मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

"कारवाँ गुजर गया" पर एक टिप्पणी : प्रो गोपाल शर्मा


(कर्नाटक के स्नातक द्वितीय सत्र के हिंदी छात्रों के निमित्त तैयार पाठ्य पुस्तक 'काव्य मधुवन' में  सम्मिलित गोपालदास 'नीरज' के प्रसिद्ध गीत 'स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से' के प्रतिपाद्य के बारे में संपादक डॉ. विनय कुमार यादव ने अध्यापकों के संशय के बारे में बताया, तो हमने प्रो. गोपाल शर्मा से समाधान स्वरूप कुछ शब्द लिख देने का अनुरोध किया। उनकी यह टिप्पणी उसी का परिणाम है। साभार उद्धृत। - ऋषभ)

कारवां गुजर गया 
- प्रो. गोपाल शर्मा 


‘कारवां गुजर गया’ कविवर गोपालदास नीरज द्वारा लिखित एक ऐसा गीत है जिसे उनका जीवन- दर्शन(?) कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। इस गीत की प्रसिद्धि का यह हाल है कि इसी गीत की पंक्ति को देकर भारतीय प्रिंट मीडिया ने इनके निधन की सूचना दी थी । कवि और दार्शनिक के वक्तव्यों में से किसे प्राथमिकता दी जाए इस विवाद को प्लेटो और अरस्तू भी हल न कर पाए। भारत में कवि को मनीषी और प्रजापति कहकर उसके वर्चस्व को स्वीकार किया गया। आज भी कवि के वचनों को इसी कारण अबूझ और उलटबाँसी कह दिया जाता है । 


जीवन के प्रति एक तो दृष्टिकोण है रॉबर्ट ब्राउनिंग का ( ग्रो ओल्ड अलोंग विद मी / द बेस्ट इज़ यट टू बी ) आशावादी और दूसरा है थॉमस हार्डी का ( इन लाइफ हैप्पिनेस इज़ बट एन ओकेजनल एपिसोड इन द जनरल ड्रामा ऑफ पेन ) एक दम निराशावादी। शेक्सपीयर भी जीवन को मूर्खालाप कह गए हैं । कवि नीरज भी अनेक उदाहरण देकर यही कह रहें हैं कि जीवन रूपी कारवां गुजर जाता है और हम केवल गुबार देखते रह जाते हैं । ईश्वर द्वारा प्राप्त इस जीवन की रंगभूमि में चकित, भ्रमित, और निरुपाय सा खड़ा इंसान जीवन के सुख-दुख को खड़ा होकर देखता रह जाता है और इस ‘अद्भुत अनुपम बाग’ का वसंत कब पतझड़ में पलट जाता है , पता ही नहीं चलता । मनुष्य ठगा सा खड़ा दृष्टा मात्र बना रह जाता है । कवि नीरज ने यहाँ जीवन को दुल्हन का रूपक देकर स्वयं को जीवन के प्रेमी के रूप में चित्रित करके जो दृश्य बिंब प्रस्तुत किए हैं वे अपने आप में बड़े रोमानी और चित्ताकर्षक हैं। क्या नीरज का स्वर हताशावादी है ? विचार करना होगा । विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि जीवन के जिस स्टेज पर जो पाठक है यह इन पंक्तियों का अलग अर्थ लेगा। युवक- युवतियाँ इसमें प्रेम की असफलता का चित्रण देख सकते हैं, जैसा फिल्म के चित्रांकन में भी है, किन्तु कविता का सदाशय पाठ करने पर यही लगता है कि जीवन में बहुधा मनुष्य दृष्टा होकर निरुपाय रह जाता है। 

मैंने गोपाल दास नीरज को केवल एक बार देखा है । वे हैदराबाद के हिन्दी महाविद्यालय में आए थे । आ तो वे गए थे समय पर ही , पर पता नहीं क्यों वे कुछ पढ़ नहीं रहे थे , कह भी नहीं रहे थे। उन्हे एक सफ़ेद लिफाफा भी दिया गया किन्तु उसके बाद भी वे स्फुट स्वर में कुछ बोलते बतियाते भर रहे । मैंने अवसर का लाभ उठाकर उनसे बात की और यह भी पूछा कि उनके सर्वप्रसिद्ध गीत ‘कारवां गुजर गया’का निहितार्थ क्या है । तब उन्होने मुझे एक रुबाई सुनाई –

ज़िंदगी अजब सराय फ़ानी देखी ।
हर चीज़ यहाँ की आनी जानी देखी । 
जो आके ना जाए वो बुढ़ापा देखा । 
जो जाके न आए वो जवानी देखी । । 

यह रुबाई किसकी है, वे बता ही रहे थे कि उनके द्वारा जल्दबाज़ी में होटल के रिसेप्शन में छोड़ दिये गए डेंचर्स लेकर एक व्यक्ति आ गया । उन्होने मुँह फेर कर उसे फिट किया और फिर एक के बाद एक अनेक संस्मरण सुनाए । फिल्मी गीत सुनाए । ‘ए भाई जरा देख के चलो’ पर खूब ताली बजी। तब स्मार्ट फोन न था, अफसोस।...