शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

समकालीन साहित्य की चुनौतियाँ : एक चर्चा

पिछले डेढ़ सौ – दो सौ वर्षों में हमारे परिवेश और चिंतन में बड़े बदलाव आए हैं. वैज्ञानिक क्रांति के साथ आधुनिकता की आहटें सुनाई देने से लेकर उत्तरआधुनिकता और उससे जुड़े विमर्शों तक की इस यात्रा ने हमें आज जिस मुकाम पर ला खड़ा किया है वहाँ हम सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक मोर्चों पर नई नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो भी सब ओर काफी धुंधलका बरसता दिखाई देता है. इस धुंधलके में रचनाकार को अपनी राह तलाशने की बड़ी चुनौती का सामना है. समकाल की वे चुनौतियाँ उन स्थायी चुनौतियों के अतिरिक्त हैं जिनका सामना वस्तु, विचार, अभिव्यक्ति और शिल्प की खोज के स्तर पर किसी भी रचनाकार को करना होता है. 

इन चुनौतियों से जुड़े विविध पहलुओं पर विचार करने के लिए गत 30-31 अक्टूबर 2014 को कर्नाटक विश्वविद्यालय (धारवाड़), अयोध्या शोध संस्थान (अयोध्या) और साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था (उल्हासनगर) के संयुक्त तत्वावधान में धारवाड में ‘समकालीन हिंदी साहित्य की चुनौतियाँ’ विषयक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया. उद्घाटन सत्र की मुख्य अतिथि अमेरिका से पधारी देवीनागरानी थीं. विशिष्ट अतिथियों में डॉ. विनय कुमार (हिंदी विभागाध्यक्ष, गया कॉलेज), डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह (निदेशक, अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या), डॉ. प्रदीप कुमार सिंह (सचिव, साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, उल्हासनगर), डॉ. राम आह्लाद चौधरी (पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कोलकाता), डॉ. प्रभा भट्ट (अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कर्नाटक विश्वविद्यालय), डॉ. एस. के. पवार (कर्नाटक विश्वविद्यालय) और डॉ. बी. एम. मद्री (कर्नाटक विश्वविद्यालय) शामिल थे. 

उद्घाटन भाषण में देवी नागरानी ने कहा कि उन्हें भारत और अमेरिका में कोई विशेष अंतर नहीं दीखता क्योंकि जब कोई भारत से विदेश में जाते हैं तो वे सभ्यता, संस्कृति और संस्कार को भी अपने साँसों में बसाकर ले जाते हैं. एक हिंदुस्तानी जहाँ जहाँ खड़ा होता है वहाँ वहाँ एक छोटा सा हिंदुस्तान बसता है. उन्होंने भाषा और संस्कृति के बीच निहित संबंध को रेखांकित करते हुए कहा कि विदेशों में तो ‘हाय, बाय और सी यू लेटर’ की संस्कृति है जबकि हमारे भारत में विनम्रता से अभिवादन करने का रिवाज है. लेकिन आजकल यहाँ कुछ तथाकथित लोग विदेशी संस्कृति को अपनाकर हमारी संस्कृति की उपेक्षा कर रहे हैं जबकि विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा और संस्कृति को बचाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. विश्वा (सं. रमेश जोशी), सौरभ (सं. अखिल मिश्रा), अनुभूति एवं अभिव्यक्ति (सं. पूर्णिमा वर्मन) आदि अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ अंतर्जाल के माध्यम से हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति को बचाए रखने में महती भूमिका निभा रही हैं. उन्होंने सबसे अपील की कि ‘हमें अपनी भाषा को, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को बचाए रखने के लिए कदम उठाना चाहिए चूँकि भाषा ही हमें विरासत में प्राप्त हुई है. अतः इसे सींचना और संजोना हमारा कर्तव्य है.' 

साहित्य को अंधेरा चीरने वाला प्रकाश बताते हुए डॉ. राम अह्लाद चौधरी ने कहा कि ‘आज प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की चुनौती साहित्यकारों के समक्ष है. भारतीय साहित्य में इतिहास, दर्शन और परंपरा का संगम होता है. लेकिन आज के साहित्य में यह संगम सिकुड़ता जा रहा है. समाकीलन साहित्य के सामने एक और खतरा है अभिव्यक्ति का खतरा. गंभीरता और जिम्मेदारी पर आज प्रश्न चिह्न लग रहा है क्योंकि सही मायने में साहित्य के अंतर्गत लोकतंत्र का विस्तार नहीं हो रहा है. हाशियाकृत समाजों को केंद्र में लाना भी आज के साहित्य के समक्ष चुनौती का कार्य है. आलोचना के अंतर्गत भी गुटबाजी चल रही है. आलोचना पद्धति के मानदंड को बदलना आवश्यक है. साहित्य का कारपोरेटीकरण हो रहा है. सौंदर्य और प्रेम साहित्य के बुनियाद हैं. साहित्य को प्रवृत्तिमूलक दृष्टिकोण से देखना अनुचित है. जब तक उसके स्रोत तक नहीं पहुँचेंगे तब तक सिर्फ प्रवृत्ति के आगे चक्कर लगाते ही रहेंगे. साहित्य हाथ छुड़ाने का काम नहीं बल्कि हाथ थामने का काम करता है. एक दूसरे को जोड़ने काम करता है.’ 

समकालीन रचनाकार एक ऐसे वातावरण में जी रहा है जहाँ यथार्थ को समग्र रूप में देखने के बजाय टुकड़ों में देखने का प्रचलन है. युगों तक हाशिए पर रहने के लिए विवश विविध समुदाय आज अपनी अस्मिता को रेखांकित कर रहे हैं जिससे विविध विमर्श सामने आए हैं. इस संदर्भ में डॉ. प्रतिभा मुदलियार (मैसूर) ने कहा कि ‘समकालीन हिंदी कविता में मानवाधिकारों से वंचित वर्ग ने अपनी अस्मिता कायम करने के लिए अभिव्यक्ति का शस्त्र अपनाया. हिंदी दलित विमर्श ने एक मुकाम हासिल की है. निर्मला पुतुल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम आदि साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से भोगे हुए यथार्थ को अभिव्यक्त किया है. उनकी रचनाओं में उनकी वैचारिकता को रेखांकित किया जा सकता है. ये रचनाएँ अस्तित्व की लड़ाई की रचनाएँ हैं, विद्रोह और संघर्ष की रचनाएँ हैं. इनमें पीड़ा का रस है. घृणा के स्थान पर प्रेम को स्थापित करना की मुहीम है.’

डॉ. ऋषभदेव शर्मा (हैदराबाद) ने कहा कि समकालीन कविता की चुनौतियों को यदि समझना हो तो पंकज राग की कविता ‘यह भूमंडल की रात है’ को देखा जा सकता है क्योंकि भूमंडलीकरण/ भूमंडीकरण आज की सबसे बड़ी चुनौती है. उन्होंने कहा कि ‘कविता के समक्ष कुछ शाश्वत चुनौतियाँ हैं – विषय चयन से लेकर भाषा, पठनीयता और संप्रेषण तक. कविता का धर्म मनुष्यता को बचाना है. व्यक्ति को जारूक बनाना है. कवि को अपने समय से दो चार होते हुए चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. कविता को लोकमंगल, लोक रक्षण की भूमिका निभाने के लिए नए पैतरों को अपनाना होगा.’ उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि ‘आज के समय में पठनीयता की समस्या अर्थात संप्रेषण की समस्या है. यदि कवि लोक से जुड़ने की अपेक्षा लोकप्रियता से जुड़ जाय तो कविता में गंभीरता की क्षति होती है. समाज को टुकड़ों में बांटने वाली कविता नहीं चाहिए जबकि जोड़ने वाली कविता चाहिए. उपदेशों तथा निबंधों का अनुवाद कविता में नहीं करना चाहिए. जीवन की सच्ची अनुभूति की अभिव्यक्ति सरल शब्दों में होना नितांत आवश्यक है.’

साहित्य की पठनीयता के संकट की चर्चा करते हुए डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (हैदराबाद) ने कहा कि मुख्य चुनौती संप्रेषणीयता की चुनौती है. अर्थात काव्यभाषा की समस्या. जनभाषा का स्तर एक है तथा कविता की भाषा का स्तर एक. प्रायः यह माना जाता है कि साहित्यकार बनना हर किसी के बस की बात नहीं है. यह बात कवि और कविता पर भी लागू होती है. कविता लिखना हर किसी के लिए साध्य नहीं है. जिस तरह साहित्यकार को शब्द और भाषिक युक्तियों का चयन सतर्क होकर करना चाहिए उसी प्रकार कविता में भी शब्दों का सार्थक और सतर्क प्रयोग वांछित है. कवि को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उसे किस शब्दावली और भाषा का चयन करना होगा. 

साहित्य को जीवन प्रतिक्रया मानते हुए डॉ. श्रीराम परिहार (खंडवा) ने कहा कि जीवन की जो भी चुनौतियाँ होंगी वे सभी कविता की चुनौतियाँ होंगी. जयशंकर प्रसाद ने भी कहा था कि काव्य जीवन की संकल्पनात्मक अभिव्यक्ति है. श्रीराम परिहार ने इस बात को रेखांकित किया कि भारत और विदेश में मूलभूत अंतर है. विदेश में संस्कृति, धर्म और दर्शन जीवन के हिस्से हैं. लेकिन भारत में धर्म व्यापक है. संस्कृति, समाज और दर्शन सभी धर्म के हिस्से हैं. जीवन में जो आचरण होता है वह कहीं न कहीं धर्म से जुड़ा हुआ होता है. अतः भारतीय साहित्य और कविता को इस दृष्टि से समझना अनिवार्य है.’ उन्होंने यह पीड़ा व्यक्त की कि हम ऐसे आलोचक पैदा नहीं कर पा रहे हैं जो साहित्य के सभी विधाओं को बराबर आदर दे सकें. उन्होंने इस बात को उदाहरणों से पुष्ट करते हुए कहा कि हमारे आलोचक एक रचना को सिर्फ एकांगी दृष्टि से आंकते रहते हैं. उसको समग्रता में नहीं देखते. बैंकों का राष्ट्रीयकरण, डंकल, पेटेंट आदि ने समाज में नवउदारवादी नीति को आगे बढ़ाया जिसके फलस्वरूप भूमंडलीकरण और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ता गया. तीन ‘एम’ – ‘माइंड’, ‘मनी’ और ‘मसल’ पूरी तरह से सभी क्षेत्रों में हावी हो गए. साहित्य भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा. उन्होंने यह अपील की कि साहित्य को एकांगी दृष्टि से न देखें. उसको समग्रता में देखें और समझें. 

संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में कविता, नाटक, उपन्यास और कहानी के समक्ष उपस्थित समकालीन चुनौतियों पर तो चर्चा हुई ही, एक सत्र में राम साहित्य की प्रासंगिकता पर भी विचार विमर्श हुआ जिससे यह बात उभरकर आई कि उत्तरआधुनिकता से आगे तरल आधुनिक होते जा रहे समकालीन विश्व में मनुष्यता, मानवीय संबंध और जीवन मूल्य खतरे में हैं और यह ख़तरा साम्राज्यवादी ताकतों तथा मुनाफाखोर बाजार से उपजी उपभोक्तावादी संस्कृति से है. इसका सामना करने के लिए रचनाकारों को यथार्थ का अंकन करने के साथ साथ मनुष्य और मनुष्य को जोड़ने वाले मूल्यों की स्थापना करने वाले साहित्य की रचना करनी होगी. यह बात भी उभरकर सामने आई कि रचनाकार जब तक अपने पाठक से सीधे संवाद स्थापित नहीं करेंगे और सामाजिक कार्यकर्ता की सक्रिय भूमिका में नहीं उभरेंगे तब तक साहित्य की प्रासंगिकता प्रश्नों के घेरे में रहेगी. 

''समकालीन साहित्य की चुनौतियाँ'' पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न












कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड के हिंदी विभाग ने अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या और साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, उल्हासनगर के सहयोग से 30 - 31 अक्टूबर 2014 को धारवाड में ''आधुनिक हिंदी साहित्य की चुनौतियाँ'' विषयक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का भव्य आयोजन किया. उद्घाटन अमेरिका से पधारीं कवयित्री देवी नागरानी ने किया.

उद्घाटन के बाद प्रथम सत्र का विषय रहा -'आधुनिक हिंदी कविता की चुनौतियाँ'. इसकी अध्यक्षता खंडवा से आए डॉ. श्रीराम परिहार ने की. विशेष वक्ता थे  डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. प्रतिभा मुदलियार और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा. इस सत्र में लगभग 10 आलेख प्रस्तुत किए गए.

विजयवाडा से आए प्रतिभागी वेंकट कृष्ण मोहन ने सदाशयतापूर्वक इस सत्र के कुछ चित्र भेजे हैं. उन्हें  यहाँ सहेजा जा रहा है -














'अद्यतन जनसंचार माध्यम’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

  कमलनगर में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में दीप प्रज्वलित करते हुए प्रो. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. श्रीराम परिहार, डॉ. अजय गव्हाणे एवं अन्य  
कमलनगर (जिला बीदर, 29.10.2014).
गुलबर्गा विश्वविद्यालय से संबद्ध श्री सिद्धरामेश्वर महाविद्यालय, कमलनगर (जिला बीदर), कर्नाटक में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से ‘अद्यतन जनसंचार माध्याम: साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में’ विषय पर द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई. संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र में ख्यातिलब्ध हिंदी साहित्यकार डॉ. श्रीराम परिहार ने की तथा बीज वक्तव्य दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के आचार्य डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने दिया.
कमलनगर में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के ‘मास मीडिया में बढ़ता बाजारवाद’ विषयक विचारसत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा. साथ में डॉ. वी.जी. भंडे, श्रीमती कल्पना एवं अन्य  
इस अवसर पर चार सत्रों के अंतर्गत क्रमशः मास मीडिया में बढ़ता बाजारवाद, संचार माध्यम और साहित्य की भाषायी अस्मिता, मास मीडिया और सांस्कृतिक संकट तथा मास मीडिया पर चिंतन की आवश्यकता जैसे विविध पहलुओं पर गंभीर विचार विमर्श हुआ. विभिन्न सत्रों में डॉ. वी.जी. भंडे, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. काशीनाथ अम्बुलगे, डॉ. अशोक कांबले, डॉ. परिमला अम्बेकर, डॉ. के.वी. बिरादार, डॉ. नरसिंह प्रसाद दुबे और डॉ. नरवीर पाटिल ने विषय प्रवर्तक और मुख्य वक्ता के रूप में भाग लिया. सभी सत्रों में कर्नाटक और महाराष्ट्र के विविध अंचलों से आए हुए प्रतिभागियों ने शोधपत्र प्रस्तुत किए. कार्यक्रम का संयोजन प्राचार्य डॉ. वी.जी. भंडे और प्रो. नरवीर पाटिल ने किया.




गोइन्का हिंदी तेलुगु अनुवाद पुरस्कार 2015 के लिए प्रविष्टियाँ आमंत्रित


हैदराबाद, 31 अक्तूबर, 2014. कमला गोइन्का फाउण्डेशन के प्रबंध न्यासी श्यामसुन्दर गोइन्का ने एक विज्ञप्ति जारी कर सूचित किया है कि तेलुगु भाषी साहित्यकारों के लिए वर्ष 2015 के लिए "गीतादेवी गोइन्का हिंदी तेलुगु अनुवाद पुरस्कार" की प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं।

तेलुगु भाषी हिंदी साहित्यकार जिनकी पिछले 10 वर्षों में तेलुगु से हिंदी में तथा हिंदी से तेलुगु में अनुवादित कृति प्रकाशित हुई है, वे उपरोक्त पुरस्कार में भाग ले सकते हैं। इस पुरस्कार के अंतर्गत 31000/- (इकतीस हजार रुपये) नगद के साथ एक विशेष समारोह में शाल, स्मृतिचिन्ह व पुष्पगुच्छ प्रदान कर सम्मानित किया जायेगा।

उन्होंने यह भी बताया है कि नवोदित तेलुगु-भाषी हिंदी साहित्यकारों के लिए (जिनकी उम्र 35 वर्ष से कम है) हिंदी में लिखी गयी पुस्तक प्रकाशन के लिए 15000/- रुपये तक के सहयोग/पुरस्कार के लिए "डॉ. विजयराघव रेड्डी युवा साहित्यकार पुरस्कार" देकर प्रोत्साहित किया जायेगा। युवा साहित्यकार जिनकी उम्र 35 वर्ष तक है तथा जिनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है, वे इस पुरस्कार में भाग ले सकते हैं। उन्हें अपनी अप्रकाशित पुस्तक की चार पांडुलिपियां, आयु प्रमाण-पत्र व फोटो के साथ प्रस्ताव-पत्र भरकर भेजना होगा।

दोनों तरह की प्रविष्टियां मिलने की अंतिम तिथि 15 जनवरी 2015 है।

नियमावली एवं प्रस्ताव-पत्र या अधिक जानकारी के लिए कमला गोइन्का फाउण्डेशन, नंबर-6, के.एच.बी. इंडस्ट्रियल एरिया, दूसरा क्रॉस यलहंका न्यू टाउन, बैंगलोर-560064. दूरभाष : 080-28567755, 32005502 or Email : kgf@gogoindia.com पर संपर्क किया जा सकता है।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

कमलनगर (कर्नाटक) में जनसंचार माध्यमों से जुडी चिंताओं पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न





द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी : 18 तथा 19 अक्टूबर 2014 
श्री सिद्धरामेश्वर महाविद्यालय, कमलनगर, कर्नाटक 

बीज भाषण : डॉ. ऋषभदेव शर्मा 

अद्यतन जनसंचार माध्यम : साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य

1.

साहित्यिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अद्यतन जनसंचार माध्यमों के स्वरूप, कार्यप्रणाली और प्रभाव पर विचार करने से सबसे पहले यह स्पष्ट होता है कि मीडिया हमारी भाषा को प्रभावित कर रहा है. यह प्रभाव दो प्रकार का है – 

(i)
विभिन्न जनसंचार माध्यम नई भाषा गढ़ रहे हैं. 

इस भाषा का मुख्य लक्षण है – भाषा मिश्रण. 

इसमें अंग्रेजी का हस्तक्षेप सबसे ज्यादा है और लगातार बढ़ रहा है. 

रोमन लिपि में और नागरी लिपि में अंग्रेजी शब्द, वाक्यांश, वाक्य, उक्तियाँ मीडिया की भाषा के अनिवार्य अंग बन गए हैं. 

बहुत बार तो हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखकर हम खुश हो लेते हैं कि हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है. 

(ii)
स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट : प्रभु जोशी 

मीडिया पहले से चली आ रही हमारी भाषा परंपरा को विस्थापित करके इस गढ़ी गई भाषा को स्थापित करने की कोशिश करता दिखाई देता है = यूथ कल्चर की छलिया आनंद (मैनिपुलेटिड प्लेज़र) की भाषा 

इसमें संदेह नहीं कि भाषा का स्वभाव परिवर्तनशील होता है. परंतु इसके बावजूद उसकी एक सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा होती है. यह परंपरा उन शब्दों, अभिव्यक्तियों और भाषिक व्यवहारों में निहित होती है जिन्हें कोई भाषा समाज सैकड़ों-हजारों वर्षों की यात्रा में विकसित, अर्जित और नई पीढ़ी को संक्रमित करता है. 

अतः जब हम कहते हैं कि कोई भाषा परंपरा विस्थापित की जा रही है तो इसका अर्थ होता है कि उस परंपरा में जुड़े ज्ञान को विस्थापित किया जा रहा है. 

सांस्कृतिक चेतना को विस्थापित किया जा रहा है. 

खतरा यह है कि परंपराहीन भाषा के तथाकथित बहुवचनीय रूप के स्थापित होने से विस्थापन से उत्पन्न सांस्कृतिक शून्य भरता दिखाई नहीं देता क्योंकि इस नई गढ़ी गई भाषा की अपनी कोई संस्कृति नहीं है. 

इसमें संदेह नहीं कि एक केंद्रापसारी और सार्वदेशिक जनभाषा होने के कारण हिंदी की प्रकृति विभिन्न भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की रही है जो इसकी बहुत बड़ी ताकत है. लेकिन जनसंचार माध्यमों ने जिस प्रकार हिंदी भाषा के अंग्रेजीकरण की मुहिम चला रखी है उसमें तो हिंदी की प्रकृति ही गायब है

सवाल यह है कि यह कौन तय करेगा कि मिश्रण कितने प्रतिशत होना चाहिए. यह निर्धारण न सहज है न संभव. 

जनसंचार माध्यम इस कृत्रिम भाषा के प्रति अपने उपभोक्ता की रुचि पैदा कर रहे हैं और उस रुचि का भरण पोषण भी कर रहे हैं. अर्थात माँग और आपूर्ति दोनों पर इन्हीं का कब्जा है. 

यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि इस गढ़ी गई भाषा का प्रयोग न करने वाले लोग पिछड़े हुए हैं, उनका ज्ञान सीमित है. 

स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट – क्रियोलीकरण की प्रक्रिया 

(1) स्मूथ डिस्लोकेशन ऑफ वोक्यूब्लरि (मूल भाषा के शब्दों का धीरे धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन) – Students, Parents, Teachers, Exams, Opportunity, Entrance, Sunday, India, Ordinary 

(2) Final assault on a Language (अंतिम हमला : लिपि बदलना) .

स्वागत 

2.

 दूसरी बात बाजार और उसकी रीति-नीति के आक्रमण से जुड़ी है. 

जनमाध्यमों का व्यापक प्रचार-प्रसार ज्ञान, मनोरंजन और लोक शिक्षा में सहायक होना चाहिए था. लेकिन विज्ञापन और प्रतिष्ठानी प्रायोजन पर निर्भर होने के कारण मीडिया लगभग पूरी तरह से बाजार का उपकरण बन गया है. 

एफ एम रेडियो/ ज्ञान और परिष्कार का बड़ा साधन/ स्तरहीन फूहड़ कार्यक्रमों की बाढ़ 

सांस्कृतिक विकास के रास्ते में आने वाले प्रश्नों से बचना आज के चतुर चालाक मीडिया की पहचान बन गया है. 

आज सांस्कृतिक विकास की भी इनकी गढ़ी हुई परिभाषा प्रौद्योगिकी केंद्रित परिभाषा है. अर्थात उन्नत प्रौद्योगिकी माने उन्नत संस्कृति! संस्कृति में निहित उन्नत मनुष्यता को इस उन्नत प्रौद्योगिकी ने विस्थापित कर दिया. 

प्रौद्योगिकी केंद्रित और मीडिया द्वारा प्रायोजित सांस्कृतिक विकास की संकल्पना प्रतिक्षण परिवर्तन की संकल्पना है. उपयोग करो और फेंकोस्थायित्व के लिए कोई जगह नहीं. न व्यापार-व्यवसाय में, न राजनीति-कूटनीति में और न ही रिश्ते-नाते और प्रेम संबंधों में. 

तमाम राजनेता बड़ी बेशर्मी से रोज यह दोहराते हैं – राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. सच तो यह है कि राजनीति में ही नहीं मीडिया और बाजार की संस्कृति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. विवाह और तलाक भी नहीं. 

इसी सबको समाचारों, बहसों, विज्ञापनों, नाटकों, यथार्थ प्रदर्शनों (रियालिटी शो) और फिल्मों के माध्यम से पुनः पुनः प्रचारित-प्रसारित किया जाता है. परिणामस्वरूप हमारे जीवन में यथार्थ के स्थान पर आभासी यथार्थ पहले स्थान पर आ गया है. 

मीडिया के सहारे बाजार ने हमारे जीवन और चिंतन को आक्रांत कर लिया है. 

आज उत्पादन और उत्पाद महत्वपूर्ण नहीं है. सर्विस महत्वपूर्ण है. आज का उपभोक्ता वस्तुओं को आफ्टर सेल सर्विस की सुविधा के आकर्षक विज्ञापन के आधार पर खरीदता है. अर्थात सर्विस सेक्टर हावी हो गया है. 

धमकी भरा आशावाद : सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी ! : बाजार में आगे!

सेवा प्रदाता आपके घर के दरवाजे पर डिलीवरी से लेकर सर्विस तक के लिए प्रस्तुत है. यानी एक नई तरह का बाजार अब हर घर के भीतर कई कई मोबाइल सेटों, टीवी चैनलों और इंटरनेट नमक नए जनसंचार माध्यम के रूप में 24 घंटे यही आवाज लगाता रहता है – बेचो, बेचो, बेचो ....... खरीदो, खरीदो, खरीदो... ऐसा नहीं लगता कि हम घर में रहते हैं और कभी कभी बाजार जाते हैं. अब तो हम बाजार में रहते हैं और घर कब पहुँचेंगे पता नहीं. 

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा देता;
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे. (दुष्यंत कुमार) 

बीज भाषण 
3.

सांस्कृतिक संकट : 

संस्कृति का काम है विकास को स्थायित्व प्रदान करना और उसे अपनी परंपरा से जोड़ना. 

बाजार आश्रित मीडिया जिस विकास को प्रचारित करता है उसमें इन दोनों चीजों (स्थायित्व और परंपरा) के लिए कोई जगह नहीं है. वह ‘पॉपुलर कल्चर’ के नाम पर एक ऐसी संस्कृति गढ़ रहा है जिसमें स्मृति के लिए भी कोई स्थान नहीं है. यही करण है कि 21वीं शताब्दी की तमाम नई फिल्में बिजनेस तो करोड़ों का करती हैं लेकिन अगली फिल्म के आते ही पुरानी और कालातीत हो जाती हैं. जिस तरह एक बार पढ़े जाने के बाद अखबार और उसकी ख़बरें बासी हो जाती हैं. विचार नहीं; वाचालता.

ब्राडकास्टिंग इन थर्ड वर्ल्ड (ई-काट्ज और जी. बेबल) : 

जनसंचार में घुसकर सूचना साम्राज्यवादियों ने अपनी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता द्वारा तीसरी दुनिया की ‘भाषा’ और ‘संस्कृति’ को तहस-नहस कर दिया है. 

वाचाल : डी जे/ आरजे/ एंकर : हर चीज को मस्ती, मजा, Fun बना दें, कामुकता से जोड़ दें. 

मीडिया सनसनी और उत्तेजना की क्षणजीवी संस्कृति की रचना करता है. जबकि साहित्य का लक्ष्य कालजयी संस्कृति को रचना होता है. आज खतरा यह पैदा हो गया है कि साहित्य और संस्कृति का स्थान मीडिया के उत्पाद लेते जा रहे हैं. 

प्रभु जोशी : गालियों की नई पैकेजिंग – इडियट, बास्टर्ड, मदर .... फकर (YUPIES की भाषा) + तमीजदार हिंदी बोलने वाला = मसखरी + अभद्र व लंपट भाषा = युवा अभिव्यक्ति का आदर्श 

मीडिया द्वारा खड़े किए गए इस विभ्रम (इल्यूशन) को पहचानकर सत्वोद्रेक पर आधारित साहित्य तथा मनुष्य की चेतना को औदात्य प्रदान करने वाली संस्कृति का पोषण आज की जरूरत है. 

बीज भाषण 

4.

आभासी दुनिया और कॉर्पोरेट सेक्टर 

मीडिया चमक-दमक से भरी जिस तरह आभासी दुनिया की रचना कर रहा है वह वास्तव में कॉर्पोरेट जगत के हथियार के रूप में काम कर रहा है. कॉर्पोरेट कल्चर में संयम, सब्र, संतोष जैसी प्रवृत्तियों को पिछड़ापन माना जाता है. इसका बीज शब्द इच्छा, डिज़ायर या विल है. 

कॉर्पोरेट संस्कृति तृष्णाओं को बढ़ाने में विश्वास रखती है. भूख को बढ़ाने में विश्वास रखती है. (प्यास बढ़ाओ – Limca - करीना कपूर का विज्ञापन – Limca) 

यहाँ सब कुछ तड़क-भड़क से भरा हुआ, महँगा और ललचाने वाला है. कॉर्पोरेट जीवनशैली फिल्मों की तरह जीने में यकीन रखती है. विज्ञापन के बल पर तमाम खर्चीली चीजों का अंबार लगा लेना, किसी वस्तु के नए संस्करण के आते ही पुराने को फेंक देना, मोबाइल-टीवी-कार तक तो ठीक है पर यदि यही मानसिकता मित्रता, प्रेम, रिश्ते-नातों और परिवार के सदस्यों पर भी लागू की जाने लगे तो स्थिति कितनी भयावह हो सकती है इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. 

नृत्य : रतिक्रिया के पेल्विक जेस्चर्स : फूहड़ भौतिकता : डांस इंडिया डांस/ कॉमेडी नइट्स विद कपिल. घूंसे और बल्ले के प्रहार के साथ ‘देश बदल रहा है, वेश कब बदलोगो 

क्षणिक रोमांच या सनसनी में विश्वास करने वाले, इंटरनेट के प्रयोक्ता को व्यापक सामाजिक संबद्धता के यथार्थ से काटकर मोबाइल या कंप्यूटर की स्क्रीन पर सिमटी हुई (मुठ्ठी में आई हुई). आभासी दुनिया के विभ्रम में फंसाने वाले इस अद्यतन जनसंचार माध्यम को जाने किसने ‘सोशल मीडिया’ नाम दे दिया? यह ‘सोशल’ शब्द का भ्रामक प्रयोग है. 

आधुनिकता के दौर में धर्म और संस्कृति को रिलीजन और कल्चर जैसे गलत पर्याय दिए गए. उत्तरआधुनिक दौर में न्यू मीडिया को ‘सोशल’ जैसा गलत विशेषण दिया जा रहा है. जबकि इसका चरित्र ही ‘एंटी सोशल’ है. व्यापक समाज से काटकर जो हमें माध्यम की हदों में बाँध दे वह सोशल कैसे हो सकता है? 

इसका समाजीकरण पाखंड भर है. मोबाइल और इंटरनेट के जरिए जंतरमंतर पर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं लेकिन महात्मा गांधी जैसे जान पर खेल जाने वाले स्वयंसेवक तैयार नहीं कर सकते. 

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए
लहू लुहान नज़ारोँ का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गए (दुष्यंत) 

5.

अंत में 

मैं तीन बातें अत्यंत संक्षेप में कहना चाहूँगा - 

(i)
बाजार और कॉर्पोरेट के हाथ में खेलता हुआ मीडिया हमारी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा है. अभद्र और अश्लील के प्रति समाज आश्चर्यजनक रूप से सहिष्णु होता जा रहा है जो बेहद खतरनाक संकेत है. 

(ii)
मीडिया की तात्कालिकता ने मनुष्य की संवेदनाओं को भी क्षणिक बना दिया है. हिंसा, क्रोध, घृणा, आक्रामकता और नग्नता के पल पल परिवर्तित रूपों ने एक खास तरह की पारस्परिक असहिष्णुता पैदा की है. लोकतंत्र के नारे तो हम लगाते हैं लेकिन प्रतिपक्ष की किसी भी आवाज का गला घोंटने के लिए हम किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह असहिष्णुता बाजार संस्कृति की देन है. और इसकी परिणति तानाशाही और आतंकवादी प्रवृत्तियों में दिखाई दे रही है. सब व्यवस्थाएँ आज ऊपर ऊपर से लोकतांत्रिक लगती हैं लेकिन भीतर से सबका चरित्र अधिनायकवादी है. 

(iii)
संस्कृति का हाशियाकरण. 

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

नसीम बेचैन के सम्मान में अंतरंग कवि गोष्ठी संपन्न

15  अक्टूबर  2014 को डॉ. नसीम बेचैन [दिल्ली] के हैदराबाद आगमन के अवसर पर साहित्य मंथन और श्रीसाहिती प्रकाशन ने उनके सम्मान में अंतरंग कवि गोष्ठी का आयोजन किया. अध्यक्षता सुप्रसिद्ध हास्य-व्यंग्यकार-कवि वेणु गोपाल भट्टड  ने की.
इस अवसर पर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,आंध्र की ओर से सचिव सी. एस. होसगौडर ने  तथा हैदराबाद के कवियों की ओर से वेणुगोपाल भट्टड ने शाल  ओढाकर डॉ. नसीम बेचैन का सम्मान किया. बाएँ से - सी एस होसगौडर, वेणु गोपाल भट्टड और डॉ. नसीम बेचैन.

 हैदराबाद के हिंदी कवियों की ओर से वरिष्ठ कवि वेणुगोपाल भट्टड डॉ नसीम बेचैन को सम्मानस्वरूप शाल ओधाते हुए .

डॉ. नसीम के सम्मान में आयोजित अंतरंग कवि गोष्ठी में ; बाएँ से - डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा [संयोजक], ज्योति नारायण, कोसनम नागेश्वर राव, डॉ. देवेंद्र शर्मा और गुरुदयाल अग्रवाल.

बाएँ से - गुरुदयाल अग्रवाल, सी एस होसगौडर, वेणु गोपाल भट्टड और डॉ. नसीम बेचैन.

बाएँ से -  ज्योति नारायण, कोसनम नागेश्वर राव, डॉ. देवेंद्र शर्मा और गुरुदयाल अग्रवाल.

बाएँ से - डॉ. ऋषभ देव शर्मा, वी. कृष्ण राव और भंवर लाल उपाध्याय