मध्यांतर
प्रेमचंद्र जैन की कविताएँ
फासला
आत्मा-आर्मात्मा
है एक ही
बीच दोनों के बहुत कम फासला है
फासला उतना कि जितना
आदमी से और उसकी छाँव से ही
या समझ लो यों कि –
जितना चंद्रमा और ज्योत्सना में
या कहो उतना कि जितना
इक नदी के पार से उस पार में है
ज्ञान-दर्शन-चरित बाल की नाव से
फासला यदि दूर हो जाए
तभी
हर आत्मा, बहिरात्मा, परमात्मा है।
अवचेतन मन
चाँदनी रात में भी
उमस जैसी प्यास है
ताप-संताप –
विरह-विदग्ध भी नहीं हूँ मैं
हर इंसान
अपने मन की बात जानता है
अनजाने, अनचाहे में ही
मन बहुत उदास है
समाधान नहीं होता – तो
सोचते-सोचते
खीझ उठता हूँ अपने पर ही
नींद लेने का होता विफल प्रयास है
प्यास बराबर बढ़ती है
प्रत्यक्ष नहीं कारण कुछ
तो क्या माँ लूँ?
अवचेतन मन का यह –
शाप है।
मैं चलता हूँ एक अकेला
प्रदत्त
सम्मानित मनुज से –
डायरी के पृष्ठ खाली
भर रहे मन को
अतुल आमोद से।
मैं अकिंचन
कर सकूँ उपयोग – इनका
सत्य से
तथ्य से और
दिल के दर्द से इनको भरूँ
अभाव से सद्भाव के ये पृष्ठ पूरे हों
नमन करता हूँ तुम्हें
विश्राम दो।
एक और अवधारणा
पूरा किया
एक और अध्याय
जिसका था उसको सौंपकर
चेहरे के बाल धुलवाए
हँसे –
दूसरों की हंसी
पेट भरकर मिल गई
खो गए लेकर किसी की नींद : आधी रात खासे
तुम नहीं आए –
अच्छा किया
दूसरा बिस्तर नहीं था
इष्ट फल
जागते-सोते
सदा ‘शिव’ हो
तुम्हारा और –
सबका
साध्य –
साधन –
इष्ट फल।
ध्रुव पौरुष
‘अज्ञेय' व्यक्तित्व
ध्रुव पौरुष
वेदना-तप्त
यातना-पूत
दृष्टा
युग-निर्माता
‘अज्ञेय’ को
जानने के लिए –
जिज्ञासा;
खोजना पड़ेगा
वह धरातल पर नहीं
‘तल’ में मिलता है।
नौकरी
नौकरी की है
मालिक की दया पर –
जो काम लिया
अनथक किया
मालिक का काम
माह के अंत में
मांगने पर दाम –
मिल गए तो खुश
नहीं तो उदास
बीवी के पास
खाने का घास
जनतंत्र
नारा समाजवाद का
दूध : गए-बछेड़े का
वोट हिंदुस्तानी का
नहीं पड़ा जहाँ पड़ना था
और ..
वही हुआ जो होना था
जातिवाद, भाई-भतीजावाद
खंड-खंड बिखर गए
समय की करवट से
फिर पिसेगी जनता
सुबह तक नई कांग्रेस और बढ़ेगी सर्वत्र
जीत-हार, हार-जीत का जनतंत्र।
रे कलियुग के देव
रे कलियुग के देव!
तुम्हारा काम भेंट पाने का
मानवता की बलि लेना
पर-छीन स्वयं खाने का
मनु ने भी आँसू पोंछे
जब दी गई मानवता
पर देवोचित्त प्रतिभा से
कब झुकी नहीं दानवता
साहित्यिक बन गए तो छोड़ो –
नोक-झोंक की आदत
लाओ तलवार कलम की
हो चोट, बचो भी साफ
कितने तांडव हो चुके
प्रलय के कितने झोंके आए
कुछ ही खुशहालों ने मिल –
बेहद बेहाल बनाए
हम मनु की हैं संतान
सृजन से करते हैं कल्याण
बढ़ेगा या जो नहीं रुका है
इतिहास कहे –
संहार सृजन के आगे सदा झुका है।
मरी स्मृति का पटल
आज है कुंद
न लेता साँस
वाष्प से गला हुआ वरुद्ध
मौत की छाया लहराई
कल का साहस का विश्वास
मौन सब करते हैं उपहास
यह है जग देखी रीति
शक्ति के मीत सभी भाई
न धन की शक्ति
कर्म की –
मन की शक्ति है
इसी पर सोता-खाता हूँ
इसी को रोज बजाता हूँ
मुझे पर्वत की इच्छा नहीं
यह बस शेष रहे राई।
प्रेम
सारीरिक संबंधों के रिश्ते
टूट ही जाते हैं – एक दिन
भावनाओं से जुड़ा प्रेम
अटूट होता है
लेकिन –
यह तुम्हें दर्शन की बात लगती है
क्योंकि
तुम्हारे मिकत भावना निर्मूल है
यह मेरा नसीब है
जिसे बदलना असंभव जैसा है
व्यर्थ की मृगतृष्णा है
चूँकि मैं जिस मिट्टी से बना हूँ –
वह रेतीली कतई नहीं है
अपने स्तर को गिराने का अहसास
अब कई बार हो चुका है
होता ही रहता है – और
आज तो प्रतिक्षण-प्रतिपाल हो रहा है
क्या मैं अपने को क्षणा कर लूँ
अथवा
आत्मदाह!
मैं आदमी हूँ
मैं आदमी हूँ
खाने के लिए जीता हूँ
जीने के लिए खाता हूँ
कौन जाने?
एक साथ कितने जीवन जीता हूँ
सुनाने के लिए –
नहीं कह पाऊँगा अपनी बात
नौकरी करता हूँ
ऑफिस के नाम से नहीं
घर के नाम से डरता हूँ
मरने को है नौकरी
या
नौकरी के लिए मारना है
कौन जाने – एक साथ
इसीलिए कहता हूँ –
इन जानवर हूँ –
खटता हूँ
टेबलेट सुलाती है
चक्की जगाती है
भूख चलाती है
आबकी अपनी –
अपनी कहानी है।
अहसास
दूसरों की व्यथा के अहसास से -
निज मन का व्यथित हो जाना
अहेतुक द्वित होना भी;
शोषक की व्यथा भिन्न है और विकट भी;
इसी विकटता का, दो टूक उत्तर –
साहित्यकार का दायित्व है!
नियति
शिशु के मन सम मन मेरा
मुकरवत् हृद है
वज़्रांगलोह सम देह
कुटिलता कम है
सब कुछ झिलमिल हो जाता
दीपक लौ जब जलती है
पर अंधकार का मोह
पुनः डस लेता
यह और नहीं कुछ मित्र!
मात्र नियति है।
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