शोध, अनुसंधान, अन्वेषण, गवेषणा, खोज आदि शब्द ‘शुद्धि’, ‘परीक्षा’, ‘तलाश’, ‘कोशिश’ आदि अर्थों के द्योतक हैं। लैटिन भाषा से प्रेरणा लेकर अंग्रेजी भाषा में निर्मित शब्द ‘Research’ और फ्रांसीसी भाषा का शब्द ‘Recherche’ भी मूल रूप से ‘खोज’ और ‘देखना’ अर्थ प्रदान करते हैं, लेकिन उनके साथ ‘Re’ प्रत्यय जुड़ जाने पर खोजना या देखना अर्थ आवृत्तिवान हो जाता है--- ‘पुन:’ या ‘फिर से’ देखना अथवा खोज करना। भारतीय सौंदर्यशास्त्र के प्रख्यात अध्येता आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस Re प्रत्यय को ‘आवृत्ति’ के स्थान पर ‘बहुत गहराई से’ और ‘बहुत कोशिश’ के अर्थ में प्रयोग किए जाने पर अधिक बल दिया था और रिसर्च शब्द से ‘बहुत गहराई तथा प्रयत्नपूर्वक की गई खोज या अनुसंधान’ का अर्थ ग्रहण करने संबंधी अभिमत प्रस्तुत किया था।
भारत में बीसवीं शताब्दी के मध्य तक नवाचारी कार्यों के लिए ‘अनुसंधान’ और ‘रिसर्च’ शब्द बहुतायत से प्रचलित थे। कई बार ‘गवेषणा’ का प्रयोग भी देखने को मिलता था। वर्तमान में रिसर्च शब्द ज्यों का त्यों प्रयोग में है, लेकिन अनुसंधान और गवेषणा के स्थान पर ‘शोध’ शब्द का व्यवहार बढ़ गया है। भारतीय शब्द-संपदा में एक शब्द ‘मीमांसा’ उपलब्ध है, जो प्राचीन काल से ही नवाचारी कार्य के अर्थ में प्रयोग किया जाता रहा है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित “संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर” में इस शब्द का अर्थ--- ‘अनुमान, तर्क आदि द्वारा यह स्थिर करना कि कोई बात कैसी है’ दिया हुआ है। (नवम संस्करण 1987, पृ. 819)। यहाँ ‘अनुमान’ को परिकल्पना और ‘स्थिर करना’ को कार्य का/के निष्कर्ष (उपलब्धि/उपलब्धियाँ) स्वीकार कर लिया जाए (जो कि सहज-स्वाभाविक है), तो ‘तर्क’ की अर्थ-सीमा में प्रश्न, विश्लेषण, विवेचन आदि को ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार नवाचारी कार्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए मीमांसा सर्वाधिक उपयुक्त शब्द माना जाना चाहिए। सहज जिज्ञासा का विषय हो सकता है कि फिर शोध अथवा अनुसंधान के स्थान पर मीमांसा शब्द के प्रयोग को क्यों प्राथमिकता नहीं दी गई होगी? इसके दो उत्तर सूझते हैं। एक तो यह, कि भारत में ‘पूर्व मीमांसा’ तथा ‘उत्तर मीमांसा’ नाम से दो दार्शनिक धाराएँ आधुनिक युग के बहुत पहले से विद्यमान हैं, अत: मीमांसा शब्द को उसके मूल शब्दार्थ से काट कर एक दर्शन विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाले शब्द के रूप में जाना गया होगा, और दूसरा यह, कि उपनिवेशवादी प्रभावों से आतंकित होने के चलते ऐसे शब्द से बचने का प्रयास किया गया होगा, जो सीधे-सीधे भारतीय ज्ञान और प्रज्ञा परंपरा का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करता हो। आधुनिक शिक्षा और शोध प्रणाली के अंतर्गत ‘रिसर्च’ और ‘इन्वेंशन’ शब्द उपनिवेशवादी शासकों के साथ ही आए थे, अत: हिंदी में किसी ऐसे शब्द की खोज पर अधिक ध्यान रहा होगा, जिससे शासक-बिरादरी के माथे पर बल न पड़ें; अत: रिसर्च और इन्वेंशन के अर्थ के अधिक निकट ‘शोध’ और ‘अनुसंधान’ और ‘खोज’ को महत्व दिया गया होगा। ऐसा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए मराठी भाषा में रिसर्च के अर्थ में ‘संशोधन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। अब ये शब्द अकादमिक ढाँचे के मांस-मज्जा का अनिवार्य अंग बन गए हैं, अत: उपनिवेशवाद की इस भाषिक-कलाबाजी की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता।
उपर्युक्त विवरण का उद्देश्य किसी प्रकार की रणनीति न होकर शुद्ध मनोविनोद ही है। लेखक का निवेदन है कि अकादमिक अध्येता और विद्वान यह कहते रहने में संकोच न करें कि ‘अंग्रेजी का रिसर्च शब्द दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। री, अर्थात पुन: या फिर से और सर्च, अर्थात खोज। इस प्रकार रिसर्च शब्द का अर्थ है, जो छिपा हुआ है, उसे पुन: खोजना। हिंदी में इसी रिसर्च के अनुकरण पर ‘शोध’- अर्थात अज्ञान के कूड़े-करकट में दबे-ढके सत्य का शोधन और खोज- अथवा ‘अनुसंधान’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।’ अन्य भारतीय भाषाओं के शुभचिंतक भी ऐसा ही करते रहें। आखिर अपने भीतर के तालाब के ठहरे हुए पानी में विवेक की कंकड़ मार कर लहरें उठाने से क्या लाभ? किसी प्रकार के विवाद को जन्म देने से बचने के लिए यह लेखक भी आगे ‘शोध’ शब्द का ही प्रयोग करने वाला है।
परंपरागत दृष्टि से, शोध को एक निर्धारित वैज्ञानिक प्रविधि का प्रयोग करते हुए तार्किक निष्कर्षों के सहारे सत्य की तहों तक पहुँचने की क्रिया माना जाता है। शोध का संबंध ज्ञान के समस्त अनुशासनों से है और यह प्रत्येक ज्ञानुशासन में नवीन ज्ञान-राशि को जोड़ने के उद्देश्य से किया जाने वाला व्यवस्थित प्रयास है। मूलत: शोध मनुष्य की जिज्ञासा-वृत्ति, प्रकृति की शक्तियों और क्षमताओं का साक्षात्कार करने से मन में उठने वाले सहज प्रश्नों के उत्तर जानने की मनोवैज्ञानिक लालसा, उससे उत्पन्न परिकल्पना, उसके लिए किए जाने वाले प्रयत्नों और कार्य-विधियों के निर्धारण के माध्यम से संपन्न होने वाली प्रक्रियात्मक-घटना है। सभ्यता के ऐतिहासिक विकास-क्रम में मनुष्य की जिज्ञासाओं और आवश्यकताओं के विस्तार के साथ जीवन की जटिलताएँ बढ़ती भी रही हैं और अंतर्विरोधों, अंतर्संघर्षों, टकरावों से चुनौतीपूर्ण भी बनती रही हैं। उसी अनुपात में शोध के क्षेत्र में नवाचारों का महत्व भी बढ़ता रहा है। इससे शोध-क्षेत्र का निरंतर विस्तार हुआ है। इसी कारण शोध को सत्य और यथार्थ के निकट पहुँचने वाली निरंतर विकासमान प्रक्रिया कहा जा सकता है।
अकादमिक सुविधा के लिए शोध-कार्य का वर्गीकरण भी किया जाता है। न्यूनतम जिज्ञासाओं और प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए निर्धारित प्रविधि के अनुसार किए जाने वाले शोध-कार्य को ‘लघु’ अथवा ‘अणु’ शोध-कार्य कहा जाता है। यह प्राय: किसी औपचारिक पाठ्यक्रम का हिस्सा होता है। कुछ पाठ्यक्रमों के एक अंग के रूप में किए जाने वाले कम जिज्ञासाओं और कम प्रश्नों वाले शोध-कार्य को ‘परियोजना-कार्य’ अथवा प्रोजेक्ट (project) के अंतर्गत भी रखा जाता है। इसके शोध-प्रतिवेदन को ‘डिसर्टेशन’ (Dissertation) कहा जाता है। परंपरागत पाठ्यक्रमों में यह स्नातकोत्तर स्तर पर और विधिशास्त्र जैसे पाठ्यक्रमों में स्नातक स्तर पर भी निर्धारित होता है। इसका अधिक विकसित और केंद्रीकृत रूप एम.फिल्. पाठ्यक्रम के अंतर्गत देखा जाता है, जो किसी स्वतंत्र एकल ज्ञानानुशासन से जुड़ा होता है और जिसके फलस्वरूप एम.फिल्. उपाधि प्राप्त होती है। एम. फिल्. उपाधि के लिए संपन्न किए जाने वाले लघु शोध-कार्य के प्रतिवेदन को ‘एम.फिल्. डिसर्टेशन’ कहा जाता है। दूसरी ओर, एक स्वतंत्र शोध-कार्यक्रम के अंतर्गत शोध-उपाधि प्राप्त करने के उद्देश्य से अधिक जिज्ञासाओं और अधिक प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए निर्धारित प्रविधि का अनुपालन करते हुए किए जाने वाले शोध-कार्य के प्रतिवेदन को ‘थीसिस’ (Thesis) कहा जाता है। इसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाली शोध उपाधि को पी-एच.डी. (डी. फिल्. और डी. एस-सी. भी) और इसके बाद प्राप्त होने वाली उपाधि को डी.लिट्. कहा जाता है। ध्यान रखना होगा कि लघु शोध के अंतर्गत किए जाने वाले शोध-कार्य और पी-एच.डी. अथवा डी. लिट्. उपाधि के लिए किए जाने वाले शोध-कार्य के बीच तार्किकता, विवेचन, विश्लेषण और ज्ञान की गहराई आदि के स्तर पर कोई अंतर नहीं होता। दोनों की ही कार्य-योजना (Research Design) में भी अंतर नहीं होता। ये दोनों शोध-विषय, जिज्ञासाओं, शोध-प्रश्नों, उद्देश्यों, संसाधनों और शोध-प्रतिवेदन के आकार के स्तर पर सीमितता एवं व्यापकता की दृष्टि से परस्पर अलग होते हैं। यह समझना कठिन नहीं है कि डिसर्टेशन सीमित होता है और थीसिस उसकी अपेक्षा व्यापक। यह भी कि, सीमितता और व्यापकता शोध-कार्य की प्रचलित परंपरा से भी निर्धारित होती है और ज्ञानानुशासन तथा विषय की प्रकृति के आधार पर भी।
शोध के संदर्भ में ‘शोध-प्रारूप’ अथवा ‘शोध योजना’ (Research Design) और ‘शोध-प्रस्ताव’ (Research Proposal) का महत्व असंदिग्ध है। शोध-प्रारूप अथवा शोध-योजना (Research Design) वह योजना-प्रारूप है, जिसका अनुपालन करते हुए शोध-कार्य व्यवस्थित एवं चरणबद्ध रूप में संपन्न किया जाता है; जबकि शोध-प्रस्ताव (Research Proposal) शोध-योजना सम्मिलित करते हुए निर्मित किया जाने वाला वह दस्तावेज है, जिसे शोध-उपाधि कार्यक्रम संचालित करने वाले विश्वविद्यालय या किसी संस्थान अथवा शोध-कार्यक्रम प्रायोजित करने और शोध-कार्य के लिए अनुदान प्रदान करने वाले किसी सरकारी/गैर-सरकारी संस्थान, शोध-कार्यक्रम एकक या संबंधित सरकारी विभाग अथवा किसी अंतरराष्ट्रीय सरकारी-गैर-सरकारी संस्थान के समक्ष स्वीकृति हेतु प्रस्तुत निर्मित किया जाता है। स्पष्ट है कि शोध-प्रारूप अथवा शोध-योजना (Research Design) शोध-प्रस्ताव (Research Proposal) का अंग होता है। शोध प्रारूप अथवा शोध योजना (Research Design) के निम्नांकित मुख्य अंग माने जाते हैं -
शोध-विषय
शोध की मुख्य समस्या और लक्ष्य
शोध-प्रश्न (Research Questions)
परिकल्पना (Hypothesis)
उपलब्ध सामग्री का मूल्यांकन (Literature Review)
शोध-प्रविधि (Research Methodology)
प्रयुक्तेय संसाधन (प्रयोगशाला, ग्रंथ, सूचनाएँ, आँकड़े, प्रतिवेदन, दस्तावेज
साक्षात्कार, मौखिक स्रोतों से संग्रहीत सामग्री, प्रौद्योगिकीय-स्रोत, अन्य)
शोध-कार्य के चरण/ अध्यायीकरण
प्रस्तावित शोध-कार्य का महत्व एवं उपयोगिता
संदर्भ एवं सहायक सामग्री
शोध-कार्य का प्रारंभ शोध-विषय के चुनाव से माना जाता है, किंतु शोध-विषय के चुनाव के पूर्व शोध-क्षेत्र का निर्धारण किया जाना अनिवार्य है। शोध के लिए इच्छुक व्यक्ति इस छद्म का सहारा नहीं ले सकता कि ‘उसे बचपन से ही ..... विषय में रुचि थी/ उसके माता-पिता या.... ने बाल्यकाल से ही .... सुना कर ... क्षेत्र में कार्य करने की भूमिका बना दी थी/कक्षा में श्री..... गुरु जी ने... प्रसंग सुना कर/अपने व्यक्तित्व से प्रभावित करके/निर्देश देकर इस शोध-क्षेत्र के प्रति रुचि उत्पन्न कर दी थी और मिलने पर विषय भी सुझा दिया था... आदि।’ यह सहारा व्यक्ति को गतानुगतिकता का दास, कुंठित और अपने विवेक का प्रयोग करने से बचने वाला सिद्ध करता है। शोध के इच्छुक व्यक्ति को जानना चाहिए कि शोध-कार्य के लिए शोध-क्षेत्र और उसके बाद शोध-विषय का चयन एक चुनौती भरा कार्य है, जिसमें स्वाधीन चिंतन, विवेकशीलता, तार्किकता, ज्ञान और समाज, दोनों के प्रति एकनिष्ठ प्रतिबद्धता, स्पष्ट निर्णय शक्ति और युग-जीवन की अधुनातन जटिलताओं से उत्पन्न प्रश्नों को पहचानने की क्षमता द्वारा ही सफल हुआ जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में शोध के इच्छुक व्यक्ति को प्रथमत: अपना अकादमिक ज्ञानाधारित मूल्यांकन करके बिना किसी बाहरी प्रभाव के अपनी शोध-रुचि को पहचानना चाहिए। उसके पश्चात उसे अपनी शोध-रुचि से संबंधित प्रकाशित सामग्री (ग्रंथ एवं शोध-पत्रिकाएँ), संगोष्ठियों में प्रस्तुत किए जाने वाले शोधपत्रों, संबंधित क्षेत्र में पहले से चली आ रही शोध-योजनाओं और शोध-कार्यक्रमों, उच्च शिक्षण संस्थानों/सरकारों/अन्य संस्थानों द्वारा जारी शोध-प्रतिवेदनों, सर्वे एवं डेटाबेस, परंपरागत तथा इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया साधनों, आंदोलनों, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों, समझौतों आदि का विश्लेषण करके अभी तक शोध का आधार न बन सकी उस मूल शोध-समस्या का प्रारंभिक प्रारूप तैयार करना चाहिए, जो शोध-विषय के निर्धारण के लिए अनिवार्य। अंतिम रूप से शोध-विषय निर्धारण की तैयारी करने के पूर्व यह भी देख लेना चाहिए कि मूल शोध समस्या के प्रति शोधार्थी की व्यक्तिगत रुचि, शोध करने के उसके लक्ष्य, शोध की मूल समस्या से जुड़े प्रश्नों की संभाव्यता और शोध के लिए उपलब्ध संसाधनों की क्या स्थिति है। इस प्रक्रिया का पालन किए बिना शोध-विषय का निर्धारण सफलतापूर्वक किया जाना संदिग्ध होता है।
चयनित मूल शोध-समस्या से जुड़े शोध-प्रश्न (Research Questions) और परिकल्पना (Hypothesis) शोध-कार्य को संभव बनाने वाले निर्णायक तत्व माने जाते हैं। शोध-प्रश्न चयनित शोध-क्षेत्र संबंधी अधिकतम सामग्री के अध्ययन और मूल्यांकन के आधार पर अस्तित्व में आई मूल शोध-समस्या से जुड़े वे प्रश्न होते हैं, जिनके उत्तर की खोज के लिए संपूर्ण शोध-कार्य संपन्न किया जाता है। अभिकल्पना मूलत: इन्हीं शोध-प्रश्नों के उत्तर की संभाव्यता से निर्मित होती है। इसे शोध-कार्य में प्रयोग किए जाने वाले दो या दो से अधिक चरों (Variables) के बीच कार्य-कारण संबंध पर केंद्रित माना जाता है। प्रयोग में आने वाले ये चर स्वतंत्र (जिनमें प्रभावित करने की शक्ति होती है) और आश्रित (जो प्रभावित होते हैं) कोटियों के होते हैं। परिकल्पना ऋजु, मिश्रित, वैकल्पिक, तार्किक, गणितीय आदि वर्गों में बाँटी जा सकती है। शोधार्थी को अपने शोध-कार्य में अपनी शोध-परिकल्पना की परीक्षा करनी होती है, अत: उसे प्रारंभ में ही यह देख लेना चाहिए कि परिकल्पना मूल शोध समस्या और शोध-प्रश्नों से सीधे संबंधित है या नहीं, उसका निर्माण स्वतंत्र और आश्रित चरों के आधार पर किया गया है या नहीं तथा वह परीक्षण योग्य है या नहीं। यह अनिवार्य नहीं कि शोधार्थी की परिकल्पना सही ही सिद्ध हो, यह सिद्ध नहीं भी हो सकती। सिद्ध न हो सकने वाली परिकल्पना को ‘शून्य परिकल्पना’ कहते हैं। जो शोध-कार्य शून्य परिकल्पना देने वाले होते हैं, उन्हें भी शोध की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि वे शोध-प्रश्नों के सटीक उत्तर पाने के दूसरे मार्ग अपनाने तथा भविष्य में किए जाने वाले शोध-कार्य की अधिक नवाचारी कार्य-योजनाएँ बनाने के मार्ग खोलने वाले होते हैं।
परिकल्पना की परीक्षा और शोध-प्रश्नों के उत्तर खोजने के परिप्रेक्ष्य में ही शोध-प्रविधि का निर्धारण किया जाता है। प्रत्येक शोध-कार्य एक शोध-पद्धति या एकाधिक शोध-पद्धतियों के सहारे किया जाता है, जिन्हें सामूहिक रूप में शोध-प्रविधि कहा जाता है। परंपरागत शोधार्थी सामान्य रूप से आगमनात्मक ( जिसमें नवीन सिद्धांत की खोज की जाती है और जिसे ‘बॉटम अप’ पद्धति भी कहा जाता है) अथवा निगमनात्मक (जिसमें सिद्धांतों के परीक्षण द्वारा विशेष निष्कर्ष की प्राप्ति की जाती है और जिसे ‘टॉप डाउन’ पद्धति भी कहा जाता है) शोध-पद्धति का प्रयोग करता है। इसके अतिरिक्त शोध-पद्धतियों को सैद्धांतिक, अनुप्रयुक्त, आनुभविक, मात्रात्मक, गुणात्मक, नैदानिक, तुलनात्मक, विश्लेषणात्मक, व्याख्यात्मक, ऐतिहासिक आदि के रूप में भी वर्गीकृत किया जाता है। शोधार्थी को अपनी शोध-योजना में स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करना होता है कि वह शोध-कार्य संपन्न करने के लिए किन-किन शोध-पद्धतियों वाली शोध-प्रविधि का प्रयोग करेगा। साथ ही उसे शोध-प्रविधि के चयन के तार्किक कारण भी बताने होंगे। यदि शोध-कार्य की अवधि में किसी अन्य शोध-पद्धति की अनिवार्यता अनुभव होती है अथवा किसी पूर्व घोषित पद्धति को छोड़ देना पड़ता है, तो शोध-प्रतिवेदन तैयार करते समय इस तथ्य का भी कारण सहित उल्लेख करना होगा।
शोध-कार्य संपन्न हो जाने के पश्चात शोध-प्रतिवेदन तैयार करना एक तकनीकी कार्य है। शोध-प्रतिवेदन पूर्णत: शोध-प्रारूप/योजना (Research Design) के अनुपालन में होना अनिवार्य है। इसके अंतर्गत शोध-सामग्री के संयोजन के लिए वर्तमान में शीर्षक, उप-शीर्षक और सूक्ष्म उप-शीर्षक के लिए अंक-वर्ण पद्धति और अंक-दशमलव पद्धति का प्रयोग देखने में आता है। इसका उदाहरण इस प्रकार हो सकता है -
अंक-वर्ण पद्धति :
1. शीर्षक.........
1. क/ख/ग. उप-शीर्षक.........
1.क. (अ)/(आ)/(इ) सूक्ष्म उप-शीर्षक.......
अंक-दशमलव पद्धति :
1. शीर्षक..........
1.1. उप-शीर्षक.........
1.1.1. सूक्ष्म उप-शीर्षक
[शोध-निष्कर्ष/शोध-उपलब्धियों के अंकन के लिए गहरे बिंदुओं (बुलेट प्वाइंट्स) का प्रयोग किया जा सकता है।]
(प्रो. अनवारुल यकीन ‘लीगल रिसर्च एंड राइटिंग मैथड्स’ से प्रेरित)
सामग्री निर्मित करते समय बड़ी समस्या संदर्भ अंकन की होती है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और कुछ विश्वविद्यालयों के प्रयासों के बावजूद स्वाधीनता के दशकों बाद तक शोध-प्रतिवेदन में अन्य स्रोतों से ग्रहीत सामग्री को अलग से दर्शाए जाने और उद्धरण चिह्न लगाने के बाद संदर्भ संख्या अंकित करके भी पृष्ठ-पाद-टिप्पणी (Foot note space) अथवा पृष्ठांत टिप्पणी (End note space) के अंतर्गत संबंधित विश्वविद्यालय/संस्थान द्वारा निश्चित संदर्भ अंकन प्रणाली (Reference citation style) के अनुपालन के प्रति घोर लापरवाही और उपेक्षा का भाव देखा जाता था। दूसरी ओर पश्चिमी अकादमिक जगत इस क्षेत्र में प्रारंभ से ही बहुत सावधान और गंभीर रहा। इसके संभावित प्रभाव भी शोध की गुणवत्ता और शोध की नैतिकता पर देखे जा सकते थे। इक्कीसवीं शताब्दी की ओर बढ़ते हुए भारत के शोध-जगत में संदर्भ अंकन प्रणाली के अनुपालन के प्रति गंभीरता तो आनी प्रारंभ हुई, लेकिन इन प्रणालियों के व्यवहार के लिए अपेक्षित प्रशिक्षण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ कि शोधार्थी भ्रम और भय के शिकार हुए। यहाँ कुछ संदर्भ अंकन प्रणालियों का परिचय दिया जा रहा है -
एपीए (अमेरिकन साइकॉलॉजिकल एसोसिएशन) संदर्भ अंकन प्रणाली :
एपीए संदर्भ अंकन प्रणाली का पहला प्रारूप 5 दिसंबर, 2014 को जारी किया गया था। इसके पश्चात इसके अनेक संस्करण जारी हुए। प्रत्येक संस्करण में जारीकर्ता संस्था कुछ-न-कुछ परिवर्तन कर देती है। यहाँ 28 सितंबर, 2021 को जारी सातवाँ संस्करण (एपीए-7) दिया जा रहा है---
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शिकागो संदर्भ अंकन प्रणाली का प्रारूप शिकागो विश्वविद्यालय की यूनिवर्सिटि ऑफ शिकागो प्रेस द्वारा सन् 1906 में जारी किया गया था। सबसे पहले इसका व्यवहार उसी विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग द्वारा प्रारंभ किया गया। समय-समय पर इसके 17 संस्करण जारी किए गए हैं। यहाँ दिसंबर, 2022 में जारी 17 वें संस्करण से सामग्री प्रस्तुत की जा रही है----
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(स्रोत : https://www.chicagomanualofstyle.org/tools_citationguide.html/2023.2.9)
ओस्कोला संदर्भ अंकन प्रणाली
(Oxford University Standard for the Citation of Legal Authorities)
इस संदर्भ अंकन प्रणाली का निर्माण ऑक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय के विधि विभाग के पीटर ब्रिक्स द्वारा विधिशास्त्र के विद्यार्थियों के सहयोग से सन् 2000 में केवल विश्वविद्यालय के विधिशास्त्रीय शोध के संदर्भ में किया गया था, लेकिन ब्रिटेन सहित अनेक अंतरराष्ट्रीय विधि संस्थानों, शोध पत्रिकाओं और प्रकाशकों द्वारा इसका प्रयोग किया जाने लगा है। सन् 2012 तक इस प्रणाली के चार संस्करण जारी किए जा चुके थे।
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भारत में संदर्भ अंकन प्रणाली के विकास का प्रयास :
एसआईएलसी संदर्भ अंकन प्रणाली
Standard Indian Legal Citation
सन् 2014 में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटि, दिल्ली के प्रयास और अन्य भारतीय विधि संस्थानों से जुड़े विधि अकादमीशियनों के सहयोग से एसआईएलसी का विकास हुआ। विधिशास्त्र के क्षेत्र में किए जाने वाले शोध के लिए यह पहली भारतीय संदर्भ अंकन प्रणाली मानी जाती है। प्रारंभ में इसका अधिक प्रसार नहीं था, किंतु सन् 2022 तक देश के लगभग 140 विधि संस्थान इसे व्यवहार योग्य प्रणाली मानने लगे। इसके कुछ नमूने इस प्रकार हैं---
मूल ग्रंथ :
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(सोत : https://nludelhi.ac.in )
शोधार्थियों को इन अथवा अन्य किसी संदर्भ अंकन प्रणाली का उपयोग करते समय दो बातों का ध्यान रखना अनिवार्य है। एक यह, कि उन्हें यह जानकारी होनी चाहिए कि वे जिस संस्थान से जुड़ कर शोध-कार्य कर रहे हैं, उसने आधिकारिक रूप में कौन-सी प्रणाली को अपनाया है, और दूसरी यह, कि अधिकांश संदर्भ अंकन प्रणालियाँ अपने नवीनतम संस्करण के लिए भुगतान की मांग करती हैं, अर्थात व्यवहार में लाने के लिए उन्हें खरीदना होता है। कई बार शोध कार्यक्रम संचालित करने वाले विश्वविद्यालय/संस्थान अपने संसाधनों से किसी संदर्भ अंकन प्रणाली को खरीद कर शोधार्थियों को उसके प्रयोग की सुविधा दे देते हैं। यह शोध के लिए अच्छी बात है।
किसी भी संदर्भ अंकन प्रणाली का व्यवहार करने के क्रम में एक और समस्या मूल संदर्भ की पुनरावृत्ति की होती है, जिसे शोध-कार्य में प्रस्तुति-दोष माना जाता है। आधुनिक प्रौद्योगिकी ने इस समस्या के हल के लिए सॉफ्टवेयर विकसित किए हैं, जिन्हें ‘रेफरेंस मैनेजमेंट सोफ़्टवेयर’ कहा जाता है। ये सॉफ्टवेयर पहरेदार के रूप में कार्य करते हैं और संदर्भ की पुनरावृत्ति संबंधी दोष को दूर करने में शोधार्थी की सहायता करते हैं। ‘मेंडले’ (Mendeley), ‘एंडनोट’ (End Note), ‘प्रोसाइट’ (Procite), ज़ोटेरो (Zotero), रेफ वर्क्स (R’ef Works) आदि इसी प्रकार के सॉफ्टवेयर हैं। इनमें से भी किसी के व्यवहार के लिए नि;शुल्क उपलब्धता और भुगतान की अनिवार्यता के विषय में पूरी तरह सावधान रहने की आवश्यकता है।
शोध के क्षेत्र में कार्य की गुणवत्ता और उपयोगिता को प्रभावित करने वाला एक पक्ष अन्य स्रोतों से सामग्री ग्रहण करने के अधिकार और ग्रहीत सामग्री को निर्धारित व्यवस्था के अनुसार दर्शाने की बाध्यता के पालन या उसकी उपेक्षा से संबंधित है। यह अनिवार्य है कि शोधार्थी संबंधित विश्वविद्यालय/शोध-संस्थान अथवा (भारत के संदर्भ में) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित प्रतिशत सीमा में ही अन्य स्रोतों से आवश्यक सामग्री ग्रहण करके उसका उपयोग करे और निर्धारित व्यवस्था का पूर्णत: पालन करते हुए संदर्भ अंकन प्रणाली के माध्यम से उसकी सूचना भी अंकित करे। ग्रहीत की जाने सामग्री का प्रतिशत शोध-प्रतिवेदन की मुख्य सामग्री के आकार के अनुसार निर्धारित होता है। संभव है, कहीं यह संपूर्ण मुख्य सामग्री का 10% हो और कहीं यह प्रतिशत इससे कम या फिर अधिक। यदि अन्य स्रोतों से ग्रहीत सामग्री के निर्धारित प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन किया जाता है, तो वह ‘प्लेजरिज्म’ (Plagiarism) के अंतर्गत माना जाता है। इसी प्रकार अन्य स्रोतों से ग्रहीत सामग्री (यह विषयवस्तु, विचार, अवधारणा, अभिमत, निर्णय, निष्कर्ष आदि किसी भी रूप में हो सकती है) को बिना कोई संदर्भ अंकित किए इस प्रकार प्रयोग कर लेना कि वह शोधार्थी की मौलिक सामग्री प्रतीत हो, को भी प्लेजरिज्म का कार्य माना जाता है। इसी प्रकार यदि शोधार्थी द्वारा शोध-प्रतिवेदन में अपनी ही मौलिक सामग्री के किसी अंश का बिना कोई संदर्भ अंकित किए बार-बार उपयोग किया जाता है, तो उसे ‘सेल्फ प्लेजरिज्म’ माना जाता है। शोध के क्षेत्र में प्लेजरिज्म किसी भी रूप में एक गंभीर अपराध है; क्योंकि इससे शोध की नैतिकता ही खंडित नहीं होती, बल्कि जनता और राष्ट्र के धन का दुरुपयोग भी होता है। यही कारण है कि भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग प्लेजरिज्म के विरुद्ध कठोर कदम उठा रहा है। अधिकांश विश्वविद्यालय और अन्य शोध संस्थान भी इस विषय में सावधान हुए हैं। प्लेजरिज्म का पता लगाने के लिए कुछ सॉफ्टवेयर भी बन गए हैं, जैसे--- उरकुंड (Urkund), टर्निट-इन (Turnit-in) आदि। लेकिन एक तो इनके प्रयोग के लिए भुगतान करना पड़ सकता है, दूसरे इन सभी की अपनी सीमाएँ भी हैं। ये प्राय: रोबोट की भाँति कार्य करते हैं, जिससे किसी शोधार्थी के शोध-प्रतिवेदन में अनावश्यक रूप से प्लेजरिज्म बता दिए जाने की आशंका भी हो सकती है। एक बात यह भी, कि कई शोधकर्ताओं ने प्लेजरिज्म सॉफ्टवेयर के पकड़-जाल से बचने के मार्ग भी तलाशने प्रारंभ कर दिए हैं। इस दशा में, हमें ध्यान रखना होगा कि शोध के क्षेत्र में प्लेजरिज्म पर वास्तविक अंकुश लगाने वाला सॉफ्टवेयर स्वयं शोधकर्ता के मन में बैठी नैतिकता है। अंतत: उसे सक्रिय करके ही प्रत्येक प्रकार के अपराध से बचा जा सकता है।
शोध-प्रतिवेदन निर्मित करने की प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारकों में से एक ‘भाषा’ है। शोध की दीर्घकालीन परंपरा में यह सत्य स्थापित हो चुका है कि शोध-प्रतिवेदन की भाषा अन्य किसी भी ज्ञानानुशासन की अपेक्षा विज्ञान ज्ञानानुशासन के अधिक निकट होती है। कला (अथवा मानविकी) और समाजविज्ञान ज्ञानानुशासन से प्रेरणा लेकर वह संप्रेषण-कौशल से संपन्न बन जाती है। लेकिन वर्तमान युग पर्यावरण विमर्श, स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी-विमर्श, आर्थिक-उदारवाद और वैश्वीकरण आदि का भी है। ये सभी विमर्श सामाजिक मानसिकता के साथ-साथ भाषा के क्षेत्र में भी नवीन परिवर्तनों पर अत्यधिक बल देते हैं। स्त्री-विमर्श ने ‘लैगिक-तटस्थ-भाषा’ (Gender Secular Language) की अवधारणा का विकास किया है। दलित-विमर्श और आदिवासी विमर्श ने जाति और समुदाय तथा परंपराओं संबंधी पारिभाषिक शब्दावली के प्रयोग पर सोच-समझ कर निर्णय लेने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न जटिलताएँ भाषा-व्यवहार के सामान्य सामाजिक ढाँचे के साथ ही शोध-प्रतिवेदन की भाषा को भी प्रभावित कर रही हैं। आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण की घटनाओं ने भोजनालय, शयन-कक्ष, शादी-ब्याह, तीज-त्योहार की भाषा के साथ ही शोध-कार्य के निष्कर्षों को प्रस्तुत करने वाली भाषा पर भी अधिकार जमाने की भरपूर कोशिश की है। एक सामान्य परिवर्तन यह भी हुआ है कि शोध के क्षेत्र में ‘व्यक्ति-केंद्रित-भाषा’ (‘मैंने किया है’/’मेरे द्वारा किया गया कार्य है’/’मुझे अनुभव होता है’ आदि) के स्थान पर ‘शोध-केंद्रित-भाषा’ (‘शोधार्थी द्वारा किए गए कार्य के आधार पर’/’शोध-कार्य से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर’ आदि) के व्यवहार की अनिवार्यता पर पहले की अपेक्षा बहुत अधिक बल दिया जाने लगा है।
शोध की मुख्य समस्या और शोध-कार्य से शोधार्थी के संबंध की दृष्टि से एक चौंकाने वाला विमर्श पश्चिम के बाद भारत में भी काफी चर्चा में आ गया है। परंपरागत शोध-विमर्श के अंतर्गत माना जाता रहा है कि ‘शोध की नैतिकता’ और ‘शोधार्थी होने’ की कसौटी पर खरा उतरने के लिए ‘शोध-विषय’ और ‘शोध की मुख्य समस्या’ के साथ शोधार्थी के संबंध ‘तटस्थता पर आधारित’ होने चाहिए। लेकिन अब इस मान्यता पर पुनर्विचार की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है। इसके मूल में मुख्य तर्क इन प्रश्नों से पैदा होता है कि क्या वास्तव में शोधकर्ता ‘एक व्यक्ति इकाई’ और ‘एक शोधार्थी इकाई’ के रूप में एक ही समय पर परस्पर भिन्न होना संभव है? जब शोध-क्षेत्र से लेकर शोध-विषय के चयन तक शोधार्थी की रुचि निर्णायक होती है, तो क्या यह संभव है कि उसका शोध-कार्य उसकी व्यक्तिगत-रुचि से प्रभावित न हो? क्या शोधार्थी के दैनंदिन व्यवहार से लेकर उसके शोध-व्यवहार तक व्यक्तिगत आवश्यकताओं, समस्याओं, सुविधाओं, जटिलताओं, व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों के निर्वाह से प्रभावित नहीं होते? व्यक्ति का तटस्थ होना यूटोपियन-नैतिकता है अथवा उसका कोई मनोवैज्ञानिक और यथार्थवादी आधार भी है? और, क्या शोध का लक्ष्य शोधार्थी की अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता, उसके सामाजिक दायित्व और समाजार्थिक व समाज-राजनैतिक समझ तथा जीवन को अपनी धारणा के अनुसार बनाने की इच्छा से प्रभावित नहीं होता? इन और इसी प्रकार के अन्य प्रश्नों पर होने वाले अकादमिक व बौद्धिक विमर्श के कारण शोधकर्ता के लिए अनिवार्य मानी जाने वाली तटस्थता की अवधारणा विवादों और संदेहों के घेरे में आ गई है।
भारत में यही विमर्श ‘शोध के प्रदेय’ (Contribution in Return) की अवधारणा पर भी किया जाने लगा है। परंपरा से एक तो, यह माना जाता रहा है कि शोध-कार्य के निष्कर्ष अथवा उपलब्धियाँ ही उसका प्रदेय भी हैं, दूसरे इससे अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह माना जाता था कि शोधकर्ता अपने शोध-निष्कर्ष शोध कराने वाले संस्थान के माध्यम से विभिन्न संस्थाओं और सरकारों के लिए सुलभ बनाता है, जिनका उपयोग कार्यक्रम और नीतियाँ बनाने में किया जाता है--- अर्थात यह शोधकर्ता का एक महत्वपूर्ण प्रदेय है। लेकिन जब से विकास की नई अवधारणा सामने आई है, तब से शोधकर्ताओं के ये दोनों ही तर्क निर्बल पड़ गए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर पिछली शताब्दी के अंतिम चरण (4 दिसंबर, 1986) में विकास की नवीन अवधारणा, ‘विकास का अधिकार घोषणापत्र’ (Declaration on the right to Development) शब्दावली में अस्तित्व में आई। इस घोषणापत्र के पहले ही अनुच्छेद में विकास को मनुष्य का ‘अनाहरणीय मानव-अधिकार’ घोषित किया गया है और प्रत्येक व्यक्ति को विकास में भागीदारी तथा योगदान करने का हकदार बताया गया है। इसके पश्चात सन् 2000 में जारी ‘संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी घोषणापत्र’ (United Nations Millennium Declaration) और सन् 2015 में घोषित ‘हमारी दुनिया का रूपांतरण : सतत विकास के लिए कार्यसूची- 2030’ (Transforming our world : The 2030 Agenda for Sustainable Development) की बारी आती है (विशेष अध्ययन के लिए देखें, आलेख का परिशिष्ट, 1)।
इन सभी से जनता और समाज के सभी वर्गों को यह अधिकार मिला कि वे प्रत्येक शोधकर्ता से पूछें कि समाज के विभिन्न वर्गों से प्राप्त ज्ञान के बदले में उसने समाज के विकास में प्रत्यक्ष रूप में क्या भागीदारी की? वे यह भी पूछ सकते हैं कि क्या विज्ञान का शोधकर्ता अपने निष्कर्षों को लेकर साधारण जनता (जिसमें किसान मुख्य हो सकते हैं) के बीच गया? समाजविज्ञान के शोधकर्ता ने अपने शोध-कार्य के अनुसार दूरस्थ नगरीय और ग्राम्य क्षेत्रों की स्त्रियों, साक्षरता के लिए प्रतीक्षारत बालकों, राजनैतिक दिशाहीनता का शिकार मतदाताओं, सहकारिता आंदोलन की बारीकियाँ न समझने वाले निर्धन लोगों को सजग बनाने के लिए अपने स्तर् क्या पहल की? जयशंकर प्रसाद, विलियम वर्ड्सवर्थ, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि के प्रकृति-चित्रण-वैभव पर शोध-उपाधि पाने के बाद मानविकी के शोधकर्ता ने कितना समय जंगल-खेत-गाँव में व्यतीत किया और कितने लोगों को प्रकृति के रहस्यों से परिचित कराया? साधारण जनता के सभी वर्गों (विशेषकर वंचितों) को शिक्षण संस्थाओं (विश्वविद्यालय और कॉलेज, दोनों) से यह पूछने का अधिकार भी है कि वे स्थानीय समाज और समस्याओं तथा विकास से संबंधित कितने नियतकालीन और नियमित पाठ्यक्रम संचालित कर रहे हैं? उनके शोध कार्यक्रमों में स्थानीय आवश्यकताओं (कृषि, शिक्षा, प्रौद्योगिकी, लोक-जीवन, पत्रकारिता, सामाजिक वर्ग-भेद, कौशल-विकास आदि) के लिए कितनी जगह है? शोध के प्रदेय की यह नवीन अवधारणा जनता के भौतिक और मानसिक विकास में शोधकर्ताओं, विद्वानों, बुद्धिजीवियों की सीधी भागीदारी पर बल देती है।
इसी अवधारणा के अंतर्गत यह विचार भी विमर्श का हिस्सा बनने लगा है कि आखिर शोध की दिशा क्या होनी चाहिए? इसके लिए हमें स्थानीय और वैश्विक जटिलताओं के परिप्रेक्ष्य में सोचना होगा कि हम पहले की भाँति सभी ज्ञानानुशासनों को स्वायत्त रहने देकर अपना शोध-कार्य करें अथवा अपने इस परंपरागत शोध-स्वभाव में बदलाव करें? इस प्रश्न का अचानक कोई उत्तर देने के पूर्व कुछ वास्तविकताओं पर विचार करना होगा, जैसे--- व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक जीवन का कौन-सा ऐसा पक्ष है, जो केवल किसी एक ही ज्ञानानुशासन के सहारे चल पा रहा है? साहित्य के अंतर्गत आने वाली कौन-सी ऐसी रचना है, जिसे मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास-बोध, संस्कृति-परंपरा आदि की अवहेलना करके केवल सौंदर्यशास्त्र के सहारे पूरी तरह समझा अथवा व्याख्यायित किया जा सकता है? विज्ञान का कौन-सा ऐसा अध्ययन और शोध का विषय है, जिसे उसकी सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक उपयोगिता से अलग करके जनता की स्वीकृति प्राप्त हो सकती है? क्या समाज-विज्ञान का कोई शोध नृ-विज्ञान, संस्कृति और लोक की जटिल विविधताओं से परे रह कर संभव है? क्या सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी कोई शोध समाजशास्त्र की उपेक्षा कर सकता है? क्या अर्थशास्त्र का बाजारवाद पर केंद्रित कोई शोध संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों से जुड़े होने से इंकार कर सकता है? इस प्रकार के असंख्य प्रश्नों ने यह सोचने पर विवश किया है कि शोध और ज्ञानानुशासनों के संबंध पर पुनर्विचार अनिवार्य है।
वर्तमान में मनुष्य के विचार के केंद्र में सतत-विकास की आवश्यकता, वैश्वीकरण के आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव, शीत-युद्ध की उभरती नई आशंकाएँ, विश्व की जनता पर अकारण थोपे जाने वाले युद्धों का स्त्रियों-बालकों पर प्रभाव, पर्यावरण की निरंतर चिंताजनक होती स्थिति, जलवायु परिवर्तन के परिणाम, भू-राजनीति और भू-भौगोलिकी में होने वाले बदलाव, ऊर्जा-संकट, ग्रीन-इकॉनॉमी और ब्ल्यु-इकॉनॉमी में नए विश्व-भविष्य की तलाश, शिक्षा का भू-मंडलीय स्वरूप, संस्कृति और आदिवासी जीवन की पहचान को बचाने की आवश्यकता और जल-जंगल-जमीन पर वास्तविक अधिकार तथा उनके दोहन के सवाल, वैश्विक स्तर पर तेजी से बढ़ती धर्मांधता और सांप्रदायिकता, विचार और प्रतिरोध की प्रवृत्ति को कुंद करने की कोशिशें आदि हैं। मनुष्य के विचार के ये सभी पक्ष शिक्षा और शोध कार्यक्रमों के अंग के रूप में भी स्वीकार किए जाने चाहिए। तब हम पाएँगे कि एकल ज्ञानानुशासन केंद्रित शोध का युग कभी का बीत चुका है। बहुल ज्ञानानुशासन पर केंद्रित शोध का युग भी पुराना पड़ चुका है। अब हमारे सामने अंतरानुशासनिक अध्ययन और पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन पर केंद्रित शोध के द्वार खुले हैं। भारत ने जिस प्रकार अचानक और अत्यल्प कालावधि के भीतर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की दुनिया में प्रवेश करके उपभोक्ता और दर्शक की स्थिति को वासांसि जीर्णानि की भाँति झटक कर खोजकर्ता और विज्ञान की दिशा के निर्धारण में सक्रिय भागीदार की भूमिका और हैसियत पर दावा जताया है, वह अति चुनौतीपूर्ण है और उसके लिए राष्ट्र की पूरी शोध-बिरादरी को नवाचारों के प्रति गंभीर तथा दायित्वपूर्ण लगाव का प्रमाण देना होगा। बायो-मेडिकल, बायो-इंफॉर्मेटिक्स, ईथनॉग्राफी, एंथ्रोपॉलॉजी जैसे अनेक क्षेत्र और 5पी. (पीपुल, प्लेनेट, प्रोस्परिटि, पीस, पार्टनरशिप) के लिए अनिवार्य वैज्ञानिक, समाजवैज्ञानिक और मानविकीय अभियानों की सफलता के लिए एक सीमा तक अंतरानुशासनिक अध्ययन और शोध से काम चल सकता है, लेकिन अंतत: हमें पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन व शोध का मार्ग ही अपनाना होगा। कारण यह कि अंतरानुशासनिक अध्ययन में भिन्न-भिन्न ज्ञानानुशासनों की दृष्टियाँ संगठित रूप में कार्य तो करती हैं, किंतु वे ज्ञानानुशासनिकता के ढाँचे के भीतर रहते हुए ही ऐसा कर पाती हैं, जबकि पार-ज्ञानानुशासनिकता एक ऐसी समग्रतावादी चिंतन और शोध-दृष्टि निर्मित करती है, जो ज्ञानानुशासनों की सीमाओं के पार अस्तित्व में आती है। यह ज्ञानानुशासनों की सीमाओं से मुक्त होकर व्यापक समस्याओं को समझने वाली नवाचारी अध्ययन और शोध-दृष्टि है। इसी के साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि पार-ज्ञानानुशासनिकता शोध की प्रक्रिया में उन वर्गों को शामिल करती है, जिन पर शोध का प्रभाव पड़ने वाला होता है। (विशेष अध्ययन के लिए देखें, आलेख का परिशिष्ट, 2)।
मार्च, 2019 के आँकड़ों के अनुसार भारत में 48 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 399 राज्य विश्वविद्यालय, 334 प्राइवेट विश्वविद्यालय, 126 डीम्ड विश्वविद्यालय तथा 39050 कॉलेज और 10011 स्वायत्तशासी संस्थाएँ हैं। शोधपत्रों के प्रकाशन की दृष्टि से सन् 2021 में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर था। कुल शोधपत्रों में भारत का हिस्सा 5.31% आँका गया था। लेकिन कॉर्नेल विश्वविद्यालय और विश्व बौद्धिक संपदा संगठन प्रति वर्ष जो ‘ग्लोबल इन्नोवेशन इंडेक्स’ तैयार करते हैं, उसमें सन् 2018 में स्विटजरलैंड पहले, चीन 17वें और भारत 57वें स्थान पर था। सन् 2022 में ग्लोबल इन्नोवेशन इंडेक्स में स्विटजरलैंड पहले, चीन 11वें और भारत 40वें स्थान पर रहा। स्मरणीय है कि यह इंडेक्स शोध कार्यक्रम संचालित करने वाले शिक्षा संस्थानों की स्थिति, शोधकर्ताओं की स्थिति, शोध की सुविधाएँ, शोध के लिए वित्त्तीय संसाधनों की उपलब्धता, बाजार और व्यापार की जटिलताओं में शोध की भूमिका, शोध के परिणामस्वरूप उपलब्ध हुए ज्ञान और प्रौद्योगिकी की स्थिति आदि के मूल्यांकन के आधार पर निर्मित किया जाता है। जब तक भारत अपना कोई ग्लोबल इन्नोवेशन इंडेक्स विकसित न कर ले, तब तक हमें पश्चिमी इंडेक्स की कसौटी पर ही मूल्यांकित होने की विवशता झेलनी होगी और उसके अनुसार हमारा मार्ग कठिन है। एक सत्य यह भी है, कि भारत में शोध कार्यक्रम विश्वविद्यालयों के दायित्व में शामिल है, जबकि कॉलेज उसमें सक्रिय हस्तक्षेप के योग्य नहीं माने जाते। इसी कारण, मात्र 3.6% कॉलेज ही शोध कार्यक्रम संचालित करते हैं। दूसरी बात यह कि भारत में अभी भी शिक्षण और शोध, कक्षा-अध्यापन और शोध, अध्यापक और शोध, जनता और शोध के बीच की दूरी को पाटा नहीं जा सका है। यह कम दुखद नहीं है कि पूर्व प्रचलित-प्रमाणित ज्ञान के व्यवहार को बरसों-बरस प्रयोग करते चले जाना अध्यापन में बने रहने का सबसे आसान और सुरक्षित रास्ता माना जाता है। यह किसी भी देश और समाज को नवाचारी मार्ग की ओर ले जाने में बाधा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति है। इन समस्त समस्याओं को भी हमारे सामूहिक विचार-विमर्श का अंग बनना चाहिए।
भारत सरकार ने पिछले वर्षों में शोध के क्षेत्र में नवाचार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई योजनाएँ प्रारंभ की हैं, जैसे---उच्चतर आविष्कार योजना (UAY), इंपैक्टिंग रिसर्च इन्नोवेशन एंड टक्नॉलॉजी (IMPRINT), प्रधानमंत्री अनुसंधान अध्येता योजना (PMRF), अटल इन्नोवेशन मिशन (AIM) आदि। सन् 2021 में भारत के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा प्रस्तावित पाँच नई योजनाएँ स्वीकार की गई हैं--- इलैक्ट्रिक मॉबलिटि मिशन, मेथेनॉल मिशन, क्वांटम साइस एंड टक्नॉलॉजी मिशन, मैपिंग इंडिया मिशन और साइबर फिजिकल सिस्टम मिशन। सन् 2023 में भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन’ की घोषणा की है, जिसका लक्ष्य कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना है। ये सभी अध्ययन, शोध और विकास के क्षेत्र में नवाचार के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाने वाली घटनाएँ हैं। आवश्यकता इस बात की है कि विश्वविद्यालय और कॉलेज अपनी जड़ताओं को तोड़ कर नवाचार के मार्ग पर चल पड़ने की गंभीर तैयारी करें। 15-17 फरवरी तक फिजी में संपन्न होने वाले बारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन का थीम-वाक्य रखा गया है--- ‘परंपरागत ज्ञान से कृत्रिम मेधा तक’। क्या भाषा और साहित्य से जुड़े अध्यापक और विद्वान इसकी अंतर्ध्वनि को सुनने का प्रयास करेंगे ! आखिर नवाचार केवल प्रकृति विज्ञान, समाजविज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने वाले शोधकर्ताओं की ही जिम्मेदारी नहीं है, उसे साहित्य, कला, भाषा, संस्कृति और लोक-जीवन जैसे अध्ययन अनुशासनों से जुड़े मीमांसकों को भी अपने व्यवहार का अंग बनाना होगा, तभी एक विकसित भारत का सपना पूरा हो सकता है।............
परिशिष्ट
1. विकास का अधिकार और सतत विकास
संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा द्वारा 4 दिसंबर, सन् 1986 को प्रस्ताव संख्या 41/128 के माध्यम से ‘विकास का अधिकार घोषणापत्र’ (Declaration on the right to Development) स्वीकार किया गया। इस घोषणापत्र में मनुष्य को विकास के केंद्र में स्थापित करने वाली प्रस्तावना और 10 अनुच्छेद हैं। इनमें से पहले, दूसरे और छठे अनुच्छेदों की घोषणाएँ इस प्रकार हैं---
अनुच्छेद-1 : “विकास का अधिकार अनाहरणीय मानव-अधिकार है, जिसके बल पर प्रत्येक व्यक्ति और सभी लोग उसमें भागीदारी करने एवं योगदान करने के हकदार होते हैं और आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक विकास का उपभोग करते हैं, जिनके भीतर समस्त मानवाधिकार तथा आधारभूत स्वतंत्रताएँ पूरी तरह मूर्त हो सकती हैं।” (धारा-1)
अनुच्छेद-2 : “मानव-अधिकारों और आधारभूत स्वतंत्रताओं के पूर्ण सम्मान, साथ ही साथ समाज के प्रति जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए वैयक्तिक एवं सामूहिक रूप में सभी व्यक्तियों का विकास के प्रति दायित्व है, जिसके माध्यम से स्वतंत्र और संपूर्ण मनुष्य होने को सुनिश्चित किया जा सकता है; इसीलिए लोगों को विकास के लिए एक समुचित राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था-क्रम को प्रोत्साहित एवं संरक्षित करना चाहिए।” (धारा-2)
अनुच्छेद-6 : “सभी मानव-अधिकार और आधारभूत स्वतंत्रताएँ अविभाज्य एवं परस्पराश्रित हैं, अत: नागरिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को लागू करने, बढ़ावा देने तथा संरक्षित रखने पर समान ध्यान दिया जाना चाहिए और तुरंत प्रभाव से विचार किया जाना चाहिए।“ (धारा-2)
विश्व के सभी नागरिकों को विकास में केंद्रीय महत्व देकर एक नवीन और विकसित विश्व समाज के निर्माण की दिशा में यह संयुक्त राष्टृ संघ का अब तक का सबसे क्रांतिकारी कदम था। इसने सभी राष्ट्रों को इकाई के रूप में और राष्ट्रों के समूह के रूप में अपनी जनता की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक स्थिति में सुधार के लिए प्रेरित किया।
1992 में ब्राजील के रियो-डी-जेनेरियो में वैश्विक जीवन की परिस्थितियों में सुधार और पर्यावरण संरक्षण के साथ सतत विकास हेतु वैश्विक साझेदारी पर 178 राष्ट्रों के बीच सहमति बनी। बीसवीं शताब्दी के समाहार-बिंदु पर सन् 2000 (सितंबर) में संयुक्त राष्ट्र संघ ने न्यूयॉर्क में सहस्राब्दी शिखर सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें 189 देशों के हस्ताक्ष्ररों वाला ‘संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी घोषणापत्र’ (United Nations Millennium Declaration) जारी किया गया। इसका मोटो था, विश्व के लिए भोजन (Food for Life Global), जो सभी राष्ट्रों के बीच एक ऐसी वैश्विक- साझेदारी का प्रारंभ-बिंदु माना गया, जिसका लक्ष्य सन् 2015 तक दुनिया की सबसे गरीब जनता की गरीबी को मिटाना था।
मूल उद्देश्य की पूर्ति के लिए सन् 2002 में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव द्वारा सहस्राब्दी परियोजना जारी की गई और प्रो. जैफरे सॉकस की अध्यक्षता वाली एक स्वतंत्र समिति ने एक विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया, जिसके आधार पर आठ लक्ष्य निश्चित किए गए--- अधिकतम निर्धनता और भूख का निराकरण, सार्वभौमिक स्तर पर प्राथमिक शिक्षा की सुविधा, लैंगिक समानता को बढ़ावा और महिला सशक्तीकरण, बाल मृत्यु दर में कमी, मातृ-स्वास्थ्य में सुधार, एचआईवी/एड्स, मलेरिया और अन्य रोगों के विरुद्ध अभियान, पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना, विकास के लिए वैश्विक साझेदारी। इन्हें ‘सहस्राब्दी विकास लक्ष्य’ (Millennium Development Goels संक्षेप में MDGs-8) कहा गया।
तमाम प्रयासों के बावजूद आर्थिक, भू-राजनैतिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों में तेजी से आने वाले परिवर्तनों के कारण संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी घोषणापत्र में निर्धारित अवधि में सहस्राब्दी विकास लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। इस सच का साक्षात्कार करने के परिणामस्वरूप सतत विकास शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया। न्यूयॉर्क में सन् 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 25 से 27 सितंबर तक आयोजित ‘सतत विकास शिखर-सम्मेलन’ में 193 सदस्य राष्ट्रों ने ‘सतत विकास के लिए एजेंडा- 2030’ स्वीकार किया था। इस शिखर-सम्मेलन का प्रातिपदिक (थीम) था--- हमारी दुनिया का रूपांतरण : सतत विकास के लिए कार्यसूची- 2030 (Transforming our world : The 2030 Agenda for Sustainable Development)|
इस अधिवेशन में सतत विकास कार्य-योजना के लक्ष्य प्राप्त करने की अवधि 1 जनवरी, 2016 से सन् 2030 निर्धारित की गई। सतत विकास एजेंडे में 17 लक्ष्य रखे गए--- निर्धनता उन्मूलन, भूख से मुक्ति, अच्छा स्वास्थ्य और जीवन-स्तर, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, लैंगिक समानता, शुद्ध जल और स्वच्छता, किफायती और स्वच्छ ऊर्जा, संतोषजनक कार्य और आर्थिक विकास, उद्योग, नवाचार और बुनियादी ढाँचा, न्यूनतम असमानताएँ, संपोषित नगर और समुदाय, उत्तरदायित्वपूर्ण उपभोग एवं उत्पादन, जलवायु-कार्रवाई, जलीय-जीवन, स्थलीय-जीवन, शांति, न्याय और सशक्त संस्थाएँ, लक्ष्य प्राप्ति के लिए साझेदारी। इन्हें प्रकृति के आधार पर वर्गीकृत करके पाँच लक्ष्य-वर्ग निर्धारित किए गए, जिन्हें सतत विकास के “5-पी” कहा गया, ये हैं--- जन (पीपल), ग्रह (प्लेनेट), समृद्धि (प्रोस्पैरिटि), शांति (पीस) और साझेदारी (पार्टनरशिप)।
(अध्ययन-स्रोत : United Nations Human Rights, Genaral Assembly Resolution 41/128, 04 December, 1986) तथा (https://www.coursera.org/lecture/sustainable-development-ban-ki-moon/summary-jvkbc)।
2. पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन एवं शोध
Trans-Disciplinary Studies and Research
पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन और शोध का संबंध ज्ञानानुशासनों की सीमा के परे एक ऐसी समग्रतावादी दृष्टि से है, जो ज्ञानानुशासनों की सीमाओं को खंडित करके अस्तित्व में आती है। यह नवाचारी दृष्टि ज्ञानानुशासनों की सीमा के बाहर ज्ञान की एकता की पहचान सुनिश्चित करती है। पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन-दृष्टि वैज्ञानिक ज्ञान और पूर्वजीय ज्ञान-चेतना के बीच संबंध की खोज करती है और ऐतिहासिक विकास की दशाओं, वर्तमान विश्व की समझ, प्रकृति, आध्यात्मिकता व रहस्यवादी अनुभवों, कला और सौंदर्य के मानदंडों, सांस्कृतिक वैविध्य तथा भाषा को अध्ययन के अनिवार्य कारकों के रूप में स्थापित करती है। यह भी ध्यान रखना होगा कि पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन व शोध कोई ‘परम ज्ञानानुशासन’ नहीं है, बलि वह बहुल ज्ञानानुशासनिकता और अंतरज्ञानानुशासनिकता का ही विकसित रूप है। पार-ज्ञानानुशासनिकता की प्रकृति को दर्शाने वाली प्रमुख शब्दावली है--- मुक्त विमर्श, अभिमत वैविध्य, ज्ञान का रूपांतरण, यथार्थ के विविध स्तर, समग्रतावादी दृष्टिबोध, ज्ञानानुशासनों की सीमाबंदी के बाहर समस्याओं की समझ, ज्ञानानुशासनों के ढाँचे के पार ज्ञान का एकत्व, वर्तमान विश्व और उसे प्रभावित करने वाली जटिलताओं का साक्षात्कार, वैज्ञानिक ज्ञानानुशासनों और पारंपरीण पूर्वजीय प्रज्ञा से उद्भूत ज्ञान-मीमांसाओं के बीच संबंध, सामाजिक बोध और विज्ञान के बीच निकटता पर आधारित सतत विकास की संभाव्यता, अध्ययन तथा शोध की नीतियों में प्रभावित वर्गों का समावेश, हस्तक्षेप व सहभागिता आदि।
पार-ज्ञानानुशासनिकता की अवधारणा सन् 1970 के काल में जीन पियागेट (Jean Piaget) ने प्रस्तुत की थी। 1987 में ‘अंतरराष्ट्रीय पार-ज्ञानानुशासनिक शोध केंद्र’ (International Centre for Transdisciplinary Research) ने उनकी अवधारणा को स्वीकार किया। सन् 1994 में पुर्तगाल में पहली पार-ज्ञानानुशासनिक विश्व कांग्रेस आयोजित की गई। सन् 2003 में जर्मनी के गॉटिंगेन विश्वविद्यालय में पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन और शोध पर केंद्रित संगोष्ठी आयोजित की गई। भारतवर्ष में सन् 2010 के काल में पार-ज्ञानानुशासनिकता पर चर्चा प्रारंभ हुई। कुछ वर्ष बाद विश्वविद्यालयों ने अपने शोध कार्यक्रमों में अंतरानुशासनिक अध्ययन के साथ पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन को भी शामिल करने पर ध्यान दिया। इस प्रकार अध्ययन और शोध की यह नवाचारी अवधारणा आगे बढ़ती रही।
पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन के बारे में अर्जेंटीना के पाब्लो टिगानी (Pablo Tigani) के विचार इस ज्ञानानुशासन की प्रकृति को समझने में सहायता करने वाले हैं--- ‘It is the art of combining several sciences in one person. A Transdiscilpinary is a scientist trained in various academic desciplines. This peson merged all his knowledge into one thick wire. That united knowledge wire is used to solve problems that include many problems. The decision of a transdisciplinary executive is the only one that takes into account the total resolution of a problem without leaving any loose thread.’
पार-ज्ञानानुशासनिक अध्ययन से प्रेरित होकर ‘विशद इतिहास’ (Big History) के नाम से एक प्रयोगात्मक अध्ययन-प्रणाली का विकास हुआ है। इसका अकादमिक प्रयोग लैटिन अमेरिकी और कैरिबियाई देशों, विशेषकर ब्राजील, इक्वाडोर, कोलंबिया, अर्जेंटीना आदि में किया गया है। वहाँ के अध्येताओं ने विभिन्न नृ-जाति समुदायों के अंतर्संबंधों को पार-ज्ञानानुशासनिक मूल्यों के सहारे समझने की कोशिश की है।