'भूमंडलीकरण एवं नई प्रौद्योगिकी व भाषाएँ' विषयक विचार सत्र की अध्यक्षता प्रमुख समाजभाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह ने की. डॉ. चंद्रमोहन, डॉ. व्यास नारायण मिश्र, डॉ. दोड्डा शेषुबाबू, डॉ. शेषन, डॉ. श्रीराम परिहार, डॉ. राजवीर आदि मंचासीन थे. इस सत्र में 38 शोधपत्र प्रस्तुत किए गए.
प्रो. दिलीप सिंह ने अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी में कहा कि हिंदी अतिवाद से हमें बचना चाहिए. सावधानी और सूक्ष्म आकलन की जरूरत तो है ही. हमारी भाषाएँ भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी के कारण कहाँ पहुँची हैं इसको देखना होगा. छापाखाने, रेडियो, टेलीविजन आदि के माध्यम से भाषा में परिवर्तन हुआ तो भी शुद्धतावादियों को कष्ट हुआ था और अब प्रौद्योगिकी के प्रभाव से आ रहे परिवर्तनों से भी उन्हें शिकायत है जो अनुचित है.. भाषा परिवर्तन ही भाषा विकास का प्रमाण है. बदलाव सांकेतिक और तर्कपूर्ण है. इसे सूक्ष्म दृष्टि से देखना होगा. जब हमने प्रौद्योगिकी के साथ भाषा को जोड़ा, कम्प्युटर से साथ भाषा को जोड़ा तो दो शाखाएँ सामने आईं - भाषा इंजीनीयरी तथा भाषा सिद्धांत परीक्षण. भाषा इंजीनीयरी natural language processing को भी समेटे हुए है जिसकी शुरूआत 1975 में हुई. इसमें भाषा के व्यावहारिक प्रयोग तथा अनुवाद की बात की जाती है. भाषा सिद्धांत परीक्षण में मशीनी भाषा के विकास पर बल दिया जाता है.
प्रो.दिलीप सिंह ने आगे कहा कि अब हम बिना क्रिया की भाषा भी लिखते हैं. पहले Telegraphic English सामने आई. अब हम sms लिखने के लिए बिना क्रिया की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यदि प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना है तो हमें व्याकरणिक भाषा प्रयोग का मोह छोड़ना होगा. संप्रेषण टेक्नोलॉजी की मदद से तकनीकी भाषा बनानी होगी. हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को मशीनों के योग्य भाषाएँ बनानी होंगी. भाषा के मामले में हम बहुत ही conservative हैं. इसके नए स्वरुप के प्रयोग के साथ हमें familiar बनना होगा, दोस्ताना रिश्ता बनाना होगा. बाजार में हमें अपनी भाषाओं को सँवारना है. चाहे विज्ञापन हो या बाजार समाचार हो - इन्होने हमारे सामने एक थिरकती हुई भाषा को पेश किया है.
-जी. नीरजा
-जी. नीरजा
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