के जीवन को तथा उनके द्वारा प्रसारित विचारों को मानव के लिए अत्यंत आवश्यक बताया है।  हमारे पथ प्रदर्शक भारतीय दर्शनों में जैन धर्ममें लेखक कहते हैं, ‘मैं मानता हूँ  कि व्यक्ति और आत्म-स्वातंत्र्य के लिए दर्शनों की यह विविधता या अनेकता शुभ लक्षण है। जैन दर्शन वस्तु को अनेक गुण-धर्म वाला मानता है।  हमने देखा, पथ और पथ-प्रदर्शक अनेक हैं।  इनका वर्गीकरण करें तो पथ और पथ-प्रदर्शकों कीसुऔरकुउपसर्ग पूर्वक दो श्रेणियाँ बनेंगी। ’( वही/ 88)  निराला की सामाजिक व सांस्कृतिक चेतनामें लेखक निराला की क्रांति-प्रेरक विचारधारा की प्रसूति वेदांत से मानते हैं, क्योंकि वे मार्क्सवाद को स्वीकार नहीं करते।  एक ही ब्रह्म से सारी आत्माएँ प्रसूत हैं , ऐसा बताते हैं।  इसी को व्यवहार में लाते हैं, इसीलिए मार्क्सवाद से दो कदम आगे हैं।' (वही/ 92)

डॉ. प्रेमचंद्र जैन के वक्तव्यों को उनकी विचारधारा का प्रतीक माना जा सकता है।  उनके वक्तव्यों की कड़ियों को संपादक ने बड़ी सुंदरता से संकलित किया है।  डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल : हिंदी के गौरवमें डॉ। बड़थ्वाल की शोध दृष्टि के व्यापकत्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ. जैन कहते हैं, संस्कृति, व्यक्ति, समाज और योग मानस की संस्कार प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रकाशन होता है।  मूलतः रचनाकार का जिस पर प्रातिभ संरंभ है, उसके कथ्य पर ध्यान न देना न्यायोचित नहीं होगा।' (वही/ 99)  रेडियो वार्ताके अंतर्गतरीतिकालीन काव्य में शरद ऋतु वर्णनमें वे कहते हैं, ‘ सृष्टि के आदि से लेकर अब तक ऋतुएँ आती-जाती रही हैं।  किसी भी संस्कृति की थाती उसका साहित्य होता है। (वही/ 106) लेखक ने रीतिकाल की शृंगारिकता के उपेक्षकों को आड़े हाथों लिया है।  शरद ऋतु को संस्कृत, अपभ्रंश तथा हिंदी के वीरगाथाकाल और भक्तिकाल की रचनाओं में भी उद्घाटित किया है।  दीपावली का महत्त्ववार्ता में दीपावली की पौराणिक , सांस्कृतिक तथा विज्ञानसम्मत व्याख्या की गई है। गाँधी दर्शन: आज के परिप्रेक्ष्य मेंवे कहते हैं, ‘समस्त सोद्देश्य मानव कर्म जीवन-दर्शन द्वारा परिचालित एवं नियंत्रित होते हैं।  इसके बिना कोई भी समाज-व्यवस्था उद्देश्यहीन एवं मानव-कर्म अन्धवत होते हैं।‘ (वही/ 115)। लेखक का बहुआयामी व्यक्तित्व उनके विचारों एवं लेखन में सहज ही दृष्टव्य होता है। राजभाषा  हिंदी की संवैधानिक स्थितिकी विवेचना करते हुए डॉ. जैन कहते हैं, ‘विडंबना ही है कि सांस्कृतिक एकता स्थापित करने के उद्देश्य से शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों धामों की यात्रा में भाषा कभी बाधक नहीं बनी। उत्तर-दक्षिण, आर्य-अनार्य का प्रसंग नहीं उठा।  राष्ट्रभाषा हिंदी पर ही अड़ंगा क्यों?' (वही/ 130 )

रचना का भीतरी सच नामक खंड में विभिन्न विद्वानों द्वारा डॉ. प्रेमचंद्र जैन की रचनायात्रा की समीक्षा की गई है। प्रो. गोपाल शर्मा ने  पुरुष कहाणी हौं कहौं जसु पत्थावे पुन्नु (अपभ्रंश कथाकाव्य से हिंदी प्रेमाख्यानक तक)’ में डॉ. जैन की प्रेमाख्यानक के संदर्भ में प्रतिपादित वैचारिक स्थापनाओं का गहन मंथन किया गया है।  इसमें  हिंदी की जननी भाषा के अवदान को भी रेखांकित किया गया है। डॉ. ऋषभदेव शर्मा नेनित प्रति धोक हमारा हो!’ में ललित निबंधात्मक शैली में डॉ. प्रेमचंद्र जैन की जैन दर्शन  की विवेचना का परिचय दिया है। यथा, ‘दूसरों के घरों में घूमते-घूमते हमने अनंत काल बिता दिया।  यहाँ-वहाँ न जाने कैसे-कैसे नाम रखे गए।  हम अपने घर कभी नहीं आए।  अध्यात्मपरक भाव यह है कि कवि निरंतर आत्मा में पछताता है और व्यग्र होता है कि यह भूल क्यों रहा हूँ।  फिर भी आत्म-परिणति प्राप्त नहीं कर सका।  पर-परिणतियों में ही घूमते हुए न जाने कितने भव व्यतीत हो गए , फिर भी निज घर नहीं आया।’ (वही/ 146 )मन की तरंग के कवि : डॉ प्रेमचंद्र जैनमें डॉ. अरुण देव ने कवि की जीवटता का उल्लेख किया है कि वे अपने जीवन के उलझनों से उकताकर संन्यास की राह की ओर देखते रहे, किंतु शीघ्र ही कर्मपथ पर बढ़ चले। वे धर्म, अध्यात्म और साहित्य पथ के बटोही होकर भी धार्मिक संकीर्णताओं से सर्वथा मुक्त थे।वे कहते हैं कि दीमक चट कर जाए ऐसी नींव नहीं हूँ और यह भी कि मैं अपने पैरों के पुल पर खड़ा हुआ हूँ।‘ (वही/ 149)

डॉ. बी. बालाजी तथा शीला बालाजी के लेखमानवता में आस्था के कवि डॉ प्रेमचंद्र जैनडॉ. प्रेमचंद्र जैन की कविताओं गुदगुदी घास’, ‘हम अहिंसक हैं’, ‘ओ छब्बीस जनवरी’, ‘इकतीसवाँ गणतंत्र दिवस’, ‘कृषक मेले के अवसर पर’ , ‘एक पाती मेरी भाती’, ‘कवि छोड़ो’, ‘रे कलियुग के देव’, ‘चश्म नम हैं मुफलिसों को देखकर’ , ‘रंग में सराबोरके आधार पर  कवि की दृष्टि-विविधता को विश्लेषित किया गया है। प्रवीण प्रणव ने  शायद पता चले, शायद नहीं भीमें डॉ. प्रेमचंद्र जैन की विविधरंगी कविताओं का हिंदी के अन्य रचनाकारों के रचनात्मक साम्य के साथ  विवेचन किया है। डॉ. जैन के संदर्भ में वे कहते हैं, ‘आत्ममुग्धता के इस दौर में जहाँ हर आदमी अपनी ही प्रशंसा का आकांक्षी हो, डॉ. जैन जैसे लोग विरले ही हैं, जो दूसरों की खुशीमें अपनी खुशी पाते हैं।  एक शिक्षक का भी अपने छात्रों से स्नेह संबंध सामान्यतः शिक्षण के दौर तक ही रहता है, कम ही शिक्षक हैं जो अपने पूर्ववर्ती छात्रों से भी स्नेह बनाए रखते हैं। (वही/ 165)

डॉ. चंदनकुमारी नेप्रेमचंद्र जैन की समीक्षा दृष्टिपर विस्तार से चर्चा की है। समाज में महिलाओं की स्थिति’, ‘अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना’, ‘जीवन बनाम वैचारिक गंगा स्नानआदि के सहारे डॉ. जैन के वैचारिक विस्तार को उद्घाटित किया गया है।  डॉ. सुपर्णा मुखर्जी केअंतरिक्षीय शब्दों को समझने का प्रयासके अंतर्गत भारतेंदु , शरत, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ शिवप्रसाद सिंह आदि के संदर्भ में लेखक की वैचारिकता को उद्घाटित किया गया है।  प्रसंगवश यह जानकारी भी कि डॉ. जैन ने अपने पिता की इच्छा के विपरीत शिक्षा कर्म को चुना। पिताजी उन्हें जैन धर्म के पंडित, व्याख्याकार तथा ज्योतिषी के रूप में जीवन वृत्ति अपनाने के पक्षधर थे। उनके लिए धर्म केवल ईश्वर-ईश्वर चिल्लाते रहने का साधन नहीं था। धर्म उनके लिए मानवता , समरसता को जन्म देने वाला साधन था।’ (वही/ 178)

पत्र संग्रह सेनामक खंड में डॉ. जैन के विशाल हृदय और तीक्ष्ण बौद्धिक तेज को देखा जा सकता है।  पत्र व्यक्ति के मन के भावों का कच्चा चिट्ठा खोलता है।  बनारसीदास चतुर्वेदी, शिवप्रसाद सिंह, नागार्जुन, कमलेश्वर, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, तेजपाल सिंह, ज्ञानेंद्र, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मधुरेश, इंदु जैन, विष्णु प्रभाकर, धर्मेंद्र गुप्त, कृष्णबिहारी मिश्र, मैनेजर पांडेय, पद्मधर त्रिपाठी, शंभुनाथ, हरिपाल त्यागी, माहेश्वर तिवारी, पीतांबर देवरानी, जगतराम मिश्रअकिंचन’, जवरीमल्ल पारख, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, वाचस्पति, श्रीराम आर्य, अजेय कुमार, चंचल चौहान, कुलदीप, भीमसेन निर्मल, सुमनलता, ठाकुर प्रसाद सिंह, चंद्रकला त्रिपाठी, भागचंद्र, बाबू लाल जी जमादार, अशोक, कस्तूर चंद  कासलीवाल, तेज गंगवाल, पद्म चंद शास्त्री, लाल चंद  शास्त्री, ज्ञानमाला जैन (बड़ी बहन ), हरीशचंद्र शर्मा, महेंद्र मधुकर, उमेश प्रसाद सिंह, मौ.अकरमखाँ,अशोक महेश्वरी, ऋषभदेव शर्मा और देवराज आदि डॉ. जैन के शुभाकांक्षी सतत पत्राचार करते रहते थे।  इन पत्रों में अपनत्व की ऐसी झलक दिखती है कि यह तय करना सर्वथा असंभव प्रतीत होता है कि कौन इनके बंधु-बांधव हैं और कौन इनके साहित्यिक राहों के सहयात्री।  सभी अधिकार भाव और स्वास्थ्य चिंता के साथ पत्र लिखा करते थे। साथ ही, समाज, साहित्य और भाषा की चिंताएँ भीं। देवराज के एक पत्र का यह अंश देखा जा सकता है, ‘अब कुछ लोगों ने फिर एक चाल चली है ...हिंदी फिल्मों के बायकॉट की। यह कार्यक्रम 17 जून के लिए तय किया गया है, सिर्फ एक दिन के लिए। अब देखिए क्या होता है। (वही/ 238)

एक संघर्ष कथा यह भीखंड में डॉ. देवराज के द्वारा लिखितनजीबाबाद नगर और डॉ प्रेमचंद्र जैन (संघर्षों की इतिहास-कथा)’ में  ग्रंथनायक के जीवन संघर्ष को इन शब्दों में समझा जा सकता है, ’डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने जिस धरती पर कदम रखा, वहाँ अमृत और विष दोनों ही थे। उन्हें अमृत-पान करके अपने को जन-संघर्ष के लिए तैयार करना था और नगर तथा इस अंचल को सांस्कृतिक-पतन की ओर धकेलने वाले विष को निष्प्रभावी बनाना था।’(वही/ 246)। इस खंड  में विस्तार से उनके शिक्षण एवं शिक्षणेतर संघर्षों की गाथा का उल्लेख है। इसी क्रम में हथेली पर समय के साथ अनंत की ओरनामक खंड में डॉ. देवराज द्वारा लिखितइतिहास हुआ एक अध्यापकको शामिल किया गया है। इसमें डॉ। जैन के मधुर सामाजिक समरसतापूर्ण व्यक्तित्व को रमुआ और शन्नूराम के साथ उनकी अभिन्नता के आख्यान द्वारा साकार किया गया है और डॉ. प्रेमचंद जैन के बचपन से लेकर उनके साहित्यिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन की अंतरंग चर्चा की गयी है, जो किसी उपन्यास जैसी रोचक है।   

स्मृतियाँ और स्मरणनामक खंड में प्रो. भागचंद जैनभास्करके संस्मरणअप्रतिम प्रतिभाशाली व्यक्तित्वमें ग्रंथनायक के समग्र जीवन की संक्षिप्त प्रस्तुति द्रष्टव्य है। डॉ. महेश सांख्यधर केढाई आखर प्रेम कामें कहा गया है, ‘यह प्रेम डॉ. प्रेमचंद्र जैन के मनसा-वाचा-कर्मणा में सर्वत्र भरा था।  निश्छल मन , सपाट बयानी , अपनापन और कड़क आवाज़  सामने वाले को अपनी ओर खींचती,तो खींचती चली जाती थी।’(वही/ 295)। डॉ सरोज मार्कंडेय ज्ञान , विवेक व संस्कार के प्रेरक पुंज: आचार्य डॉ. प्रेमचंद्र जैनमें बताती हैं कि एक शिक्षक के रूप में उन्होंने अपने विद्यार्थियों में सामाजिक ज्ञान, कर्म की गहरी नींव डाली। अशोक कुमार जैन ने भाई साहब में डॉ. जैन के साथ बिताए आत्मीय क्षणों का उद्घाटन किया है।  डॉ.योगेंद्रनाथ शर्माअरुण’, का. रामपाल सिंह, वीरेंद्र जैन, महमूद, डॉ. रमेश चंद्र जैन, इंद्रदेव भारती, जसवीर राणा, डॉ. ज्योति जैन, प्रो. हरीश कुमार शर्मा, सोज़ नजीबाबादी, डॉ आफ़ताब नोमानी, अनीता जैन, प्रियंका जैन, डॉ. गजेंद्र सिंहबटोही’, सैयद इकबाल हैदर, डॉ. रजनी शर्मा, सैयद नसीम अब्बास, मुकेश सुमन, प्रदीप डेजी, डॉ. हेमलता राठौर, इकबाल हिंदुस्तानी, शादाब ज़फ़र, पुनीत गोयल, एम. इकबाल शम्सी, राकेश  जाखेटिया, डॉ. शहला अंजुम, डॉ. गोपेश शर्मा, जयश्री, निर्मल शर्मा के संस्मरणों से  सज्जित इस पुस्तक में एक इतिहास को समेटने की कोशिश की गई है। ये सभी संस्मरणकार पास या दूर कहीं न कहीं  डॉ. प्रेमचंद्र जैन से प्रत्यक्ष परिचित थे। लेकिन इस खंड के दो आलेख इसलिए अलग से चर्चा करने योग्य हैं कि इनके लेखकों ने उन्हें व्यक्ति रूप में जानने से पहले उनकी मानस छवि का साक्षात्कार उनकी रचनाओं के माध्यम से किया। इनमें एक हैं डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा जिन्होंने अपने परदादा गुरु को और जितने दीप हैं, मैं सभी में हूँ! में श्रद्धापूर्वक याद किया है और दूसरी हैं डॉ. मंजु शर्मा जिन्होंने अपने आलेख में डॉ. जैन के शिक्षक व्यक्तित्व की उदारता और विराटता को समेटा है।

अंततः इस पुस्तक चर्चा को डॉ. प्रेमचंद्र जैन की इस प्रतिज्ञा के साथ समेटना उचित होगा कि- हिंदी के सम्मान की रक्षा करने के लिए मैं वह सब करूँगा जो कि मैं कर सकता हूँ।“  (वही/ 401)

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पुस्तक : इतिहास हुआ एक अध्यापक

संपादक  : दानिश सैफ़ी; सहयोगी संपादक : निर्मला शर्मा

प्रकाशन : अविचल प्रकाशन , ऊँचा पुल, हल्द्वानी- 263139

संस्करण : 2022

पृष्ठ: 413 (क्राउन आकार)

मूल्य: 850/-

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समीक्षक : डॉ. सुषमा देवी


असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी), भाषा विभाग,

भवन्स विवेकानंद कॉलेज, सैनिकपुरी,

 सिकंदराबाद- 500094 (तेलंगाना)

मोबाइल: 9963590938.

ईमेल- dr.sushmadevi@gmail.com

रविवार, 17 अप्रैल 2022

(ऋषभदेव शर्मा) … नित प्रति धोक हमारा हो!

इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ कुल पृष्ठ 414 / द्रष्टव्य पृ.143-147

… नित प्रति धोक हमारा हो!
  • ऋषभदेव शर्मा


"पंच परमेष्ठी, गुरुवर शि. प्र. सिंह, आ. ह. प्र. द्विवेदी एवं अन्य सभी मेरे नमनीय अथ च प्रिय बने, सभी का स्मरण व नमन कर लिया है। 


-दास कबीर जतन ते ओढ़ी, जस की तस धर दीनी चदरिया-  लेकिन मेरी चादर बहुत मैली है-  इसमें मेरा दोष नहीं, फिर भी रखनी है ही। निराशा नहीं है- आशा है। यह तो लिख दिया है; चूँकि भविष्य समय के हाथ है। वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्ख शतान्यपि- सो मेरे पास है। मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ।


स हि गगनविहारी ज्योतिषां मध्यचारी।

दशशतकरधारी कल्मषध्वंसकारी।।

विधुरपि विधियोगात् ग्रस्यते राहुणासौ। 

लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितं कः समर्थः।।


देवराज! ऋषभ!

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्दुःख भाग भवेत् ।।

(आशा है, स्वस्थ होगे।)


सन्तानवत् शिष्य-शिष्याएँ एवं सन्तान प्रगतिपथ पर बढ़ें! भवितव्यता बलवती होती है। भ्रातृज-परिवार श्रेष्ठ है। मनोनुकूल है। हिमांशु, श्रद्धा साहस से काम लेना है। आशीष!


प्रिय गजेन्द्र-हेम-शिशु; प्रिय पूनम एवं अन्य सभी-सभी आगन्तुकों-शुभेच्छुओ को बहुत-बहुत आभार। 


दिनांक 23 सितम्बर, 2001:

2 बजकर 6 मिनट।"


      (डॉ. प्रेमचंद्र जैन, हम तो कबहुँ न निज घर आये: 2007, पृष्ठ 54)


… अर्थात, पूज्य गुरुदेव डॉक्टर प्रेमचंद्र जैन को ओपन हार्ट बायपास सर्जरी के लिए जाते समय अपनी आत्मज संतानों के साथ ही अपने शिष्यों का भी पूरा पूरा खयाल था। सर्जरी सफल रही। गुरुदेव स्वस्थ होकर घर आए। पूरे दो दशक उसके बाद वे प्रत्यक्ष रूप से हमें आशीर्वाद देते रहे। लेकिन एक दैनिक समाचार पत्र के हाशिये पर, नर्स से लिए बॉलपेन से   अंकित, इस ऑपरेशन से पूर्व का उनका यह बयान उनके हृदय की विशालता का ही प्रतीक नहीं, हमारे (खास तौर से मेरे!) प्रति उनके अहेतुक स्नेह का घोषणापत्र भी है। ठीक है कि उन्होंने उस क्षण में डॉक्टर देवराज को याद किया। देवराज और पीसी जैन एक जमाने में पर्याय की तरह जाने जाते थे न! लेकिन मुझ अकिंचन का स्मरण क्यों किया होगा, यह समझने में मैं असमर्थ हूँ। मैं तो प्रायः उन्हें बस दूर- दूर से देखते रहने वाला चकोर भर था! प्रोफेसर देवराज अगर यह पुस्तक (हम तो कबहुँ न निज घर आये, 2007, रुड़की: सिद्धांताचार्य पंडित फूलचंद्र शास्त्री फाउंडेशन) मुझे न भेजते और भाई दानिश जी ने कुछ लिखने को बार-बार न कहा होता, तो शायद इस प्रसंग से में अनजान ही रह जाता। गुरुदेव ने इस कथन को इस पुस्तक में 'मृत्यु-पूर्व सही होश-ओ-हवास में दिए गए लिखित बयान' के रूप में उद्धृत किया है। इसके पुनरवलोकन को उन्होंने 'आत्म-परीक्षण करने का सुअवसर'  माना है। इससे उन्हें 'संस्कारों को शाणित करने का भरपूर सुयोग'  मिला और वे जीवन और मृत्यु के द्वंद्व से ऊपर उठ सके। आयु के अंतिम दो दशक उनके भीतर दिव्य आभा के प्राकट्य के वर्ष थे। इस अवधि में वे सचमुच 'प्रेम' का सर्वसुखकर 'चंद्र' बन गए थे। राहु भी अब उन्हें नहीं ग्रस सकता था- विधुरपि विधियोगात् ग्रस्यते राहुणासौ! 'हम तो कबहुँ न निज घर आए' इसी आत्म-परीक्षण और दिव्यता के अवतरण का साक्ष्य है। इस कृति के बहाने संत वाणी के निरंतर चिंतन-मनन-कीर्तन से वे समस्त कषायों और कल्मषों से मुक्त हो गए। यह कृति उनके पवित्र और निष्कलुष हृदय की वाणी है। बालपने से ही अपने अत्यंत प्रिय कविवर दौलतराम जी की रचनाओं के सहारे इस कृति में उन्होंने अपनी अध्यात्म यात्रा में भी पाठकों को शामिल होने का शुभ अवसर दिया है। ऐसी गहन अनुभूतिप्रवण रचना पर कुछ कहने-लिखने की अपनी अपात्रता से मैं परिचित हूँ, इसीलिए टाल रहा था। लेकिन अग्रजों के आदेश का पालन न करूँ तो अपराध होगा, इसलिए ये कुछ शब्द …! 


कहूँ तो ज़्यादती नहीं होगी कि इस पुस्तक के हर पन्ने से गुरुदेव झाँक रहे हैं और हर शब्द में सीधे हमसे बतिया रहे हैं। उन्हें 'निज घर' न पहुँच पाने की कवि दौलतराम की पश्चात्ताप-जनित छटपटाहट और मर्मांतक वेदना अपनी वेदना महसूस होती है। यही वेदना अंततः उन्हें वेदना से मुक्ति के उस आकाश तक ले गई, जहाँ मुक्त आत्माओं का 'निज घर' है। अंतर्वेदना के समान धरातल को पाने के लिए वे बार-बार अतीत में गोता लगाते हैं और संतवाणी का कोई ऐसा सुथरा मोती खोज लाते हैं जिसकी आब में परमतत्व के चिन्मय आलोक की मृदु-मधुर अनुभूति मिलती है। यह ऐसी भाव दशा है जब साधक 'भवसागर के मिथ्या दुःखों-सुखों को छोड़कर सच्चे सुख को भक्ति के माध्यम से प्राप्त करने का लक्ष्य' साध लेता है। अपनी इस उपलब्धि को इस कृति के माध्यम से वे हम सबको (लोक को) सौंप गए हैं। 


तीर्थंकरों, संतों और भक्त कवियों के हवाले से इस कृति में लेखक ने 'निज घर' तक पहुँचने की राह में महाठगनी माया से बचने और पिंड छुड़ाने का सीधा सा तरीका गब्बर सिंह के स्टाइल में बताया है- 'जो सम्यग् रत्न त्रय के दुर्गम पथ पर निडर होकर  बढ़ गया, वह तर गया।' (वरना तो, जो डर गया, समझो, मर गया!) दर्शन-ज्ञान-चरित्र के इस सम्यग् मार्ग का प्रतिपादन करते हुए लेखके ने सर्वत्र स्वानुभव पर ज़ोर दिया है और गतानुगतिकता से बचने की सलाह दी है। वे मानते हैं कि किसी विशेष तापमान की अग्नि में तपने के बाद स्वर्ण कुंदन बनता है, तो किसी विशेष दबाव के कारण कोयला हीरा बन जाता है। इसी तरह अध्यात्म के शिखर पर अवस्थित 'निज घर' तक आने के लिए 'पर घर' तो छोड़ना ही पड़ेगा। तप-साधना-आराधना के बिना आत्म-कल्याण संभव नहीं। यहीं डॉ. प्रेमचंद्र जैन यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि 'निज घर' की तलाश में निकलने वाले को पाखंडों के पचड़े से भी बचना होगा। वे बताते हैं, "जैन दर्शन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण में मेरी आस्था है। पाखंड, द्वेष, मतवाद, जाति-वर्णवाद के पचड़ों में मेरा विश्वास नहीं है।… निर्ग्रंथ गुरु एवं देव-शास्त्र मेरे उपास्य हैं। अनेकांतवाद का दृष्टिकोण शिरोधार्य है।" यही कारण है कि दौलतराम के काव्य-स्फटिक में उन्हें मानव संस्कृति की तमाम उदात्त छवियाँ अलौकिक नृत्य करती दिखाई देती हैं। कोई आग्रह-पूर्वाग्रह-दुराग्रह नहीं। ज़ोर है तो बस अनुभव पर- "जीवन में अनुभव इसलिए भी सार तत्व हैं, क्योंकि इन्हीं से स्वयं आत्मा से आत्मा की पहचान और उसी आत्मा में परमात्म-तत्व की व्याप्ति दिखाई देती है।" तभी तो किसी कबीर को वह सबसे न्यारा निज घर मिलता है जहाँ 'पूरन पुरुष हमारा' निवास करता है! गुरुदेव अपने पाठकों को उस घर का बोध कराना चाहते हैं- 'जहँ नहिं सुख-दुख साँच-झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा!'


'निज घर' न आने का सीधा सा कारण है, 'पर घर' में भरम जाना, रम जाना। इसी का नाम आत्म-विस्मृति है। लेखक ने कई रोचक दृष्टांत देकर जीव के स्मृति-लोप के इस रोग की पहचान कराई है। पहचान होगी, तभी तो इलाज किया जा सकेगा। रोग बड़ा गहरा है। तन या मन नहीं, आत्मा का। "संसार का यही खेल है। जीव को आत्म-जागीर प्राप्त हुई है। वह सांसारिक बंधनों के कारण मोह-नींद से नहीं जाग पाता। उसकी सारी की सारी आत्म-जागीर आत्म-विस्मृति रूपी बकरी चट कर जाती है।  विषय-वासनाओं के रूप में बकरियों का दल अपने पीछे दौड़ता रहता है। हमारी मोह-नींद नहीं टूटती। आत्म-विस्मृति के कारण ही यह जीव अनादिकाल से भटक रहा है।" जीव अगर यमराज के भयावह नगाड़ों की गर्जना सुन ले, तो संसार की असारता और अपनी भ्रम-नींद का बोध हो जाए। बुद्ध और सिद्ध बनने की राह इसी बोध से जाती है। लेखक कविवर दौलतराम की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर चेताते हैं- 


जम के रव बाजते, सुभैरव अति गाजते।

अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई।।


'बोध' प्राप्त होने पर 'बुद्धिमान' (धी-धारी)जीव संसार की नश्वरता और मोहजाल में न फँसकर  मोक्ष-मार्ग के राही बन जाते हैं। पेंच यहीं तो फँसा है। किसी के चेताने से कहीं बोध होता है? नहीं। वह तो खुद के जागने से संभव है। इसीलिए पांडित्य का अर्थ बोध नहीं है। वह तो बोझ भर है। पंडित सकल शास्त्र की व्याख्या भले कर लें, अगर नहीं जानते कि देह में ही बुद्ध का वास है, तो आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो सकते। निर्वाण के लिए पांडित्य नहीं, वह बोध ज़रूरी है जो कर्म-निर्जरा का आधार बन सके। यह तब तक संभव नहीं, जब तक जीव 'पर घर' को 'निज घर' 'माने बैठा' है। कवि दौलतराम का यह अमर गीत अगर एक बार भी 'अनुभव' में आ जाए, तो यह 'मान' बैठने की जड़ता टूट सकती है- 


"हम तो कबहुँ न निज घर आये।

पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये।।

पर पद निज पद मानि मगन ह्वै, पर परनति लपटाये।

शुद्ध बुद्ध सुख कंद मनोहर, चेतन भाव न भाये।।

.......

यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये।

'दौल' तजौ अजहुँ विषयन को, सतगुरु वचन सुहाये।।

हम तो कबहुँ न निज घर आये।"


गुरुदेव जैन-दर्शन की बारीकियों की सरल व्याख्या करने के बाद दौलत-वाणी का मर्म समझाते हैं - दूसरों के घरों में घूमते-घूमते हमने अनंत काल बिता दिया। वहाँ-वहाँ न जाने कैसे-कैसे नाम रखे गए। हम अपने घर कभी नहीं आए। अध्यात्मपरक भाव यह है कि कवि निरंतर आत्मा में पछताता है और व्यग्र होता है कि यह भूल क्यों हो गई कि मैं अपने स्वरूप को न पहचानने के कारण अनादि काल से ही भटकता फिर रहा हूँ। फिर भी आत्म- परिणति प्राप्त नहीं कर सका। पर-परिणतियों में ही घूमते हुए न जाने कितने भव व्यतीत हो गए, फिर भी निज घर नहीं आया! साथ ही यह बोध भी कि इसी भूल ने हमारा विनाश किया है। अब यह समझ में आने के बाद पछताते हुए हाथ पर हाथ रखे बैठने से भी क्या लाभ? जितनी वेदना झेलनी थी, कहीं  उससे अधिक पापड़ बेल चुके। हम अपने सतगुरु के उपदेश पर विश्वास करते हुए आज भी विषयों को त्याग कर सांसारिक आसक्ति-मोह आदि पर-पदार्थों से दूर हो लें, तो कोई कारण नहीं कि हमारी इस भूल में सुधार न हो। हमें निराश होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन जागना तो हमीं को पड़ेगा। किसी और के जागे हमारी मुक्ति न होगी। यहाँ आकर डॉ.  प्रेमचंद जैन  कविवर दौलतराम को गोस्वामी तुलसीदास की वाणी में इस तरह पहचानते हैं-  अब लौं नसानी, अब न नसैहौं।/  राम-कृपा भव-निशा सिरानी, उर-कर तैं न खसैंहौं।। 


अंततः इतना ही कि इस आत्मबोध की सिद्धि और मृत्युभय पर विजय के बाद उपलब्ध 'ऋषित्व' का प्रसाद है गुरुदेव की यह कृति- 'हम तो कबहुँ न निज घर आये'। उन्होंने स्वानुभूति से, आत्मानुभव से 'निज घर' को भली प्रकार चीन्ह लिया था। एक बार पहचान हो गई, तो 'धी-धारी' इस जगत में न 'राचता' है, न 'नाचता' है। वह आत्मा-राम ही तो अनासक्त भाव से कर्म-निर्जरा और जीवन्मुक्ति को उपलब्ध हो पाता है! यह ग्रंथ गुरुदेव  के जीते-जी  'निज घर' आने की 'साखी' है। कविवर दौलतराम के शब्दों में-


'दौलत' ऐसे जैन जतिन को,

नित प्रति धोक (नमन) हमारा हो! 000


  • ऋषभदेव शर्मा

208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद- 500013. मो. 8074742572. rishabhadeosharma@yahoo.com 

शनिवार, 16 अप्रैल 2022

(डॉ. मंजु शर्मा) डॉ. प्रेमचंद्र जैन : जितना मैंने उन्हें समझा

डॉ. प्रेमचंद्र जैन : जितना मैंने उन्हें समझा                                       

  • डॉ. मंजु शर्मा

अध्यापक को राष्ट्र का भाग्य निर्माता कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।  विषय विशेषज्ञ, शोध निर्देशन करने वाले, राष्ट्रीयता और संस्कृति के पोषक और संवाहक तथा स्वस्थ सामाजिक परंपराओं को आगे ले जाने वाले तथा कुप्रथाओं को तोड़ने एवं समाज को सकारात्मक दृष्टिकोण देने वाले अर्थात विचारक, लेखक, ज्ञानवर्धक और साधक क्या-क्या कहा जाए; जितना कहा जाए कम है।  ये सारे गुण गुरु पद को सुशोभित करने वाले रश्मिपुंज, ‘गुरुजी’ नाम से विख्यात डॉक्टर प्रेमचंद जैन के व्यक्तित्व में रहे होंगे; उनके साहित्य की एक झलक यह विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त है। उनके अपने संस्मरण और उनके बारे में उनके निकटस्थों के संस्मरण पढ़ कर मुझे मलाल हुआ कि ऐसे संत और मनीषी का सान्निध्य मुझे नहीं मिल सका। जिन्हें मिला, वे धन्य हैं। लेकिन मैं भी कम भाग्यशाली नहीं हूँ क्योंकि मुझे कृतित्व रूपी अक्षरवतार का सान्निध्य मिला है। वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अक्षय अक्षर रूप में वे सदा उपलब्ध रहेंगे- 'नास्ति येषां यशः काये, जरा मरणजं भयं!' 

मेरे मन में उनकी एक छवि बनी है। सब प्रकार से जागरूक एक सम्पूर्ण शिक्षक की छवि! उन्होंने कक्षा और पाठ्यक्रम से पार भी आजीवन अपने विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया।  अनुशासन प्रिय गुरुजी ने अक्खड़ विद्यार्थियों को अनुशासन में चलना सिखाया, तो शिक्षक-संघ के अध्यापकों के लिए संघर्ष भी किया। इन्होंने  विद्यार्थीजन  के बीच खूब लोकप्रियता अर्जित की। वे केवल शिक्षक नहीं, सद्गुरु थे। उनकी कृतियाँ भी उनके समान ही ज्ञान का पुंज हैं। वे भी गुरु हैं। व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक।  ’गुरु बिन ज्ञान कहाँ’ – गुरु दीपक है जो शिष्य या क्यों कहें कि पूरे समाज को प्रकाशमान करता है। उसकी रोशनी में शिष्य निरंतर चलता रहता है। अबाध गति। डॉ. प्रेमचंद्र जैन का शिष्यों से रिश्ता  दूध और पानी की तरह सायुज्य का रिश्ता था।  थे। अलग करना असंभव। इस अपनत्व के अनुभव को बस  ऐसे ही  लिखा जा सकता है- 

“वे मृत्यु सत्य, मैं जीव सत्य

 इस भेद सत्य का नहीं अंत

      मैं देवराज ,मैं प्रेमचंद्र ।“

धन्य हैं वे शिष्य जिन्होंने ऐसा संपूर्ण गुरु पाया, जहाँ दोनों  आत्मसात हो जाते हैं! (निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, पृष्ठ:395) 

डॉक्टर प्रेमचंद जैन की सूझबूझ तथा सतत प्रयासों से नजीबाबाद में लेखक सम्मेलन तथा साहित्य कुंभ जैसी अंतरराष्ट्रीय ख्याति की योजना का जन्म हुआ। उनके विचारों ने हिंदी को पुष्पित-पल्लवित किया, जन-जन की वाणी बनाया।  आपकी प्रवृत्ति कुछ कर गुजरने की थी हथेली पर चलकर भी और लीक से हटकर भी! इसी दीवानगी के बल पर वे समाज के हर वर्ग के लोगों को साथ लेकर नजीबाबाद को  हिंदी आंदोलन के नक्शे पर पहचान दिला सके।

डॉ. प्रेमचंद्र जैन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साथ ही, वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे।  उनकी वाणी मधुर और साहित्य तथा ज्ञान की अमृत-वर्षा करती थी। चंद्रमणि रघुवंशी कहते हैं –  “कृशकाय डॉ. प्रेमचंद्र जैन प्रभावशाली व्यक्तित्व न होने के बावजूद अपने ज्ञान की बपौती के बूते पर, मिलने वाले प्रत्येक अपरिचित पर अमिट प्रभाव छोड़ने में सदैव सफल रहते हैं उनकी विनम्रता 'सोने में सुहागा'  की कहावत को चरितार्थ करती  है।” उनका सान्निध्य  पाकर लोग स्वयं को बड़भागी समझते थे। उनका सहज स्वभाव निस्वार्थ प्रेम के कारण सबको आकर्षित करता था।

डॉ. प्रेमचंद्र जैन प्रसिद्ध जैन-धर्म-मर्मज्ञ भी  थे;  जैन लोगों के जीवन में आई कुरीतियों को बाहर निकालने में अग्रसर थे । वे पढ़ाते समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की सबसे अधिक चर्चा करते थे।  उनके पढ़ाने की शैली अनोखी थी।  सरलता और तरलता वाणी से झलकती थी। संस्कृत के श्लोक पूरी तरह गाकर पढ़ाते, तो काव्यशास्त्र की व्याख्या करते समय फिल्मी गीतों का सहारा लेते। विद्यार्थियों को बाँधे रखते। साथ ही बार-बार प्रश्न पूछना भी जारी रखते। यह शिक्षण का उनका छात्राभिमुखी तरीका था।  विद्यार्थियों से जुड़ने का जुगाड़ करते! महज़ पाठ्यक्रम पूरा करना उनका उद्देश्य नहीं था। बल्कि विद्यार्थियों को आजीवन  सीखने- सिखाने पर बल देते थे। ।

विद्यार्थियों के साथ उनका।एक आत्मीय संबंध था। वे  सबके प्रेरणास्रोत थे –

“उठो ! मेरे दुलार ! और आकाश छूलो।

बढ़ते चलो चरण-चरण, गिरतों को संभाल लो।” 

(वही, पृष्ठ संख्या : 394) |

यह अध्यापक और छात्रों के बीच का वह मानस है जहाँ शिष्यों का स्नेह, गुरु की गरिमा, नागरिक का दायित्व और सृजनकर्ता की रचनाधर्मिता व्याप्त है। उनकी कबीर की सी निरहंकार अक्खड़ता और निर्भीक स्पष्टता से शिक्षकों को मार्गदर्शन मिलता है। हर शिक्षक को उनकी यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए- “मेरी धारणा है कि जो शिक्षक अपने कार्य को सत्य, निष्ठा एवं पूरी ईमानदारी से अंजाम देगा, वह कभी मात नहीं खाएगा।” (वही, पृष्ठ :417)। यह उनके स्वानुभव का सार है। 

‘गुरु’, मार्गदर्शक , समाज के नीति निर्धारक के  अतिरिक्त  डॉ. प्रेमचंद्र जैन को  साहित्य साधक के रूप में भी देखा जा सकता है।  उन्होंने ‘ढाई आखर प्रेम के’ आलेख मरीन हिंदी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा के बारे में अनूठी और विस्तृत जानकारी दी है। उनकी यह स्थापना की भ्रांतियों का निराकरण करने मरीन समर्थ है कि हिंदी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा न केवल अपने पूर्ववर्ती साहित्य से प्रेरित है, बल्कि वह भारतीय  संस्कारों के समन्वय का दर्पण भी है। वे सूत्र देते हैं कि प्रेम सदैव अनुभूतिपरक रहा है। अतएव  प्रेम को किसी परिभाषा के घेरे में अनुकीलित नहीं किया जा सकता।(वही, पृष्ठ:.139)।

डॉ.  प्रेमचंद जैन की सामाजिक चेतना भी बड़ी प्रखर दिखाई देती है। दरअसल वे निरे निष्क्रिय बौद्धिक जीव नहीं थे। बल्कि समाज उनके लिए साहित्यिक स्थापनाओं की प्रयोगशाला था। सामाजिक प्रतिबद्धता के कारण ही वे मुखर स्वर में भारतीय समाज में महिलाओं की उपेक्षा के खिलाफ आवाज़ उठाते दिखाई देते हैं। स्पष्ट है कि वे स्त्री को समाज की संरचना का मुख्य आधार मानते थे। संसार में व्याप्त जाति, वर्ण, धर्म और वर्ग के दायरे से बाहर उन्होंने केवल नर और मादा दो जातियों की धारणा को महत्व दिया। वे जातियों, जनजातियों,  उपजातियों के व्यवस्था को आपसी वैमनस्य का हेतु और अमानवीय मानते थे।   उन्होंने यह भी लक्षित किया कि महिलाओं की उपेक्षा केवल भारत में हो, ऐसी बात नहीं है।  यह पीड़ा तो विश्व की हर महिला को भोगनी पड़ती है। उन्होंने तथाकथित सभ्य  देशों पर गिरे परदों  को हटा कर यह दिखाने का साहस किया कि वहाँ भी स्त्री उतनी ही तिरस्कृत और अपमानित है, जितनी बर्बर देशों में।  महिलाओं के प्रति उपेक्षा-भाव भारतीय समाज में तो खैर व्याप्त है ही, पर विश्व के अनेक देशों के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक ग्रंथों से महिलाओं के प्रति उपेक्षा पूर्ण रवैये का ब्यौरा मिलता है। उदाहरण के लिए प्राचीनकाल में रोम राज्य यूरोप की नाक समझा जाता था, परंतु वहाँ की स्त्रियों को नंगा रखा जाता था और दंड  देने के लिए उनके लंबे- लंबे बाल छत की कड़ी से बाँध कर लटका दिया जाता था। (वही, पृष्ठ 150)। इस तरह के विवरणों के बहाने डॉ. प्रेमचंद्र जैन नारी जाति को जागृत कर उसके अपनी पहचान समझने के लिए आगे आने पर बल देते हैं। उनका मानना है कि  तब तक स्त्रियाँ उपेक्षित होती रहेंगी, जब तक वे  स्वयं की  शक्ति को नहीं पहचानेंगी और इसके लिए विदुषियों  को आगे आकर  शिक्षा-शिक्षण की पद्धति में सुधार करना होगा। वे स्त्री विमर्श तक ही नहीं रुकते, हरित विमर्श के क्षितिज को भी छूते हैं। उन्होंने बहुत पहले यह प्रतिपादित किया है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य में पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण को महत्व दिया गया है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमने इसे भुलाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। पर्यावरण की समस्या और संरक्षण आज ज्वलंत वैश्विक मुद्दा बना हुआ है।  डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने ‘अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना’ शीर्षक शोधपत्र में पर्यावरण संरक्षण पर बल दिया है और इसके माध्यम से बताया है कि प्रकृति में समतोल है, सौंदर्य है, शांति है और धैर्य है। 

कुल मिलाकर, मेरे लेखे  'गुरुजी'  डॉ. प्रेमचंद्र जैन का विज़न अत्यंत  व्यापक और विस्तृत है जो उनके व्यक्तित्व की विराटता और उदात्तता का दर्पण है। अंत में कबीर की इस साखी के साथ उनकी पूण्य-स्मृति को नमन कि-

"सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।

सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिख्यो न जाय।।’’ 000

  • डॉ. मंजु शर्मा,

विभागाध्यक्ष (हिंदी),  चिरेक इंटरनेशनल स्कूल, हैदराबाद। manju.samiksha@gmail.com  Ph : 9247770219.


द्रष्टव्य-

 

इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 357-360.


(डॉ. बी. बालाजी व शीला बालाजी) मानवता में आस्था के कवि डॉ. प्रेमचंद्र जैन

मानवता में आस्था के कवि डॉ. प्रेमचंद्र जैन


- डॉ. बी. बालाजी तथा शीला बालाजी


1.


डॉ. प्रेमचंद्र जैन के सम्मान में उनके शिष्यों की ओर से 2016 में निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक शीर्षक से अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया गया था। इस  ग्रंथ में जैन दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. प्रेमचंद्र जैन द्वारा सन 1963 से 2008 तक रचित 44 कविताएँ भी संकलित हैं। इन कविताओं में मनुष्य जीवन, समाज, देश की आर्थिक , राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थिति पर कवि प्रेमचंद्र जैन द्वारा अभिव्यक्त किए गए विभिन्न अनुभवों के शेड्स समेकित हैं। 


आत्मा-परमात्मा 

हैं एक ही 

बीच दोनों के बहुत कम फासला है 

फासला उतना कि जितना 

आदमी से और उसकी छाँव से है। (फासला, निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, पृ.75)


इन पंक्तियों के लेखक हैं डॉ. प्रेमचंद्र जैन। डॉ. जैन का मत है कि आत्मा-परमात्मा अद्वैत हैं। कवि के पास भौतिक जगत में द्वैत रूप में दृष्टिगोचर होने वाले आत्मा-परमात्मा की एक रूपता को देखने की दृष्टि है। उन्होंने 1963 में लिखी अपनी कविता फ़ासला में आत्मा-परमात्मा के बीच की दूरी मिटाने की युक्ति बताई है। वे कहते हैं – ज्ञान-दर्शन-चरित बल की नाव से फासला दूर किया जा सकता है। डॉ. प्रेमचंद्र जैन उदार-उदात्त तथा त्रि-आयामी कवि व्यक्तित्व के धनी हैं। तभी तो वे लिख पाए – हर आत्मा, बहिरात्मा, परमात्माहै। प्रायः हम आत्मा-परमात्मा की चर्चा सुनते हैं। वे बहिरात्मा की चर्चा भी करते हैं जिसके कारण आत्मा-परमात्मा के मिलन की स्थिति अवलंबित है। कवि इसकी सैद्धांतिकी हमारे सामने प्रस्तुत कर उसके माध्यम से ही परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उनकी कविताओं में मानवता को परिभाषित कर उसे व्यावहारिक बनाने की प्रक्रिया मिलती है। मानवता का लक्ष्य ही है सुख-शांति-प्रेम से जीवन यापन करना और अंततः परमात्मा में लीन हो जाना। इस परम सत्य की व्याख्या करती हैं डॉ. जैन की कविताएँ। विभिन्न शब्द चित्रों, बिंबों और प्रतीकों से कवि ने इस तथ्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। उनका कथन है कि हर इंसान / अपने मन की बात जानता है (अवचेतन मन, वहीं, पृ. 76) पर समझने का प्रयास नहीं करता। वह समाधान न मिलता देखकर खुद पर, अपने आस-पास के लोगों पर खीझ उठता है। यह अनजाने और अनचाहे होता रहता है। जब वह अपने अवचेतन मन में हो रहे द्वंद्व को समझ लेता है तब चाँदनी रात में लगने वाली उमस की प्यास से होने वाले ताप-संताप तथा विरह-विदग्ध को समझने का विवेक भी विकसित कर लेता है। 

 

कवि कहता है कि ईश्वर ने हमें तो डायरी के खाली पृष्ठ जैसा ही बनाया है। हम अकिंचन हैं जो नहीं जानते कि इन्हें कैसे भरना है। हम तो अभावों की रट लगाए रहते हैं। इन पृष्ठों का सदुपयोग सत्य, तथ्य और ईश्वर आराधना से भरने में करना चाहिए। तभी ये अतुल आमोद से भर जाएँगे। (मैं चलता हूँ एक अकेला, पृ. 77) हमें जो यह शरीर मिला है वह अपना नहीं है। जिसका है उसे सौंपने पर मन प्रसन्नता से भर जाता है। जागते-सोते सदा स्मरण रखना होगा कि यह तो शिव का है, उसे ही सौंपना पड़ेगा। (इष्ट फल, 79) शिव अज्ञेय है, उसे जानने के लिए जिज्ञासा का होना जरूरी है। वह धरातल पर नहीं बल्कि तल में बसा होता है। उसे तप-साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। मानव जीवन में यह तप साधना मानवता से ही संभव है। (ध्रुव पौरुष, 80) मानवता मानव का गुणधर्म है जिसके मूल तत्व हैं सत्य, अहिंसा, प्रेम, करूणा, दया, त्याग, शुद्धता, नैतिकता, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा। कवि ने मानव जाति के खुशहाल जीवन चक्र के लिए इन गुणों से परिपूर्ण मनुज की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित किया है। 

 

जीवन यापन के लिए अथक मेहनत करने पर भी मेहनताना नहीं मिलने से उदास होना स्वाभाविक ही है। ऐसी स्थिति में रोटी की जगह घास खाकर गुजारा करना पड़ता है। मेहनत करने वाले के हिस्से की कमाई स्वार्थी मालिक द्वारा नहीं दिया जाना मानवता के ह्रास होने का संकेत है। (नौकरी, वहीं, 81) निर्बल मनुष्य सबके मालिक के समक्ष गुहार लगाने के सिवाय और कर भी क्या सकता है। इसी ने ही तो हरे, नीले, पीले, सफेद, बैंगनी, गुलाबी और चितकबरे रंग के फूल बनाएँ हैं। ये फूल तरोताजा होने की स्थिति में मालिक पर चढ़ावे के रूप में समर्पित होकर अपना जीवन धन्य बनाते हैं या फिर झरकर खाद बन जाते हैं। यहाँ कवि ने ईश्वर पर समर्पित होने वाले फूल को निस्वार्थ मनुष्य के प्रतीक के रूप में अंकित किया है जबकि झरकर खाद बनने वाला फूल स्वार्थी मनुष्य का प्रतीक है। जिनका जीवन निर्थक अवश्य था किंतु वे भी खाद बनकर भविष्य के फूलों के जीवन को सार्थकता प्रदान कर सकते हैं। यही प्रकृति का शुभ संकेत हैं। कवि द्वारा अंकित दृश्य बिंब देखिए – 

नीले,पीले सफेद, बैंगनी और - / चितकबरे रंगों से सने / क्यारियों में लगे फूल / सब मालिक के लिए हैं-/ या फिर - / झरकर खाद बनते हैं / पीला रंग भी कोई रंग है / हरे नीले सभी व्यर्थ / मुझे खूनी गुलाब पसंद है / कोने में लगा - / वह देखो ( वह भी प्रकृति प्रदत्त है)  (गुदगुदी घास, वहीं, 82)

 

कवि का कहना है कि मनुजता जब जगत की स्वार्थपरकता की पहचान कर लेती है तो उसे भीड़ भरी भटकान नहीं सुहाती है। वह एकाकी रहना चाहती है। संन्यासी बन कर अपने भटकते पैरों को तटस्त कर खड़े होना चाहती है। जब उसे सही-गलत की पहचान हो जाती है तब वह भीड़ भरे पथ पर भी बिना किसी से टकराए आगे बढ़ने में सफल होती है। कवि ने अपने अनुभव के आधार पर कहा है कि इस संसार में सभी अकेले ही आते हैं और अकेले ही जाते हैं। इसीलिए अपने आस-पड़ौस व संबंधियों से अनजान बने रहना ही श्रेयस्कर है। (मैं संन्यासी, वहीं, 84-85)           

 

2

 

कवि प्रेमचंद्र जैन ने महात्मा गाँधी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत का स्वतंत्र भारत में हो रहे दुरुपयोग पर व्यंग्य किया है। सारी दुनिया जहाँ महात्मा गाँधी के सिद्धांतों का आदर करती है वहीं उनके जन्मस्थली भारत में उनके सिद्धांतों को केवल भाषण तक सीमित कर दिया है, आचरण उनके सिद्धांतों के विपरीत ही होता है। रेल की पटरियाँ सरकार साधारण जनता के जीवन को संकट में डालना आसान काम हो गया है। ऐसे कार्यों पर कवि द्वारा किया गया कटाक्ष दृष्टव्य है – 

बापू! / नहीं समझे? / अरे! वहीं राष्ट्रपिता गांधी / जो अंधे हो गए हैं / उनको लाठी पकड़ा दी है - / वे पीछे-पीछे आ रहे हैं / जहाँ भी रुकना होता है / उन्हें खड़ा कर देता हूँ / स्वयं चीखता हूँ – / बापू की जय – महात्मा गांधी की जय / अहिंसा जिंदाबाद / नेहरु जिंदाबाद / हैं हैं हैं, हिः हिः हिः / हम अहिंसक हैं। (हम अहिंसक हैं, वहीं, 86)।

 

डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने महात्मा गांधी पर तीन कविताएँ लिखी हैं – बापू के नाम चिट्ठी -1, 2, 3 (पृ. 104, 106, 107)। इन कविताओं में कवि ने गांधी के नाम देश में हो रही राजनीति पर व्यंग्य किया है। गांधी का नाम अब केवल जनता से वोट प्राप्त कर सत्ता हासिल करने के काम आ रहा है। जनता भले ही अभावों से त्रस्त होकर त्राही-त्राही करती रहे, उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती है। गांधी के तीन बंदरों की शिक्षा का उपयोग नेतागण उपदेश देने के लिए करते हैं। कवि ने उनसे पुनः जन्म लेने का निवेदन किया है ताकि वे अपने सिद्धांतो को व्यवहार रूप दे सके। कवि को दुख होता है यह देखकर कि भारत के लोग गांधी की शिक्षा को केवल कागजों पर उतार कर रख लिए हैं जिसके कारण बौद्धिक विपन्नता बढ़ रही हैं। 

विश्व के महान लोकतांत्रिक देश भारत के गणतंत्र दिवस अर्थात 26 जनवरी को केंद्र में रखकर डॉ. जैन ने दो कविताएँ लिखी हैं -  ओ छब्बीस जनवरी (1975) और इक्कतीसवाँ गणतंत्र दिवस (1981)।

 

संकलकर्ताओं ने डॉ. प्रेमचंद्र जैन द्वारा लिखित सभी कविताओं के लेखन की तिथि क्रम में दी है। किंतु यहाँ उनके द्वारा लिखित कविताओं के वर्ष महत्वपूर्ण इसलिए भी हैं कि कवि ने इन दो कविताओं में देश के इतिहास को अंकित किया है। देश की आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से हो रहे पतन को रेखांकित किया है। ये कविताएँ देश में बदलती परिस्थितियों की साक्षी बनी हैं। कवि ने 1975 में आपात काल व उसके दुष्परिणामों का अंकन कर उस समय चल रहे रिश्वतखोरी व कालाबाजारी को उद्घाटित किया है – देखो! / अंधेरे में आना – चुपचाप ले जाना / दाम दूने दे जाना।/ गेहूँ-दाल-चावल दुकानों में नहीं / गोदामों में मिलने लगा/ कौवे विपक्षियों ने काँव-काँव की / फिर-भी - / अभावों की दुनियाँ बढ़ती गई / धन्य हो आज गणतंत्र / रक्षित है लोकतंत्र / अभाव सद्भाव बन गया है / बड़बड़ियों के मुख पर ताला है / बाहर आ गया धन काला है। (ओ छब्बीस जनवरी, वहीं, पृ. 93-94)। अब तो देशवासियों को महँगाई की आदत हो गई है। वे इसका विरोध नहीं करते। विपक्षी भी अपने हिस्से की आमदनी मिलने तक विरोध का नाटक करते हैं। इन कविताओं के माध्यम से हमें पता चलता है कि जो स्थिती 1975 में थी उसमें 1981 तक आते-आते बढ़ोत्तरी ही हुई है। सरकार ने उस स्थिति को सुधारने के कोई प्रयास नहीं किए। कवि आशावान है। उसने गणतंत्र दिवस का स्वागत करते हुए कामना की है कि अगली बार जब गणतंत्र दिवस आए तब तक देश के इन हालातों में सुधार हो जाए – हम तो देखते हैं – सब ओर / आफत ही आफत है / फिर भी राष्ट्रपर्व होने के नाते /  इक्कतीसवें गणतंत्र दिवस! तेरा स्वागत है / एक बात और कहता हूँ - / अगले वर्ष तक और कष्ट सहता हूँ / तू अगली बार आना-जरूर आना / खुशी से आना, पर / कालाधन, चोर बाजारी, रिश्वत, महँगाई / और- / बलात्कारों की दुनियाँ को कहीं छोड़ आना। (इक्कतीसवाँ गणतंत्र दिवस, वहीं, पृ. 116-117)

 

 

कवि ने अपनी कविताओं में सवाल उठाया है कि अत्याचारों के प्रति जनता मौन क्यों है? और यह रेखांकित किया है कि देश के हालात बद से बदतर होते जाने का मुख्य कारण जनता का मौन धारण ही है। संविधान ने भारतीय नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकारतो दिया है किंतु उसका हनन जब उसका अनुपालन करने वाली सरकार करे तो दंड का प्रावधान होते हुए भी उसे दंडित करने साहस न तो जनता दिखाती है और न न्यायपालिका ही कोई ठोस आदेश देती है – जीभ कैद में / ओष्ठ सिले हैं / कान खुले– / पर / आँख बंद हैं।/ सुनकर समझ रहा हूँ- / सब कुछ / फिर भी बँधते नहीं / छंद हैं।(जीभ कैद में, वहीं, पृ. 126)

 

देश का अन्नदाता आत्महत्या कर रहा है। कवि ने चेताया है कि अन्नदाता के बलिदान को हमें नहीं भूलना चाहिए। वह हर मौसमों के थपेड़े झेलकर देश की जनता के लिए कठिन परिश्रम करता है। उसका शोषण नहीं करना चाहिए - जो सबके लिए जान देता / उसको मत चूसो लोगों / तुम लूट-लूट घर भरते हो / वह आर्थिक नीति विधाता है। (कृषक मेले के अवसर पर, वहीं, 101)। किसानों के शोषण के परिणामस्वरूप ही आज किसानी जल रही है। किसानों का देश होने की उपाधि धारण करने वाले भारत में किसानी कोई नहीं करना चाहता है। नवयुवकों का मानना है कि इस व्यवसाय में केवल परिश्रम है। इससे आमदनी नहीं होती है। इस विचारधारा में अब थोड़ा-सा परिवर्तन होता दिखाई दे रहा है। नवयुवक आधुनिक पद्धतियों व उपकरणों द्वारा खेती करने की ओर आकर्षित तो हो रहे हैं, किंतु अभी किसानी की समस्या का पूरी तरह से समाधान नहीं हो पाया है। कवि जैन ने किसानी को जलता देख शिक्षित वर्ग व साहित्याकारों से सवाल किया है कि वे कायर बन मौन क्यों हैं? उसे विश्वास है कि जब यह वर्ग सार्थक रूप से सक्रिय हो जाएगा तो देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान भी मिलने लगेंगे – दो दशक से गुम हुए तुम – कहाँ शायर? / शेर के जंगल में घुस गए कायर / कल नया रामावतार होगा / गीत होगा, ग़ज़ल होगी – आग होगी / आस है इक होगा फायर / कौन टिक पायेगा कायर। (एक पाती मेरी भाती, वहीं, 133)।  

 

कवि ने साहित्य और साहित्कार के दायित्व पर प्रकाशडाला है। उनका मानना है कि शोषित की व्यथा की विकटता को जनता के समक्ष प्रस्तुत करना साहित्यकार का दायित्व है। कवि ने साहित्यकारों का जनचेतना लाने का आह्वान करते हुए कहा है कि वे अपनी कुंठाओं को छोड़कर कृषकों और श्रमिकों की वेदना को स्वर दें – कवि कलम बने तलवार; कहर बरपा दें जो मोहरे हैं।। / जनतंत्र में जनता त्रस्त; लुटेरे हर पग पर ठहरे हैं।। (कवि छोड़ो, वहीं, पृ. 132)। साहित्य से समाज को मार्गदर्शन प्राप्त होता है। मानवता की सही शिक्षा साहित्य के माध्यम से दी जा सकती है। धर्म-जाति, ऊँच-नीच, हिंदू-मुसलमान आदि के भेद व बीच चलने वाले द्वंद्व तथा संघर्ष को साहित्य के द्वारा ही समूल नष्ट किया जा सकता है - हम मनु की हैं संतान / सृजन से करते हैं कल्याण / बढ़ेगा क्या जो नहीं रुका है / इतिहास कहे- / संहार सृजन के आगे सदा झुका है। (रे कलियुग के देव, वहीं, पृ. 89)    

 

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डॉ. प्रेमचंद्र जैन का कवि मन उत्सव धर्मी है। उन्होंने त्योहारों जैसे दिवाली, होली, ईद तथा नव वर्ष पर कविताएँ लिखी हैं जिसमें मानव समाज के उत्थान की बात कही है। धर्म व जाति के आधार पर होने वाले बँटवारे पर प्रहार किया है। समाज व देश हित के लिए सभी धर्मों को साथ मिलकर विचार करने की दिशा दिखलाई है। उनका कथन है कि देश के विभिन्न धर्म व जाति के लोगों में एकता की कमी के कारण ही देश का अहित हो रहा है। उसकी प्रगति में बाधाएँ आ रही हैं। कवि के अनुसार विभिन्न धर्मांवलंबियों की एकता पर राजनीति करने वाले यदि कुढ़ते हैं तो उन्हें कुढ़ता छोड़ आगे बढ़ना चाहिए – हम मिलन की लें मशालें / बढ़ चलें... इस मिलन से जो कुढ़ें... कुढ़ते रहें।(चश्म नम हैं मुफलिसों को देखकर, वहीं, पृ. 128)। एकता की नई मिसाल स्थापित करनी चाहिए। शिक्षा से अज्ञानता को मिटाया जा सकता है। शिक्षित व्यक्ति घर, समाज व देश में एकता की नींव डाल सकता है। इसीलिए उन्होंने प्रण करने के लिए कहा है कि – तालीम ओ इल्म की शमा रोशन करेंगे हम / हर घर से जहालत को भगा के ही लेंगे दम। मनुजता का परम लक्ष्य है मानव समाज का कल्याण। इसके लिए कलुष-भेद व द्वेष को दहन करना होगा। समरसता व लोक के कल्याण से ओत-प्रोत कवि की पंक्तियाँ देखिए -  

  1. हम जो भरमें तो भरमेगा सारा चमन / चलो आओ मनाएँ ये होली मिलन / दिल में बाकी न रह जाए कोई चुभन / रात ही हुआ होलिका का दहन। (रंग में सराबोर, वहीं, पृ. 124) 

  2. ईद के मिलकर मनाने का मज़ा कुछ और है / आओ हम भी मौज में झूमें न जिसका कोई छोर है। (चश्म नम हैं मुफ़लिसों को देखकर, वहीं, पृ. 127)

  3. हमको मिले तालीम – कोई तदबीर ऐसी हो / वतन से दूर गुरबत हो – कोई तदबीर ऐसी हो / जहालत ने हमें मारा समज में आ रहा है अब / सरों पर हम बिठा लेंगे कोई तस्वीर ऐसी हो। (सर सैयद अहमद खाँ के जन्मदिन के अवसर पर, वहीं, 129)

  4. कैसी जलती दीपावलियाँ / मेरी नेह वर्तिका पाकर / चाह मेरी, विरहाग्नि बलो तुम - / उनकी खुशियों से कतराकर / कितनी भोली उनकी आँखें / अंजन आँज-आँज हँसती हैं / सच्चा प्यार जताकर भी जब / थोथा प्यार प्रगट करती हैं। 

(क्यों न मनाओ हर्ष, वहीं, पृ. 91) 

  1. आगत-आगत की बात करो / गत को फिर भी मत भूलो / इतिहास न बन पाया / जो आगत में ही भूलो / कुछ सोच-समझकर चलो / करो मत हाँसी / अस्सी के ऊपर चढ़ा एक इक्यासी। (नया बरस, वहीं, 115) 

कवि प्रेमचंद्र जैन ने लोक हित के लिए कलम चलायी है। उनकी कविताओं में लोक के कल्याण और उसके बेहतर जीवन की कामना निहित है। कवि की भाषा में लोक परिवेश की शब्दावली, मिथक, प्रतीक, मुहावरे व लोकोक्तियों का समावेश भी देखा जा सकता है। यथा - 

 

क) लोक परिवेश की शब्दावलीः

देख मधुमास अमराई बौरा गई / नव नवेली चमेली भी झबरा गई / विरही टेसू कलेजे को दहका रहा / फाल्गुनी अनंग सबको भरमा रहा। (रंग में सराबोर, पृ. 124)

 

ख) मिथकः 

लोक कल्याण की भावन को प्रकट करने के लिए कवि द्वारा प्रयुक्त मिथक –  

शिवः गर मिलता है गरल / उसे जगदीश निगल जाते हैं। (पृ. 87) तथा जागते-सोते / सदा शिव हो / तुम्हारा और- / सबका / साध्य- / साधन- / इष्ट फल। (पृ. 79) 

ध्रुवः अज्ञेय व्यक्तित्व / ध्रुव पौरुष / वेदना-तप्त / यातना-पूत / दृष्टा / युग निर्माता। (पृ. 80)   

 

ग) प्रतीकः

मशालः परिवर्तन का प्रतीक है – हम मिलन की ले मशालें / बढ़ चलें.. इस मिलन से जो कुढ़ें – कुढ़ते रहें। (पृ.127)  

हथोड़ी व खुरपीः एकता व सामूहिक संघर्ष के प्रतीकचाहे जितने दर्द की दीवार चुन दो / चाहे जितने जुल्म की खाई बना लो / तन गए मुक्के–हथोड़े, चाहे जितनी बाँह के खुरपे बढ़ा लो (पृ.122)

 

घ) मुहावरे व लोकोक्तीः   

मुहावरेः हमारे बाएँ हाथ का काम है (पृ.86)। जले पर नमक नहीं - / ओस के बिंदु धरूँगा। (पृ.84)। उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती / एक दिन माथा झुकाते थे / आज नजरें चुराते हैं (पृ.104) 

लोकोक्तीः एक अंधा एक कोढ़ी है (पृ.91) / हाथ कंगन को आरसी क्या (पृ.86) 

 

कवि प्रेमचंद्र जैन ने जनता के हितो की रक्षा करने तथा देश के विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए युवाओं से आग्रह किया है कि वे अपना दायित्व समझें और उसे वहन करें। उन्हें विश्वास है कि युवाओं के एकजुट होकर कार्य करने से राष्ट्र व्यापी समस्याएँ जैसे – बहिनों की अस्मत लुटना, हिंदी की बिंदी का मिटना, दहेजी शादियाँ होना, आग-पानी-राष्ट्र विपदा होना आदि हल हो सकती हैं। (चूँकि युवा हो, पृ. 112)। कवि को पूर्ण विश्वास है कि लोक का मंगल सामूहिक संघर्ष से ही संभव है। इसीलिए संदेह से भरे अपने भीरु दिल से कहते हैं- 

तुम करो विश्राम -  

सूरज फिर उगेगा

और 

आएगा सवेरा

अब नहीं हूँ मैं अकेला

और जितने दीप हैं

मैं सभी में हूँ

पी रहा हूँ सब अँधेरा

थको मत तुम मीत

मृत्यु से भयभीत

अमरत्व की श्रम की – 

सदा ही जीत।” (नेह बाती चुक रही है!, पृ. 120)।

 

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-डॉ. बी. बालाजी, 

उप प्रबंधक, हिंदी अनुभाग एवं निगम संचार, मिश्र धातु निगम लिमिटेड, रक्षा मंत्रालय का उपक्रम, हैदराबाद। मो. 8500920391; ई-मेल balajib18@gmail.com

 

शीला बालाजी, 

हिंदी प्राध्यापक, लिटिल फ्लावर डिग्री कॉलेज, उप्पल, हैदराबाद। मो. 9010094391; ई-मेलः sheela@lfdc.edu.in   

द्रष्टव्य-

 


इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 151-158.