मंगलवार, 21 जनवरी 2014

अमेरिकी शायर अशरफ गिल की उर्दू गज़लों का हिंदी अवतार लोकार्पित

'शब्द सुगंध' के तत्वावधान में आज यहाँ राजस्थानी स्नातक संघ के प्रेक्षागार में अमेरिका से पधारे पाकिस्तान मूल के वरिष्ठ साहित्यकार अशरफ़ गिल की उर्दू गज़लों के हिंदी रूपांतर का लोकार्पण प्रो. ऋषभ देव शर्मा के हाथों संपन्न हुआ. आरंभ में रऊफ़ खैर ने कवि का परिचय दिया तथा डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने लोकार्पित कृति की समीक्षा की. इस अवसर पर अशरफ़ गिल ने अपनी विशिष्ट गज़लों का सस्वर एवं संगीतबद्ध वाचन एवं गायन किया. पुस्तक के संपादक एवं अनुवादक एफ.एम. सलीम ने संचालन किया. 

लोकार्पण के अवसर पुस्तक के संबंध में दिया गया डॉ.गुर्रमकोंडा नीरजा का वक्तव्य अविकल रूप में यहाँ दिया जा रहा है. 

'सुलगती सोचों से ...' का द्रुतपाठ

आदरणीय अध्यक्ष महोदय, आज के मेहमान शायर आदरणीय श्री अशरफ गिल, परम स्नेही भाई श्री सलीम जी और सभी साहित्य प्रेमी, देवियो और सज्जनो 

आज की शाम सचमुच सुहानी शाम है क्योंकि आज हमारे बीच ग़ज़ल की दुनिया के अत्यंत प्रतिष्ठित विश्व प्रसिद्ध कवि अशरफ गिल (जन्म 1940, गुजराँवाला,) उपस्थित हैं. छोटा हिंदुस्तान समझे जाने वाले हैदराबाद शहर में आपका आना इस शहर की साहित्यिक बिरादरी के लिए अत्यंत हर्ष का विषय है. मैं अपनी ओर से तथा अपनी संस्था दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की ओर से आपका स्वागत और अभिनंदन करती हूँ. 

अभी पिछले हफ़्ते मुझे जनाब अशरफ गिल साहब की ग़ज़लों का हिंदी रूपांतर प्राप्त हुआ. इसका शीर्षक है ‘सुलगती सोचों से’ (2013). बेहद खूबसूरत और टिकाऊ गेटअप सेटअप वाली इस पुस्तक में गिल साहब की 105 ग़ज़लें शामिल हैं. इस संकलन को हिंदी में लाने का श्रेय जिन दो लोगों को है वे हैं श्री रऊफ खैर और श्री एफ. एम. सलीम. गज़लों का संकलन तरतीब और तर्जुमा एफ.एम. सलीम ने बड़ी मेहनत के साथ तैयार किया है. इसके लिए हिंदी और उर्दू दोनों ही हलकों के साहित्य प्रेमियों को उनके प्रति आभारी होना चाहिए. उर्दू साहित्य के हिंदी में रूपान्तरण और देवनागरी में लिप्यंतरण का काम मेरी नज़र में तो बड़े राष्ट्रीय महत्व का काम है. इससे दो भाषाओं के बीच की आपसी समझ तो बढ़ती ही है, दो भाषा समाजों – speech communities – के बीच आपसदारी भी बढ़ती है. इसलिए मैं भाई श्री एफ.एम. सलीम को उनके इस कार्य के लिए सच्चे हृदय से बधाई देती हूँ. 

‘सुलगती सोचों से’ के आरंभ में संक्षेप में इस पुस्तक की दो भूमिकाएँ दी गई हैं जिनसे यह पता चलता है कि – 
  • वयोवृद्ध कवि अशरफ गिल ऊर्जा और जिंदादिली से भरपूर शायर हैं. 
  • उन्हें कविता के साथ साथ संगीत और गायकी पर भी अधिकार प्राप्त है. 
  • उनकी ग़ज़लों में कई भाषाओं की मिठास समाई हुई है. 
  • वे मुख्यतः रोमान के कवि हैं 
  • लेकिन उनकी सामाजिक चेतना भी अत्यंत स्पष्ट है. 
  • वे परंपरा का निर्वाह करने के साथ साथ अपनी ग़ज़लों में नए प्रयोग भी करते रहते हैं. 
  • उनकी शायरी की विषयवस्तु प्रेम, विश्वबंधुत्व, सामाजिक यथार्थ, राजनैतिक पाखंड से लेकर आध्यात्मिक संकेतों तक व्याप्त है. 

मैं यहाँ बताना जरूरी समझती हूँ कि मैं उच्च उर्दू (High Urdu) से लगभग अपरिचित हूँ. बातचीत में या साधारण हिंदी में जितनी उर्दू (या हिंदुस्तानी) समायी हुई है, बस उतनी तक की मेरी पहुँच है. इसलिए मैं अपनी बात ‘सुलगती सोचों से’ शीर्षक ग़ज़ल संग्रह के उतने हिस्से तक ही सीमित रखूँगी जितना आम भाषा में मेरी समझ में आता है.

हम शैलीविज्ञान यानि stylistics में आमतौर पर किसी लेखक की रचनाओं में बार बार आने वाले विषयों और शब्दों की बारंबारता (frequency) खोजा करते हैं. इस दृष्टि से अशरफ गिल की ग़ज़लों में इश्क, मुहब्बत, आंसूं, अश्क, याद, आइना, गलतफहमी, दोस्ती, दुश्मनी, हादसा और माँ जैसे अनेक बीज शब्द (key words) प्राप्त होते हैं जिन्हें उन्होंने बार बार दुहराया है, frequently repeat किया है. 

कवि की श्रेष्ठता का आधर यह है कि वे इन शब्दों को जितनी बार प्रयोग करते हैं हर बार उन्हें नए अंदाज के साथ नई ध्वनि और नए अर्थ में प्रयोग करते हैं. 

समय सीमित है इसलिए व्याख्या और विस्तार की गुंजाइश नहीं है. बस कुछ नमूने देखते चलें – 

आइना कई तरह इन ग़ज़लों में प्रकट हुआ है. जैसे – 

  • एक जगह शायर ने कहा है कि ‘कभी हाथों में नादानों के आइने नहीं देते’ क्योंकि ज़रा सी असावधानी होते ही उनके टूटने का ख़तरा रहता है. 
  • अन्यत्र वे अपने प्रिय को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हम तुम्हारे अत्यंत समीप रहते हुए भी उन आइनों की तरह हैं जो तुम्हारे दर्शन को तरसते हैं. ‘अगरचे पास तेरे, इर्द गिर्द बसते हैं/ हम आइने हैं, तेरी दीद को तरसते हैं’ 
  • कहना न होगा कि पहले कथन में जहाँ दृष्टांत और सूक्ति का सौंदर्य है वहीं इस दूसरे कथन में विरोधाभास का कमाल है. बात यहीं नहीं थमती कभी ऐसा भी होता है कि प्रिय को अपना स्वरूप निहारने के लिए प्रेमी की आँखों से उजला आइना कहीं और नहीं मिलता – ‘अपनी सूरत वह देखने के लिए/ मेरी आँखों का आइना माँगे.’
  • कभी जब कवि को दार्शनिक लहजे में बात करनी होती है तब भी दिल के आइने में झाँकने का निर्देश देते हैं. यह आइना बड़ा ईमानदार है. झूठ नहीं बोलता. आपको भी अपना चेहरा दिखा देगा. दूसरों से गिला करने से पहले बस एक बार इस आइने में झाँकिए तो सही – ‘अपने अंदर ही तुम्हारे, आइना मौजूद है.’ 
ये चारों उदाहरण यह बताने के लिए काफी है कि अशरफ गिल शब्दों को दुहराते हैं पर उनके संकेतार्थ (signified meaning) हर बार नए होते हैं. इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि वे अपने कथन को ताज़गी से भरने की कलाकारी जानने वाले जादूगर हैं. 

विस्तार से फिर कभी बात होगी. आज बस इतना ही. धन्यवाद. 
- गुर्रमकोंडा नीरजा 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें