मानवता में आस्था के कवि डॉ. प्रेमचंद्र जैन
- डॉ. बी. बालाजी तथा शीला बालाजी
1.
डॉ. प्रेमचंद्र जैन के सम्मान में उनके शिष्यों की ओर से 2016 में ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’ शीर्षक से अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया गया था। इस ग्रंथ में जैन दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. प्रेमचंद्र जैन द्वारा सन 1963 से 2008 तक रचित 44 कविताएँ भी संकलित हैं। इन कविताओं में मनुष्य जीवन, समाज, देश की आर्थिक , राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थिति पर कवि प्रेमचंद्र जैन द्वारा अभिव्यक्त किए गए विभिन्न अनुभवों के शेड्स समेकित हैं।
“आत्मा-परमात्मा
हैं एक ही
बीच दोनों के बहुत कम फासला है
फासला उतना कि जितना
आदमी से और उसकी छाँव से है।” (फासला, निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, पृ.75)
इन पंक्तियों के लेखक हैं डॉ. प्रेमचंद्र जैन। डॉ. जैन का मत है कि आत्मा-परमात्मा अद्वैत हैं। कवि के पास भौतिक जगत में द्वैत रूप में दृष्टिगोचर होने वाले आत्मा-परमात्मा की एक रूपता को देखने की दृष्टि है। उन्होंने 1963 में लिखी अपनी कविता ‘फ़ासला’ में आत्मा-परमात्मा के बीच की दूरी मिटाने की युक्ति बताई है। वे कहते हैं – ‘ज्ञान-दर्शन-चरित बल की नाव से’ फासला दूर किया जा सकता है। डॉ. प्रेमचंद्र जैन उदार-उदात्त तथा त्रि-आयामी कवि व्यक्तित्व के धनी हैं। तभी तो वे लिख पाए – ‘हर आत्मा, बहिरात्मा, परमात्मा’ है। प्रायः हम आत्मा-परमात्मा की चर्चा सुनते हैं। वे बहिरात्मा की चर्चा भी करते हैं जिसके कारण आत्मा-परमात्मा के मिलन की स्थिति अवलंबित है। कवि इसकी सैद्धांतिकी हमारे सामने प्रस्तुत कर उसके माध्यम से ही परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उनकी कविताओं में मानवता को परिभाषित कर उसे व्यावहारिक बनाने की प्रक्रिया मिलती है। मानवता का लक्ष्य ही है सुख-शांति-प्रेम से जीवन यापन करना और अंततः परमात्मा में लीन हो जाना। इस परम सत्य की व्याख्या करती हैं डॉ. जैन की कविताएँ। विभिन्न शब्द चित्रों, बिंबों और प्रतीकों से कवि ने इस तथ्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। उनका कथन है कि ‘हर इंसान / अपने मन की बात जानता है’ (अवचेतन मन, वहीं, पृ. 76) पर समझने का प्रयास नहीं करता। वह समाधान न मिलता देखकर खुद पर, अपने आस-पास के लोगों पर खीझ उठता है। यह अनजाने और अनचाहे होता रहता है। जब वह अपने अवचेतन मन में हो रहे द्वंद्व को समझ लेता है तब चाँदनी रात में लगने वाली उमस की प्यास से होने वाले ताप-संताप तथा विरह-विदग्ध को समझने का विवेक भी विकसित कर लेता है।
कवि कहता है कि ईश्वर ने हमें तो डायरी के खाली पृष्ठ जैसा ही बनाया है। हम अकिंचन हैं जो नहीं जानते कि इन्हें कैसे भरना है। हम तो अभावों की रट लगाए रहते हैं। इन पृष्ठों का सदुपयोग सत्य, तथ्य और ईश्वर आराधना से भरने में करना चाहिए। तभी ये अतुल आमोद से भर जाएँगे। (मैं चलता हूँ एक अकेला, पृ. 77) हमें जो यह शरीर मिला है वह अपना नहीं है। जिसका है उसे सौंपने पर मन प्रसन्नता से भर जाता है। जागते-सोते सदा स्मरण रखना होगा कि यह तो शिव का है, उसे ही सौंपना पड़ेगा। (इष्ट फल, 79) शिव अज्ञेय है, उसे जानने के लिए जिज्ञासा का होना जरूरी है। वह धरातल पर नहीं बल्कि तल में बसा होता है। उसे तप-साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। मानव जीवन में यह तप साधना मानवता से ही संभव है। (ध्रुव पौरुष, 80) मानवता मानव का गुणधर्म है जिसके मूल तत्व हैं सत्य, अहिंसा, प्रेम, करूणा, दया, त्याग, शुद्धता, नैतिकता, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा। कवि ने मानव जाति के खुशहाल जीवन चक्र के लिए इन गुणों से परिपूर्ण मनुज की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
जीवन यापन के लिए अथक मेहनत करने पर भी मेहनताना नहीं मिलने से उदास होना स्वाभाविक ही है। ऐसी स्थिति में रोटी की जगह घास खाकर गुजारा करना पड़ता है। मेहनत करने वाले के हिस्से की कमाई स्वार्थी मालिक द्वारा नहीं दिया जाना मानवता के ह्रास होने का संकेत है। (नौकरी, वहीं, 81) निर्बल मनुष्य सबके मालिक के समक्ष गुहार लगाने के सिवाय और कर भी क्या सकता है। इसी ने ही तो हरे, नीले, पीले, सफेद, बैंगनी, गुलाबी और चितकबरे रंग के फूल बनाएँ हैं। ये फूल तरोताजा होने की स्थिति में मालिक पर चढ़ावे के रूप में समर्पित होकर अपना जीवन धन्य बनाते हैं या फिर झरकर खाद बन जाते हैं। यहाँ कवि ने ईश्वर पर समर्पित होने वाले फूल को निस्वार्थ मनुष्य के प्रतीक के रूप में अंकित किया है जबकि झरकर खाद बनने वाला फूल स्वार्थी मनुष्य का प्रतीक है। जिनका जीवन निर्थक अवश्य था किंतु वे भी खाद बनकर भविष्य के फूलों के जीवन को सार्थकता प्रदान कर सकते हैं। यही प्रकृति का शुभ संकेत हैं। कवि द्वारा अंकित दृश्य बिंब देखिए –
“नीले,पीले सफेद, बैंगनी और - / चितकबरे रंगों से सने / क्यारियों में लगे फूल / सब मालिक के लिए हैं-/ या फिर - / झरकर खाद बनते हैं / पीला रंग भी कोई रंग है / हरे नीले सभी व्यर्थ / मुझे खूनी गुलाब पसंद है / कोने में लगा - / वह देखो ( वह भी प्रकृति प्रदत्त है)” (गुदगुदी घास, वहीं, 82)
कवि का कहना है कि मनुजता जब जगत की स्वार्थपरकता की पहचान कर लेती है तो उसे भीड़ भरी भटकान नहीं सुहाती है। वह एकाकी रहना चाहती है। संन्यासी बन कर अपने भटकते पैरों को तटस्त कर खड़े होना चाहती है। जब उसे सही-गलत की पहचान हो जाती है तब वह भीड़ भरे पथ पर भी बिना किसी से टकराए आगे बढ़ने में सफल होती है। कवि ने अपने अनुभव के आधार पर कहा है कि इस संसार में सभी अकेले ही आते हैं और अकेले ही जाते हैं। इसीलिए अपने आस-पड़ौस व संबंधियों से अनजान बने रहना ही श्रेयस्कर है। (मैं संन्यासी, वहीं, 84-85)
2
कवि प्रेमचंद्र जैन ने महात्मा गाँधी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत का स्वतंत्र भारत में हो रहे दुरुपयोग पर व्यंग्य किया है। सारी दुनिया जहाँ महात्मा गाँधी के सिद्धांतों का आदर करती है वहीं उनके जन्मस्थली भारत में उनके सिद्धांतों को केवल भाषण तक सीमित कर दिया है, आचरण उनके सिद्धांतों के विपरीत ही होता है। रेल की पटरियाँ सरकार साधारण जनता के जीवन को संकट में डालना आसान काम हो गया है। ऐसे कार्यों पर कवि द्वारा किया गया कटाक्ष दृष्टव्य है –
“बापू! / नहीं समझे? / अरे! वहीं राष्ट्रपिता गांधी / जो अंधे हो गए हैं / उनको लाठी पकड़ा दी है - / वे पीछे-पीछे आ रहे हैं / जहाँ भी रुकना होता है / उन्हें खड़ा कर देता हूँ / स्वयं चीखता हूँ – / बापू की जय – महात्मा गांधी की जय / अहिंसा जिंदाबाद / नेहरु जिंदाबाद / हैं हैं हैं, हिः हिः हिः / हम अहिंसक हैं। ” (हम अहिंसक हैं, वहीं, 86)।
डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने महात्मा गांधी पर तीन कविताएँ लिखी हैं – बापू के नाम चिट्ठी -1, 2, 3 (पृ. 104, 106, 107)। इन कविताओं में कवि ने गांधी के नाम देश में हो रही राजनीति पर व्यंग्य किया है। गांधी का नाम अब केवल जनता से वोट प्राप्त कर सत्ता हासिल करने के काम आ रहा है। जनता भले ही अभावों से त्रस्त होकर त्राही-त्राही करती रहे, उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती है। गांधी के तीन बंदरों की शिक्षा का उपयोग नेतागण उपदेश देने के लिए करते हैं। कवि ने उनसे पुनः जन्म लेने का निवेदन किया है ताकि वे अपने सिद्धांतो को व्यवहार रूप दे सके। कवि को दुख होता है यह देखकर कि भारत के लोग गांधी की शिक्षा को केवल कागजों पर उतार कर रख लिए हैं जिसके कारण बौद्धिक विपन्नता बढ़ रही हैं।
विश्व के महान लोकतांत्रिक देश भारत के ‘गणतंत्र दिवस’ अर्थात 26 जनवरी को केंद्र में रखकर डॉ. जैन ने दो कविताएँ लिखी हैं - ओ छब्बीस जनवरी (1975) और इक्कतीसवाँ गणतंत्र दिवस (1981)।
संकलकर्ताओं ने डॉ. प्रेमचंद्र जैन द्वारा लिखित सभी कविताओं के लेखन की तिथि क्रम में दी है। किंतु यहाँ उनके द्वारा लिखित कविताओं के वर्ष महत्वपूर्ण इसलिए भी हैं कि कवि ने इन दो कविताओं में देश के इतिहास को अंकित किया है। देश की आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से हो रहे पतन को रेखांकित किया है। ये कविताएँ देश में बदलती परिस्थितियों की साक्षी बनी हैं। कवि ने 1975 में आपात काल व उसके दुष्परिणामों का अंकन कर उस समय चल रहे रिश्वतखोरी व कालाबाजारी को उद्घाटित किया है – “देखो! / अंधेरे में आना – चुपचाप ले जाना / दाम दूने दे जाना।/ गेहूँ-दाल-चावल दुकानों में नहीं / गोदामों में मिलने लगा/ कौवे विपक्षियों ने काँव-काँव की / फिर-भी - / अभावों की दुनियाँ बढ़ती गई / धन्य हो आज गणतंत्र / रक्षित है लोकतंत्र / अभाव सद्भाव बन गया है / बड़बड़ियों के मुख पर ताला है / बाहर आ गया धन काला है। (ओ छब्बीस जनवरी, वहीं, पृ. 93-94)”। अब तो देशवासियों को महँगाई की आदत हो गई है। वे इसका विरोध नहीं करते। विपक्षी भी अपने हिस्से की आमदनी मिलने तक विरोध का नाटक करते हैं। इन कविताओं के माध्यम से हमें पता चलता है कि जो स्थिती 1975 में थी उसमें 1981 तक आते-आते बढ़ोत्तरी ही हुई है। सरकार ने उस स्थिति को सुधारने के कोई प्रयास नहीं किए। कवि आशावान है। उसने गणतंत्र दिवस का स्वागत करते हुए कामना की है कि अगली बार जब गणतंत्र दिवस आए तब तक देश के इन हालातों में सुधार हो जाए – “हम तो देखते हैं – सब ओर / आफत ही आफत है / फिर भी राष्ट्रपर्व होने के नाते / इक्कतीसवें गणतंत्र दिवस! तेरा स्वागत है / एक बात और कहता हूँ - / अगले वर्ष तक और कष्ट सहता हूँ / तू अगली बार आना-जरूर आना / खुशी से आना, पर / कालाधन, चोर बाजारी, रिश्वत, महँगाई / और- / बलात्कारों की दुनियाँ को कहीं छोड़ आना। (इक्कतीसवाँ गणतंत्र दिवस, वहीं, पृ. 116-117)”
कवि ने अपनी कविताओं में सवाल उठाया है कि अत्याचारों के प्रति जनता मौन क्यों है? और यह रेखांकित किया है कि देश के हालात बद से बदतर होते जाने का मुख्य कारण जनता का मौन धारण ही है। संविधान ने भारतीय नागरिकों को ‘अभिव्यक्ति का अधिकार’ तो दिया है किंतु उसका हनन जब उसका अनुपालन करने वाली सरकार करे तो दंड का प्रावधान होते हुए भी उसे दंडित करने साहस न तो जनता दिखाती है और न न्यायपालिका ही कोई ठोस आदेश देती है – “जीभ कैद में / ओष्ठ सिले हैं / कान खुले– / पर / आँख बंद हैं।/ सुनकर समझ रहा हूँ- / सब कुछ / फिर भी बँधते नहीं / छंद हैं।” (जीभ कैद में, वहीं, पृ. 126)
देश का अन्नदाता आत्महत्या कर रहा है। कवि ने चेताया है कि अन्नदाता के बलिदान को हमें नहीं भूलना चाहिए। वह हर मौसमों के थपेड़े झेलकर देश की जनता के लिए कठिन परिश्रम करता है। उसका शोषण नहीं करना चाहिए - “ जो सबके लिए जान देता / उसको मत चूसो लोगों / तुम लूट-लूट घर भरते हो / वह आर्थिक नीति विधाता है।” (कृषक मेले के अवसर पर, वहीं, 101)। किसानों के शोषण के परिणामस्वरूप ही आज किसानी जल रही है। किसानों का देश होने की उपाधि धारण करने वाले भारत में किसानी कोई नहीं करना चाहता है। नवयुवकों का मानना है कि इस व्यवसाय में केवल परिश्रम है। इससे आमदनी नहीं होती है। इस विचारधारा में अब थोड़ा-सा परिवर्तन होता दिखाई दे रहा है। नवयुवक आधुनिक पद्धतियों व उपकरणों द्वारा खेती करने की ओर आकर्षित तो हो रहे हैं, किंतु अभी किसानी की समस्या का पूरी तरह से समाधान नहीं हो पाया है। कवि जैन ने किसानी को जलता देख शिक्षित वर्ग व साहित्याकारों से सवाल किया है कि वे कायर बन मौन क्यों हैं? उसे विश्वास है कि जब यह वर्ग सार्थक रूप से सक्रिय हो जाएगा तो देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान भी मिलने लगेंगे – “ दो दशक से गुम हुए तुम – कहाँ शायर? / शेर के जंगल में घुस गए कायर / कल नया रामावतार होगा / गीत होगा, ग़ज़ल होगी – आग होगी / आस है इक होगा फायर / कौन टिक पायेगा कायर।” (एक पाती मेरी भाती, वहीं, 133)।
कवि ने साहित्य और साहित्कार के दायित्व पर प्रकाशडाला है। उनका मानना है कि शोषित की व्यथा की विकटता को जनता के समक्ष प्रस्तुत करना साहित्यकार का दायित्व है। कवि ने साहित्यकारों का जनचेतना लाने का आह्वान करते हुए कहा है कि वे अपनी कुंठाओं को छोड़कर कृषकों और श्रमिकों की वेदना को स्वर दें – “कवि कलम बने तलवार; कहर बरपा दें जो मोहरे हैं।। / जनतंत्र में जनता त्रस्त; लुटेरे हर पग पर ठहरे हैं।।” (कवि छोड़ो, वहीं, पृ. 132)। साहित्य से समाज को मार्गदर्शन प्राप्त होता है। मानवता की सही शिक्षा साहित्य के माध्यम से दी जा सकती है। धर्म-जाति, ऊँच-नीच, हिंदू-मुसलमान आदि के भेद व बीच चलने वाले द्वंद्व तथा संघर्ष को साहित्य के द्वारा ही समूल नष्ट किया जा सकता है - “हम मनु की हैं संतान / सृजन से करते हैं कल्याण / बढ़ेगा क्या जो नहीं रुका है / इतिहास कहे- / संहार सृजन के आगे सदा झुका है।” (रे कलियुग के देव, वहीं, पृ. 89)
3
डॉ. प्रेमचंद्र जैन का कवि मन उत्सव धर्मी है। उन्होंने त्योहारों जैसे दिवाली, होली, ईद तथा नव वर्ष पर कविताएँ लिखी हैं जिसमें मानव समाज के उत्थान की बात कही है। धर्म व जाति के आधार पर होने वाले बँटवारे पर प्रहार किया है। समाज व देश हित के लिए सभी धर्मों को साथ मिलकर विचार करने की दिशा दिखलाई है। उनका कथन है कि देश के विभिन्न धर्म व जाति के लोगों में एकता की कमी के कारण ही देश का अहित हो रहा है। उसकी प्रगति में बाधाएँ आ रही हैं। कवि के अनुसार विभिन्न धर्मांवलंबियों की एकता पर राजनीति करने वाले यदि कुढ़ते हैं तो उन्हें कुढ़ता छोड़ आगे बढ़ना चाहिए – “हम मिलन की लें मशालें / बढ़ चलें... इस मिलन से जो कुढ़ें... कुढ़ते रहें।” (चश्म नम हैं मुफलिसों को देखकर, वहीं, पृ. 128)। एकता की नई मिसाल स्थापित करनी चाहिए। शिक्षा से अज्ञानता को मिटाया जा सकता है। शिक्षित व्यक्ति घर, समाज व देश में एकता की नींव डाल सकता है। इसीलिए उन्होंने प्रण करने के लिए कहा है कि – “तालीम ओ’ इल्म की शमा रोशन करेंगे हम / हर घर से जहालत को भगा के ही लेंगे दम।” मनुजता का परम लक्ष्य है मानव समाज का कल्याण। इसके लिए कलुष-भेद व द्वेष को दहन करना होगा। समरसता व लोक के कल्याण से ओत-प्रोत कवि की पंक्तियाँ देखिए -
हम जो भरमें तो भरमेगा सारा चमन / चलो आओ मनाएँ ये होली मिलन / दिल में बाकी न रह जाए कोई चुभन / रात ही हुआ होलिका का दहन। (रंग में सराबोर, वहीं, पृ. 124)
ईद के मिलकर मनाने का मज़ा कुछ और है / आओ हम भी मौज में झूमें न जिसका कोई छोर है। (चश्म नम हैं मुफ़लिसों को देखकर, वहीं, पृ. 127)
हमको मिले तालीम – कोई तदबीर ऐसी हो / वतन से दूर गुरबत हो – कोई तदबीर ऐसी हो / जहालत ने हमें मारा समज में आ रहा है अब / सरों पर हम बिठा लेंगे कोई तस्वीर ऐसी हो। (सर सैयद अहमद खाँ के जन्मदिन के अवसर पर, वहीं, 129)
कैसी जलती दीपावलियाँ / मेरी नेह वर्तिका पाकर / चाह मेरी, विरहाग्नि बलो तुम - / उनकी खुशियों से कतराकर / कितनी भोली उनकी आँखें / अंजन आँज-आँज हँसती हैं / सच्चा प्यार जताकर भी जब / थोथा प्यार प्रगट करती हैं।
(क्यों न मनाओ हर्ष, वहीं, पृ. 91)
आगत-आगत की बात करो / गत को फिर भी मत भूलो / इतिहास न बन पाया / जो आगत में ही भूलो / कुछ सोच-समझकर चलो / करो मत हाँसी / अस्सी के ऊपर चढ़ा एक इक्यासी। (नया बरस, वहीं, 115)
कवि प्रेमचंद्र जैन ने लोक हित के लिए कलम चलायी है। उनकी कविताओं में लोक के कल्याण और उसके बेहतर जीवन की कामना निहित है। कवि की भाषा में लोक परिवेश की शब्दावली, मिथक, प्रतीक, मुहावरे व लोकोक्तियों का समावेश भी देखा जा सकता है। यथा -
क) लोक परिवेश की शब्दावलीः
देख मधुमास अमराई बौरा गई / नव नवेली चमेली भी झबरा गई / विरही टेसू कलेजे को दहका रहा / फाल्गुनी अनंग सबको भरमा रहा। (रंग में सराबोर, पृ. 124)
ख) मिथकः
लोक कल्याण की भावन को प्रकट करने के लिए कवि द्वारा प्रयुक्त मिथक –
शिवः गर मिलता है गरल / उसे जगदीश निगल जाते हैं। (पृ. 87) तथा जागते-सोते / सदा शिव हो / तुम्हारा और- / सबका / साध्य- / साधन- / इष्ट फल। (पृ. 79)
ध्रुवः अज्ञेय व्यक्तित्व / ध्रुव पौरुष / वेदना-तप्त / यातना-पूत / दृष्टा / युग निर्माता। (पृ. 80)
ग) प्रतीकः
मशालः परिवर्तन का प्रतीक है – हम मिलन की ले मशालें / बढ़ चलें.. इस मिलन से जो कुढ़ें – कुढ़ते रहें। (पृ.127)
हथोड़ी व खुरपीः एकता व सामूहिक संघर्ष के प्रतीक – चाहे जितने दर्द की दीवार चुन दो / चाहे जितने जुल्म की खाई बना लो / तन गए मुक्के–हथोड़े, चाहे जितनी बाँह के खुरपे बढ़ा लो (पृ.122)
घ) मुहावरे व लोकोक्तीः
मुहावरेः हमारे बाएँ हाथ का काम है (पृ.86)। जले पर नमक नहीं - / ओस के बिंदु धरूँगा। (पृ.84)। उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती / एक दिन माथा झुकाते थे / आज नजरें चुराते हैं (पृ.104)
लोकोक्तीः एक अंधा एक कोढ़ी है (पृ.91) / हाथ कंगन को आरसी क्या (पृ.86)
कवि प्रेमचंद्र जैन ने जनता के हितो की रक्षा करने तथा देश के विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए युवाओं से आग्रह किया है कि वे अपना दायित्व समझें और उसे वहन करें। उन्हें विश्वास है कि युवाओं के एकजुट होकर कार्य करने से राष्ट्र व्यापी समस्याएँ जैसे – बहिनों की अस्मत लुटना, हिंदी की बिंदी का मिटना, दहेजी शादियाँ होना, आग-पानी-राष्ट्र विपदा होना आदि हल हो सकती हैं। (चूँकि युवा हो, पृ. 112)। कवि को पूर्ण विश्वास है कि लोक का मंगल सामूहिक संघर्ष से ही संभव है। इसीलिए संदेह से भरे अपने भीरु दिल से कहते हैं-
“तुम करो विश्राम -
सूरज फिर उगेगा
और
आएगा सवेरा
अब नहीं हूँ मैं अकेला
और जितने दीप हैं
मैं सभी में हूँ
पी रहा हूँ सब अँधेरा
थको मत तुम मीत
मृत्यु से भयभीत
अमरत्व की श्रम की –
सदा ही जीत।” (नेह बाती चुक रही है!, पृ. 120)।
000
-डॉ. बी. बालाजी,
उप प्रबंधक, हिंदी अनुभाग एवं निगम संचार, मिश्र धातु निगम लिमिटेड, रक्षा मंत्रालय का उपक्रम, हैदराबाद। मो. 8500920391; ई-मेल balajib18@gmail.com
शीला बालाजी,
हिंदी प्राध्यापक, लिटिल फ्लावर डिग्री कॉलेज, उप्पल, हैदराबाद। मो. 9010094391; ई-मेलः sheela@lfdc.edu.in
द्रष्टव्य-
इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 151-158.
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