बुधवार, 28 दिसंबर 2016
मंगलवार, 27 दिसंबर 2016
श्रीलाल शुक्ल स्मारक संगोष्ठी और ‘अन्वेषी’ का लोकार्पण समारोह 31 दिसंबर को
हैदराबाद, 27 दिसंबर, 2016
श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति के तत्वावधान में आगामी शनिवार, 31 दिसंबर, 2016 को सायं 4 बजे से तिलक रोड स्थित तेलंगाना सारस्वत परिषद के सभा कक्ष में ज्ञानपीठ पुरस्कृत प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल के 92 वें जन्मोत्सव पर ‘युगीन चुनौतियों के संदर्भ में श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. अहिल्या मिश्र करेंगी तथा गृह विभाग, तेलंगाना सरकार के प्रधान सचिव राजीव त्रिवेदी, आई.पी.एस., मुख्य अतिथि का आसन ग्रहण करेंगे. अरबामिंच विश्वविद्यालय, इथियोपिया के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. गोपाल शर्मा विशिष्ट अतिथि एवं इंदौर की कवयित्री अलका जैन और वर्ल्ड मीडिया के निदेशक राजकुमार शुक्ल ‘हंस’ सम्माननीय अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे. संगोष्ठी में डॉ. बी. बालाजी और डॉ. सुपर्णा बंद्योपाध्याय अपने शोधपत्र प्रस्तुत करेंगे.
उल्लेखनीय है कि श्रीलाल शुक्ल के जन्मदिन पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली यह राष्ट्रीय संगोष्ठी इस वर्ष अपना दशक पूरा कर रही है. इस संदर्भ में इस वर्ष से समिति ने ‘श्रीलाल शुक्ल स्मारक सारस्वत सम्मान’ आरंभ करने का निश्चय किया है. ‘प्रथम श्रीलाल शुक्ल स्मारक सारस्वत सम्मान’ इस समारोह में नगर की युवा हिंदीसेवी विदुषी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा को प्रदान किया जाएगा.
अन्वेषी संपादक : ऋषभदेव शर्मा, गुर्रमकोंडा नीरजा परिलेख प्रकाशन, वालिया मार्केट, निकट साहू जैन कॉलेज, कोतवाली मार्ग, नजीबाबाद - 246763 2016 पृष्ठ 240 मूल्य : रु. 250 |
इस अवसर पर डॉ. ऋषभदेव शर्मा एवं डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा द्वारा संपादित 37 नवीनतम शोधपत्रों के संकलन ‘अन्वेषी’ को भी लोकार्पित किया जाएगा जिसकी समीक्षा चिरेक इंटरनेशनल स्कूल से संबद्ध डॉ. मंजु शर्मा करेंगी.
सभी साहित्य प्रेमियों से समारोह में पधारने का अनुरोध है.
- डॉ. सीमा मिश्रा, संयोजक
पं. श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति
48, तिवारी सदन, संपूर्ण प्रथम एवं द्वितीय तल
महात्मा गांधी रोड, रामगोपाल पेठ, सिकंदराबाद – 500003
मोबाइल : 9392059767. ईमेल – tiwariaakash110@gmail.com
मंगलवार, 20 दिसंबर 2016
सोमवार, 19 दिसंबर 2016
शनिवार, 17 दिसंबर 2016
रविवार, 11 दिसंबर 2016
[पुस्तक समीक्षा] एक अध्यापक को छात्रों का तोहफा
- डॉ.बी.बालाजी
सहायक प्रबंधक (राजभाषा)
मिश्र धातु निगम लिमिटेड, हैदराबाद-500058
मो.: 08500920391
जिन व्यक्तियों के शुभकार्यों का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, उनमें
अध्यापक का स्थान सर्वोपरि है. समाज का यह कर्तव्य है कि ऐसी विभूतियों के कार्यों
का सम्मान करे ताकि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा प्राप्त हो सके. पश्चिमी
उत्तरप्रदेश के एक विशाल भौगौलिक क्षेत्र के लोगों के बीच ‘गुरुजी’ के रूप में
विख्यात, अपभ्रंश भाषा, जैन आगम और मध्यकालीन साहित्य के विशेषज्ञ आचार्य
प्रेमचंद्र जैन एक ऐसी ही विभूति हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व द्वारा
केवल छात्रों ही नहीं बल्कि समाज पर भी व्यापक प्रभाव डाला है. लगभग अस्सी वसंत
देख चुके डॉ.प्रेमचंद्र जैन को उनके प्रिय शिष्य प्रो.देवराज (अधिष्ठाता, अनुवाद
एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)
के नेतृत्व में तैयार किया गया 448 पृष्ठों का ग्रंथ “निरभै होइ निसंक कहि के
प्रतीक” गत दिनों, 3 दिसंबर 2016 को, गलगोटिया विश्वविद्यालय, नोएडा में संपन्न एक
कार्यक्रम में समर्पित किया गया. इस ग्रंथ का संपादन डॉ.गुर्रमकोंडा नीरजा एवं
अन्य ने किया है तथा प्रधान संपादक डॉ.ऋषभ देव शर्मा हैं.
“निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक” की सामग्री पाँच खंडों में सुनियोजित रूप में
प्रस्तुत की गई है. पहले खंड में ‘प्रेम का अंत नहीं’ में सम्मानित विभूति के
अंतरंग मित्रों एवं शिष्यों के अत्यंत रोचक संस्मरण हैं, जबकि खंड-2 में स्वयं डॉ.
प्रेमचंद्र जैन की सृजनयात्रा के विविध पक्षों की बानगी प्रस्तुत की गई है. ‘कविता
में कहा बहुत कुछ’ में उनकी 44 कविताएँ संकलित हैं. ‘विमर्श से विमर्श तक’ में 8
शोधपत्र हैं. ‘अंतरिक्ष में भेजे हुए शब्द’ में 7 रेडियो वार्ताएं हैं. ‘मैं यहाँ
से बोल रहा हूँ’ में 2 व्याख्यान हैं. ‘निर्वचन के सीमांत’ में 15 पुस्तकों की
भूमिकाएं हैं तथा ‘कहानी’ में ‘बरगद ढह
गया’ शीर्षक एक कहानी दी गई है. यह सारी सामग्री ‘सृजनयात्रा’ खंड में शामिल है.
पुस्तक के तीसरे खंड का शीर्षक है ‘संवाद के सशक्त हस्ताक्षर’. इसमें प्रेमचंद्र
जैन को मुख्य रूप से डॉ. शिवप्रसाद सिंह और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखे
गए पत्रों के साथ स्वयं डॉ. जैन द्वारा समय-समय पर लिखे गए पत्र संगृहीत किए गए
हैं. चौथे खंड ‘मेरा काबा मेरी काशी’ में डॉ. प्रेमचंद्र जैन की आत्मकथा का अंश
प्रकाशित किया गया है जो एक अध्यापक के सृजन और संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है. पाँचवें
खंड में एक अभिनंदन पत्र उद्धृत किया गया है.
कुल मिलाकर, यह एक ऐसा संदर्भ ग्रंथ बन गया है जो एक ओर तो डॉ.प्रेमचंद्र जैन
के जीवन और रचना कर्म को पाठकों के सामने लाता है तथा दूसरी ओर अपभ्रंश भाषा और मध्यकालीन
साहित्य पर अत्यंत शोधपूर्ण एवं अन्यत्र दुर्लभ सामग्री को प्रस्तुत करता है. किसी
अध्यापक को अपने छात्रों की ओर से दिया जा सकने वाला यह उपहार निश्चय ही अत्यंत
श्लाघनीय है जिससे अनेक अध्यापकों और उनके शिष्यों को ईर्ष्या होनी चाहिए!
समीक्षित कृति : “निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक”,
संपादक : गुर्रमकोंडा नीरजा एवं अन्य, संपर्क :09849986346.
संपादक : गुर्रमकोंडा नीरजा एवं अन्य, संपर्क :09849986346.
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, वालिया मार्केट, निकट साहू जैन
कॉलेज, कोतवाली मार्ग, नजीबाबाद-246763,
पृष्ठ : 448 (सजिल्द),
मूल्य : 200/- रुपए.
शनिवार, 3 दिसंबर 2016
'निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक' डॉ. प्रेमचंद्र जैन
जैन दर्शन, हिंदी साहित्य और अपभ्रंश भाषा के प्रख्यात विद्वान और विचारक गुरुवर डॉ. प्रेमचंद्र जैन अगले महीने आज ही की तारीख को उन्यासीवें वर्ष में प्रवेश करेंगे. आज है 3 दिसंबर 2016. अर्थात गुरुजी का जन्म 3 जनवरी, 1939 ई. को हुआ. जन्म स्थान ग्राम नगला बारहा, जनपद बदायूँ, उत्तर प्रदेश.
पिता श्री शोभाराम जैन निष्ठावान अध्यापक थे. उन्होंने अपने पुत्र को शिक्षा की मूल्यवान विरासत सौंपी, जिसे गुरुजी ने स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान और भगवान महावीर केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ में अध्ययन, स्वाध्याय और अनुसंधान द्वारा अनेकगुणित करके कृतार्थता प्राप्त की. साथ ही, आपके सारस्वत व्यक्तित्व के निर्माण में पंडित फूलचंद शास्त्री के पांडित्य, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के फक्कड़पन और डॉ. शिवप्रसाद सिंह की सर्जनात्मक मेधा का योगदान अविस्मरणीय है. यही कारण है कि आप इस गुरु-त्रिमूर्ति के गुण गाते नहीं थकते.
1962 में बीए, ’63 में सिद्धांत शास्त्री, ’64 में एमए, ’68 में शास्त्री के उपरांत गुरुजी ने 1969 में पीएचडी उपाधि अर्जित की. आपका शोधप्रबंध "अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक" 1975 में प्रकाशित हुआ जिससे आपको विद्वत्समाज में विशिष्ट ख्याति प्राप्त हुई. इस बीच 1972 में आपने नजीबाबाद, उत्तर प्रदेश के साहू जैन कॉलेज में हिंदी प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति पाई और उसे ही अपना काबा-काशी मानकर वहीं के होकर रह गए. वहीं रहते हुए आपने अध्यापन, शोध, साहित्य सृजन तथा हिंदी सेवा के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए एवं शिष्यों से लेकर आम जन तक में अनन्य लोकप्रियता प्राप्त की. यदि यह कहा जाए कि आप ही के कारण नजीबाबाद को हिंदी की सार्वदेशिक गतिविधियों के मानचित्र पर स्थायी पहचान मिली, तो अतिशयोक्ति न होगी. निश्चय ही इस उपलब्धि के पीछे उनके अनेक समर्पित साथियों का अविचल सहयोग विद्यमान रहा, जिनकी गाथाएँ गुरुजी सदा उल्लसित होकर सुनाते हैं.
गुरुवर डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने अनेक कविताओं, ललित निबंधों और कुछ कहानियों का भी प्रणयन किया है जिनमें उनका दिल धड़कता सुनाई देता है. लेकिन उनकी विशेष प्रसिद्धि जैन दर्शन, अपभ्रंश भाषा और मध्यकालीन हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ अध्येता और व्याख्याता के रूप में है. उनके मौलिक और संपादित ग्रंथों में - अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक, रहस्यवादी जैन अपभ्रंश काव्य का हिंदी पर प्रभाव, हिंदी संत साहित्य में श्रमण साहित्य का योगदान, हम तो कबहुँ न निज घर आए, पंडित जी, माता कुसुम कुमारी हिंदीतर भाषी हिंदी साधक सम्मान : अतीत एवं संभावनाएँ, बीहड़ पथ के यात्री – जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ शामिल हैं.
गुरुजी के भीतर-बाहर संत कबीर जैसी निर्भीकता और निःशंकता की सात्विक ऊर्जा लहराती है. यही कारण है कि अपने शिष्यों के लिए वे ‘’निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’’ हैं.
[प्रस्तुति : डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह-संपादक, ‘स्रवंति’, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद-500004]
बुधवार, 30 नवंबर 2016
अन्वेषी : सम्मिलित लेखक
अन्वेषी
संपादक : ऋषभदेव शर्मा/ गुर्रमकोंडा नीरजा
परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद
ISBN : 978-93-84068-36-3
2016
पृष्ठ : 240
मूल्य : रु. 250/-
|
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद
वितरक : श्रीसाहिती प्रकशन, 303 मेधा टॉवर्स, राधाकृष्ण नगर, अत्तापुर रिंग रोड, हैदराबद - 500048
पुस्तक की प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र :
08121435033
09849986346
इस शोधपत्र संकलन में सम्मिलित सामग्री
पहला खंड : हाशिया विमर्श :
- हिंदी कहानी में वृद्ध मनोविज्ञान : अकेलापन (शिवकुमार राजौरिया)
- 'मुर्दहिया' : दलित बस्ती की जिंदगी (सुभाषिणी टी)
- कात्यायनी के साहित्य में स्त्री प्रश्न (पोलवरपु जयलक्ष्मी)
- अनामिका के काव्य में स्त्री विमर्श (सुरैया परवीन)
- शिवप्रसाद सिंह की कहानियों में स्त्री पात्रों का भाषिक वैशिष्ट्य (सुस्मिता घोष)
- 'छिन्नमस्ता' में स्त्री चेतना (उषा यादव)
- साहित्य में नारी का अभिव्यक्ति पक्ष (सुबोध कुमार सिंह)
- हिंदी के आंचलिक उपन्यासों में स्त्री चेतना (अर्पणा दीप्ति)
दूसरा खंड : भाषा विमर्श :
- हिंदी-मराठी सर्वनाम : रूप संरचना एवं प्रकार्य (मिलिंद पाटिल)
- भाषाविज्ञान का समाजभाषिक स्वरूप (जोराम यालाम नाबाम)
- दक्खिनी भाषा का उद्भव और विकास (जी. प्रवीणा)
तीसरा खंड : कविता विमर्श :
- भक्ति काव्य में प्रेम और सौंदर्य (सिरिपुरपु तुलसी देवी)
- हिंदी सूफी प्रेमाख्यानक काव्यों का वर्ण्य-विषय (इंद्रजीत सिंह)
- कविता, मार्क्सवाद और रामविलास शर्मा (नितिन पाटिल)
- अंधेरे के बिंब बनाती धूपधर्मी कविताओं का कवि - कुमार विकल (सुशील कुमार शैली)
- देवराज की राजनैतिक कविताएँ (अमन कुमार)
चौथा खंड : कहानी विमर्श :
- प्रेमचंद की कहानी 'सवा सेर गेहूँ' और किसान विमर्श (कोमल सिंह)
- मेहरुन्निसा परवेज की कहानियों में आंचलिकता (एन. ललिता)
- मेहरुन्निसा परवेज की कहानियों में समाज की आर्थिक संरचना और वर्गीय संबंध (अनुपमा तिवारी)
- रमेश पोखरियाल 'निशंक' की कहानियों में मानवाधिकार चेतना (संतोष विजय मुनेश्वर)
पाँचवा खंड : उपन्यास विमर्श :
- प्रेमचंद की वर्तमानता : 'रंगभूमि' और 'गोदान' (ऋषभदेव शर्मा)
- हिंदी उपन्यासों में व्यंग्य की परिपाटी (मोहम्मद माजीद मिया)
- इलाचंद्र जोशी के उपन्यासों का व्यक्तिवादी स्वरूप (समला देवी)
- मोहन राकेश कृत उपन्यास 'अंधेरे बंद कमरे' में पत्रकारिता विमर्श (विनोद चौरसिया)
- फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों में भाषण का पाठ (माधुरी तिवारी)
- मृदुला सिन्हा की स्त्री : संस्कृति की संरक्षक (आशा मिश्रा 'मुक्ता')
- हिंदी उपन्यास और सामाजिक यथार्थ (सुपर्णा मुखर्जी)
छठा खंड : मीडिया विमर्श :
- गुंजेश्वरी प्रसाद और उनकी पत्रकारिता (विराट व्यक्तित्व : एक मूल्याकंन) (अरविंद कुमार सिंह)
- हिंदी नवजागरण के विकास में बिहार की पत्रकारिता की भूमिका : रामवृक्ष बेनीपुरी के संदर्भ में (वर्षा कुमारी)
- तमिलनाडु में हिंदी पत्रकारिता का स्वरूप (सुनीता जाजोदिया)
सातवाँ खंड :विविधा :
- स्मृतिकालीन न्याय व्यवस्था (हर्षवर्धन सिंह)
- स्मृतिकालीन सामाजिक संगठन (हर्षवर्धन सिंह)
- वैदिक कालीन नीति और राजनीति (हर्षवर्धन सिंह)
- रामविलास शर्मा और कालजयी साहित्य परंपरा (आनंद कुमार यादव)
- भारतीय शिक्षा नीतियों में भाषा और संस्कृति (बनवारी लाल मीना, प्रभा कुमारी)
- प्रतिभा एवं विद्वत्ता का अनूठा संगम : जानकी वल्लभ शास्त्री (गहनीनाथ)
- आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा (गुर्रमकोंडा नीरजा)
मंगलवार, 29 नवंबर 2016
अन्वेषी : भूमिका
अन्वेषी संपादक : ऋषभदेव शर्मा/ गुर्रमकोंडा नीरजा परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद 2016 पृष्ठ : 240 मूल्य : रु. 250/- |
'अन्वेषी' शोधपत्र संकलन.
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद
वितरक : श्रीसाहिती प्रकशन, 303 मेधा टॉवर्स, राधाकृष्ण नगर, अत्तापुर रिंग रोड, हैदराबद - 500048
पुस्तक की प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र :
08121435033
09849986346
‘संकल्पना’ (2015) का सुधी पाठकों ने खुले मन से स्वागत किया। इस स्वीकृति से हमें प्रोत्साहन मिला। विद्वान मित्रों और शोधार्थियों के आग्रह ने उद्दीपन की भूमिका निभाई। ... और हम जुट गए एक नए संकलन के काम में। उसी की निष्पत्ति ‘अन्वेषी’ के रूप में आपके सामने है।
इक्कीसवीं शताब्दी को यदि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और साहित्यिक क्षेत्रों के समान ही अनुसंधान के क्षेत्र में भी बहु-केंद्रीयता के उभार की शताब्दी कहें, तो शायद अनुचित न होगा। यह बहु-केंद्रीयता विभिन्न हाशियाकृत समुदायों के संदर्भ से जुड़कर शोध में चरितार्थ होती दिखाई दे रही हैं। इससे साहित्य अध्ययन की दृष्टियों का विस्तार हुआ है और अंतर्विद्यावर्ती शोधकार्यों को प्रोत्साहन मिला है। हमारे विचार से स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, वृद्धावस्था विमर्श, पर्यावरण विमर्श आदि मूलतः अंतर्विद्यावर्ती शोध के ही विषय हैं। ऐसे शोधकार्य एक बार फिर साहित्य को ज्ञान की अन्य शाखाओं से जोड़कर समाज के लिए उसकी उपादेयता को रेखांकित करते हैं। ‘अन्वेषी’ में वृद्ध मनोविज्ञान, दलित जीवन, आंचलिक परिवेश, स्त्री पाठ और स्त्री भाषा के अवलोकन बिंदुओं से कहानी साहित्य, दलित साहित्य, स्त्री आत्मकथा, काव्य और उपन्यास साहित्य पर जो अनुसंधान प्रस्तुत किया गया है, अंतर्विद्यावर्ती शोध के पाट को वह नया आयाम प्रदान करने वाला है।
इस पुस्तक के भाषा विमर्श विषयक खंड में जहाँ एक ओर हिंदी और मराठी के सर्वनामों की रूप संरचना और उनके प्रकार्य के विश्लेषण द्वारा तुलनात्मक भाषावैज्ञानिक शोध का एक नमूना प्रस्तुत किया गया है, वहीं समाजभाषाविज्ञान और दक्खिनी भाषा से संबंधित शोधपत्रों में क्रमशः समाजभाषिकी और ऐतिहासिक भाषाविज्ञानपरक दृष्टि सहज ही पहचानी जा सकती है।
सभ्यता चाहे जितनी संश्लिष्ट होती जाए, संस्कृति चाहे जितने नए-नए रूपों में ढलती जाए, कविकर्म चाहे कितना भी जटिल होता जाए साहित्य सृजन का उत्कृष्टतम और भाषा व्यवहरा का सबसे नाजुक रूप कल भी कविता थी, आज कविता है और कल भी कविता रहेगी। इतना ही नहीं, कविता को शोध का विषय बनाना आज भी चुनौतीपूर्ण माना जाता है। भक्ति काव्य और प्रेमाख्यानों से लेकर आधुनिक और समकालीन कविता तक को इस पुस्तक के कविता विमर्श विषयक खंड में शोधपूर्ण दृष्टि से एक बार फिर जाँचा-परखा गया है।
कहानी और उपन्यास संबंधी शोधपत्रों के अंतर्गत ‘अन्वेषी’ में एक बार फिर साहित्यिक दृष्टियों के साथ-साथ अंतर्विद्यावर्ती दृष्टियों का समावेश द्रष्टव्य है। मानवाधिकार, आर्थिक संरचना, वर्गीय संबंध, आंचलिकता, वर्तमानता, मनोविश्लेषण, पत्रकारिता, संस्कृति और सामाजिक यथार्थ यदि कथासाहित्य को इतर ज्ञान शाखाओं से जोड़कर नया पाठ रचते हैं तो व्यंग्य और भाषण पाठ-विश्लेषण को अलग-अलग दिशाएँ देते हैं।
कहा जाता है कि आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता का प्रवेश और प्रसार हमारे समाज में मुख्यतः मीडिया द्वारा संभव हुआ। पत्रकारिता के क्षेत्र में गुंजेश्वरी प्रसाद और रामवृक्ष बेनीपुरी के अवदान की पड़ताल जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार के परिप्रेक्ष्य में उभरकर सामने आती हैं, वहीं हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता के हाशिए पर अलग-थलग स्थित प्रतीत होने वाले तमिलनाडु में हिंदी पत्रकारिता के स्वरूप पर केंद्रित शोधपत्र निश्चित रूप से हिंदी के अक्षेत्रीय तथा सार्वदेशिक चरित्र को एक बार फिर रेखांकित करता है।
इस पुस्तक के अंतिम खंड विविधा में जहाँ एक ओर वैदिक और स्मृति कालीन नीति, न्याय और समाज को संक्षेप में सामने लाने का प्रयास किया गया है वहीं शिक्षा नीति की भी भाषा और संस्कृति के अवलोकन बिंदु से विवेचना की गई है। रामविलास शर्मा और जानकी वल्लभ शास्त्री पर केंद्रित शोधपत्र अपने विवेच्य साहित्यकारों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। इसी क्रम में, हिंदीतर भाषाओं के आधुनिक और उत्तर आधुनिक युगीन साहित्यकारों द्वारा रामकथा के नए-नए पाठों के अध्ययन की आवश्यकता की पूर्ति का एक बहुत छोटा और विनम्र-सा प्रयास ‘आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा’ विषयक शोधपत्र में किया गया है, जो इस दिशा में योजनाबद्ध विस्तृत शोधकार्य की आवश्यकाता जताता है।
हिंदी में चल रहे शोधकार्य की झलक प्रस्तुत करने वाले इस संग्रह को आप तक पहुँँचाने में हमें जिन मित्रों और शुभचिंतकों का मार्गदर्शन और सहयोग मिला है उनमें प्रो. देवराज (वर्धा), प्रो. एम. वेंकटेश्वर (हैदराबाद) और अमन कुमार त्यागी (परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। साथ ही, शोधार्थी संतोष विजय मुनेश्वर और टी. सुभाषिणी ने समय-समय पर जो श्रम किया है उससे भी ‘अन्वेषी’ की प्रस्तुति में सुविधा हुई है।
गांंधी जयंती - ऋषभदेव शर्मा
2 अक्टूबर, 2016 गुर्रमकोंडा नीरजा
रविवार, 27 नवंबर 2016
शनिवार, 12 नवंबर 2016
शनिवार, 29 अक्टूबर 2016
गोइन्का पुरस्कार/सम्मान की घोषणा
रमेश गुप्त नीरद |
कमला गोइन्का फाउण्डेशन के प्रबंध न्यासी श्री श्यामसुन्दर गोइन्का जी ने एक प्रेस विज्ञप्ति द्वारा सूचित किया है कि कमला गोइन्का फाउण्डेशन द्वारा दक्षिण भारत के सर्वश्रेष्ठ हिंदी सेवियों के लिए घोषित "बालकृष्ण गोइन्का हिन्दी साहित्य सम्मान" से इस वर्ष चेन्नई निवासी गणमान्य हिंदी' साहित्यकार श्री रमेश गुप्त 'नीरद' जी को सम्मानित किया जाएगा।
पवित्रा अग्रवाल |
कमला गोइन्का फाउण्डेशन द्वारा मूल हिंदी कृति के लिए घोषित रु.31000/- रुपये का "बाबूलाल गोइन्का हिंदी साहित्य पुरस्कार" इस वर्ष हैदराबाद निवासी श्रीमती पवित्रा अग्रवाल जी को उनकी मूल हिंदी कृति "उजाले दूर नहीं" के लिए दिया जाएगा।
रविवार, 23 अक्टूबर 2016
शनिवार, 22 अक्टूबर 2016
गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016
रामेश्वर सिंह के हैदराबाद आगमन पर स्नेह मिलन समारोह संपन्न
एम. वेंकटेश्वर और गुर्रमकोंडा नीरजा सहित 7 लेखकों को
अंतरराष्ट्रीय हिंदी भास्कर, 2 को हिंदी रत्नाकर तथा
रामेश्वर सिंह को संस्कृति-सेतु सम्मान प्रदत्त
हैदराबाद, 20 अक्टूबर, 2016 (मीडिया विज्ञप्ति).
‘’हिंदी केवल भारत की ही नहीं विश्व की बेहद शक्तिशाली भाषा है जो बहुत बड़े जन-समुदाय को तरह-तरह की भिन्नताओं के बावजूद जोड़ने का काम करती है. मैंने देश-विदेश की अपनी साहित्यिक यात्राओं में कभी भी अकेलापन अनुभव नहीं किया है क्योंकि हिंदी मेरे साथ हमेशा रहती है. आज जब विश्व-पटल पर भारत और रूस के मैत्री संबंध नई दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे समय भारतीय-रूसी मैत्री संघ ‘दिशा’ के संस्थापक डॉ. रामेश्वर सिंह का हैदराबाद में सम्मान तथा उनकी संस्था की ओर से भारत के कुछ हिंदी सेवियों का सम्मान हिंदी के माध्यम से परस्पर मैत्री को मजबूत बनाने की खातिर एक सराहनीय कदम है.’’
ये विचार अग्रणी तेलुगु साहित्यकार प्रो. एन. गोपि ने रूसी-भारतीय मैत्री संघ 'दिशा' (मास्को), साहित्यिक-सांस्कृतिक शोध संस्था (मुंबई) तथा 'साहित्य मंथन' (हैदराबाद) के संयुक्त तत्वावधान में आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के सभाकक्ष में संपन्न 'स्नेह मिलन एवं सम्मान समारोह' की अध्यक्षता करते हुए प्रकट किए.
इस अवसर पर मास्को से आए डॉ. रामेश्वर सिंह को श्रीमती लाड़ो देवी शास्त्री की पावन स्मृति में प्रवर्तित ''साहित्य मंथन संस्कृति-सेतु सम्मान : 2016'' प्रदान किया गया. अपने कृतज्ञता भाषण में डॉ. रामेश्वर सिंह ने कहा कि कोई भी भाषा अपने बोलने वालों के दम पर विकसित होती है और विश्व भर में हिंदी अपने प्रयोक्ताओं की बड़ी संख्या तथा अपनी सर्व-समावेशी प्रकृति के कारण निरंतर विकसित हो रही है, अतः आने वाले समय में सांस्कृतिक से लेकर कूटनैतिक संबंधों तक के लिए हिंदी को बड़ी भूमिका अदा करनी है.
‘दिशा’ और ‘शोध संस्था’ की ओर से डॉ. आर. जयचंद्रन (कोचिन) और डॉ.मुकेश डी. पटेल (गुजरात) को ''हिंदी रत्नाकर अंतरराष्ट्रीय सम्मान'' से तथा डॉ. बाबू जोसेफ (कोट्टायम), डॉ. एम. वेंकटेश्वर (हैदराबाद), डॉ. अनिल सिंह (मुंबई), डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (हैदराबाद), डॉ. वंदना पी. पावसकर (मुंबई), डॉ. सुरेंद्र नारायण यादव (कटिहार) और डॉ. कांतिलाल चोटलिया (गुजरात) को ''हिंदी भास्कर अंतरराष्ट्रीय सम्मान'' से अलंकृत किया गया. पुरस्कृत साहित्यकारों ने हिंदी भाषा के प्रति अपने पूर्ण समर्पण का संकल्प जताया.
कार्यक्रम के प्रथम चरण में आगंतुक और स्थानीय साहित्यकारों के परस्पर परिचय के साथ ‘चाय पर चर्चा’ का अनौपचारिक दौर चला तथा दूसरे चरण में सम्मान समारोह संपन्न हुआ. आरंभ में स्वस्ति-दीप प्रज्वलित किया गया तथा कवयित्री ज्योति नारायण ने वंदना प्रस्तुत की. साहित्यिक-सांस्कृतिक शोध संस्था के सचिव डॉ. प्रदीप कुमार सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया और विश्व-मैत्री के लिए हिंदी की संभावित भूमिका पर विचार प्रकट किए.
अपनी सक्रिय भागीदारी और उपस्थिति से चर्चा-परिचर्चा को जीवंत बनाने में डॉ. बी. सत्यनारायण, डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. रोहिताश्व, डॉ. करण सिंह ऊटवाल, वुल्ली कृष्णा राव, डॉ. बी, बालाजी, डॉ. मंजु शर्मा, डॉ. बनवारी लाल मीणा, प्रभा कुमारी, मो. आसिफ अली, प्रवीण प्रणव, शशि राय, भंवर लाल उपाध्याय, जी. परमेश्वर, पवित्रा अग्रवाल, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, डॉ. राजेश कुमार, संपत देवी मुरारका, डॉ. मोनिका शर्मा, वर्षा, डॉ. सुनीला सूद, डॉ. राजकुमारी सिंह, टी. सुभाषिणी, संतोष विजय, अशोक तिवारी, आलोक राज, शरद राज, श्रीधर सक्सेना, श्रीनिवास सावरीकर, डॉ. रियाज़ अंसारी, मदन सिंह चारण और डॉ. पूर्णिमा शर्मा आदि ने महत्वपूर्ण योगदान किया.
रविवार, 16 अक्टूबर 2016
मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016
[शताब्दी समारोह संपन्न] अखंड हिंदी भक्ति के प्रतीक वेमूरि आंजनेय शर्मा
जन्मशती के संदर्भ में वेमूरि आंजनेय शर्मा जी की मानसिक छवि मेरे समक्ष आज अखंड हिंदी भक्ति के विग्रह के रूप में उभरती है. पीढ़ियाँ उन्हें राष्ट्रभाषा के ऐसे समर्पित साधक के तौर पर याद करेंगी जिन्होंने अपना सारा जीवन हिंदी की सेवा के लिए समर्पित कर दिया. अपनी किशोरावस्था में वे स्वतंत्रता आंदोलन के अंग के रूप में स्वभाषा और स्वदेशी की ओर आकृष्ट हुए. उस काल में एक ओर तो आंध्र प्रदेश में हिंदी को तुरुक भाषा कहकर हिकारत की नज़र से देखा जाता था तथा दूसरी ओर उसे सीखना-सिखाना राजद्रोह के समान वर्जित कर्म था. शर्मा जी ने इन दोनों ही बातों की परवाह नहीं की और न केवल हिंदी सीखी बल्कि उसके प्रचार में भी सक्रियता से संलग्न हो गए. राष्ट्रभाषा प्रचार के प्रति उनकी निष्ठा के कारण ही उन्हें व्यावहारिक भाषा के नैसर्गिक वातावरण में हिंदी अध्ययन के लिए उत्तर भारत भेजा गया, जहाँ से उन्होंने हिंदी के मुहावरे पर मातृभाषावत अधिकार अर्जित किया. इस वातावरण के प्रभाव से वे अटल हिंदीव्रती बन गए और अपने बाद आने वाले असंख्य हिंदी सेवियों व प्रचारकों के प्रेरणास्रोत भी. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के बीच परस्पर आदान-प्रदान के लिए जो वे आजीवन सचेष्ट रहे, इसके पीछे भी उनके इसी काल के अनुभव विद्यमान थे.
मैंने वेमूरि आंजनेय शर्मा को पहली बार यों तो दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास में प्राध्यापक पद के अपने साक्षात्कार के समय देखा था. उन्होंने ही मुझसे यह प्रश्न किया था कि मैं आसूचना ब्यूरो छोड़कर सभा में क्यों आना चाहता हूँ. पर तब मुझे उनका नाम और पद ज्ञात न था. जब 15 मार्च, 1990 की सुबह मैं कार्यभार ग्रहण करने के उद्देश्य से सभा में पहुँचा तो द्वारपाल मुझे कुल सचिव के आवास पर ले गया और जिस विभूति ने वहाँ सहज घरेलू शिष्टाचार के साथ मेरा स्वागत किया वह शर्मा जी थे. कुछ ही मिनट की मुलाकात में उन्होंने यह दर्शा दिया कि उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुल सचिव के रूप में उनकी पहली चिंता शिक्षा के स्तर और भाषा के सम्यक व्यवहार की है. वे सच्चे अर्थ में भारतीय थे और उत्तर-दक्षिण या हिंदी-अहिंदी के भेदभाव से घृणा करते थे. वे ऐसे ही विचार वाले शिक्षकों को चाहते थे. उँगलियों से बाँसुरी सी बजाते हुए बोले थे – हमने तो विशेषज्ञों से कह दिया था कि सबसे उत्तम कैंडीडेट चुनकर हमें दें; हम कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे. विद्वत्ता का वे ह्रदय से सम्मान करते थे और आयु-भेद की सारी सीमाओं को लांघकर लघुतम व्यक्ति की भी सही बात को सहर्ष स्वीकार करते थे. अफ़सोस की बात है कि उनके जैसा उदार राष्ट्रीय सोच अब वहाँ नहीं रहा!
वेमूरि आंजनेय शर्मा दिग्गज विद्वान होते हुए भी स्वयं को सदा विद्यार्थी समझने वाले आदर्श के रूप में भी याद आते हैं. पहले ही दिन उन्होंने मुझे ‘तमिल स्वयंशिक्षक’ पुस्तक दिखाते हुए बताया था कि कैसे वे ज़रुरत पड़ने पर उसका उपयोग करते हैं. उनके साधारण पहनावे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के ज़माने के संस्मरण सुनाते जाने से यह भ्रम होने की पूरी गुंजाइश थी कि वे अतीत में ठहरे हुए होंगे. लेकिन ऐसा था नहीं. उनके निकट जाने पर मुझे पता चला कि उनका व्यक्तित्व तो सतत प्रवाहशील सदानीरा नदी जैसा था. वे अधुनातन ज्ञान-विज्ञान से सीधे जुड़े हुए थे. अस्तित्ववाद के सैद्धांतिक और साहित्यिक पक्षों से उनका गहरा परिचय था. इस विषय को उन्होंने मौलिक लेखन और अनुवाद द्वारा भी तेलुगु पाठकों तक पहुँचाया. आज भी ऐसे ‘महापुरुषों’ की कमी नहीं जो कंप्यूटर और प्रौद्योगिकी से अछूतों सा बरताव करते हैं; लेकिन शर्मा जी भारत में कंप्यूटर की चौथी पीढी के अवतरण के ज़माने से ही उसे हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए सक्षम बनाने के लिए उद्यमशील थे. वे इस बारे में उत्साही और आशावान थे कि शायद देशभर में हिंदी माध्यम से कंप्यूटर की उच्चस्तरीय शिक्षा (एम सी ए) आरंभ करने की चुनौती सभा ने उनके नेतृत्व में सफलतापूर्वक स्वीकार की. एक और चुनौती उन्होंने एम ए हिंदी का भाषाविज्ञान प्रधान पाठ्यक्रम चलाने की भी उस वक़्त स्वीकार की थी जब अनेक पोंगापंथी संस्थाओं को ऐसा करना पागलपन लगता था. शर्मा जी इन चुनौतियों को स्वीकार सके क्योंकि उन्हें भाषा और शिक्षा के उस भविष्य का अनुमान था जिसमें प्रौद्योगिकी और प्रयोजनमूलकता को केंद्रीय महत्त्व मिलने वाला था. अतः कहना ही होगा कि वेमूरि आंजनेय शर्मा क्रांतदृष्टा भाषाचिंतक और शिक्षाविद थे.
मुझे याद आता है कि एक बार शर्मा जी ने हिंदी प्रचार और मीडिया के संबंध की चर्चा छिड़ने पर बताया था कि हिंदी प्रचार के आरंभिक दशकों में नाटक जैसे परंपरागत मीडिया का भी उपयोग किया जाता था और कि वे स्वयं ऐसी नाटक मंडलियों से जुड़े थे और कई नाटकों में उन्होंने अभिनय भी किया था. हिंदी को राजभाषा के रूप में अखिल भारतीय स्वीकृति मिलने के लिए वे संवैधानिक व्यवस्था को नाकाफी मानते थे. साथ ही, वे चाहते थे कि सारे देश में त्रिभाषा सूत्र ‘ईमानदारी’ और सख्ती से लागू किया जाए. इसके अलावा, वे अनुवाद के साथ ही हिंदीतर भाषियों के सृजनात्मक लेखन को भी हिंदी साहित्य में सही (हाशिए पर नहीं) स्थान दिए जाने की माँग के समर्थक थे.
अंततः इतना ही कि गंगाशरण सिंह और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के संस्मरण सुनाते समय शर्मा जी की गद्गद हो उठते थे; आज शर्मा जी का स्मरण करते हुए मैं उसी भाव की अनुभूति कर रहा हूँ.
- डॉ. ऋषभदेव शर्मा,
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद – 500 004.
शनिवार, 1 अक्टूबर 2016
साठये महाविद्यालय में द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न
26-27 सितंबर, 2016 को विले पार्ले, मुंबई स्थित साठये महाविद्यालय में संपन्न द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में इसके केंद्रीय विषय के विविध आयामों को समटते 528 पृष्ठीय ग्रंथ ''भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा'' का लोकार्पण करते हुए (बाएँ से) डॉ. सिराजुद्दीन एस. नुर्मातोव (उज्बेकिस्तान), डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर (चीन), डॉ. रामकिशोर शर्मा (बीज भाषणकर्ता), डॉ. रामेश्वर सिंह (रूस), डॉ. सुरेश चंद्र शुक्ल (नार्वे), डॉ. कविता रेगे (सत्र अध्यक्ष), डॉ. विद्योत्तमा कुंजल (मारीशस), डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह (अयोध्या), डॉ. प्रदीप कुमार सिंह (संयोजक व संपादक) एवं डॉ. ऋषभदेव शर्मा (संचालक).
शनिवार, 24 सितंबर 2016
[स्रवंति] बदलती चुनौतियाँ और हिंदी की आवश्यकता : प्रो. ऋषभदेव शर्मा
"बदली हुई परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ जैसी नारेबाजी से दूर रखकर, ‘भाषा’ के रूप में प्रचारित-प्रसारित किए जाने की जरूरत है – जिसे मनुष्य सूचनाओं के आदान-प्रदान, जिज्ञासाओं की शांति, आत्मा की अभिव्यक्ति और संप्रेषण की सिद्धि के निमित्त सीखा करते हैं। भावुकता और बाध्यता दोनों ही अतियाँ हैं। भाषा मनुष्य की सहज आवश्यकता के रूप में सीखी जाती है। हम इस सहज आवश्यकता का अनुभव करें-कराएँ, तो हिंदी भी सहजता से पढ़ी-पढ़ाई, सीखी-सिखाई जा सकती है। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से लेकर स्वैच्छिक हिंदी प्रचार संस्थाओं तक को चाहिए कि वे अपने घिसेपिटे रवैये को बदलें और हिंदी को अधुनातन ज्ञान की व्यावहारिक भाषा के रूप में प्रचारित-प्रसारित करें।"
गुरुवार, 22 सितंबर 2016
बुधवार, 21 सितंबर 2016
मंगलवार, 20 सितंबर 2016
रविवार, 18 सितंबर 2016
मंगलवार, 30 अगस्त 2016
प्रो. दिलीप सिंह द्वारा ऋषभदेव शर्मा की कविताओं का पाठ-विश्लेषण
धूप ने कविता लिखी है गुनगुनाने के लिए
ऋषभदेव शर्मा का कवि-कर्म :
तेवरी, तरकश, ताकि
सनद रहे और देहरी
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:: 1 ::
’ऋषभदेव जी’ इसी तरह
मैं उन्हें पुकारता हूँ। मान और स्नेह, दोनों भाव इस संबोधन में निहित हैं। ’डॉक्टर शर्मा’ कहूँ तो
मामला अति औपचारिक हो जाए और ’ऋषभ’ बुलाऊँ तो बदसलूकी लगेगी। वे मुझे ’डॉक्टर साहब’ या ’सर’ ही कहते
हैं और आदर बड़े भाई जैसा देते हैं। पहली भेंट उनसे मद्रास में बरसों पहले हुई थी।
एक बैठक थी। अटैची लिए सभा (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा) प्रांगण में
घुसा ही था कि प्रो. भीमसेन’निर्मल’ दिख गये। अटैची वहीं धर के हम दोनों डाकख़ाने
वाले चबूतरे पर बैठ गए। बातें होने लगीं कि एक स्वस्थ-सुदर्शन-सा नवयुवक
नमस्कार-नमस्कार करते हुए सामने आया। निर्मल जी ने परिचय कराया। मैं चलने को हुआ
कि बिना किसी संकोच के युवक ने मेरी अटैची उठा ली और अतिथि-गृह के कमरे तक पहुँचा दिया।
उनकी इस सरलता ने मन मोह लिया। फिर वे हैदराबाद आ गए, मेरे साथ काम करने। और मेरे साथ आत्मीयता का
इतिहास रचा।
छोटे कद, भारी
शरीर और गौरवर्ण के ऋषभ जी ’देखनउक’ लगते हैं। फ़िट-फ़ाट रहते हैं – हर धजा उन पर फबती भी खूब है। हमारी तरफ़ देसी
मेलों में मिट्टी का ’बबुआ’ मिलता है – बैठा हुआ, सुदर्शन, गोल-मटोल;ऋषभ जी
को देखकर अजाने ही उसकी याद आती है। यह बबुआ बड़ा लोकप्रिय है। सभी उसे लेते हैं, अपने घर में सजाते हैं। उसे प्यार करते हैं।
हैदराबाद के हिंदी जगत् में ऋषभदेव जी अत्यंत लोकप्रिय हैं। सब उनका साथ चाहते
हैं, और वे भी
किसी को निराश नहीं करते।
शुरू शुरू में हैदराबाद आए तो कुछ अलग-अलग से रहे। सन् 1997 ई. में मैंने हैदराबाद में प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की स्मृति में एक संगोष्ठी
आयोजित की। बड़ी संगोष्ठी थी, बड़े-बड़े लोग आए थे। तीन दिन की थका देने वाली
गतिविधियाँ थीं। उसमें पीछे छिपकर चुपके-चुपके सब काम करते रहे। मैं भी गुपचुप
उन्हें ’ऑबज़र्व’करता रहा। फिर ’पूर्णकुंभ’ (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा – आंध्र की मासिक पत्रिका। का रवींद्रनाथ
श्रीवास्तव स्मृति अंक निकालने की योजना बनी। उनसे जम कर काम लिया और कहा कि आपका
नाम सहायक संपादक के रूप में जाएगा। अभिभूत हो गए। फिर संयोग कि ’पूर्णकुंभ’ का
संपादन मेरे जिम्मे आ गया। पाँच-छह साल हम दोनों ने मिलकर उसके लिए काम किया।
कितने ही विशेषांक निकाले। हर अंक को जानदार बनाया। सच कहूँ, मैं तो निमित्त मात्र था। सारी मेहनत उनकी होती
थी। यहाँ तक कि ’संपादकीय’ लिखने के
लिए भी वे मेरे पीछे पठान की तरह पड़े रहते थे। कभी-कभी तो मुझे खाली देखते ही
कागज़-क़लम लेकर हाज़िर हो जाते कि सर, लिखा दीजिए, प्रेस में जाना है। इसी तरह पीछे पड़-पड़ के
उन्होंने मुझसे बहुत कुछ लिखवा लिया है। इस मामले में कई बार वे मेरे ’गणेश’ भी बने
हैं। इसके लिए मेरा रोम-रोम उन्हें असीसता है।
हम दोनों ने कई अकादमिक कार्य साथ-साथ किए हैं। अनुवाद संगोष्ठी का आयोजन और
उससे संबंधित तीन क़िताबों की तैयारी। श्री मुनींद्र जी के अभिनंदन-ग्रंथ का
संपादन। अपने संस्थान और नगरद्वय की अनेक गोष्ठियों – कार्यशालाओं की योजना और उनमें धमाकेदार
शिरक़त। तथा संस्थान के पत्रकारिता डिप्लोमा पाठ्यक्रम को बनाने से लेकर चलाने -
सँवारने तक का काम। जानता हूँ कि मेरे हैदराबाद से धारवाड़ जाने का जितना क्लेश
उन्हें हुआ, शायद ही
किसी को हुआ हो।
ऋषभदेव जी का मेरे साथ सांसारिक संबंध ही नहीं है, वे मेरी अकादमिक-आत्मा का भी एक हिस्सा हैं; और जीवन के अंत तक रहेंगे। लिखते अच्छा हैं, बोलते उससे भी अच्छा हैं। उनकी आवाज़ में
आवेश-जनित खनक होती है। मंच-संचालन भी वे बड़ी तन्यता के साथ करते हैं। कहा जाए, ढीली-ढाली सभा में भी उनका संयोजन जान डाल देता
है। हम सब उनकी इस ताक़त को भकुआए ताकते रह जाते हैं। वे अध्यापक, कवि और समीक्षक एक साथ हैं। अध्यापक वे कैसे
हैं, यह तो
उनके छात्रों से पूछिए। कवि वे संस्कारी हैं। और समीक्षक गंभीर। इन तीनों ही रूपों
में उनकी धाक है। पर उनका सबसे उज्ज्वल गुण मुझे लगता है – नया सीखने और नया करने की उनकी अदम्य इच्छा।
नया लिखने, नए
विषयों पर शोध कराने का जब भी कोई काम उन्हें सौंपा, उन्होंने करके दिखाया, और अच्छा करके दिखाया। निरर्थक गप्पें मारने तो
वे कभी घर पर भी नहीं आए। जब आए,कुछ
सीखने, कुछ करने, कुछ पढ़ने-लिखने। लगन के साथ काम करने की
दीवानगी ने ही शायद हम दोनों के बीच ’ट्यूेनिंग’ बना दी थी। मेरे हैदरबाद से धारवाड़ जाने पर
उनकी कमी मुझे बेतरह खलती रही – जैसे दाहिना हाथ कट गया हो। उनके और अपने
रिश्तों पर कितना लिखूँ, क्या
क्या लिखूँ – कहि न जाय का कहिए।
उनकी कविताएँ मंच से कई बार सुनी हैं। तड़प कर सुनाते हैं। एक-एक शब्द स्पष्ट।
उनका उच्चारण बहुत साफ़ है। बोलते समय ध्वनि-लोप भी नहीं होता। औपचारिकता की हद तक
वे भाषा को परिष्कृत कर देते हैं। यहाँ तक कि बातचीत भी वे बातचीत के लहज़े में
नहीं कर पाते, भाषा का
साहित्यिक रूप वहाँ भी सिर चढ़ा रहता है। उनकी यह ’अदा’ मुझे थोड़ी अटपटी भी लगती है पर – जासे जो सध जाय। ’पूर्णकुंभ’ में ’ताकि सनद
रहे’’शीर्षक के अंतर्गत हर माह वे अपनी एक कविता
देते थे। उन्हें संगृहीत कर ’ताकि सनद
रहे’ (2002) शीर्षक
से ही पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है। पूरी पांडुलिपि मैंने देखी थी।
प्रसन्नतापूर्वक ’भूमिका’ भी लिखकर
दी थी।
:: 2 ::
यहाँ पर पहले ‘तेवरी’ (देवराज
: ऋषभ : 1982 ई.) और ’तरकश’ (ऋषभ : 1996 ई.) में छपी उनकी तेवरियों पर बात करूँगा। तेवरी की घोषणा में तेवर वाली
कविताओं की जो विशेषताएँ गिनाई गई हैं उन्हें मैं कथ्य और भाषा दो स्तरों पर
पाठकों की सुविधा के लिए बाँट देता हूँ। कथ्य के स्तर पर यह कहा गया है कि
अंसतोषजन्य आक्रोश इसका मुख्य भाव है, रचनात्मक क्रांति इसका लक्ष्य है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश इसकी भावभूमि है, दुरभिसंधियों का पर्दाफ़ाश करना इसकी मंशा है
और जागृति प्राप्तव्य है। भाषा के स्तर पर इस घोषणा में शैली और शिल्प दोनों पर
विचार हैं कि – संप्रेषणीयता इसका मूल धर्म है, ऐसी भाषा जो पाठक की स्मृति में स्थापित हो सके, जो अभिजात प्रवृत्ति से मुक्त हो, जो आम आदमी के मनोभावों से जुड़े, अभिव्यक्ति’अक्खड़’ हो अर्थात् साफ़-साफ़ बेलाग बात कही जाए, भाषा ग़ैर-सांप्रदायिक, सार्वजनीन और समर्थ हो जो समाज के प्रत्येक
स्तर पर संवाद स्थापित कर सके, भाषा के उस रूप को विकसित करना जो सामान्य
संपर्क की भाषा होगी। इस भाषा को पाने का तरीक़ा होगा भीड़ के बीच से शब्द उठाना
और अभिप्रेत होगा; (श्रोता/पाठक के) मस्तिष्क में उसे बो देना।
इस घोषणा में कथ्य और रूप को समान महत्व देने वाली बात मार्के की है। और इससे
भी ज़्यादा समझदारी की बात है इन दोनों को पाठक से सीधे जोड़े रखने की चाहत। अन्यथ
इन दोनों को अलग-अलग देखने और बहसने वालों की कमी कभी नहीं रही है। रामचंद्र शुक्ल
का यह कथन इस प्रकार की अलगाववादी मनोवृत्ति वालों पर ज़ोरदार टिप्पणी है – “वे समझते हैं कि विचारों का कर्ता एक पुरुष हो सकता है और वाणी या भाषा का
दूसरा। ... सो ’विचार’ और ’शब्द’ किसी-किसी
की समझ में दो पृथक वस्तुएँ हैं। भाषा के लोकसिद्ध, बेलाग और संवादी होने वाली बात भी कम
महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि व्यापकता की दृष्टि से बोलचाल की भाषा में कविता लिखना
विशेष उपयोगी है। (मैथिलीशरण गुप्त)।“ ऋषभदेव जी की इन तेवरियों की भाषा नपी-तुली है।
उनके विचार भी पारदर्शी हैं और भाषा भी। हिंदी की कविताओं में अक्सर यह दीखता है
कि विचारों में धुँधलापन व्याप्त होता है जिसकी छाया भाषा में भी दिखाई देने लगती
है और कविता आम पाठक की समझ से बाहर हो जाती है। ॠषभदेव जी संप्रेषणीयता को अगर
कविता का मूल धर्म मानते हैं तो अपने लेखन में इसका निर्वाह भी करते हैं – इसे निबाहने में कई जगह सपाटता भी आ गई है या
बेतरह बात का बतंगड़ बनाने की प्रवृत्ति भी। पर अधिकतर उनकी ये रचनाएँ समय के
अनुरूप हैं और उनके शब्द भावों के अनुरूप। यही गुण उनके काव्य-संसार को निराला की
त्रि-आयामी कसौटी पर खरा सिद्ध करता है : (आदर्श कविता वह है) जिसमें कविता का
स्वाभाविक प्रवाह, कल्पना
की उन्मुक्त गति और स्वतः स्फूर्त भाव गुंथे हुए हों।
’घोषणा’ के
अनुसार ही इस पाठ की समीक्षा की जाए तो ऋषभ जी के लिखने की तर्ज़ (स्टाइल), भाषा-प्रयोग में उनकी स्वच्छंदता तथा उनकी
कल्पनाशक्ति (इमेजिनेशन) की परख की जा सकती है। और उनकी वैचारिकता भी जाँची जा
सकती है जिसमें टुच्ची राननीति, धर्मांधता, सांप्रदायिकता और अपसंस्कृति; अर्थात् क्रूर व्यवस्था के विरुद्ध गुस्सा भी
है और भविष्य के लिए उम्मीद भी। प्रतिरोध, इन तेवरियों के मूल में है। और हमारा समय इनमें
मुहरबंद है – जब भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र को लेकर घोर संकीर्णतावाद और सनक उभार
पर है। हिंसा का वर्चस्व है। सब ओर हत्याएँ हैं।... खाते-पीते संसार में असहमति
अपराध है (परमानंद श्रीवास्तव)। अपने विचारों को स्वर देने में ऋषभ की कविताएँ यह
सुखद एहसास कराती हैं कि यहाँ लिखी भाषा और बोली जाने वाली भाषा का अंतर कम से कम
है। तभी तो संप्रेषणीयता के मूल धर्म का निर्वाह वे कर पाते हैं।
संप्रेषण, भाषा का
मूल दायित्व है। ऋषभ ने आम आदमी से संप्रेषण-सूत्र बनाने की ठानी है। हिरनी की
आँखों में प्रतिशोधी ज्वाला है, आदमी की बौनसाई पीढ़ियों को/रोज़ गमलों में
उगाया जा रहा है, हो गया
पत्थर निवाला देख लो, मैं
पंक्ति में पीछे खड़ा विराम की तरह, बोझ कितने ही गधों का ढो गया मेरा शहर, एक दूसरे की तरफ़ भौंक रहे हैं लोग, मिमियाना छोड़ो तुम शेर हो गुर्राओ, जैसी पंक्तियाँ स्वतः संप्रेषणीय हैं – इनका टोन (तेवर) आम आदमी की सोच से संबद्ध है।
सबसे ख़ास बात है शब्दों का संयोजन – एक तरह का शरारतपूर्ण सहसंयोजन (लक्ष्मीकांत
वर्मा) भी, जिसके
पीछे से व्यंग्य भी झाँकता है। ऋषभ के इस पूरे पाठ में वाग्वैदग्ध्य (विट), वक्रोक्ति (आयरनी) और व्यंग्य (सटायर) का फिंटा
भाषारूप बनता-रचता रहता है। उनके शरारतपूर्ण सहसंयोजन में मात्र आक्रामकता नहीं है, उन्होंने अपने व्यंग्य को नया सामाजिक आशय भी
दिया है इसीलिए वह गंभीर है और उसमें जीवित भाषा की गरमाई (परमानंद श्रीवास्तव) भी
है। इस व्यापक संप्रेषणीयता की सिद्धि की पहली शर्त है कि (काव्य-कथन) पाठक की
स्मृति में स्थापित हो और कविता अपनी ज़मीन से जुड़ी हुई हो। ऐसा तभी संभव है जब
पाठ का ढाँचा सादगी में पगा हो और उसकी जड़ें यथार्थ में हों। काँख में खाते दबाये
आ गया मौसम, आग लगाकर
हाथ सेंकने लड़वाने में माहिर हूँ, तेरी क़लम क़लम नहीं युग की ज़बान है,यह क़लम है खुरपी नहीं/छीलना घास बंद करो, आँखों में आँज दिया कुर्सी ने धुँआ-धुँआ, राजनीति के धनुष से संप्रदाय के तीर, कुर्सी की शतरंज में हत्यारी गोट – जैसी पंक्तियाँ ज़बान पर चढ़ जाती हैं – काँख में दबाना, हाथ सेंकना, समय की ज़बान होना, घास छीलना, आँज देना, राजनीति का धनुष, संप्रदाय के तीर, कुर्सी की शतरंज,हत्यारी
गोट जैसी अभिव्यक्तिया ज़मीनी हैं। कविता को सीधे जनता के बीच ले जाने के लिए लोक
संवेदना की पहचान और उस पर गहरी पकड़ ज़रूरी है। ये दोनों क्षमताएँ ऋषभ में हैं।
(उन्होंने) जनभाषा और साहित्यिक भाषा का भेद मिटा दिया है (परमानंद श्रीवास्तव)।
तेवरी की भाषा अभिजात प्रवृत्ति से मुक्त हो और आम आदमी के मनोभावों से जुड़े, ये दोनों शर्तें लोकानुभूति और जन-साधारण से
जुड़ाव के माध्यम से ही पूरी हो सकती हैं – जाति पूछ कर बँट रही लोकतंत्र की खीर, क्या पता था खेल ऐसे खेलने होंगे/रक्त-आँसू
गूँथ पापड़ बेलने होंगे, बाज़ों
के मुँह ख़ून लगा है/ रोज़ कबूतर ये मारेंगे, जूझने का जुल्म से संकल्प दे/आज ऐसी पाठशाला
लाइए, उन सबको
नंगा करो जिनके मन में खोट, आ गई
हाँका लगाने की घड़ी/क्यों अभी तक तू खड़ा खामोश है। ये पंक्तियाँ अपने समय के
रू-ब-रू हैं। यह जान लें कि रचना एक समय-यात्रा भी है, पर संवेदन-स्तर पर (प्रेमशंकर)। ऋषभ जी के पाठ
में संवेदन का यह स्तर लोक-संवेदना (मिथ) से भी लबरेज है। ये मिथक घोषणा के अन्य
पक्षों को भी पूरा करते हैं – अभिजात से मुक्त, आम आदमी के मनोभाव और अपनी ज़मीन से जुड़ी
संवेदना मिथकीय संरचना में ढलकर सम्प्रेषणीयता और स्मरणीयता वाले लक्ष्य को भी
बख़ूबी साधती है – एक ओर ऋषभ के पाठ में पौराणिक मिथक हैं जो आज
लोगों की रग-रग में बसे हैं – कई प्रह्लाद लेंगे आग हाथों पर, रावणों की वाटिका में भूमिजा सीता, राहू चला गुलेल, रावण की नगरी बना आज राम का देश, अश्वमेध वालों से कह दो/अबकी तो लगकुश आये हैं, देव तक्षकों के रक्षक हैं, जनमेजय ने एक बार फिर नागयज्ञ की ठानी है, चीर दी फिर किस जनक ने भूमि की छाती, वोटों का भस्मासुर पीछे पड़ा हुआ है, भीष्म-द्रोणाचार्य सारे रोटियों पर बिक
रहे/अर्जुनों का मोह टूटे एक ऐसा युद्ध हो। दूसरे कुछ मिथक लोककथा के रास्ते से भी
आए हैं, ये लोक
कथाएँ जो दादी-नानी की कहानी के रूप में लोक को घुट्टी में मिलती चली आ रही हैं –क्रूर भेड़िए छिपकर बैठे नानी की पोशाकों में, न्याय को बंधक बनाकर बंदरों का/ वे मिटायेंगे
लड़ाई बिल्लियों की। कुछ मिथक इतिहास और साहित्य से भी संबद्ध हैं – मत जयचंदों को दोरंगा होने दो/मेरा शहर गया
होरी/खुरपी ले आए धनिया/जग जाएँ गोबर – झुनियाँ/’खुसरो’ कैसे घर जाएगा रैन हुई चहुँ देश।
अक्खड़ अभिव्यक्ति या बेलाग कहने और कथा-संवाद स्थापित करने वाली भाषा के अनेक
उपरूप (सब फ़ार्म्स) इस पाठ में मिलते हैं। यहाँ भावों की भिड़ंत (मैथिलीशरण
गुप्त) भी दर्शनीय है और सीधा-सादा दृढ़ बयान (परमानंद श्रीवास्तव) भी, दोनों मिलकर ऋषभ की रचनाशीलता को घनीभूत करते
हैं। भावों की टकराहट और बयानों की सुदृढ़ता की वजह से ही कई भावों, अनुभूतियों और विचारों का ही नहीं, बिंबों-प्रतीकों का भी दुहराव है इस पाठ में।
अक्खड़ता और साफ़-साफ़ बेलाग बात कहने के संदर्भ में इस दुहराव को देखें –
1) बौनी जनता, उँची कुर्सी; एक ऊँचा तख़्त जिस पर भेड़िया आसीन है।
2) देव तक्षकों के रक्षक हैं; मत तक्षक को ऐसे उन्मुक्त विचरने दो।
3) केंचुओं की भीड़ आँगन में बढ़ी/आदमी अब रीढ़
वाला लाइए;मैंने कहा कि हे प्रभो! मैं केंचुआ बनूँ/बदले
में सीधी रीढ़ की मुझको सज़ा मिली।
4) श्वेत टोपियाँ पहनकर उगल रहे है रोग;/टोपियों के हर महल के द्वार छोटे हैं;/टोपीवाले
नटवर नागर! मेरे तुम्हें प्रणाम;/टोपी
वाले बाँट रहे हैं मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे;/कुर्ते
का टोपी का कोई विश्वास नहीं।
5) सूर्य की किरणें चलीं लावा बहाने के लिए;जम गया है मोम सारी देह में/गर्म फौलादी निवाला लाइए; जब नसों में पीढ़ियों की हिम समाता है/शब्द ऐसे
ही समय तो काम आता है, सूर्य
उगा है अब पिघलेगा शहर तुम्हारा।
यही दुहराव संवाद स्थापित करने में भी प्रकट है पर एक अलग तरह से। श्रोता/पाठक
को अपने सामने खड़ा करके, उन्हें
सम्मिलित करके ऋषभ ने इस पाठ को गुफ़्तगू बनाया है। आइए साहब, मित्रवर, भैया, भैया जी जैसे संबोधन पाठक के लिए हैं और ये
पंक्तियाँ –
मित्र! श्वेत टोपी वालों की स्याही में डूबा मन है, टोपियों का चूर कर दें राजमद, बुझे हुए चूल्हों की तुमको फिर से आँच जलानी
होगी, फिर
क़यामत आज बनकर छाइए साहब, रोटी के
हक़ की ख़ातिर तलवार उठाओ रे,तलघरों
की क़ैद को तोड़ें चलो, जो फसल
में ज़हर भरती उस हवा को चीर डालो।
यहाँ पाठ-विमर्श की दृष्टि से कुछ बातें ख़ास हैं। एक तो यह कि इन तेवरियों की
विषयवस्तु राजनैतिक छल, सांप्रदायिकता और सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन से
उपजी छटपटाहट है। और इन सबके पीछे यह यथार्थ कि राजनीति लुच्चे-लफंगों का अंतिम
आश्रय बन गई है (प्रेमशंकर)। दूसरे यह कि ये विचार इस पाठ में ख़ून की तरह दौड़ते
हैं। तीसरे यह कि इनका प्राप्तव्य है जागृति – बस समाज पर एक भयानक चुप्पी छाई है (रघुवीर
सहाय) की हालत में कुछ सार्थक बचा लेने की कोशिश (परमानंद श्रीवास्तव) है यह पाठ, जिसमें कविता का ताप भी है गहन मानवीय संवेदना
भी। निश्चित ही इस चुप्पी को तोड़ने, जागने-जगाने, कुछ सार्थक बचा पाने के लिए ज़रूरी है ऐसी भाषा
का चयन जिसके शब्द भीड़ के बीच से उठाए गए हों और जिनका गहरा प्रभाव जनमानस पर
पड़े (मस्तिष्क में उसे बो देना)। ’जागृति’ के आद्य-प्रारूप (आर्कीटाइप) के रूप में ऋषभ ने
सूर्य,किरण, धूप, दोपहरी, प्रकाश, रोशनी, रोशनदान को चुना है और इनके माध्यम से अनेक
अर्थच्छटाएँ बिखेरी हैं जिनका संबंध सत्य की प्रतिष्ठा, मानव-जीवन और सामाजिक विद्रूपताओं से है – अँधियारे युद्धों में किरणों का मर खपना, रोज़ धूप का क़त्ल हो रहा, दोपहरी इनकी रखेल है/अपने तो साथी साये हैं, रोशनी का इक दुशाला लाइए, बालियों पर अब उगेंगे धूप के अक्षर/सूर्य का
अंकुर धरा में कुलबुलाता है, खिल जाय धूप गाँव में हो जाय सवेरा, उग रहा सूरज अँधेरा चीर कर फिर से, मैं सूरज को खोज रहा था संविधान की पुस्तक में/
मेरा बेटा बोला-पापा, रोशनदान
ज़रूरी है।
यहाँ ताप भी है, ललकार भी
और क्षीण ही सही, आशा की
एक किरण भी। ऋषभ का पाठ कहीं-कहीं बड़बोला भी लग सकता है पर यह घुमावदार नहीं है।
वह बोलना चाहता है, दुरभिसंधियों
का पर्दाफ़ाश करना चाहता है और अ-व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश दर्ज़ करना चाहता
है – मैं बोलना चाहता हूँ/वो मेरी ज़बान पकड़ लेताहै
: इस तरह मत बोलो/ मैं उँगली दिखाता हूँ कि उधर देखो/उधर ग़लत हो रहा है/वह रोकता
है कि उँगली मत दिखाओ/यह ख़तरनाक है (राजेश जोशी : मैं बोलना चाहता हूँ)। ऋषभ अपनी
तरह से बोलते हैं, लोकभाषा
का सहारा लेकर; लोकभाषा
की यह ठसक और स्पष्टोक्ति उनकी पंक्ति-पंक्ति में प्रवाहित है – शीश अपने आग धरती (धरना-रखना – क्रिया एकाधिक जगहों पर प्रयुक्त है), मेह बरसो रे, साँझ परती, छाँह बरगदी, भोर से अंटा चढ़ा कर सो गया मेरा शहर, बहुत मरखनी हो गयी डालो इसे नकेल, उनके पास न कानी कौड़ी फूटा नहीं छदाम, हर कोई बावन गज़ का, पानी उतर चुका सबका, भूख में होता भजन यारो नहीं, कब्र में पाँव लटके हैं कंठ में प्राण हैं अटके, क्या उत्ती के पाथोगे, ऐसी होली खेलियो खींच मुखौटे यार, घर में आग लगाय जमालो, गाल बजाये जाते हैं – जैसी ख़ास देसी रहेटरिक्स, मुहावरों और लोकोक्तियों से बिंधी ये
अभिव्यक्तियाँ घोषणा के एकाधिक बिंदुओं के सफल निर्वाह का स्वतः साक्ष्य हैं।
ऋषभ अपनी बात चाहे जैसे कहें सोचते जनहित की हैं – अबकी अगर घर लौटा तो/हताहत नहीं/सबके हिताहित
को सोचता/पूर्णतर लौटूँगा (कुंवर नारायण)। ऋषभ का कविता-पाठ सामाजिक अनुभव के
प्रति हमें सचेत करता है। उनकी बातों में सार है। उनकी अभिव्यंजना कई स्थलों पर
हृदय को हिला देती है। उनका पाठ केवल प्रचार, घोषणा और वक्तव्य नहीं है, वे खुद भी इसमें गहरे रमे हैं – तभी उनका स्वर अलग-सा है – तल्ख़,व्यंग्यभरा, सीधा और तीक्ष्ण। ऋषभ जी की कविता के लिए डॉ.
प्रेमशंकर के शब्द उधार ले रहा हूँ जो उन्होंने नागार्जुन की कविता पर विचार करते
हुए लिखे हैं, ऋषभ के
पाठ के संदर्भ में भी ये सोलह आने सही उतरते हैं : ‘’वे एक निश्छल मन की सहज भावुक अभिव्यक्तियाँ हैं जिन्हें बिना किसी लागलपेट के
रख दिया गया है। वहाँ आक्रोश प्रधान है। ... उसका मुख्य आशय अपनी बात जनता तक
पहुँचाना है, कबीरी
ढंग से।‘’
:: 3 ::
अब बात करें उनके तीसरे कविता संग्रह ’ताकि सनद
रहे’ (ऋषभ : २००२) की।
सामयिक घटनाओं को पैनी अभिव्यंजना में बाँधकर एक दस्तावेजी संदर्भ देने की
कोशिश है ’ताकि सनद रहे’। तात्कालिकता की क्षणभंगुरता के खतरे से इन
कविताओं को साफ़ बचाते हुए कवि ऋषभ देव शर्मा ने इनमें भविष्य के अनगिन सपने भर
दिए हैं। चुनौती, साहस, संघर्ष और चेतावनी के भावों में पिरोया इस
संग्रह का हर मनका अपने में अनूठा है, आबदार है जिसे पैदा करने के लिए भाषा और शिल्प
के मँजाव की जिस प्रक्रिया को अपनाया गया है वह कवि के सच्चे और साझे अनुभव की
तस्वीर है। कविताओं में मिथकीय धरातल भी
यहाँ खूब उभरे हैं। कृष्ण-अर्जुन, दुष्यंत-शकुंतला, नल-दमयंती, कामधेनु, कल्पतरु, प्रह्लाद-होलिका, रावण और नचिकेता एक संसार रचते हैं यहाँ। दंगे, नारी राजनीति और कारगिल जैसे बहुलिखित विषय भी
इस संग्रह की कविताओं में वस्तु/काव्य बोध की दृष्टि से टटके लगते हैं। भाषा का तो अचरजकारी प्रयोग है।
हिंदी भाषा की बहुस्रोतीय संभावनाओं को कवि ने खन डाला है – फिर बोए हैं अपनी अनुभूतियों के बीज और पोस-पोस
कर उगाई हैं कविताएँ। शैली-शिल्प अध्ययन के लिए, मैं समझता हूँ, सभी कविताओं में अकूत संभावनाएँ हैं। सही मायनों में ये कविताएँ हैं
क्योंकि न तो ये झंडाबरदारी करती हैं और न ही विद्रोह, क्रांति या कुंठा का छद्मे ओढ़ कर किसी ख़ास
पाँत में बैठने को आतुर दीखती हैं। सही, सजग और
सन्नद्ध कविता का माकूल ख़ाका है – ’ताकि सनद
रहे’।
सामाजिक सत्य से भरेपूरे इस काव्य संग्रह को पढ़कर आपको ज़रूर लगेगा कि केवल
विचारधारा या ’इमोशंस’ही कविता को कविता नहीं बनाते; कविता बनती है – भाषा, शैली और पद के ठेठपन से, ठोस अनुभवों से।
आधुनिकताबोध की सरमायेदार बनी ज़्यादातर हिंदी कविताओं में आज लोक और संस्कृति
से जुड़ाव कम हो गया है। कड़वाहट और आक्रोश ने कविता के ऊपरी स्वर को तो तीखा
बनाया है, लेकिन
कविता बनने का सुख इनसे छिन गया है। यही वजह कविता के जनमानस से दूर होते जाने की
भी है। जब हम कवि-रूप में अपने को आम आदमी से ऊपर उठा हुआ मानकर गर्वीले दर्प के
साथ और भाषा के ऐसे छलावे भरे रूप में बात करेंगे जिससे जमीनी रिश्ता ही नहीं हो, तो ऐसी कोई भी कृति आस्वाद और टीस दोनों पैदा
नहीं कर सकती। इस लिहाज से ’ताकि सनद रहे’ की
कविताओं में संभावना दिखाई देती है।
एक तो कवि ने आज के माहौल की सारी विसंगतियों को परखा है और इसके संदर्भों को
भारतीय पुराणैतिहासिक कथाओं से संबद्ध करने का अच्छा प्रयास किया है। ऐसा करने से
काव्यार्थ की दिशाएँ भी फैली हैं और पाठक के लिए उनकी पकड़ भी आसान हुई है।
दूसरी बात यह कि इन कविताओं े विषय सीधे हमारे आसपास की घटनाओं से लिए गए हैं
या हमारी बहुत जानी-बूझी समस्याओं से उठाए गए हैं। इनकी ज्वलंतता में कोई संदेह
नहीं है, लेकिन
इन्हें अनदेखा करने,इनके प्रति उदासीन रहने की प्रवृत्ति पर चोट
करने के कारण भी इन कविताओं का महत्व बढ़ जाता है।
तीसरी बात यह कि किसी भी रचना के लिए पठनीयता का होना, और सिर्फ़ पठनीयता का ही नहीं, संप्रेषण और प्रवाह की निरंतरता का होना बहुत
ज़रूरी है जिसके लिए भाषा के सधाव और शैलीय वृत्तियों के कलात्मक उपयोग से कवि को
दो चार होना पड़ता है। इन कविताओं में हिन्दी भाषा की व्यापक अभिव्यक्ति क्षमता को
कुशलता के साथ इस्तेमाल करने का भाव दिखाई देता है जो और भी मँजकर अधिक अच्छे
परिणाम दे सकता है।
ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ छंदमुक्त होते हुए भी लय की निरंतरता से बँधी हुई
हैं। गति के साथ भावों-प्रतिभावों का उन्नयन प्रभावशाली बन पड़ा है। कविता और
गद्यभाषा के बीच का संतुलन भी अपेक्षित अनुभूतियों को संप्रेषित करनें में कई
जगहों पर सहायक बना है।
इन कविताओं की भावनापरक ऊर्जा कथनों में लिपटकर भी प्रकट हुई है और शाब्दिक
छवियों के संश्लिष्ट रचाव से भी। जहाँ एक भाव टूटकर स्थिर होना चाहता है, वहाँ ये दोनों ही प्रक्रियाएँ रंजक तत्व का काम
करती हैं। कथनों में मुहावरों का आलोक भी छिपकर झाँकता है जिनमें हिंदी-उर्दू
दोनों की साझा विरासत को सम्हाले रखा गया है। कफ़न धारण किए हैं, मूल्य जिनकी उँगलियों पर नाचते हैं, साजिशों में कैद है, कील हम जड़ने चले हैं,बो रहा है आग वह, चीख के
होठों पड़ा ताला, सत्य ने
खतरा उठाया, मौत से
पंजा भिड़ादें, कयामत
टूट पड़े तुम्हारे ऊपर, डुबकी
लगा गए तुम तो, चोर
नज़रों से तुम्हारी ओर देखा – जैसे कथन काव्यसंदर्भ या पूरी कविता की बुनावट
में अर्थ भर देते हैं।
इसी तरह इन कविताओं में कई ऐसी शाब्दिक छवियाँ भी उभरी हैं जहाँ दो नितांत
भिन्न जातियों के शब्दों का संयोजन विस्तृत भावभूमि को प्रकाशित कर देता है। ऐसे
प्रयोग अर्थ की छवियों को भी नया आयाम दे देते हैं। भावबद्धता का यह क्रम
काव्यशिल्प को भी प्रखर बनाता है जिसे कवि का भाषाकौशल मानना चाहिए। लाल जबड़े
कड़कड़ाती, कुर्सी
के कंठ हकलाए हुए हैं, लोभ के
पंजे पसारे, चले हम
धोने रंज मलाल, कुर्सियों
के कान में कलरव पड़ा, मैंने
किताबें पहन रखीं थीं, झूठ की
चादर लपेटे जल रही होली, वह
कामधेनु भी हुई परती-से जो शब्दछवियाँ बनती हैं, वे चित्रात्मक होने के साथ ही भाव के उद्रेक को
भी द्विगुणित कर देती हैं। अच्छी बात यह है कि इस तरह के काव्यभाषिक ढलाव में कवि
ने भाषा के लोकपक्ष की भी सुध ली है। ऐसा करने से भाव प्रखर हुए हैं और वह कहा जा
सका है जो आभिजात्य भाषा उतनी प्रभावी बनकर न कह पाती। क्यों बवाल उठाते हो, जनगण करें धमाल, भींज कर पाँखें, जब शून्य ताके, दूधों नहाई, पौध धान की, नाव काठ की, देह का बाना, जलाकर धर दिया, अपना नाम गोदने के लिए, बैर मत रोपो, बौरा उठे आम्रवन – यह बताते हैं कि लोक भाषा का सही जगह पर एक
कोने में किया गया प्रयोग भी पूरे संदर्भ को प्रकाशित कर देता है।
कविताओं के भाव सामयिक हैं और हार्दिक उद्वेग के साथ प्रकट हुए हैं। इसीलिए
भावोद्वेलन में सिमटे लघु भाव पुनरावृत्ति से प्रकट करने की जैसी दक्षता कवि ने
दिखलाई है, वह इस
बात का भी संकेत है कि एक बड़े भाव को किस तरह अभिव्यक्ति के टुकड़ों में बाँटकर
फिर से उन्हें संश्लिष्ट करके ’महाभाव’ में परिणत किया जाता है। इस प्रकार की कुछ
पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा :
यह बिंदु है बदलाव का
यह बिंदु है भटकाव का
यह बिंदु है बहकाव का
*****
और हमारा धर्म?
हमारा धर्म क्या है??
क्या ह हमारा धर्म????
***
छ्त गिरा दो
छीन लो छतरी,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को
उड़ा ले जाओ भले।
***
पहली बार छुआ-
महकती हुई धरती ने,
गमकती हुई हवा ने,
लहराते हुए पानी ने,
सहलाती हुई आग ने
और गाते हुए आकाश ने।
इन कविताओं में व्यंग्य, प्रहार, आक्रोश, तल्खी, क्रोध, जुगुप्सा के भाव अंतर्निहित हैं, लेकिन एक अंतर्धारा की तरह। सामाजिक सच्चाइयाँ
हैं जिनमें परिस्थितियों ने विसंगतियाँ भरी हैं, लेकिन इनके ऊपर भी ऐसा बहुत कुछ है जिससे बँधकर
कलुष को पार किया जा सकता है। ऐसे ही बदलाव की तलाश है ये कविताएँ, जो नारों में समाधान नहीं ढूँढतीं। ये मुड़ती
हैं जड़ों की ओर। ये परखती हैं अपने आदर्शों और मूल्यों को; और चेताती हैं भटकाव के उन रास्तों के प्रति
जिनका अस्तित्व ही खोखला है। इस पृष्ठभूमि में ’ताकि सनद
रहे’ की कुछ
पंक्तियाँ देकर अपनी बात कहूँगा :
आदमी तो
भूमि का बेटा,
भूमि पर वह लोटता,
धूलि में सनता,
निखरता धूप में है।
देह से झरता पसीना,
गंध बहती रोम कूपों से उमड़कर।
ये पंक्तियाँ मनुष्य के श्रम और उस श्रम से निर्मित पहचान को उकेरती हैं जहाँ
श्रम का संतोष ही आदमी को माथा उठाकर जीने की टेक देता है। व्यंग्य की दो
पंक्तियाँ यह जताती हैं कि राजा निर्दोष और प्रजा को दोषी माननेवाली रीति का भीतरी
सच क्या है, इस सच की
परख कवि ने प्रह्लाद के जरिये की है :
मुकुट तो गलती नहीं करता
केवल प्रजा दोषी रही है।
जो श्रम के भागी नहीं हैं और जो समस्त दोषों से भी मुक्त हैं, उन्हें भी कवि ने चेतावनी दी है कि वे ज़मीन पर
उतरें, सबके साथ
चलें :
जो चढ़े सिंहासनों पर
भूमि पर उतरें अभी,
हल धरें कांधे,
जो धरा जोते ’जनक’ वह,
वही शासक धरा का
वह धराधिप हो!
कहीं कहीं कविताओं में सामयिक संदर्भ भी प्रमुख बने हैं लेकिन यहाँ भी
स्पष्टता और परंपरा से जुड़ाव ने नई काव्यभंगिमा प्रस्तुत कर दी है।
’आपरेशन विजय’ के दो
संदर्भ हैं :
युद्ध है अभिशाप
लेकिन
भूमिजा की लाज का जब
हो रहा अब
अतिक्रमण है;
- युद्ध तो अनिवार्य है।
***
साधुवेशी रावणों ने
हरण सीता का किया है,
जाल फैलाया हिरण का,
वध जटयू का किया है।
ये कविताएँ सपनों और आदर्शों का भी अलग धरातल ढूँढती हैं जहाँ एक ओर सामाजिक
बोध की स्वीकृति है :
तुम समझने लगे थे अब
माँ और गुड़िया के फ़र्क को।
चाभी के खिलौने और
बाप का अंतर.......
तो दूसरी ओर भविष्य को कुछ दे जाने का संकल्प:
आज यह संकल्प लेकर
रोपता हूँ बीज तुममें,
कल्पतरु अब तुम उगाओ।
कहीं यहाँ ’नीम’ के बहाने
पिता की याद है और कहीं ’रंग’ के साथ सकल सृष्टि के सपनों की बात है।
यह देखकर अच्छा लगता है कि ये कविताएँ बिना किसी लागलपेट के खुद बोलती हैं और
बहुत साफ बोलती हैं। यह सफाई कुछ कविताओं की संबोध्यता से भी आँकी जा सकती है। कभी
पंक्तियाँ सीधे पाठक को संबोधित हैं :
हाथ में रथचक्र लेकर
व्यूह से लड़ने चले हो!
***
तुम न दुहराना कहीं
गाथा वही,
हो न जाए फिर कहीं
अहसास की हत्या!
इंद्र पर भी पाप यह भारी पड़ा।
***
सावधान! होशियार!
कोई अपने घर से बाहर न निकले,
कोई खिड़कियों से झाँकने की
ज़ुर्रत न करे!
***
गलतफहमी है आपको।
सिर्फ़ आधी आबादी नहीं हैं वे।
बाकी आधी दुनिया भी
छिपी है उनके गर्भ में।
वे घुस पड़ीं अगर संसद के भीतर
तो बदल जाएगा
तमाम अंकगणित आपका।
***
कुछ ऐसा करो
कि वे चीखें, चिल्लाएँ,
आपस में भिड़ जाएँ
और फिर
सुलह के लिए
हमारे पास आएँ।
कहीं कविता में अवस्थित पात्र को :
ओ छली दुष्यंत
तुमको तापसी का शाप।
***
घेरकर अभिमन्यु को
तुम मार सकते हो,
किंतु
अर्जुन के
’विजय अभियान’ का
बस एक प्रण है-
अब विजय है – या मरण है;
- युद्ध अब अनिवार्य है!
***
जूझ रहा था जिस समय पूरा देश
समूचे पौरुष के साथ
हर रात
हर दिन
नए नए मोर्चों पर;
बताओ तो सही
तब तुम कहाँ थे, दोस्त?
कहाँ थे?
***
पिता,
जबसे तुम गए हो
बहुत याद आता है
गाँव वाले अपने घर का
वह नीम
जो तुम्हारी उमर का था।
’ताकि सनद रहे’ कविता
में पूरे मनुष्य को देखने वाला संग्रह है। पूर्ण पुरुष की संभावना कहाँ होती है, लेकिन कमियों से लड़-जूझ कर ही नई दिशाएँ खुलती
हैं – ऋषभ की इन सभी कविताओं में मानवीयता का यह पक्ष
सर्वोपरि है; और जो
साहित्य मानव और मानवता की धुरी से ही छिटका हुआ हो उसे कविता मानने का मैं तो कोई
कारण नहीं देखता।
कवि में एक पाठक की तरह मुझे कई स्तरों पर भावप्रवणता दिखाई दी है। मैं आशा
करता हूँ कि भविष्य में यह कवि अपने इस भावबोध को सच्चे भारतीय बोध की नसैनी पर
चढ़ाने का प्रयत्न करेगा; और यह भी
कि इस पठनीय और रस बोध से युक्त काव्य का हिंदी का साहित्यप्रेमी समाज स्वागत
करेगा।
:: 4 ::
ऋषभ देव शर्मा के चौथे कविता संग्रह ‘देहरी’ (ऋषभ : 2011) में उनकी चर्चित ‘स्त्रीपक्षीय’ कविताएँ
प्रकाशित हैं.
संवेदना यदि कविता का उत्स है तो ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ संवेदनापरक
अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाएँगी. कुछ कविताओं में संवेदना की
स्मृतिजन्य उपस्थिति में भावुकता भी दिखलाई पड़ती है. यह ख़ास इसलिए है कि भावुकता
प्रकट करने वाली भाषिक अभिव्यंजना आज की कविता से क्रमशः दूर होती जा रही
है.
कहने को तो ये कविताएँ स्त्रीवादी कविताएँ हैं; और अपनी विषयवस्तु में हैं भी. लेकिन ये स्त्री
के इर्द गिर्द आकर ही ठहर नहीं गई हैं. इनमें पारिवारिक
संरचना के बदलते स्वरूप की परख है, सामाजिक ढाँचे और मूल्यों के विघटन की आवाज़
है. पुराकथाओं के जरिये पुरुष-स्त्री संबंधों की, और स्त्री की, यातनागाथा की अभिव्यक्ति जैसे घटक भी इस तरह
मिलाए हुए हैं कि इनमें स्त्री एक अलग इकाई की तरह नहीं बल्कि धुरी की तरह चित्रित
है गोकि उसकी शोषणक्रिया के अनुष्ठान कम ही बदल पाए हैं.
कविताएँ इन्हें बदलना चाहती हैं. जो कविताएँ स्त्री की ओर से प्रथमपुरुष में लिखी
गई हैं, उनमें
बदलाव की यह तड़प अधिक मुखर है.
स्त्री की अनेक छवियाँ इन कविताओं में उभरी हैं. आदिवासी से लेकर घर परिवार की, महानगरों की, गाँवों-कस्बों की स्त्रियों की - घुटन, भीतर भीतर पक रही अनपूरी चाहें जब उनकी ललकार
और चुनौती में बदलती हैं तो यह अलग-अलग कविताओं का संग्रह प्रबंध काव्य का गठन पाता सा
लगता है.
कवि ने अनुभूत ही लिखा है इसलिए हर कविता सच्ची है. झूठ इनमें इतना ही है जितना आए बिना कोई अच्छी
कविता बनती भी नहीं.
'देहरी' संग्रह
की कविताएँ देहरी के भीतर वाली स्त्री के अनेक रूपों का चित्र खींचती हैं और देहरी
के बाहर निकल सकने की उसकी इच्छाओं, और इसके
बावज़ूद नागपाश की तरह जो सामाजिक रूढ़ियाँ उसे जकड़े हुए हैं उन्हें तोड़ने की
जद्दोजहद, को दर्ज करती हैं. साथ ही, देहरी
के भीतर जाने और फिर बाहर न निकल पाने की एकतरफा आमद को इस संग्रह की कविताएँ
दृढ़ता से नकारती हैं.
- प्रो.
दिलीप सिंह
पूर्व कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण
भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास
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