रविवार, 21 दिसंबर 2014

रमेशचंद्र शाह और राचपालेम चंद्रशेखर रेड्डी सहित 22 साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार


डॉ.रमेशचंद्र शाह 
डॉ.राचपालेम चंद्रशेखर रेड्डी 
देर आयद दुरुस्त आयद ! यह कहावत साहित्य अकादमी के इस वर्ष के पुरस्कारों की घोषणा पढ़ने सुनने पर अपने आप याद आ गई. संदर्भ था डॉ. रमेशचंद्र शाह को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा का. डॉ. रमेशचंद्र शाह का साहित्य लंबे समय से इस सम्मान का दावेदार और हकदार था. सूना तो यहाँ तक है कि इससे पहले उनकी औपन्यासिक कृतियाँ, कविता संग्रह और डायरी इस पुरस्कार के लिए छह बार शोर्ट लिस्ट हो चुकी हैं. अब सातवीं बार जाकर यह चिर प्रतीक्षित घोषणा सामने आई है. 

इसके साथ 2014 के साहित्य अकादमी पुरस्कार जिन कुल 22 साहित्यकारों को दिए जाने की घोषणा हुई है उनमें प्रमुख तेलुगु आलोचक राचपालेम चंद्रशेखर रेड्डी और लोकप्रिय उर्दू कवि मुन्नवर राणा के भी नाम शामिल हैं. 

अकादमी द्वारा जारी विज्ञप्ति को यहाँ साभार उद्धृत कर रहे हैं. 

सभी पुरस्कृत साहित्यकारों कि नववर्ष की पूर्व वेला में अनेकानेक बधाई!




गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

ऋषभ देव शर्मा को मिलेगा तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी का जीवनोपलब्धि सम्मान

ऋषभ देव शर्मा को मिलेगा जीवनोपलब्धि सम्मान

तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी, चेन्नै द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद परिसर में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत डॉ. ऋषभ देव शर्मा को हिंदी भाषा एवं साहित्य की उनकी सेवाओं के लिए जीवनोपलब्धि सम्मान (लाइफटाइम एचीवमेंट एवार्ड) से सम्मानित करने की घोषणा की गई है. 

यह सम्मान उन्हें विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी, 2015 को तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी के तृतीय अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में दिया जाएगा. मृदुला सिन्हा (महामहिम राज्यपाल, गोवा) ने मुख्य अतिथि के रूप में आने की स्वीकृति दी है. विशेष अतिथि ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. साकेत कुशवाहा होंगे. 

इस वर्ष का जीवनोपलब्धि सम्मान डॉ पि. के. बालसुब्रमण्यम (तमिल-हिंदी साहित्यकार, चेन्नै), डॉ. ऋषभ देव शर्मा (साहित्यकार-समालोचक, हैदराबाद) एवं वी. जी. भूमा (शास्त्रीय तमिल अनुवादक, चेन्नै) को प्रदान किया जाएगा। इन्हें 21000 रुपए की राशि, अभिनंदन पत्र, स्मृति चिह्न आदि से सम्मानित किया जाएगा। 

हार्दिक बधाई!

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

[संगोष्ठी] मध्यकालीन भारतीय साहित्य की मुक्तक रचनाएँ






हैदराबाद, 1 दिसंबर, 2014.
आज यहाँ सेंट पायस क्रास स्नातक एवं स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, नाचाराम और केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के संयुक्त तत्वावधान में ''मध्यकालीन भारतीय साहित्य की मुक्तक रचनाएँ'' विषयक दो-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी महाविद्यालय के प्रेक्षागृह में आरंभ हुई. संयोजक डॉ. राज्य लक्ष्मी ने सबका भावभीना स्वागत किया.

उद्घाटन समारोह ढाई बजे शुरू हुआ जिसमें डॉ. राधेश्याम शुक्ल और प्रो. शुभदा वांजपे ने अपने विचार रखे तथा डॉ. श्रीराम परिहार ने बीज वक्तव्य दिया. 

पहले विचार सत्र में डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने मध्यकालीन मुक्तक साहित्य की प्रेरणा के रूप में विशेष रूप से संस्कृत के कवि ''भर्तृहरि'' के शतकों पर चर्चा की. डॉ. अश्वत्थ नारायण ने ''बिहारी''  के मुक्तक काव्य की विवेचना की. अध्यक्षता करते  हुए प्रो. वाई. वेंकट रमण राव ने कहा कि भारतीय कविता के आकर ग्रंथों के अंतर्गत रामायण और महाभारत के आख्यानों की ही भाँति भर्तृहरि की शतकत्रयी को भी गिना जाना चाहिए क्योंकि नीति, शृंगार और वैराग्य विषयक उनकी उक्तियों ने शताब्दियों से रचनाकारों को प्रभावित किया है.

कल तीन विचार सत्र और होंगे तथा समापन सत्र पौने तीन बजे होगा.

प्रो. एम. वेंकटेश्वर जी ने प्रथम विचार सत्र के फोटो मुहैया कराए हैं जो धन्यवाद सहित यहाँ दर्शित हैं.


गुरुवार, 27 नवंबर 2014

अखिल भारतीय हिन्दी अधिकारी सम्मेलन


रामोजी फिल्मसिटी , हैदराबाद | 

दिनांक 14 एवं 15 नवम्बर , 2014 को हैदराबाद स्थित रामोजी फिल्मसिटी के सितारा होटल के सम्मेलन कक्ष में दि "न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी लिमिटेड " अखिल भारतीय हिन्दी अधिकारी सम्मेलन का सफलतापूर्वक आयोजन किया गया | यह सम्मेलन प्रधान कार्यालय द्वारा प्रायोजित था जिसका आयोजन हैदराबाद क्षेत्रीय कार्यालय ने किया |


सम्मेलन की अध्यक्षता श्री पी नायक , महा प्रबन्धक प्रधान कार्यालय ने किया | श्री संजीव सिंह , उप महा प्रबन्धक प्रधान कार्यालय ने सम्मेलन की हिन्दी कार्यान्वयन में भूमिका पर प्रकाश डाला |

श्री के वी कृष्णा , उप महा प्रबन्धक हैदराबाद क्षेत्रीय कार्यालय ने स्वागत भाषण दिया |

सम्मेलन के मुख्य अतिथि प्रो. ऋषभदेव शर्मा , प्रोफेसर एवं अध्यक्ष ,उच्च शिक्षा और शोध संस्थान ,दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , खैरताबाद , थे | श्री शर्मा ने संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी के औचित्य पर प्रकाश डाला और हिन्दी के प्रचार -प्रसार में हिन्दीतर भाषियों के योगदान की चर्चा की |

सम्मेलन में भारत के विभिन्न प्रांतों से हिन्दी अधिकारियों और प्रतिनिधियों ने भाग लिया |

सम्मेलन की शुरूआत में हैदराबाद क्षेत्रीय कार्यालय के राजभाषा अधिकरी , कुमार अनिल मलदहियार ने सभी प्रतिभागियों का अभिनंदन किया और पदाधिकारियों एवं मुख्य अतिथि को मंचासीन होने का निमंत्रण दिया | उसके बाद दीप प्रज्ज्वल्न ,सरस्वती वंदना और इतनी शक्ति हमें देना दाता गान की प्रस्तुति प्रधान कार्यालय की टीम द्वारा किया गया और सम्मेलन की कार्रवाई शुरू हो गई | 

अध्यक्षीय भाषण के पश्चात मुख्य अतिथि को स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया गया |

चायपान के बाद (क ) और (ख) क्षेत्र का पॉवर पाइंट प्रजेंटेशन हुआ | 

दिनांक 15 नवम्बर को (ग ) क्षेत्र का पॉवर पाइंट प्रजेंटेशन हुआ | उसके बाद खुला सत्र हुआ |

तत्पश्चात पुरस्कार वितरण हुआ और राष्ट्रीय गान के साथ समेलन एक खुशनुमा वातावरण में सम्पन्न हुआ | 

- कुमार अनिल मलदहियार 
राजभाषा अधिकारी , हैदराबाद क्षेत्रीय कार्यालय
 |

रविवार, 23 नवंबर 2014

(लोकार्पण) 'धूप ने कविता लिखी है'

ऋषभदेव शर्मा के सातवें कविता संग्रह 'धूप ने कविता लिखी है' (२०१४) का
लोकार्पण करते हुए पद्मश्री जगदीश मित्तल (दाएँ से तीसरे).
साथ में दाएँ से - विवेक नाबाम, प्रो. एन. गोपि, प्रो. एम. वेंकटेश्वर,
डॉ. जोराम यालाम नाबाम, प्रो. ऋषभदेव शर्मा, लिपि भारद्वाज,
कुमार लव, डॉ. पूर्णिमा शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा.


हैदराबाद १५ नवंबर २०१४. 

यहाँ 'साहित्य मंथन' द्वारा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में प्रो. एम. वेंकटेश्वर की अध्यक्षता में आयोजित एक समारोह में कवि ऋषभदेव शर्मा के सातवें कविता संग्रह 'धूप ने कविता लिखी है' को लोकार्पित किया गया. लोकार्पण विश्व विख्यात कला संग्राहक और समीक्षक पद्मश्री जगदीश मित्तल ने किया. इस अवसर पर पुस्तक के भूमिका लेखक प्रो. देवराज के अतिरिक्त अरुणाचल प्रदेश से आए हुए विवेक नाबाम और डॉ. जोराम यालाम नाबाम ने शुभकामनाएँ व्यक्त कीं.प्रसिद्ध तेलुगु साहित्यकार प्रो. एन. गोपि ने आशीर्वचन दिए. पुस्तक की लोकार्पित प्रति युवा कवि कुमार लव और फोटोपत्रकार लिपि भारद्वाज ने स्वीकार की. 
 
उल्लेखनीय है कि 'धूप ने कविता लिखी है' में ऋषभदेव शर्मा की १२६ तेवरियाँ संकलित हैं. स्मरणीय है कि उन्होंने तेवरी काव्यांदोलन का प्रवर्तन १९८१ में किया था और १९८२ में प्रो. देवराज ने इसका घोषणापत्र तैयार किया था. तदुपरांत प्रथम तेवरी संकलन (तेवरी) की भूमिका के अंतर्गत इन दोनों तेवारीकारों (डॉ. देवराज और ऋषभदेव शर्मा) ने तेवरी काव्यांदोलन की आधिकारिक घोषणा की थी. 'धूप ने कविता लिखी है' में इन दोनों दस्तावेजों (घोषणापत्र और आधिकारिक घोषणा) का भी समावेश किया गया है. साथ ही तेवरी काव्यांदोलन के उद्भव और विकास पर भी एक शोधपरक आलेख सम्मिलित है. 

'धूप ने कविता लिखी है' (२०१४) की भूमिका तेवरी काव्यांदोलन के घोषणापत्र के लेखक डॉ. देवराज ने लिखी है और उसे शीर्षक दिया है - 'कल धमाके में मरा जो, कौन था.......' इस भूमिका को यहाँ अविकल रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है - 



कल धमाके में मरा जो, कौन था.........
प्रो. देवराज 
धूप ने कविता लिखी है / ऋषभदेव शर्मा/ २०१४/ श्रीसाहिती प्रकाशन, हैदराबाद
पृष्ठ - १६८/ मूल्य - रु. २००/ ISBN - 978-93-5174-509-9 
तेवरी आंदोलन को प्रारंभ हुए तीन दशक से अधिक बीत चुके हैं। इस अवधि में हिंदी का यह काव्यांदोलन इतिहास की पुस्तकों में तो अपनी जगह नहीं बना पाया, लेकिन इससे जुड़े रचनाकारों ने अपनी आवाज़ को किसी प्रकार के समझौते नहीं करने दिए। उन्होंने प्रारंभ में जिस तरह नगरों, गाँवों, सड़कों और खेतों से जुड़ाव घोषित किया था, वह कम नहीं हुआ। इस समय वे जहाँ-जहाँ हैं, अपने चारों ओर फैली विषाक्त हवाओं के विरुद्ध अवसर निकाल-निकाल कर आवाज उठा रहे हैं। कई बार इनकी आवाज़ें दूर तक अपनी गूँज का विस्तार करती महसूस की जाती हैं और कई बार उन्हें अनसुना कर दिया जाता है। यह तरह-तरह की सत्ताओं का प्रतिरोध की कविता के साथ किया जाने वाला व्यवहार है, जो हमेशा से होता आया है। तेवरी आंदोलन से जुड़े रचनाकार इस तथ्य को जानते हैं, इसीलिए वे सत्ता को निरंतर नकारते हैं और जनता की सही आवाज़ बनने के रास्ते तलाशते रहते हैं। उनकी संख्या कम है, और कम होती चली जाए, उनके साथ आने से सुविधाजीवी रचनाकार कतराते रहें या और जो भी हो, उनकी बला से। 

ऋषभदेव शर्मा के लिए भी सत्ता नाराज़ हो जाए, उनकी बला से, वे जनाक्रोश का पसीना पोंछ-पोंछ कर उसे उकसाते रहेंगे और मौक़ा मिलते ही जनांदोलन में बदल जाने को प्रेरित करते रहेंगे। उनके लिए सत्ता ख़ूबसूरत से ख़ूबसूरत रूप धारण करने की कोशिश करके लगातार भ्रमबिंबों का एक जाल रचती रहती है। इस जाल में असंख्य सूर्य, चंद्रमा, तारे, धरा-गोलार्ध, आपस में गड्ड-मड्ड हुए उल्टे-सीधे चक्कर काटते रहते हैं, ज्वालामुखियों से लावे की जगह बर्फ फूट-फूट कर पहाड़ों-जंगलों से उनकी असली पहचान छीनने की साजिश रचती रहती है और स्थानीयता से वैश्विकता के बीच का शोर विमर्शों की दलदल में बदलता रहता है। भ्रमबिंबों के इस जाल का शिकार भी जनता होती है और उत्तर भी वही बनती है। यहाँ से सत्ता, जनता और रचनाकार के रिश्तों का अग्नि-मार्ग निर्मित होता है, जिस पर चलना सत्ता के लिए कभी संभव नहीं होता, जबकि शेष दोनों सहयात्री बन कर आगे बढ़ते रहते हैं। 

‘धूप ने कविता लिखी है’ की तेवरियाँ मुझे इस अहसास के सामने लाकर खड़ा करती हैं। इनकी आँच को सहना मेरे लिए कठिन है। ये कभी भी, कहीं भी जला सकती हैं। किसी भी बिंदु पर असहज कर देने वाले सवालों के दायरे निर्मित करके मुझे उनके भीतर खींच सकती हैं। मुझे लगता है कि अगर आपने इन्हें एक से अधिक बार पढ़ने की हिम्मत दिखाई, तो आप भी इनके आसान शिकार बन सकते हैं, सो इन तेवरियों को अधलेटे होकर या बिस्तर पर चादर ओढ़ कर या मन समझाने के लिए न पढ़ें। इन्हें वे लोग भी न पढ़ें, जिनकी रीढ़ की हड्डी सीधी न हो और जो सत्ता की दलाली को जीवन-ध्येय बना चुके हों। जनता की पक्षधरता का हलफ उठाने वाले इन तेवरियों को पढ़ते हुए सहजता अनुभव करेंगे। उन्हें इनके संगसाथ में संघर्ष के नए रास्ते भी आवाज़ लगाते दिख जाएँगे। 

ऋषभदेव शर्मा के इस नए संग्रह की अधिकांश तेवरियाँ बरसों पहले रची गई हैं और शहरी गोष्ठियों से लेकर गंगधाडी के आसपास खलिहानों में किसानों की प्रशंसा बटोर चुकी हैं। किताब में इन्हें देर से जगह मिल रही है, इसके पीछे तेवरीकार का संकोच है या कुछ और, यह केवल रचनाकार को ही पता है। मेरे लिए यह संग्रह संतोष का बड़ा कारण इसलिए है कि इसके प्रकाशन से तेवरी काव्यांदोलन को पुनर्वार नवीन ऊर्जा प्राप्त होगी। 

शुभकामनाएँ................ 
विजयादशमी, 2014                                                                                                                   देवराज 

                                                                                         महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय 
                                                                                                         गांधी हिल्स, वर्धा-442 005 (महाराष्ट्र)


शनिवार, 22 नवंबर 2014

(लोकार्पण) 'तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय'

15 नवंबर 2014 को हैदराबाद में 'साहित्य मंथन' के तत्वावधान में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में 
आयोजित एक समारोह में 
तेलुगु के प्रमुख कवि प्रो. एन. गोपि ने 
डॉ. ऋषभदेव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा लिखित पुस्तक 
'तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय' 
का लोकार्पण किया.
 इस अवसर पर प्रो. एम. वेंकटेश्वर (अध्यक्ष), 
पद्मश्री जगदीश मित्तल (उद्घाटनकर्ता), प्रो. देवराज (मुख्य अतिथि),
 डॉ. जोराम यालाम नाबाम और विवेक नाबाम के साथ लेखकद्वय .



परिचय वक्तव्य : डॉ. बी. बालाजी 

तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय

‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’ प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी और डॉ. जी नीरजा जी द्वारा रचित पुस्तक तेलुगु और हिंदी साहित्य के अध्येताओं, शोधार्थियों और प्रेमियों के लिए एक अभिनव भेंट है। 

भेंट इसलिए कह रहा हूँ कि एक पॉकेट डिक्शनरी की तरह मात्र 64 पृष्ठों की यह पुस्तक तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद के इतिहास को प्रस्तुत करती है। साथ ही अनुवाद के माध्यम से हिंदी साहित्य के पाठकों के समक्ष तेलुगु भाषी लोक की संस्कृति, लोकाचार और प्रथाएँ, तेलुगु प्रदेश की जीवन शैली, लोक विश्वास और लोकोक्तियाँ, नामकरण की शब्दावली का हिंदी में प्रवेश भी उद्घाटित करती है। यह समय कॉम्पैक्ट -डिजिटल का है। हमें सारी चीजें कॉम्पैक्ट में चाहिए ‘देखने में छोटे लगें, मगर प्रकट करें सारा संसार’। जी हाँ, यह पुस्तक इसी वाक्य को चरितार्थ करती है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी और डॉ. जी नीरजा जी ने बहुत परिश्रम किया होगा इसे कॉम्पैक्ट बनाने के लिए। 

इस पुस्तक की एक और विशेषता की ओर आप सब का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। लेकिन इससे पहले यह बताना मैं अपना दायित्व समझता हूँ कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी चाहे कोई साधारण लेख लिख रहे हों, किसी पुस्तक की भूमिका या समीक्षा लिख रहे हों या किसी विषय पर शोध करा रहे हों, एक वैज्ञानिक की तरह काम करते हैं। हर रचना की प्रक्रिया के समय वे वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हैं। विषय की सैद्धांतिकी को व्यावहारिक रूप देते हैं। और डॉ. जी नीरजा जी भी इसी राह पर चल पड़ी हैं। यह पुस्तक इस बात का प्रमाण है। 

अब मैं, विशेषता की बात करूंगा। इस पुस्तक का प्रत्येक लेख अपने आप में एक स्वतंत्र लेख है। पाठक इसे कहीं से भी पढ़ना आरंभ कर सकता है। यदि मान लीजिए पाठक पुस्तक का अंतिम लेख – ‘नामकरण’ पढ़ना चाहता है तो उसे ‘ तेलुगु साहित्य के अनुवाद की परंपरा’ जो पहला लेख है, पढ़ने की मजबूरी महसूस नहीं करनी पड़ेगी। यही बात सभी लेखों पर लागू होती है। जैसे दूसरा लेख - अनुवाद की विकास यात्रा, तीसरा लेख - स्रोत भाषा की शब्दावली का प्रसार, चौथा लेख- सांस्कृतिक संदर्भ, पाँचवां लेख- लोकाचार और प्रथाएँ, छठा लेख- स्रोत भाषासमाज की जीवन शैली, सातवाँ लेख - उपपाठों की पहचान, आठवाँ लेख- सूचना संप्रेषण, नौवां लेख - लोकोक्तियाँ। इस तरह हम देखते हैं कि इस अनुपम पुस्तक में कुल मिलाकर ग्यारह संक्षिप्त लेख सम्मिलित हैं।

अंत में संदर्भ भी दिए गए हैं। यह तेलुगु से हिंदी अनुवाद पर तथा तुलनात्मक शोध की इच्छा रखने वाले शोधार्थी के लिए बहुत उपयोगी सामग्री है। यह पुस्तक अपने-आप में एक मार्ग दर्शिका है। 

विवेच्य पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’ के लेखन के पीछे (लिखने का कारण) हिंदी भाषा और साहित्य के लिए काम करते हुए दोनों लेखकों की कर्म भूमि - ‘तेलुगु प्रदेश और उसके साहित्य’ के प्रति दायित्व का निर्वाह है। इस दायित्व को दोनों लेखकों ने पूरी ईमानदारी से निभाया है। यह बात इस लेखकीय टिप्पणी से पुष्ट हो जाएगी – “तेलुगु से भी हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में अनेक रचनाओं का अनुवाद हुआ है। परंतु खेद का विषय है कि तेलुगु या अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनूदित साहित्य को गंभीरता से नहीं लिया गया। प्राय: यह कहकर इन अनुवादों की उपेक्षा की जाती रही है कि अनुवाद ठीक नहीं हो रहे हैं या अनुवाद में प्रयुक्त भाषा कहीं-कहीं त्रुटिपूर्ण होती है या व्याकरण सम्मत होते हुए भी अनुवाद की भाषा पाठकों को उबाऊ लगती है। ये तमाम आलोचनाएँ अपनी जगह हैं और अनुवादकों की निरंतर साधना अपनी जगह है। इसलिए तेलुगु से हिंदी में अब तक अनेक रचनाओं का अनुवाद हो चुका है तथा अब भी हो रहा है।“

तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद के प्रदेय को पुस्तक में उद्धृत उद्दरण से बताने का प्रयास करूंगा - 

इस पुस्तक के माध्यम से लेखकद्वय ने उद्घाटित किया है कि तेलुगु साहित्य का हिंदी में अनुवाद होने से भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य को लाभ हुआ है। इस संदर्भ में लेखक द्वारा उद्धृत प्रो. देवराज के कथन का उल्लेख करना चाहूँगा – “तेलुगु के कालजयी रचनाकार सी. नारायण रेड्डी ने काव्य में पंचपदी शैली के कुछ अद्भुत प्रयोग किए थे। उनकी पंचपदियों का हिंदी में अनुवाद प्रो. भीमसेन निर्मल ने किया था। कोई बीस साल पहले मैंने ये अनुवाद मणिपुरी भाषा के कवियों की एक सभा में पढे थे। मूल पाठ हिंदी में और व्याख्या मणिपुरी में। आयोजन स्थल से बाहर आते समय निर्मल जी के अनुवादों की वह पुस्तक मुझसे कवि लनचेनबा मीतै ने मांग ली। लगभग एक साल के बाद एक दिन लनचेनबा वह पुस्तक लौटाने आए। उनके हाथ में कागजों का एक पुलिंदा भी था। बोले, ‘सर, मेरी कुछ कविताएं सुनिए’। उन्होंने काफी देर तक जिन कविताओं का पाठ किया, वे सब पंचपदी शैली में थीं। इनमें जीवन के असंख्य अनुभव प्रभावशाली बिंबों में आकार ग्रहण करते प्रतीत हो रहे थे। मणिपुरी कविता में यह एक नवीन रचना शैली थी, जिसे तेलुगु के सी. नारायण रेड्डी की पंचपदियों से ग्रहण किया गया था। कवि लनचेनबा को इस बात का गर्व भी था कि उन्होंने अपनी मातृभाषा की काव्य परंपरा में एक नवीन वैशिष्ट्य जोड़ा। स्मरणीय है कि ‘येंङ्लु येंङ्लुबदा’ नाम से इन कविताओं का एक संग्रह छपा, जिसने मणिपुरी युवा कविता आंदोलन की महत्वपूर्ण कृति होने का गौरव प्राप्त किया और इसका हिंदी में अनुवाद सिद्धनाथ प्रसाद द्वारा किया गया, जो ‘जित देखूँ’ नाम से 1998 में प्रकाश में आया। इस घटना से तेलुगु, मणिपुरी और हिंदी के संबंध भी सामने आते हैं तथा भारतीय साहित्य के निर्माण की प्रक्रिया पर भी प्रकाश पड़ता है।“ 

तेलुगु साहित्यकारों की रचनाधर्मिता और सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूकता भी इस पुस्तक के माध्यम से हिंदी पाठकों के समक्ष प्रकट होती है। इस संदर्भ में पुस्तक में ‘ऋषभ उवाच’ से उद्धृत कथन दृष्टव्य है – “निखिलेश्वर का मत है कि तेलुगु साहित्यकार सामाजिक यथार्थ के प्रति अत्यंत सजग रहे हैं तथा पश्चिमी साहित्य में जो परिवर्तन 300 वर्षों में हुए, तेलुगु में वे 100 वर्ष में संपन्न हो गए।“ 

कहने का अभिप्राय यह है कि तेलुगु साहित्यकारों ने जिन विधाओं और विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है, उन विधाओं और विषयों का अनुवाद के माध्यम से हिंदी में तथा भारत की अन्य भाषाओं में आदान-प्रदान होता है तो उन भाषाओं के साहित्य को समृद्ध होने के अवसर मिलने लगते हैं। इस कार्य में आलोचनाओं की परवाह न करते हुए साधना कर रहे सारे अनुवादक बधाई के पात्र हैं और इस महत्तर कार्य की जानकारी हिंदी पाठक तक पहुंचाने में यह कृति सफल हुई है। 

लेखकद्वय ने तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद संबंधी अनेक आलेखों तथा कतिपय अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर तेलुगु से हिंदी में अनूदित साहित्य को विधावार सूची बद्ध किया है। और 1954 से अबतक काव्य के 100, उपन्यास के 49, कहानी संग्रहों के 49 तथा विविध विधाओं जिनके अंतर्गत निबंध, एकांकी, नाटक, जीवनी, इतिहास, भाषाविज्ञान, काव्यशास्त्र, व्याख्या-टीका, दर्शनशास्त्र, आत्मकथा, समीक्षा, अनुवादशास्त्र आदि शामिल हैं के 65 अनुवादों की सूची उपलब्ध कराई गई है। 

भारत की बहुभाषिकता अनुवाद के माध्यम से ही सम भाषिकता के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है। भारत का हर नागरिक कम से कम तीन भाषाओं का ज्ञाता होता है और बहुभाषिकता को ग्रहण कर सम भाषिक होने के प्रमाण देता रहता है। अनुवाद के माध्यम से राष्ट्रीय एकता प्रकट होती है। इसे बहुत ही सटीक रूप में रेखांकित करती है यह पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय’। 

अंत में मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि यह पुस्तक हिंदी पाठक के समक्ष तेलुगु साहित्य के हिंदी अनुवाद और उसके प्रदेय को बड़ी शालीनता से, बिना किसी शोर और आडंबर के उद्घाटित करती है। लेखकद्वय ने बड़े परिश्रम से विवेच्य कृति की रचना की है। दोनों को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। साथ ही, प्रकाशक परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद को भी धन्यवाद.

  • तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय, ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा, 2015, परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद, 50 रु., 64 पृष्ठ, ISBN - 978-93-84068-11-0 

[समाचार] साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार समर्पण समारोह

 [डेली हिंदी मिलाप - 21/11/2014, पृष्ठ 15]

बुधवार, 19 नवंबर 2014

डॉ. जोराम यालाम नाबाम को प्रथम साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार प्रदत्त

प्रथम ‘साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार’ ग्रहण करते हुए अरुणाचल प्रदेश की हिंदी लेखिका डॉ. जोराम यालाम नाबाम. साथ में – प्रो. एन. गोपि, पद्मश्री जगदीश मित्तल, प्रो. एम. वेंकटेश्वर और विवेक नाबाम. 

डॉ. जोराम यालाम नाबाम की पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद ‘तानी मोमेन’ का लोकार्पण करते हुए प्रो. एम. वेंकटेश्वर. साथ में – प्रो. देवराज, प्रो. एन. गोपि, पद्मश्री जगदीश मित्तल, अनुवादक विवेक नाबाम, लेखिका डॉ. जोराम यालाम नाबाम, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और प्रो. ऋषभदेव शर्मा. 

विशिष्ट अतिथि प्रो. देवराज के संबोधन को सुनते हुए तल्लीन श्रोता.

हैदराबाद, 15 नवंबर 2014..

‘मेरी माँ कहती थी कि चमत्कार पर विश्वास मत करो बल्कि चमत्कार को देखना सीखो. आज मेरी माँ मुझे याद आ रही है क्योंकि हैदराबाद के इस सभागार में मेरे लिए चमत्कार हो रहा है. मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि प्रेम के इस शहर में मुझे इतने महत्वपूर्ण पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है. मेरे पास शब्द नहीं है कि इस खुशी को अभिव्यक्त कर सकूँ. बस महसूस कर रही हूँ. मुझे लग रहा है कि ‘साहित्य मंथन’ ने मुझ पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी डाल दी है कि मैं लगातार अधिक से अधिक लिखती रहूँ.’

ये उद्गार अरुणाचल प्रदेश की पहली हिंदी कथाकार डॉ. जोराम यालाम नाबाम ने ‘साहित्य मंथन’ के तत्वावधान में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद स्थित सम्मेलन कक्ष में संपन्न सम्मान समारोह में प्रथम ‘साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार’ ग्रहण करते हुए प्रकट किए. यह पुरस्कार उन्हें वर्ष 2013 में प्रकाशित उनकी कथाकृति ‘साक्षी है पीपल’ पर प्रदान किया गया. 

समारोह में उपस्थित सभी साहित्यप्रेमी उस समय अभिभूत हो उठे जब डॉ. यालाम ने अपने वक्तव्य का समापन करते हुए कहा कि ‘मैं अपने हृदय की पूरी श्रद्धा के साथ यह पुरस्कार शिरोधार्य करते हुए पूर्ण पवित्रता का अनुभव कर रही हूँ.’ आज जब साहित्यिक पुरस्कारों को लेकर पुरस्कारदाता संस्था और पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं के मन में केवल लेन-देन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है वहाँ जोराम यालाम नाबाम द्वारा पुरस्कार की स्वीकृति का यह भाव एक नई आश्वस्ति को जन्म देता है. 

उल्लेखनीय है कि ‘साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार’ का प्रवर्तन पं. चतुर्देव शास्त्री की स्मृति में इसी वर्ष किया गया है. संस्था की अध्यक्ष डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने बताया कि यह पुरस्कार प्रति वर्ष साहित्य, समाजविज्ञान और संस्कृति संबंधी प्रकाशित कृति पर एक-एक वर्ष के क्रम में प्रदान किया जाएगा. पुरस्कार के अंतर्गत 11,000 रुपए की सम्मान राशि, प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्न, शाल, श्रीफल और लेखन सामग्री सम्मिलित हैं. 

डॉ. यालाम को पुरस्कार प्रदान करते हुए ‘नानीलु’ के प्रवर्तक और साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत प्रतिष्ठित तेलुगु कवि प्रो. एन. गोपि ने कहा कि यह मात्र डॉ. यालाम का ही सम्मान नहीं बल्कि पूर्वोत्तर की हिंदी रचनाशीलता का सम्मान है. उन्होंने ध्यान दिलाया कि हिंदी ही भारत को अखंड बनाने वाली भाषा है. यालाम की कहानियों में मुखरित स्त्री वेदना को उन्होंने अरुणाचल प्रदेश के जनजातीय परिवेश का सच बताया. 

विश्वप्रसिद्ध कला संग्राहक पद्मश्री जगदीश मित्तल ने दीप प्रज्वलन करके कार्यक्रम का विधिवत उद्घाटन करते हुए कहा कि डॉ. यालाम को सम्मानित कर ‘साहित्य मंथन’ ने एक अनूठी पहल की है. यह सिलसिला बना रहना चाहिए. 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से पधारे प्रो. देवराज ने अपने वक्तव्य में अरुणाचल सहित समस्त पूर्वोत्तर भारत की सांस्कृतिक विरासत और पौराणिक कथाओं का उल्लेख करते हुए आह्वान किया कि उस समस्त अलिखित संपदा को हिंदी के माध्यम से देश और दुनिया के सामने लाया जाना चाहिए. इस दिशा में पुरस्कृत लेखिका के प्रयासों की उन्होंने मुक्त कंठ से सराहना की. 

समारोह की अध्यक्षता करते हुए अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेकटेश्वर ने कहा कि अरुणाचल में जीवन को रोज एक नई चुनौती का सामना करना पड़ता है. ऐसे में वहाँ की स्त्रियाँ अपने अदम्य साहस के बल पर विषम परिस्थितियों से दो-दो हाथ करती हैं तथा डॉ. यालाम के कहानी सग्रह ‘साक्षी है पीपल’ में अरुणाचल की जनजातियों की इसी स्त्री का दर्द अभिव्यक्त हुआ है. 

इस अवसर पर अरुणाचल प्रदेश के पौराणिक आख्यानों पर आधारित डॉ. जोराम यालाम नाबाम की हिंदी पुस्तक ‘तानी मोमेन’ (पुरखों की लीलास्थली) के विवेक नाबाम द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद को भी डॉ. एम. वेंकटेश्वर ने लोकार्पित किया. 

समारोह का संचालन डॉ. जी. नीरजा ने किया तथा ‘साहित्य मंथन’ के संस्थापक डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने आभार प्रकट किया. 

प्रस्तुति : डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

सोमवार, 10 नवंबर 2014

साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार समारोह 15 नवंबर को

साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्य मंथन’ द्वारा स्थापित ‘साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार’ प्रदान किए जाने के संदर्भ में आगामी 15 नवंबर (शनिवार) को अपराह्न 4 बजे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद स्थित परिसर में एक सम्मान समारोह का आयोजन किया जा रहा है. इस समारोह में अरुणाचल प्रदेश की युवा कथाकार डॉ. जोराम यालाम नाबाम को उनके 2013 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘साक्षी है पीपल’ के लिए प्रथम ‘साहित्य मंथन सृजन पुरस्कार’ प्रदान किया जाएगा.

पुरस्कार के संस्थापक डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने बताया कि पुरस्कृत लेखिका डॉ. जोराम यालाम नाबाम ने अपनी कहानियों के माध्यम से अरुणाचल प्रदेश की बहु-जनजातीय संस्कृति के अंकन के साथ साथ वहाँ के स्त्री समाज की दशा का जो प्रामाणिक चित्रण किया है वह हिंदी साहित्य में अपने प्रकार की पहली घटना है. उन्होंने यह भी बताया कि पुरस्कृत लेखिका स्वयं जनजातीय समुदाय से संबद्ध हैं और उन्होंने विभिन्न जनजातियों की भाषा और संस्कृति का गहन अध्ययन किया है. 

पुरस्कार समारोह की अध्यक्षता अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर करेंगे. बतौर मुख्य अतिथि वरिष्ठ तेलुगु साहित्यकार प्रो. एन. गोपि लेखिका को पुरस्कार स्वरूप ग्यारह हजार रुपए की सम्मान राशि, प्रशस्ति पत्र, शाल और स्मृति चिह्न समर्पित करेंगे. समारोह का उद्घाटन विख्यात कला समीक्षक पद्मश्री जगदीश मित्तल करेंगे तथा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अधिष्ठाता प्रो. देवराज विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे. 
समारोह की व्यवस्था समिति की आज संपन्न बैठक में यह भी तय किया गया कि इस अवसर पर पुरस्कृत लेखिका का हैदराबाद की विभिन्न हिंदी संस्थाओं की ओर से सारस्वत सम्मान भी किया जाएगा. समारोह की व्यवस्था समिति में गुरुदयाल अग्रवाल, ज्योति नारायण, डॉ. मंजु शर्मा, डॉ. बी. बालाजी, डॉ. पूर्णिमा शर्मा, डॉ. सय्यद मासूम रज़ा एवं वी. कृष्णा राव उपस्थित रहें. समारोह संयोजक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने समस्त साहित्य प्रेमियों से इस कार्यक्रम में पधारने की अपील की है. 


शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

समकालीन साहित्य की चुनौतियाँ : एक चर्चा

पिछले डेढ़ सौ – दो सौ वर्षों में हमारे परिवेश और चिंतन में बड़े बदलाव आए हैं. वैज्ञानिक क्रांति के साथ आधुनिकता की आहटें सुनाई देने से लेकर उत्तरआधुनिकता और उससे जुड़े विमर्शों तक की इस यात्रा ने हमें आज जिस मुकाम पर ला खड़ा किया है वहाँ हम सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक मोर्चों पर नई नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो भी सब ओर काफी धुंधलका बरसता दिखाई देता है. इस धुंधलके में रचनाकार को अपनी राह तलाशने की बड़ी चुनौती का सामना है. समकाल की वे चुनौतियाँ उन स्थायी चुनौतियों के अतिरिक्त हैं जिनका सामना वस्तु, विचार, अभिव्यक्ति और शिल्प की खोज के स्तर पर किसी भी रचनाकार को करना होता है. 

इन चुनौतियों से जुड़े विविध पहलुओं पर विचार करने के लिए गत 30-31 अक्टूबर 2014 को कर्नाटक विश्वविद्यालय (धारवाड़), अयोध्या शोध संस्थान (अयोध्या) और साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था (उल्हासनगर) के संयुक्त तत्वावधान में धारवाड में ‘समकालीन हिंदी साहित्य की चुनौतियाँ’ विषयक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया. उद्घाटन सत्र की मुख्य अतिथि अमेरिका से पधारी देवीनागरानी थीं. विशिष्ट अतिथियों में डॉ. विनय कुमार (हिंदी विभागाध्यक्ष, गया कॉलेज), डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह (निदेशक, अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या), डॉ. प्रदीप कुमार सिंह (सचिव, साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, उल्हासनगर), डॉ. राम आह्लाद चौधरी (पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कोलकाता), डॉ. प्रभा भट्ट (अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कर्नाटक विश्वविद्यालय), डॉ. एस. के. पवार (कर्नाटक विश्वविद्यालय) और डॉ. बी. एम. मद्री (कर्नाटक विश्वविद्यालय) शामिल थे. 

उद्घाटन भाषण में देवी नागरानी ने कहा कि उन्हें भारत और अमेरिका में कोई विशेष अंतर नहीं दीखता क्योंकि जब कोई भारत से विदेश में जाते हैं तो वे सभ्यता, संस्कृति और संस्कार को भी अपने साँसों में बसाकर ले जाते हैं. एक हिंदुस्तानी जहाँ जहाँ खड़ा होता है वहाँ वहाँ एक छोटा सा हिंदुस्तान बसता है. उन्होंने भाषा और संस्कृति के बीच निहित संबंध को रेखांकित करते हुए कहा कि विदेशों में तो ‘हाय, बाय और सी यू लेटर’ की संस्कृति है जबकि हमारे भारत में विनम्रता से अभिवादन करने का रिवाज है. लेकिन आजकल यहाँ कुछ तथाकथित लोग विदेशी संस्कृति को अपनाकर हमारी संस्कृति की उपेक्षा कर रहे हैं जबकि विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा और संस्कृति को बचाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. विश्वा (सं. रमेश जोशी), सौरभ (सं. अखिल मिश्रा), अनुभूति एवं अभिव्यक्ति (सं. पूर्णिमा वर्मन) आदि अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ अंतर्जाल के माध्यम से हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति को बचाए रखने में महती भूमिका निभा रही हैं. उन्होंने सबसे अपील की कि ‘हमें अपनी भाषा को, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को बचाए रखने के लिए कदम उठाना चाहिए चूँकि भाषा ही हमें विरासत में प्राप्त हुई है. अतः इसे सींचना और संजोना हमारा कर्तव्य है.' 

साहित्य को अंधेरा चीरने वाला प्रकाश बताते हुए डॉ. राम अह्लाद चौधरी ने कहा कि ‘आज प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की चुनौती साहित्यकारों के समक्ष है. भारतीय साहित्य में इतिहास, दर्शन और परंपरा का संगम होता है. लेकिन आज के साहित्य में यह संगम सिकुड़ता जा रहा है. समाकीलन साहित्य के सामने एक और खतरा है अभिव्यक्ति का खतरा. गंभीरता और जिम्मेदारी पर आज प्रश्न चिह्न लग रहा है क्योंकि सही मायने में साहित्य के अंतर्गत लोकतंत्र का विस्तार नहीं हो रहा है. हाशियाकृत समाजों को केंद्र में लाना भी आज के साहित्य के समक्ष चुनौती का कार्य है. आलोचना के अंतर्गत भी गुटबाजी चल रही है. आलोचना पद्धति के मानदंड को बदलना आवश्यक है. साहित्य का कारपोरेटीकरण हो रहा है. सौंदर्य और प्रेम साहित्य के बुनियाद हैं. साहित्य को प्रवृत्तिमूलक दृष्टिकोण से देखना अनुचित है. जब तक उसके स्रोत तक नहीं पहुँचेंगे तब तक सिर्फ प्रवृत्ति के आगे चक्कर लगाते ही रहेंगे. साहित्य हाथ छुड़ाने का काम नहीं बल्कि हाथ थामने का काम करता है. एक दूसरे को जोड़ने काम करता है.’ 

समकालीन रचनाकार एक ऐसे वातावरण में जी रहा है जहाँ यथार्थ को समग्र रूप में देखने के बजाय टुकड़ों में देखने का प्रचलन है. युगों तक हाशिए पर रहने के लिए विवश विविध समुदाय आज अपनी अस्मिता को रेखांकित कर रहे हैं जिससे विविध विमर्श सामने आए हैं. इस संदर्भ में डॉ. प्रतिभा मुदलियार (मैसूर) ने कहा कि ‘समकालीन हिंदी कविता में मानवाधिकारों से वंचित वर्ग ने अपनी अस्मिता कायम करने के लिए अभिव्यक्ति का शस्त्र अपनाया. हिंदी दलित विमर्श ने एक मुकाम हासिल की है. निर्मला पुतुल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम आदि साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से भोगे हुए यथार्थ को अभिव्यक्त किया है. उनकी रचनाओं में उनकी वैचारिकता को रेखांकित किया जा सकता है. ये रचनाएँ अस्तित्व की लड़ाई की रचनाएँ हैं, विद्रोह और संघर्ष की रचनाएँ हैं. इनमें पीड़ा का रस है. घृणा के स्थान पर प्रेम को स्थापित करना की मुहीम है.’

डॉ. ऋषभदेव शर्मा (हैदराबाद) ने कहा कि समकालीन कविता की चुनौतियों को यदि समझना हो तो पंकज राग की कविता ‘यह भूमंडल की रात है’ को देखा जा सकता है क्योंकि भूमंडलीकरण/ भूमंडीकरण आज की सबसे बड़ी चुनौती है. उन्होंने कहा कि ‘कविता के समक्ष कुछ शाश्वत चुनौतियाँ हैं – विषय चयन से लेकर भाषा, पठनीयता और संप्रेषण तक. कविता का धर्म मनुष्यता को बचाना है. व्यक्ति को जारूक बनाना है. कवि को अपने समय से दो चार होते हुए चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. कविता को लोकमंगल, लोक रक्षण की भूमिका निभाने के लिए नए पैतरों को अपनाना होगा.’ उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि ‘आज के समय में पठनीयता की समस्या अर्थात संप्रेषण की समस्या है. यदि कवि लोक से जुड़ने की अपेक्षा लोकप्रियता से जुड़ जाय तो कविता में गंभीरता की क्षति होती है. समाज को टुकड़ों में बांटने वाली कविता नहीं चाहिए जबकि जोड़ने वाली कविता चाहिए. उपदेशों तथा निबंधों का अनुवाद कविता में नहीं करना चाहिए. जीवन की सच्ची अनुभूति की अभिव्यक्ति सरल शब्दों में होना नितांत आवश्यक है.’

साहित्य की पठनीयता के संकट की चर्चा करते हुए डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (हैदराबाद) ने कहा कि मुख्य चुनौती संप्रेषणीयता की चुनौती है. अर्थात काव्यभाषा की समस्या. जनभाषा का स्तर एक है तथा कविता की भाषा का स्तर एक. प्रायः यह माना जाता है कि साहित्यकार बनना हर किसी के बस की बात नहीं है. यह बात कवि और कविता पर भी लागू होती है. कविता लिखना हर किसी के लिए साध्य नहीं है. जिस तरह साहित्यकार को शब्द और भाषिक युक्तियों का चयन सतर्क होकर करना चाहिए उसी प्रकार कविता में भी शब्दों का सार्थक और सतर्क प्रयोग वांछित है. कवि को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उसे किस शब्दावली और भाषा का चयन करना होगा. 

साहित्य को जीवन प्रतिक्रया मानते हुए डॉ. श्रीराम परिहार (खंडवा) ने कहा कि जीवन की जो भी चुनौतियाँ होंगी वे सभी कविता की चुनौतियाँ होंगी. जयशंकर प्रसाद ने भी कहा था कि काव्य जीवन की संकल्पनात्मक अभिव्यक्ति है. श्रीराम परिहार ने इस बात को रेखांकित किया कि भारत और विदेश में मूलभूत अंतर है. विदेश में संस्कृति, धर्म और दर्शन जीवन के हिस्से हैं. लेकिन भारत में धर्म व्यापक है. संस्कृति, समाज और दर्शन सभी धर्म के हिस्से हैं. जीवन में जो आचरण होता है वह कहीं न कहीं धर्म से जुड़ा हुआ होता है. अतः भारतीय साहित्य और कविता को इस दृष्टि से समझना अनिवार्य है.’ उन्होंने यह पीड़ा व्यक्त की कि हम ऐसे आलोचक पैदा नहीं कर पा रहे हैं जो साहित्य के सभी विधाओं को बराबर आदर दे सकें. उन्होंने इस बात को उदाहरणों से पुष्ट करते हुए कहा कि हमारे आलोचक एक रचना को सिर्फ एकांगी दृष्टि से आंकते रहते हैं. उसको समग्रता में नहीं देखते. बैंकों का राष्ट्रीयकरण, डंकल, पेटेंट आदि ने समाज में नवउदारवादी नीति को आगे बढ़ाया जिसके फलस्वरूप भूमंडलीकरण और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ता गया. तीन ‘एम’ – ‘माइंड’, ‘मनी’ और ‘मसल’ पूरी तरह से सभी क्षेत्रों में हावी हो गए. साहित्य भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा. उन्होंने यह अपील की कि साहित्य को एकांगी दृष्टि से न देखें. उसको समग्रता में देखें और समझें. 

संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में कविता, नाटक, उपन्यास और कहानी के समक्ष उपस्थित समकालीन चुनौतियों पर तो चर्चा हुई ही, एक सत्र में राम साहित्य की प्रासंगिकता पर भी विचार विमर्श हुआ जिससे यह बात उभरकर आई कि उत्तरआधुनिकता से आगे तरल आधुनिक होते जा रहे समकालीन विश्व में मनुष्यता, मानवीय संबंध और जीवन मूल्य खतरे में हैं और यह ख़तरा साम्राज्यवादी ताकतों तथा मुनाफाखोर बाजार से उपजी उपभोक्तावादी संस्कृति से है. इसका सामना करने के लिए रचनाकारों को यथार्थ का अंकन करने के साथ साथ मनुष्य और मनुष्य को जोड़ने वाले मूल्यों की स्थापना करने वाले साहित्य की रचना करनी होगी. यह बात भी उभरकर सामने आई कि रचनाकार जब तक अपने पाठक से सीधे संवाद स्थापित नहीं करेंगे और सामाजिक कार्यकर्ता की सक्रिय भूमिका में नहीं उभरेंगे तब तक साहित्य की प्रासंगिकता प्रश्नों के घेरे में रहेगी. 

''समकालीन साहित्य की चुनौतियाँ'' पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न












कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड के हिंदी विभाग ने अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या और साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, उल्हासनगर के सहयोग से 30 - 31 अक्टूबर 2014 को धारवाड में ''आधुनिक हिंदी साहित्य की चुनौतियाँ'' विषयक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का भव्य आयोजन किया. उद्घाटन अमेरिका से पधारीं कवयित्री देवी नागरानी ने किया.

उद्घाटन के बाद प्रथम सत्र का विषय रहा -'आधुनिक हिंदी कविता की चुनौतियाँ'. इसकी अध्यक्षता खंडवा से आए डॉ. श्रीराम परिहार ने की. विशेष वक्ता थे  डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. प्रतिभा मुदलियार और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा. इस सत्र में लगभग 10 आलेख प्रस्तुत किए गए.

विजयवाडा से आए प्रतिभागी वेंकट कृष्ण मोहन ने सदाशयतापूर्वक इस सत्र के कुछ चित्र भेजे हैं. उन्हें  यहाँ सहेजा जा रहा है -














'अद्यतन जनसंचार माध्यम’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

  कमलनगर में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में दीप प्रज्वलित करते हुए प्रो. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. श्रीराम परिहार, डॉ. अजय गव्हाणे एवं अन्य  
कमलनगर (जिला बीदर, 29.10.2014).
गुलबर्गा विश्वविद्यालय से संबद्ध श्री सिद्धरामेश्वर महाविद्यालय, कमलनगर (जिला बीदर), कर्नाटक में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से ‘अद्यतन जनसंचार माध्याम: साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में’ विषय पर द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई. संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र में ख्यातिलब्ध हिंदी साहित्यकार डॉ. श्रीराम परिहार ने की तथा बीज वक्तव्य दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के आचार्य डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने दिया.
कमलनगर में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के ‘मास मीडिया में बढ़ता बाजारवाद’ विषयक विचारसत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा. साथ में डॉ. वी.जी. भंडे, श्रीमती कल्पना एवं अन्य  
इस अवसर पर चार सत्रों के अंतर्गत क्रमशः मास मीडिया में बढ़ता बाजारवाद, संचार माध्यम और साहित्य की भाषायी अस्मिता, मास मीडिया और सांस्कृतिक संकट तथा मास मीडिया पर चिंतन की आवश्यकता जैसे विविध पहलुओं पर गंभीर विचार विमर्श हुआ. विभिन्न सत्रों में डॉ. वी.जी. भंडे, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. काशीनाथ अम्बुलगे, डॉ. अशोक कांबले, डॉ. परिमला अम्बेकर, डॉ. के.वी. बिरादार, डॉ. नरसिंह प्रसाद दुबे और डॉ. नरवीर पाटिल ने विषय प्रवर्तक और मुख्य वक्ता के रूप में भाग लिया. सभी सत्रों में कर्नाटक और महाराष्ट्र के विविध अंचलों से आए हुए प्रतिभागियों ने शोधपत्र प्रस्तुत किए. कार्यक्रम का संयोजन प्राचार्य डॉ. वी.जी. भंडे और प्रो. नरवीर पाटिल ने किया.




गोइन्का हिंदी तेलुगु अनुवाद पुरस्कार 2015 के लिए प्रविष्टियाँ आमंत्रित


हैदराबाद, 31 अक्तूबर, 2014. कमला गोइन्का फाउण्डेशन के प्रबंध न्यासी श्यामसुन्दर गोइन्का ने एक विज्ञप्ति जारी कर सूचित किया है कि तेलुगु भाषी साहित्यकारों के लिए वर्ष 2015 के लिए "गीतादेवी गोइन्का हिंदी तेलुगु अनुवाद पुरस्कार" की प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं।

तेलुगु भाषी हिंदी साहित्यकार जिनकी पिछले 10 वर्षों में तेलुगु से हिंदी में तथा हिंदी से तेलुगु में अनुवादित कृति प्रकाशित हुई है, वे उपरोक्त पुरस्कार में भाग ले सकते हैं। इस पुरस्कार के अंतर्गत 31000/- (इकतीस हजार रुपये) नगद के साथ एक विशेष समारोह में शाल, स्मृतिचिन्ह व पुष्पगुच्छ प्रदान कर सम्मानित किया जायेगा।

उन्होंने यह भी बताया है कि नवोदित तेलुगु-भाषी हिंदी साहित्यकारों के लिए (जिनकी उम्र 35 वर्ष से कम है) हिंदी में लिखी गयी पुस्तक प्रकाशन के लिए 15000/- रुपये तक के सहयोग/पुरस्कार के लिए "डॉ. विजयराघव रेड्डी युवा साहित्यकार पुरस्कार" देकर प्रोत्साहित किया जायेगा। युवा साहित्यकार जिनकी उम्र 35 वर्ष तक है तथा जिनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है, वे इस पुरस्कार में भाग ले सकते हैं। उन्हें अपनी अप्रकाशित पुस्तक की चार पांडुलिपियां, आयु प्रमाण-पत्र व फोटो के साथ प्रस्ताव-पत्र भरकर भेजना होगा।

दोनों तरह की प्रविष्टियां मिलने की अंतिम तिथि 15 जनवरी 2015 है।

नियमावली एवं प्रस्ताव-पत्र या अधिक जानकारी के लिए कमला गोइन्का फाउण्डेशन, नंबर-6, के.एच.बी. इंडस्ट्रियल एरिया, दूसरा क्रॉस यलहंका न्यू टाउन, बैंगलोर-560064. दूरभाष : 080-28567755, 32005502 or Email : kgf@gogoindia.com पर संपर्क किया जा सकता है।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

कमलनगर (कर्नाटक) में जनसंचार माध्यमों से जुडी चिंताओं पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न





द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी : 18 तथा 19 अक्टूबर 2014 
श्री सिद्धरामेश्वर महाविद्यालय, कमलनगर, कर्नाटक 

बीज भाषण : डॉ. ऋषभदेव शर्मा 

अद्यतन जनसंचार माध्यम : साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य

1.

साहित्यिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अद्यतन जनसंचार माध्यमों के स्वरूप, कार्यप्रणाली और प्रभाव पर विचार करने से सबसे पहले यह स्पष्ट होता है कि मीडिया हमारी भाषा को प्रभावित कर रहा है. यह प्रभाव दो प्रकार का है – 

(i)
विभिन्न जनसंचार माध्यम नई भाषा गढ़ रहे हैं. 

इस भाषा का मुख्य लक्षण है – भाषा मिश्रण. 

इसमें अंग्रेजी का हस्तक्षेप सबसे ज्यादा है और लगातार बढ़ रहा है. 

रोमन लिपि में और नागरी लिपि में अंग्रेजी शब्द, वाक्यांश, वाक्य, उक्तियाँ मीडिया की भाषा के अनिवार्य अंग बन गए हैं. 

बहुत बार तो हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखकर हम खुश हो लेते हैं कि हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है. 

(ii)
स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट : प्रभु जोशी 

मीडिया पहले से चली आ रही हमारी भाषा परंपरा को विस्थापित करके इस गढ़ी गई भाषा को स्थापित करने की कोशिश करता दिखाई देता है = यूथ कल्चर की छलिया आनंद (मैनिपुलेटिड प्लेज़र) की भाषा 

इसमें संदेह नहीं कि भाषा का स्वभाव परिवर्तनशील होता है. परंतु इसके बावजूद उसकी एक सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा होती है. यह परंपरा उन शब्दों, अभिव्यक्तियों और भाषिक व्यवहारों में निहित होती है जिन्हें कोई भाषा समाज सैकड़ों-हजारों वर्षों की यात्रा में विकसित, अर्जित और नई पीढ़ी को संक्रमित करता है. 

अतः जब हम कहते हैं कि कोई भाषा परंपरा विस्थापित की जा रही है तो इसका अर्थ होता है कि उस परंपरा में जुड़े ज्ञान को विस्थापित किया जा रहा है. 

सांस्कृतिक चेतना को विस्थापित किया जा रहा है. 

खतरा यह है कि परंपराहीन भाषा के तथाकथित बहुवचनीय रूप के स्थापित होने से विस्थापन से उत्पन्न सांस्कृतिक शून्य भरता दिखाई नहीं देता क्योंकि इस नई गढ़ी गई भाषा की अपनी कोई संस्कृति नहीं है. 

इसमें संदेह नहीं कि एक केंद्रापसारी और सार्वदेशिक जनभाषा होने के कारण हिंदी की प्रकृति विभिन्न भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की रही है जो इसकी बहुत बड़ी ताकत है. लेकिन जनसंचार माध्यमों ने जिस प्रकार हिंदी भाषा के अंग्रेजीकरण की मुहिम चला रखी है उसमें तो हिंदी की प्रकृति ही गायब है

सवाल यह है कि यह कौन तय करेगा कि मिश्रण कितने प्रतिशत होना चाहिए. यह निर्धारण न सहज है न संभव. 

जनसंचार माध्यम इस कृत्रिम भाषा के प्रति अपने उपभोक्ता की रुचि पैदा कर रहे हैं और उस रुचि का भरण पोषण भी कर रहे हैं. अर्थात माँग और आपूर्ति दोनों पर इन्हीं का कब्जा है. 

यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि इस गढ़ी गई भाषा का प्रयोग न करने वाले लोग पिछड़े हुए हैं, उनका ज्ञान सीमित है. 

स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट – क्रियोलीकरण की प्रक्रिया 

(1) स्मूथ डिस्लोकेशन ऑफ वोक्यूब्लरि (मूल भाषा के शब्दों का धीरे धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन) – Students, Parents, Teachers, Exams, Opportunity, Entrance, Sunday, India, Ordinary 

(2) Final assault on a Language (अंतिम हमला : लिपि बदलना) .

स्वागत 

2.

 दूसरी बात बाजार और उसकी रीति-नीति के आक्रमण से जुड़ी है. 

जनमाध्यमों का व्यापक प्रचार-प्रसार ज्ञान, मनोरंजन और लोक शिक्षा में सहायक होना चाहिए था. लेकिन विज्ञापन और प्रतिष्ठानी प्रायोजन पर निर्भर होने के कारण मीडिया लगभग पूरी तरह से बाजार का उपकरण बन गया है. 

एफ एम रेडियो/ ज्ञान और परिष्कार का बड़ा साधन/ स्तरहीन फूहड़ कार्यक्रमों की बाढ़ 

सांस्कृतिक विकास के रास्ते में आने वाले प्रश्नों से बचना आज के चतुर चालाक मीडिया की पहचान बन गया है. 

आज सांस्कृतिक विकास की भी इनकी गढ़ी हुई परिभाषा प्रौद्योगिकी केंद्रित परिभाषा है. अर्थात उन्नत प्रौद्योगिकी माने उन्नत संस्कृति! संस्कृति में निहित उन्नत मनुष्यता को इस उन्नत प्रौद्योगिकी ने विस्थापित कर दिया. 

प्रौद्योगिकी केंद्रित और मीडिया द्वारा प्रायोजित सांस्कृतिक विकास की संकल्पना प्रतिक्षण परिवर्तन की संकल्पना है. उपयोग करो और फेंकोस्थायित्व के लिए कोई जगह नहीं. न व्यापार-व्यवसाय में, न राजनीति-कूटनीति में और न ही रिश्ते-नाते और प्रेम संबंधों में. 

तमाम राजनेता बड़ी बेशर्मी से रोज यह दोहराते हैं – राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. सच तो यह है कि राजनीति में ही नहीं मीडिया और बाजार की संस्कृति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. विवाह और तलाक भी नहीं. 

इसी सबको समाचारों, बहसों, विज्ञापनों, नाटकों, यथार्थ प्रदर्शनों (रियालिटी शो) और फिल्मों के माध्यम से पुनः पुनः प्रचारित-प्रसारित किया जाता है. परिणामस्वरूप हमारे जीवन में यथार्थ के स्थान पर आभासी यथार्थ पहले स्थान पर आ गया है. 

मीडिया के सहारे बाजार ने हमारे जीवन और चिंतन को आक्रांत कर लिया है. 

आज उत्पादन और उत्पाद महत्वपूर्ण नहीं है. सर्विस महत्वपूर्ण है. आज का उपभोक्ता वस्तुओं को आफ्टर सेल सर्विस की सुविधा के आकर्षक विज्ञापन के आधार पर खरीदता है. अर्थात सर्विस सेक्टर हावी हो गया है. 

धमकी भरा आशावाद : सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी ! : बाजार में आगे!

सेवा प्रदाता आपके घर के दरवाजे पर डिलीवरी से लेकर सर्विस तक के लिए प्रस्तुत है. यानी एक नई तरह का बाजार अब हर घर के भीतर कई कई मोबाइल सेटों, टीवी चैनलों और इंटरनेट नमक नए जनसंचार माध्यम के रूप में 24 घंटे यही आवाज लगाता रहता है – बेचो, बेचो, बेचो ....... खरीदो, खरीदो, खरीदो... ऐसा नहीं लगता कि हम घर में रहते हैं और कभी कभी बाजार जाते हैं. अब तो हम बाजार में रहते हैं और घर कब पहुँचेंगे पता नहीं. 

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा देता;
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे. (दुष्यंत कुमार) 

बीज भाषण 
3.

सांस्कृतिक संकट : 

संस्कृति का काम है विकास को स्थायित्व प्रदान करना और उसे अपनी परंपरा से जोड़ना. 

बाजार आश्रित मीडिया जिस विकास को प्रचारित करता है उसमें इन दोनों चीजों (स्थायित्व और परंपरा) के लिए कोई जगह नहीं है. वह ‘पॉपुलर कल्चर’ के नाम पर एक ऐसी संस्कृति गढ़ रहा है जिसमें स्मृति के लिए भी कोई स्थान नहीं है. यही करण है कि 21वीं शताब्दी की तमाम नई फिल्में बिजनेस तो करोड़ों का करती हैं लेकिन अगली फिल्म के आते ही पुरानी और कालातीत हो जाती हैं. जिस तरह एक बार पढ़े जाने के बाद अखबार और उसकी ख़बरें बासी हो जाती हैं. विचार नहीं; वाचालता.

ब्राडकास्टिंग इन थर्ड वर्ल्ड (ई-काट्ज और जी. बेबल) : 

जनसंचार में घुसकर सूचना साम्राज्यवादियों ने अपनी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता द्वारा तीसरी दुनिया की ‘भाषा’ और ‘संस्कृति’ को तहस-नहस कर दिया है. 

वाचाल : डी जे/ आरजे/ एंकर : हर चीज को मस्ती, मजा, Fun बना दें, कामुकता से जोड़ दें. 

मीडिया सनसनी और उत्तेजना की क्षणजीवी संस्कृति की रचना करता है. जबकि साहित्य का लक्ष्य कालजयी संस्कृति को रचना होता है. आज खतरा यह पैदा हो गया है कि साहित्य और संस्कृति का स्थान मीडिया के उत्पाद लेते जा रहे हैं. 

प्रभु जोशी : गालियों की नई पैकेजिंग – इडियट, बास्टर्ड, मदर .... फकर (YUPIES की भाषा) + तमीजदार हिंदी बोलने वाला = मसखरी + अभद्र व लंपट भाषा = युवा अभिव्यक्ति का आदर्श 

मीडिया द्वारा खड़े किए गए इस विभ्रम (इल्यूशन) को पहचानकर सत्वोद्रेक पर आधारित साहित्य तथा मनुष्य की चेतना को औदात्य प्रदान करने वाली संस्कृति का पोषण आज की जरूरत है. 

बीज भाषण 

4.

आभासी दुनिया और कॉर्पोरेट सेक्टर 

मीडिया चमक-दमक से भरी जिस तरह आभासी दुनिया की रचना कर रहा है वह वास्तव में कॉर्पोरेट जगत के हथियार के रूप में काम कर रहा है. कॉर्पोरेट कल्चर में संयम, सब्र, संतोष जैसी प्रवृत्तियों को पिछड़ापन माना जाता है. इसका बीज शब्द इच्छा, डिज़ायर या विल है. 

कॉर्पोरेट संस्कृति तृष्णाओं को बढ़ाने में विश्वास रखती है. भूख को बढ़ाने में विश्वास रखती है. (प्यास बढ़ाओ – Limca - करीना कपूर का विज्ञापन – Limca) 

यहाँ सब कुछ तड़क-भड़क से भरा हुआ, महँगा और ललचाने वाला है. कॉर्पोरेट जीवनशैली फिल्मों की तरह जीने में यकीन रखती है. विज्ञापन के बल पर तमाम खर्चीली चीजों का अंबार लगा लेना, किसी वस्तु के नए संस्करण के आते ही पुराने को फेंक देना, मोबाइल-टीवी-कार तक तो ठीक है पर यदि यही मानसिकता मित्रता, प्रेम, रिश्ते-नातों और परिवार के सदस्यों पर भी लागू की जाने लगे तो स्थिति कितनी भयावह हो सकती है इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. 

नृत्य : रतिक्रिया के पेल्विक जेस्चर्स : फूहड़ भौतिकता : डांस इंडिया डांस/ कॉमेडी नइट्स विद कपिल. घूंसे और बल्ले के प्रहार के साथ ‘देश बदल रहा है, वेश कब बदलोगो 

क्षणिक रोमांच या सनसनी में विश्वास करने वाले, इंटरनेट के प्रयोक्ता को व्यापक सामाजिक संबद्धता के यथार्थ से काटकर मोबाइल या कंप्यूटर की स्क्रीन पर सिमटी हुई (मुठ्ठी में आई हुई). आभासी दुनिया के विभ्रम में फंसाने वाले इस अद्यतन जनसंचार माध्यम को जाने किसने ‘सोशल मीडिया’ नाम दे दिया? यह ‘सोशल’ शब्द का भ्रामक प्रयोग है. 

आधुनिकता के दौर में धर्म और संस्कृति को रिलीजन और कल्चर जैसे गलत पर्याय दिए गए. उत्तरआधुनिक दौर में न्यू मीडिया को ‘सोशल’ जैसा गलत विशेषण दिया जा रहा है. जबकि इसका चरित्र ही ‘एंटी सोशल’ है. व्यापक समाज से काटकर जो हमें माध्यम की हदों में बाँध दे वह सोशल कैसे हो सकता है? 

इसका समाजीकरण पाखंड भर है. मोबाइल और इंटरनेट के जरिए जंतरमंतर पर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं लेकिन महात्मा गांधी जैसे जान पर खेल जाने वाले स्वयंसेवक तैयार नहीं कर सकते. 

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए
लहू लुहान नज़ारोँ का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गए (दुष्यंत) 

5.

अंत में 

मैं तीन बातें अत्यंत संक्षेप में कहना चाहूँगा - 

(i)
बाजार और कॉर्पोरेट के हाथ में खेलता हुआ मीडिया हमारी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा है. अभद्र और अश्लील के प्रति समाज आश्चर्यजनक रूप से सहिष्णु होता जा रहा है जो बेहद खतरनाक संकेत है. 

(ii)
मीडिया की तात्कालिकता ने मनुष्य की संवेदनाओं को भी क्षणिक बना दिया है. हिंसा, क्रोध, घृणा, आक्रामकता और नग्नता के पल पल परिवर्तित रूपों ने एक खास तरह की पारस्परिक असहिष्णुता पैदा की है. लोकतंत्र के नारे तो हम लगाते हैं लेकिन प्रतिपक्ष की किसी भी आवाज का गला घोंटने के लिए हम किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह असहिष्णुता बाजार संस्कृति की देन है. और इसकी परिणति तानाशाही और आतंकवादी प्रवृत्तियों में दिखाई दे रही है. सब व्यवस्थाएँ आज ऊपर ऊपर से लोकतांत्रिक लगती हैं लेकिन भीतर से सबका चरित्र अधिनायकवादी है. 

(iii)
संस्कृति का हाशियाकरण.