शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

“नई सदी के हिंदी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियाँ” पर बीजापुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न





विजयपुर (बीजापुर), 16 अक्टूबर 2015.

यहाँ अंजुमन कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय में ‘नई सदी के हिंदी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियां’ विषय पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पधारे प्रो. देवराज ने संगोष्ठी का उद्घाटन किया तथा अपने बीज भाषण में कहा कि “बीजापुर में आज भी गंगा-जमुनी तहजीब मौजूद है. इस तहजीब ने हिंदुस्तान को बचा कर रखा है. साहित्य महज पढ़ने के लिए नहीं बल्कि जिंदगी में उतारने के लिए लिखा जाना चाहिए. सच्चा साहित्यकार वही होता है जो अपने वक्त को पहचानता हो, उससे बातें करता हो और उसे अभिव्यक्त करता हो. कहा जाय तो इस दुनिया को उस आदमी ने बचाया है जिसने इंसानियत को तथा तहजीब को बचा रखा है.” उन्होंने आगे यह भी कहा कि साहित्य कैसा होना चाहिए और आज कैसा है यह जानने के लिए इतिहास को जानना भी जरूरी है. 21वीं सदी के साहित्य की बदलती प्रवृत्तियों को जानने के लिए भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि की गहन जानकारी अनिवार्य है. उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि “हिंदी के अध्यापक कक्षाओं में इन कालों के बारे में, इन कालों की प्रवृत्तियों के बारे में सतही स्तर पर चर्चा तो कर लेते हैं पर गहन स्तर पर जाकर आतंरिक प्रवृत्तियों के बारे में कोई तुलनात्मक चर्चा नहीं करते. उदाहरणस्वरूप ब्रजभाषा में जो लोक संस्कृति, जनजीवन और शास्त्रीय परंपरा विद्यमान है न ही उसकी चर्चा की जाती है और न ही देश-भाषाओं के विकास की. लोक के कंधों पर बैठकर ही परंपराएं विकसित हुईं. अतः इन्हें पहचानना होगा और आत्मसात करना होगा.” उन्होंने यह चिंता व्यक्त की कि “राजनैतिक षड्यंत्र के कारण देश टुकड़ों में बंट रहा है. हमारे सामने सांस्कृतिक संकट पैदा हो चुका है. हमारी संस्कृति इतनी बदल चुकी है कि पिताजी डैडी बन गए और अम्मी मॉम. एक तरह से हमारे देश में पराजित मानसिकता पनप रही है. ऐसी स्थिति में यदि आदमी अपने मन से गुलाम है तो वह मृतप्राय है. इसका दुष्परिणाम हमारे सामने है.” उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि क्या हम और हमारे साहित्य में इस पराजित मानसिकता को दूर करने की प्रवृत्ति है और क्या हमारे ‘विचार’ से हिंदी साहित्य का कोई गहरा रिश्ता है? 

प्रो. देवराज ने जोर देकर कहा कि “उत्तर आधुनिकता के नाम पर विश्वविद्यालयों में जुगाली हो रही है. यह जबरन थोपी गई संकल्पना है. उत्तर आधुनिकता के नाम पर यह कहा जाता है कि इतिहास, संस्कृति, विचार का अंत हो चुका है. ईश्वर, मनुष्य, लेखक, आलोचक आदि की मृत्यु हो चुकी है. यह सब साम्राज्यवादी षड्यंत्र है. अमेरिका जैसे देशों की न ही कोई संस्कृति है न इतिहास, न मूल्य और न ही भाषा-नीति. अमेरिकी इतिहास रक्त और शोषण पर टिका हुआ है. ऐसे रक्तरंजित शासन के खिलाफ खड़ा हुआ विद्रोह ही वास्तव में उत्तर आधुनिकता है जो वस्तुतः निकारागुआ से शुरू हुआ था. यह भी देखने को मिलता है कि प्रतिरोधी साहित्य को दबाने की प्रवृत्ति विकसित हुई है. भूमंडलीकरण, उदार अर्थ नीति आदि ऐसे शब्द हैं जो हमारे अस्तित्व को मिटाने वाले हैं. पर हम इन्हें पहचानने में गलती कर रहे हैं. यदि 21वीं सदी की साहित्यिक प्रवृत्तियों को जानना होगा तो 20वीं सदी की ऐतिहासिक घटनाओं आदि को जानना और समझना भी नितांत आवश्यक है. अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों को भी समझना अनिवार्य है.” 

उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता अंजुमन कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. ए. डी. नवलगुंद ने की. इस अवसर पर जनाब सैय्यद महबूब कादरी मुश्रीफ और हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. ए. पीरां मंचासीन थे. कार्यक्रम संयोजक प्रो. एस. जे. जहागीरदार ने सभी का स्वागत किया. प्रो. ए. एम. सिद्दीकी ने संचालन किया. उद्घाटन से पहले चार दिवंगत विभूतियों बालशौरि रेड्डी, गोपाल राय, जगदीश चतुर्वेदी और रवींद्र जैन को श्रद्धांजलि अर्पित की गई और कुरआन पठन, नात शरीफ, प्रार्थना गीत एवं कर्नाटक नाड़ गीत प्रस्तुत किए गए. 

प्रथम सत्र में चार विषय प्रवर्तकों ने अलग अलग विषय पर विचार-विमर्श किया. प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने ‘नई सदी की हिंदी कविता’ पर विचार करते हुए यह चिंता व्यक्त की कि आज हम ऐसी दुनिया में जीने के लिए अभिशप्त हैं जो मूलतः तनावों की दुनिया है और इस दुनिया में विचार पर प्रचार हावी है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है. ऐसी स्थिति में मनुष्य का अस्तित्व, हाशियाकृत समुदाय विमर्श, मूल्य, रिश्ते-नाते, संस्कृति, मानव स्वभाव से लेकर भाषा तक की साधारणता आज की भारतीय कविता के प्रमुख सरोकार हैं. 

‘नई सदी के हिंदी उपन्यास साहित्य’ पर अपने विस्तृत शोधपत्र में अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने वैश्विक संदर्भ में चर्चा करते हुए कहा कि उपन्यास अपने समय से सार्थक संवाद करता है तथा उपन्यास की रीढ़ है अनुभव. उन्होंने अनेक भारतीय एवं विदेशी उपन्यासों का उदाहरण देकर यह दर्शाया कि उपन्यास सांस्कृतिक आइना है, मानवीय रूपक है. प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने यह चिंता व्यक्त की कि भारतीयों द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यासों को ही भारतीय उपन्यास के रूप में देखा जाता है और हिंदी सहित विविध भारतीय भाषाओँ के उपन्यासों का सही मूल्यांकन नहीं हो रहा है. 

‘नई सदी के हिंदी साहित्य में आदिवासी विमर्श’ पर अपना मत व्यक्त करते हुए केंद्रीय विश्वविद्यालय, गुलबर्गा की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. सुनीता मंजनबैल ने कहा कि आदिवासी साहित्य प्रतिरोधी साहित्य है, उसके स्वर में पीड़ा, असंतोष और आक्रोश है. उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासियों को सामने आकर खुद कहना चाहिए कि वास्तव में उन्हें क्या चाहिए. साथ ही, मुंबई विश्वविद्यालय से पधारे डॉ. दत्तात्रेय मुरुमकर ने नई सदी के हिंदी कहानी साहित्य की बदलती प्रवृत्तियों पर विचार व्यक्त किए. 

प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. देवराज ने कहा कि “विभिन्न दबावों के बीच आदमी सोच रहा है और कविताएँ रच रहा है. व्यक्ति को मजबूर किया जा रहा है वैसा सोचने पर जैसा व्यवस्था चाहती है. यूरोपियन दबावों में काम किया जा रहा है और आज जनजातियों के साथ छल हो रहा है जिनके पास हमारी सांस्कृतिक जड़ें बची हुई हैं.” इसलिए उन्होंने सभी समुदायों से अपनी बेचैनी को बनाए रखने का आह्वान किया. 

द्वितीय सत्र में आत्मकथाओं पर चर्चा करते हुए हैदराबाद की लेखिका डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने कहा कि “नई सदी या उसके आरम्भ से ठीक पूर्व के दशक में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में आत्मकथा साहित्य ने नई करवट ली. 1990 के दशक के आसपास महान नायकत्व का मिथ टूटा और कल तक जिन्हें लघु, तुच्छ, हीन कहकर हाशिए पर रखा गया था उन अतिसाधारण मनुष्यों ने अपनी अस्मिता की खोज करते हुए अभिव्यक्ति के जो मार्ग तलाशे उनमें उनकी पीड़ा, कड़वाहट, खिन्नता, संघर्ष और गुस्से को व्यक्त करने के लिए आत्मकथा सबसे उपयुक्त विधा सिद्ध हुई.” उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा ‘कस्तूरी कुंडल बसे’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ तथा तुलसीराम कृत ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ का सोदाहरण विवेचन करते हुए कहा कि “इनकी आत्मकथाएँ केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे किसी एक स्त्री या किसी एक दलित के जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं, बल्कि इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि विशिष्ट होते हुए भी अपने संघर्ष के धरातल पर ये दोनों ही लेखक क्रमशः ‘सामान्य स्त्री’ और ‘सामान्य दलित’ हैं. साधारणीकरण की पहली शर्त ही यह है कि आलंबन अपने वैशिष्ट्य को छोड़कर इस तरह सर्वसाधारण बन जाए कि आलंबन-धर्म का संप्रेषण सहज संभव हो.” 

‘स्रवन्ति’ पत्रिका की सह-संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने ‘नई सदी के हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श’ पर विचार करते हुए कहा कि “किन्नर विमर्श की दृष्टि से नीरजा माधव कृत ‘यमदीप’, निर्मला भुराडिया कृत ‘गुलाम मंडी’, महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’ और प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ इस उपेक्षित और हाशियाकृत समुदाय की जीवन शैली, उनकी समस्याओं, उनकी पीड़ा, उनका आक्रोश, संघर्ष और जिजीविषा की कहानी को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं तथा सोचने के लिए बाध्य करते हैं.’’ अपने शोधपत्र में उन्होंने प्रतिपादित किया कि “हिंदी कथासाहित्य में किन्नर विमर्श के बीज 1939 में प्रकाशित निराला जी की संस्मरणात्मक कृति ‘कुल्ली भाट’ में उपलब्ध होते हैं. बाद में नई कहानी दौर के प्रमुख लेखक शिवप्रसाद सिंह की ‘बहाव वृत्ति’ और ‘विंदा महाराज’ शीर्षक कहानियों में इसका अंकुरण हुआ.” 

कुवेंपु विश्वविद्यालय, शिमोगा की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. उमा हेगडे ने नई सदी के हिंदी नाटक साहित्य की बदलती पर्वृत्तियों पर प्रकाश डाला और द्वितीय सत्र के अध्यक्षीय भाषण में कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ की आचार्य डॉ. प्रभा भट्ट ने पर्यावरण विमर्श पर प्रकाश डाला. 

समापन समारोह के मुख्य अतिथि प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य में संवेदना होना अत्यंत आवश्यक है. उन्होंने आयोजकों की प्रशंसा की और आशा व्यक्त की कि भविष्य में बीजापुर में इस तरह के अनेक आयोजन होंगे और भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की रक्षा हेतु अभियान को गति मिलेगी. 

इस अवसर पर बीजापुर के अतिरिक्त देश के विभिन्न प्रांतों से पधारे विद्वान, शोधार्थी और छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित थे. 



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