श्रद्धांजलि लेख
हल्का होने का अहसास : मिलान कुंदेरा
प्रो. गोपाल शर्मा
“और जल्दी ही युवती सिसकी लेने के बजाय ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और वह यह करुणाजनक पुनरुक्ति दोहराती चली गई, ”मैं मैं हूँ, मैं मैं हूँ, मैं मैं हूँ ....”
आज जब अचानक मिलान कुंदेरा (1929-2023) के निधन का समाचार सुना तो उनकी एक कहानी के अनुवाद की ये अंतिम पंक्तियाँ याद आ गईं। ‘लिफ्ट लेने का खेल’ नामक यह कहानी मैंने पिछले ही दिनों ‘समालोचन’ में पढ़ी थी। न्यूयॉर्क टाइम्स में 11 जुलाई, 2023 को श्रद्धांजलि-स्वरूप समाचार प्रकाशित हुआ, “अपने मूल चेकोस्लोवाकिया के श्रमिकों के स्वर्ग में जीवन की दमघोंटू गैरबराबरी को दर्शाने वाले मार्मिक, यौन आधारित उपन्यासों से वैश्विक साहित्यिक सितारे बन गए कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित नेता मिलान कुंदेरा का मंगलवार को पेरिस में निधन हो गया। वह 94 वर्ष के थे।”
लेखक होने की असहनीय शिथिलता ढोनेवाले इस मजाकिया मिलान का अब ‘मैं’ नहीं रहा; ‘अहं’ समाप्त हुआ; ‘वयं’ रह गया। उनकी ही पंक्ति है,“आदमी सोचता है, भगवान हँसता है।“और कुंदेरा का खुद-ब-खुद लगाया गया कुंदेरी ठहाका यूट्यूब पर रह गया, “लेकिन भगवान क्यों हँसते हैं? क्योंकि मनुष्य सोचता है, और सत्य उससे दूर हो जाता है। क्योंकि जितना अधिक मनुष्य सोचते हैं, उतना ही अधिक एक मनुष्य के विचार दूसरे से भिन्न होते हैं। और अंततः सब समाप्त हो जाता है क्योंकि मनुष्य कभी भी वैसा नहीं होता जैसा वह सोचता है कि वह है।” चेक भाषा में कहे गए गए फ्रेंच से अंग्रेजी में आए और फिर मेरे द्वारा हिंदी में लाए गए इस महान साहित्यकार के ये शब्द ही तो अब बचे हैं।
मैंने मिलान कुंदेरा का नाम पहले पहल हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के मुखारविंद से कई दशक पहले सुना था और तब उनकी विद्वत्ता से और भी प्रभावित हो कर रह गया था। मैं उन्हें न जानता था। फिर उन्हें जानने लगा और इस जानने की इतिश्री न हो इसलिए यह लेख आज उनके नश्वर शरीर के अंत होने के समाचार सुनने के तुरंत बाद लिख रहा हूँ। मिलान कुंदेरा के द्वारा लिखित पुस्तकें हिंदी में आम आदमी को चाहे आसानी से उपलब्ध न भी हों फिर भी वे विद्वत-चर्चा में रहते चले जा रहे हैं। इस साहित्यकार का नाम शहर "मिलान" के नाम पर नहीं है जो रोमन नाम "मेडियोलेनम" ("मैदान के बीच में") से आया है। व्यक्ति "मिलान" स्लाव मूल "मिल" से बनकर आया है जिसका अर्थ "दया" और “प्यार” या ऐसा ही कुछ होता है। समझ लें ‘प्रेम कुमार’ या ‘दया कुमार’ जैसा ही कुछ इनका नाम है।
मिलान कुंदेरा एक चेक उपन्यासकार, नाटककार, निबंधकार और कवि थे। उनका जन्म 1929 में ‘ब्रनो’ (चेकोस्लोवाकिया) में हुआ था और उन्होंने प्राग विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन किया था। एक प्रसिद्ध कॉन्सर्ट पियानोवादक और संगीतज्ञ, लुडविक कुंदेरा के पुत्र युवा कुंदेरा ने संगीत का अध्ययन किया, लेकिन धीरे-धीरे लेखन की ओर रुख किया। उन्होंने 1952 में प्राग में संगीत और नाटकीय कला अकादमी में साहित्य पढ़ाना शुरू कर दिया और कई कविता-संग्रह प्रकाशित किए। 1950 के दशक में ‘पॉस्लेडनी माज’ (1955; "द लास्ट मे"), और ‘मोनोलॉजी’ (1957; "मोनोलॉग्स") अपने व्यंग्यपूर्ण और कामुकता के अतिरेकी स्वर के कारण चेक राजनीतिज्ञों और अधिकारियों द्वारा बेकार बता दिए गए।
अपने शुरुआती करियर के दौरान वे कम्युनिस्ट पार्टी में आते-जाते रहे थे। 1948 में शामिल हुए, 1950 में निष्कासित कर दिए गए, और 1956 में फिर से शामिल हुए। कुंदेरा ने 1967-68 में चेकोस्लोवाकिया में हो रहे कुछ उदारवादी आंदोलनों में भाग लिया था। देश पर सोवियत कब्जे के बाद उन्होंने अपनी राजनीतिक गलतियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और परिणामस्वरूप अधिकारियों के कोपभाजन बने। उनके सभी कार्यों और लेखन की भरपूर निंदा हुई और उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यही नहीं उन्हें उनके सभी पदों और कम्युनिस्ट पार्टी से बाहर भी कर दिया गया। दैवयोग से 1975 में कुंदेरा को फ्रांस में रेन्नेस विश्वविद्यालय (1975-78) में अध्ययन-अध्यापन का अवसर मिल गया और वे चेकोस्लोवाकिया से अपनी पत्नी वेरा ह्राबनकोवा के साथ फ्रांस में जा बसे। 1979 में चेक सरकार ने उनसे उनकी चेक नागरिकता भी छीन ली। वैसे 40 वर्ष तक मातृभूमि से बेदखल रहने के बाद मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व 2019 में बहाल कर दी गई थी। अगले वर्ष 2020 में उन्हें नागरिकता का प्रमाणपत्र भी दे दिया गया। पर जीवन के अंतिम कुछ महीनों में वे उसका करते भी क्या ? बस उसे लेकर शून्य की ओर ताकते हुए आभार के दो शब्द भर बोले , “ डेकूजी’ (“थैंक यू!”)। मिलान का देहावसान अपने देश में नहीं, फ्रांस में हुआ। यूरोप में हुआ जिसे वे ताउम्र ‘न्यूनतम स्पेस में अधिकतम विविधता’ वाला स्थान कहते रहे और खुद के ‘अन्यत्र’ (एल्सवेयर) होने का संताप झेलते रहे।
उनका पहला उपन्यास, ‘द जोक’, 1967 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास का प्रकाशन एक महत्वपूर्ण और व्यावसायिक सफलता थी, और इसने कुंदेरा को एक प्रमुख साहित्यकार के रूप में स्थापित किया। ‘जोक’ उपन्यास चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट शासन पर एक करारा व्यंग्य है और 1968 के सोवियत आक्रमण के बाद उनके देश में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कुंदेरा 1975 से 11 जुलाई, 2023 को अपनी मृत्यु तक फ्रांस में निर्वासन में रहे, साथ ही उनके लेखन पर चेकोस्लोवाकिया में बहुत समय तक प्रतिबंध जारी रहा। लेकिन कुंदेरा पश्चिम में खूब प्रकाशित होते रहे।
1970 और 80 के दशक में उनके उपन्यास, जिनमें ‘वाल्सिक ना रोज़्लौसेनौ’ (1976; "फेयरवेल वाल्ट्ज"; द फेयरवेल पार्टी), ‘निहा स्मिचू ए जैपोम्नेनी’ (1979; द बुक ऑफ लाफ्टर एंड फॉरगेटिंग), और ‘नेस्नेसिटेलना लेहकोस्ट बायटी’ ( 1984; द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग), आदि प्रकाशित हुए। कुंदेरा की प्रतिभा के व्यापक चिह्न हमें ‘एल'आर्ट डू रोमन’ (1986; द आर्ट ऑफ द नॉवेल), ‘लेस टेस्टामेंट्स ट्रैहिस’ (1993; टेस्टामेंट्स बेट्रेयड), ले रिड्यू (2005; द कर्टेन), और यूने रेनकॉन्ट्रे (2009; एनकाउंटर) आदि रचनाओं में भी दिखाई देते हैं। उन्होंने अपना अंतिम उपन्यास, "द फेस्टिवल ऑफ इनसिग्निफिसेंस" (2015) पेरिस में रहते हुए पूरा किया। कुंदेरा के लेखन का हिंदी सहित 40 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उन्होंने फ्रांज काफ्का पुरस्कार और जेरूसलम पुरस्कार सहित कई पुरस्कार जीते हैं। उन्हें 20वीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में से एक माना जाता है। हालांकि उन्हे साहित्य का नोबेल पुरस्कार न मिल सका, यह अजीब लगता है।
कुंदेरा के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासों में ‘द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग’, ‘द बुक ऑफ लाफ्टर एंड फॉरगेटिंग’ और ‘आइडेंटिटी’ शामिल हैं। ‘द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग’ कुंदेरा का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। यह 1984 में प्रकाशित हुआ था और आज तक एक अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर है। उपन्यास प्रेम, क्षति और जीवन के अर्थ की प्रकृति पर एक दार्शनिक चिंतन है। ‘द बुक ऑफ लाफ्टर एंड फॉरगेटिंग’ निबंधों और कहानियों का एक संग्रह है। यह 1978 में प्रकाशित हुआ था और चेकोस्लोवाकिया में प्रतिबंधित कर दिया गया था। पुस्तक के निबंध स्मृति, इतिहास और शब्दों की शक्ति के विषयों का पता देते हैं। यह रचना मानव स्मृति और ऐतिहासिक सत्य को नकारने और मिटाने की आधुनिक राज्य की प्रवृत्ति पर व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष है। ‘आइडेंटिटी’ कुंदेरा का एक दूसरा उपन्यास है। यह 1991 में प्रकाशित हुआ था और यह पहचान की प्रकृति और हमारे आत्मबोध को आकार देने में स्मृति की भूमिका पर एक सघन चिंतन है। 2014 में उनके अंतिम उपन्यास ‘द फेस्टिवल ऑफ इनसिग्निफिसेंस’ को "आशा और ऊब के बीच की ऊहापोह" के रूप में देखा गया।
वस्तुतः कुंदेरा का जीवन, लेखन और उनके विचार सब अजीब से ही हैं। इनका उद्देश्य क्या है? ठीक से पता नहीं चलता। 1980 में न्यूयॉर्क टाइम्स बुक रिव्यू में भी इसी ओर संकेत देकर कहा गया था कि "इस लेखक का असली काम अपने जीवनकाल में अपने देश के विनाशकारी इतिहास की छवियां ढूंढना है।” न्यूयॉर्क टाइम्स के ही अपने एक मित्र फिलिप रोथ से कुंदेरा ने एक बार कहा था, “"मुझे ऐसा लगता है कि आजकल पूरी दुनिया में लोग समझने के बजाय निर्णय करना पसंद करते हैं, पूछने के बजाय जवाब देना पसंद करते हैं।”
कुंदेरा अपने लेखन के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करते हैं और उनकी विचारधारा सदा पहले जैसी ही रहती है। उन्होंने एक बार लिखा था, “ मेरे हर उपन्यास का शीर्षक “द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग” या “द जोक” या “लाफेबल लव्स” हो सकता है; शीर्षक परस्पर परिवर्तनशील हो सकते हैं, वे उन सभी मुद्दों की छोटी संख्या को दर्शाते हैं जो मुझ पर सदा हावी रहते चले आए हैं, मुझे परिभाषित करते हैं, और, दुर्भाग्य से, मुझे प्रतिबंधित भी करते हैं। इन विषयों के अलावा, मेरे पास कहने या लिखने के लिए और कुछ नहीं है।”
सही बात है कि इनकी रचनाओं में डिकोड करने के लिए कोई प्रतीक नहीं हैं, इकट्ठा करने के लिए कोई वैकल्पिक अर्थ नहीं हैं। लेखक पहले से ही समझाए गए, पहले से ही डिकोड किए गए उपन्यास को प्रस्तुत करता है। यह एक वास्तविक संभावना को दर्शाता है जिसमें हर उपन्यास पूरी तरह से सक्षम है। कुंदेरा का हर उपन्यास उपन्यास की अनंत क्षमताओं का बचाव करने और इसे अज्ञात क्षेत्र में ले जाने के बारे में होता है। ‘द आर्ट ऑफ़ द नॉवेल’ या उनके बाद के उपन्यासेतर रचना संसार में से भी यदि आप किसी दूसरी रचना को पढ़ते हैं तो कोई खास फ़र्क़ नहीं पड़ता। कुंदेरा का समस्त लेखन एक ही आधार पर स्थित है ।
कुंदेरा अपने उपन्यासों के महिला चरित्रों के चित्रण में विशेष रूप से इतने निर्लज्ज और निर्दयी रहे हैं कि ब्रिटिश नारीवादी जोन स्मिथ ने अपनी 1989 की पुस्तक "मिसोजिनीज़" में घोषणा की थी कि "महिलाओं के बारे में कुंदेरा का समस्त लेखन शत्रुता से भरा प्रतीत होता है। जब वे अपने पुरुष पात्रों का चित्रण करते हैं, तो वह दुनिया को उनके नजरिए से देखते हैं; और जब वह अपनी स्त्रियों का चरित्र गढ़ते है, तो वे उन्हें दर्पण के सामने रखकर उनसे कहते हैं है कि वे सामने देखते हुए अपने कपड़े उतार दें।” एक फिनिश फेमनिस्ट कटीज कैल के अनुसार, “ऐसा प्रतीत होता है कि कुंदेरा अपने महिला पात्रों का उपयोग मुख्य रूप से अपने दार्शनिक मत को प्रतिपादित करने के लिए करते हैं, और फिर उस विचार और दर्शन को अपने पुरुष-पात्रों का वर्णन करने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं।”
“द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग’ एक युवा जोड़े और उनके कुत्ते की कहानी है जो सोवियत आक्रमण के दौरान रह रहे थे। 'अस्तित्व का हल्कापन' नीत्शे की उस अवधारणा पर ठोस प्रतिक्रिया है कि ब्रह्मांड एक लूप में अंतहीन रूप से विद्यमान है, जिसमें सब कुछ पहले से ही उसी तरह घटित हो रहा है जैसा वह है। कुछ पात्र नीत्शे के विचारों के बोझ तले संघर्ष करते हैं, जबकि कुछ यह मानकर चलते हैं कि सब कुछ केवल एक बार होता है - इसलिए अस्तित्ववाद का बोझ असहनीय नहीं रहता। मिलान अपने इस प्रतिनिधि उपन्यास (दि अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बीइंग) के कुछ पात्रों जैसे टॉमस (एक चेक सर्जन और बुद्धिजीवी), टेरेज़ा (टॉमस की युवा पत्नी), सबीना (टॉमस की तथाकथित प्रेमिका और सबसे करीबी दोस्त), फ्रांज (सबीना का प्रेमी और जिनेवा का आदर्शवादी प्रोफेसर), कारेनिन (टॉमस और टेरेज़ा का कुत्ता), और सिमोन (टॉमस का पिछली शादी से हुआ पुत्र) के माध्यम से 60 के दशक का चित्रण करते हैं। 1968 के प्राग वसंत से लेकर सोवियत संघ और तीन अन्य वारसा संधि वाले देशों द्वारा चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण के दौरान चेक समाज के कलात्मक और बौद्धिक जीवन की पड़ताल करती यह रचना प्रेम और सेक्स के हल्केपन को दिखाती है। वे प्यार को क्षणभंगुर, बेतरतीब और उलझाव भरा बताते हुए कहते हैं –
जितना अधिक बोझ होगा, हमारा जीवन उतना ही अधिक पृथ्वी के करीब आएगा, उतना ही अधिक वास्तविक और सच्चा हो जाएगा। इसके विपरीत, बोझ की पूर्ण अनुपस्थिति के कारण मनुष्य हवा से भी हल्का हो जाता है, ऊंचाइयों पर चढ़ जाता है, पृथ्वी और उसके सांसारिक अस्तित्व को छोड़ देता है, और केवल आधा वास्तविक बन जाता है, उसकी गतिविधियां जितनी स्वतंत्र होती हैं उतनी ही महत्वहीन होती हैं। तो फिर हम क्या चुनें? भारीपन या हल्कापन? ...जब हम अपने जीवन में किसी नाटकीय स्थिति को अभिव्यक्ति देना चाहते हैं, तो हम भारीपन के रूपकों का उपयोग करते हैं। हम कहते हैं कि कोई चीज़ हमारे लिए बहुत बड़ा बोझ बन गई है। हम या तो बोझ उठाते हैं या असफल होते हैं और इसके साथ नीचे चले जाते हैं, हम इसके साथ संघर्ष करते हैं, जीतते हैं या हारते हैं। और सबीना- उसके ऊपर क्या आ गया था? कुछ नहीं। उसने एक आदमी को छोड़ दिया था क्योंकि उसे ऐसा लग रहा था कि वह उसे छोड़ रही है। क्या उसने उस पर अत्याचार किया था? क्या उसने उससे बदला लेने की कोशिश की थी? नहीं, उनका नाटक भारीपन का नहीं बल्कि हल्केपन का नाटक था। जो कुछ उसके हिस्से में आया वह बोझ नहीं था, बल्कि अस्तित्व का असहनीय हल्कापन था। (पृष्ठ 364)
यदि कुछ भारी भारी सा लग रहा है और आप कुछ हल्का होना चाहते हैं तो ‘नेटफ़िलस्क’ पर इस कहानी पर आधारित फिल्म देखें। अच्छा रहेगा। ■
● प्रो. गोपाल शर्मा, पूर्व प्रोफेसर, भाषा अध्ययन विभाग, अरबा मींच विश्वविद्यालय, इथियोपिया (पूर्व अफ्रीका)
व्हाट्सएप्प- +91 89783 72911.
अत्यंत महत्वपूर्ण पक्षों को प्रकाशित करता हुआ आलेख। धन्यवाद।
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