द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी : 18 तथा 19 अक्टूबर 2014
श्री सिद्धरामेश्वर महाविद्यालय, कमलनगर, कर्नाटक
बीज भाषण : डॉ. ऋषभदेव शर्मा
अद्यतन जनसंचार माध्यम : साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
1.
साहित्यिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अद्यतन जनसंचार माध्यमों के स्वरूप, कार्यप्रणाली और प्रभाव पर विचार करने से सबसे पहले यह स्पष्ट होता है कि मीडिया हमारी भाषा को प्रभावित कर रहा है. यह प्रभाव दो प्रकार का है –
(i)
विभिन्न जनसंचार माध्यम नई भाषा गढ़ रहे हैं.
इस भाषा का मुख्य लक्षण है – भाषा मिश्रण.
इसमें अंग्रेजी का हस्तक्षेप सबसे ज्यादा है और लगातार बढ़ रहा है.
रोमन लिपि में और नागरी लिपि में अंग्रेजी शब्द, वाक्यांश, वाक्य, उक्तियाँ मीडिया की भाषा के अनिवार्य अंग बन गए हैं.
बहुत बार तो हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखकर हम खुश हो लेते हैं कि हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है.
(ii)
स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट : प्रभु जोशी
मीडिया पहले से चली आ रही हमारी भाषा परंपरा को विस्थापित करके इस गढ़ी गई भाषा को स्थापित करने की कोशिश करता दिखाई देता है = यूथ कल्चर की छलिया आनंद (मैनिपुलेटिड प्लेज़र) की भाषा
इसमें संदेह नहीं कि भाषा का स्वभाव परिवर्तनशील होता है. परंतु इसके बावजूद उसकी एक सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा होती है. यह परंपरा उन शब्दों, अभिव्यक्तियों और भाषिक व्यवहारों में निहित होती है जिन्हें कोई भाषा समाज सैकड़ों-हजारों वर्षों की यात्रा में विकसित, अर्जित और नई पीढ़ी को संक्रमित करता है.
अतः जब हम कहते हैं कि कोई भाषा परंपरा विस्थापित की जा रही है तो इसका अर्थ होता है कि उस परंपरा में जुड़े ज्ञान को विस्थापित किया जा रहा है.
सांस्कृतिक चेतना को विस्थापित किया जा रहा है.
खतरा यह है कि परंपराहीन भाषा के तथाकथित बहुवचनीय रूप के स्थापित होने से विस्थापन से उत्पन्न सांस्कृतिक शून्य भरता दिखाई नहीं देता क्योंकि इस नई गढ़ी गई भाषा की अपनी कोई संस्कृति नहीं है.
इसमें संदेह नहीं कि एक केंद्रापसारी और सार्वदेशिक जनभाषा होने के कारण हिंदी की प्रकृति विभिन्न भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की रही है जो इसकी बहुत बड़ी ताकत है. लेकिन जनसंचार माध्यमों ने जिस प्रकार हिंदी भाषा के अंग्रेजीकरण की मुहिम चला रखी है उसमें तो हिंदी की प्रकृति ही गायब है.
सवाल यह है कि यह कौन तय करेगा कि मिश्रण कितने प्रतिशत होना चाहिए. यह निर्धारण न सहज है न संभव.
जनसंचार माध्यम इस कृत्रिम भाषा के प्रति अपने उपभोक्ता की रुचि पैदा कर रहे हैं और उस रुचि का भरण पोषण भी कर रहे हैं. अर्थात माँग और आपूर्ति दोनों पर इन्हीं का कब्जा है.
यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि इस गढ़ी गई भाषा का प्रयोग न करने वाले लोग पिछड़े हुए हैं, उनका ज्ञान सीमित है.
स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट – क्रियोलीकरण की प्रक्रिया
(1) स्मूथ डिस्लोकेशन ऑफ वोक्यूब्लरि (मूल भाषा के शब्दों का धीरे धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन) – Students, Parents, Teachers, Exams, Opportunity, Entrance, Sunday, India, Ordinary
(2) Final assault on a Language (अंतिम हमला : लिपि बदलना) .
|
स्वागत |
2.
दूसरी बात बाजार और उसकी रीति-नीति के आक्रमण से जुड़ी है.
जनमाध्यमों का व्यापक प्रचार-प्रसार ज्ञान, मनोरंजन और लोक शिक्षा में सहायक होना चाहिए था. लेकिन विज्ञापन और प्रतिष्ठानी प्रायोजन पर निर्भर होने के कारण मीडिया लगभग पूरी तरह से बाजार का उपकरण बन गया है.
एफ एम रेडियो/ ज्ञान और परिष्कार का बड़ा साधन/ स्तरहीन फूहड़ कार्यक्रमों की बाढ़
सांस्कृतिक विकास के रास्ते में आने वाले प्रश्नों से बचना आज के चतुर चालाक मीडिया की पहचान बन गया है.
आज सांस्कृतिक विकास की भी इनकी गढ़ी हुई परिभाषा प्रौद्योगिकी केंद्रित परिभाषा है. अर्थात उन्नत प्रौद्योगिकी माने उन्नत संस्कृति! संस्कृति में निहित उन्नत मनुष्यता को इस उन्नत प्रौद्योगिकी ने विस्थापित कर दिया.
प्रौद्योगिकी केंद्रित और मीडिया द्वारा प्रायोजित सांस्कृतिक विकास की संकल्पना प्रतिक्षण परिवर्तन की संकल्पना है. उपयोग करो और फेंको. स्थायित्व के लिए कोई जगह नहीं. न व्यापार-व्यवसाय में, न राजनीति-कूटनीति में और न ही रिश्ते-नाते और प्रेम संबंधों में.
तमाम राजनेता बड़ी बेशर्मी से रोज यह दोहराते हैं – राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. सच तो यह है कि राजनीति में ही नहीं मीडिया और बाजार की संस्कृति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. विवाह और तलाक भी नहीं.
इसी सबको समाचारों, बहसों, विज्ञापनों, नाटकों, यथार्थ प्रदर्शनों (रियालिटी शो) और फिल्मों के माध्यम से पुनः पुनः प्रचारित-प्रसारित किया जाता है. परिणामस्वरूप हमारे जीवन में यथार्थ के स्थान पर आभासी यथार्थ पहले स्थान पर आ गया है.
मीडिया के सहारे बाजार ने हमारे जीवन और चिंतन को आक्रांत कर लिया है.
आज उत्पादन और उत्पाद महत्वपूर्ण नहीं है. सर्विस महत्वपूर्ण है. आज का उपभोक्ता वस्तुओं को आफ्टर सेल सर्विस की सुविधा के आकर्षक विज्ञापन के आधार पर खरीदता है. अर्थात सर्विस सेक्टर हावी हो गया है.
धमकी भरा आशावाद : सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी ! : बाजार में आगे!
सेवा प्रदाता आपके घर के दरवाजे पर डिलीवरी से लेकर सर्विस तक के लिए प्रस्तुत है. यानी एक नई तरह का बाजार अब हर घर के भीतर कई कई मोबाइल सेटों, टीवी चैनलों और इंटरनेट नमक नए जनसंचार माध्यम के रूप में 24 घंटे यही आवाज लगाता रहता है – बेचो, बेचो, बेचो ....... खरीदो, खरीदो, खरीदो... ऐसा नहीं लगता कि हम घर में रहते हैं और कभी कभी बाजार जाते हैं. अब तो हम बाजार में रहते हैं और घर कब पहुँचेंगे पता नहीं.
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा देता;
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे. (दुष्यंत कुमार)
|
बीज भाषण |
3.
सांस्कृतिक संकट :
संस्कृति का काम है विकास को स्थायित्व प्रदान करना और उसे अपनी परंपरा से जोड़ना.
बाजार आश्रित मीडिया जिस विकास को प्रचारित करता है उसमें इन दोनों चीजों (स्थायित्व और परंपरा) के लिए कोई जगह नहीं है. वह ‘पॉपुलर कल्चर’ के नाम पर एक ऐसी संस्कृति गढ़ रहा है जिसमें स्मृति के लिए भी कोई स्थान नहीं है. यही करण है कि 21वीं शताब्दी की तमाम नई फिल्में बिजनेस तो करोड़ों का करती हैं लेकिन अगली फिल्म के आते ही पुरानी और कालातीत हो जाती हैं. जिस तरह एक बार पढ़े जाने के बाद अखबार और उसकी ख़बरें बासी हो जाती हैं. विचार नहीं; वाचालता.
ब्राडकास्टिंग इन थर्ड वर्ल्ड (ई-काट्ज और जी. बेबल) :
जनसंचार में घुसकर सूचना साम्राज्यवादियों ने अपनी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता द्वारा तीसरी दुनिया की ‘भाषा’ और ‘संस्कृति’ को तहस-नहस कर दिया है.
वाचाल : डी जे/ आरजे/ एंकर : हर चीज को मस्ती, मजा, Fun बना दें, कामुकता से जोड़ दें.
मीडिया सनसनी और उत्तेजना की क्षणजीवी संस्कृति की रचना करता है. जबकि साहित्य का लक्ष्य कालजयी संस्कृति को रचना होता है. आज खतरा यह पैदा हो गया है कि साहित्य और संस्कृति का स्थान मीडिया के उत्पाद लेते जा रहे हैं.
प्रभु जोशी : गालियों की नई पैकेजिंग – इडियट, बास्टर्ड, मदर .... फकर (YUPIES की भाषा) + तमीजदार हिंदी बोलने वाला = मसखरी + अभद्र व लंपट भाषा = युवा अभिव्यक्ति का आदर्श
मीडिया द्वारा खड़े किए गए इस विभ्रम (इल्यूशन) को पहचानकर सत्वोद्रेक पर आधारित साहित्य तथा मनुष्य की चेतना को औदात्य प्रदान करने वाली संस्कृति का पोषण आज की जरूरत है.
|
बीज भाषण |
4.
आभासी दुनिया और कॉर्पोरेट सेक्टर :
मीडिया चमक-दमक से भरी जिस तरह आभासी दुनिया की रचना कर रहा है वह वास्तव में कॉर्पोरेट जगत के हथियार के रूप में काम कर रहा है. कॉर्पोरेट कल्चर में संयम, सब्र, संतोष जैसी प्रवृत्तियों को पिछड़ापन माना जाता है. इसका बीज शब्द इच्छा, डिज़ायर या विल है.
कॉर्पोरेट संस्कृति तृष्णाओं को बढ़ाने में विश्वास रखती है. भूख को बढ़ाने में विश्वास रखती है. (प्यास बढ़ाओ – Limca - करीना कपूर का विज्ञापन – Limca)
यहाँ सब कुछ तड़क-भड़क से भरा हुआ, महँगा और ललचाने वाला है. कॉर्पोरेट जीवनशैली फिल्मों की तरह जीने में यकीन रखती है. विज्ञापन के बल पर तमाम खर्चीली चीजों का अंबार लगा लेना, किसी वस्तु के नए संस्करण के आते ही पुराने को फेंक देना, मोबाइल-टीवी-कार तक तो ठीक है पर यदि यही मानसिकता मित्रता, प्रेम, रिश्ते-नातों और परिवार के सदस्यों पर भी लागू की जाने लगे तो स्थिति कितनी भयावह हो सकती है इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है.
नृत्य : रतिक्रिया के पेल्विक जेस्चर्स : फूहड़ भौतिकता : डांस इंडिया डांस/ कॉमेडी नइट्स विद कपिल. घूंसे और बल्ले के प्रहार के साथ ‘देश बदल रहा है, वेश कब बदलोगो
क्षणिक रोमांच या सनसनी में विश्वास करने वाले, इंटरनेट के प्रयोक्ता को व्यापक सामाजिक संबद्धता के यथार्थ से काटकर मोबाइल या कंप्यूटर की स्क्रीन पर सिमटी हुई (मुठ्ठी में आई हुई). आभासी दुनिया के विभ्रम में फंसाने वाले इस अद्यतन जनसंचार माध्यम को जाने किसने ‘सोशल मीडिया’ नाम दे दिया? यह ‘सोशल’ शब्द का भ्रामक प्रयोग है.
आधुनिकता के दौर में धर्म और संस्कृति को रिलीजन और कल्चर जैसे गलत पर्याय दिए गए. उत्तरआधुनिक दौर में न्यू मीडिया को ‘सोशल’ जैसा गलत विशेषण दिया जा रहा है. जबकि इसका चरित्र ही ‘एंटी सोशल’ है. व्यापक समाज से काटकर जो हमें माध्यम की हदों में बाँध दे वह सोशल कैसे हो सकता है?
इसका समाजीकरण पाखंड भर है. मोबाइल और इंटरनेट के जरिए जंतरमंतर पर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं लेकिन महात्मा गांधी जैसे जान पर खेल जाने वाले स्वयंसेवक तैयार नहीं कर सकते.
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए
लहू लुहान नज़ारोँ का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गए (दुष्यंत)
5.
अंत में
मैं तीन बातें अत्यंत संक्षेप में कहना चाहूँगा -
(i)
बाजार और कॉर्पोरेट के हाथ में खेलता हुआ मीडिया हमारी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा है. अभद्र और अश्लील के प्रति समाज आश्चर्यजनक रूप से सहिष्णु होता जा रहा है जो बेहद खतरनाक संकेत है.
(ii)
मीडिया की तात्कालिकता ने मनुष्य की संवेदनाओं को भी क्षणिक बना दिया है. हिंसा, क्रोध, घृणा, आक्रामकता और नग्नता के पल पल परिवर्तित रूपों ने एक खास तरह की पारस्परिक असहिष्णुता पैदा की है. लोकतंत्र के नारे तो हम लगाते हैं लेकिन प्रतिपक्ष की किसी भी आवाज का गला घोंटने के लिए हम किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह असहिष्णुता बाजार संस्कृति की देन है. और इसकी परिणति तानाशाही और आतंकवादी प्रवृत्तियों में दिखाई दे रही है. सब व्यवस्थाएँ आज ऊपर ऊपर से लोकतांत्रिक लगती हैं लेकिन भीतर से सबका चरित्र अधिनायकवादी है.
(iii)
संस्कृति का हाशियाकरण.