गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

(प्रवीण प्रणव) शायद पता चले, शायद नहीं भी

शायद पता चले, शायद नहीं भी 

(डॉ. प्रेमचंद्र जैन की कविताओं का अंतरंग पाठ)

-प्रवीण प्रणव

गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में लिखा “सोइ जानइ जेहि देहु जनाई” यानि ईश्वर के प्रभाव और प्रभुत्व को  वही जान पाता है, जिसे ईश्वर खुद चाहते हैं कि वह इसे जान ले। अंतरिक्ष में कई तारे हैं जिनका आकार सूरज से कई गुणा बड़ा है लेकिन दूरी की वजह से हमें सूरज, सभी तारों से ज्यादा बड़ा प्रतीत होता है; जब तक वैज्ञानिक आधार पर हम यह न जान लें कि सूरज और तारों का वास्तविक आकार क्या है और हमसे इनकी दूरी कितनी है। डॉ. प्रेमचंद्र जैन एक ऐसे ही समृद्ध साहित्यकार हुए हैं जिन्हें छपास की बीमारी ने ग्रसित नहीं किया और इस वजह से उनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या कम ही रही लेकिन उनकी शिष्य परंपरा में इतने प्रबुद्ध बुद्धिजीवी और साहित्यकार हुए हैं जिनकी सूची को देखते हुए ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ की स्थिति हो जाती है। इंटरनेट की आज की दुनिया में डॉ. प्रेमचंद्र जैन का साहित्य ऑनलाइन भी उपलब्ध नहीं है जिसे आज का पाठक वर्ग पढ़कर इनके साहित्य से परिचित हो सके। ऐसे में प्रशंसा की जानी चाहिए प्रो. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और निर्मल शर्मा की जिन्होंने डॉ. प्रेमचंद्र जैन के व्यक्तित्व और कृतित्व को ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’ नामक पुस्तक में संकलित कर पाठकों का परिचय उनसे करवाया। 

 डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से उच्च शिक्षा प्राप्त की। संस्कृत, पालि, अपभ्रंश एवं हिंदी भाषाओं पर इनका पूर्ण अधिकार रहा। सन् 1969 में ‘अपभ्रंश कथा काव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक’ विषय पर शोध प्रस्तुत करके इन्होंने काशी विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा समाप्त करने के बाद इन्होंने एक वर्ष तीन माह तक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन एवं शोधाधिकार के अंतर्गत हिंदी के ऐतिहासिक व्याकरण विभाग में तथा एक वर्ष चार माह तक ‘भगवान महावीर केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली’ में कार्य किया। दिसंबर 1972 में डॉ. जैन ने साहु जैन कॉलेज में अपनी सेवा शुरू की और यहीं से सेवानिवृत्त हुए। डॉ. जैन समाजसेवी रहे, साहित्यकार रहे, शिक्षाविद रहे लेकिन इन सबसे बढ़कर ‘साहू जैन महाविद्यालय, नजीबाबाद’ में  शिक्षक के तौर पर कार्य करते हुए इन्होंने अपने शिष्यों के प्रति जो प्रेम दर्शाया, शिष्यों की समस्याओं के निवारण के लिए जिस तरह व्यवस्था से टकराते रहे; इन सब ने डॉ. प्रेमचंद्र जैन को न केवल उनके शिष्यों की तरफ से बल्कि अभिभावकों और नजीबाबाद की आम जनता की तरफ से भी ‘गुरुजी’ की उपाधि प्रदान की और यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही। यूं तो साहित्य के क्षेत्र में डॉ. जैन ने कविता, कहानी, आलेख, दर्शन, डायरी, पत्र आदि विधाओं में अपना योगदान दिया लेकिन इस आलेख के लिए बात डॉ. जैन की कविताओं की। 

कविताओं की बात करने से पहले यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि डॉ. प्रेमचंद्र जैन के व्यक्तित्व या कृतित्व से मेरे परिचय का जरिया सिर्फ ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’ पुस्तक है। ऐसे में बहुत हद तक संभव है कि अपने सीमित ज्ञान और सूचनाओं की वजह से डॉ. जैन के कृतित्व आकलन में कमी रह जाय। यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी नेत्रहीन व्यक्ति द्वारा हाथी के सिर्फ पैर या सूंड को छू कर हाथी के बारे में बात की जाय। अतः डॉ. जैन के पाठकों और प्रशंसकों से अग्रिम क्षमा प्रार्थी हूँ। ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’ में डॉ. जैन की कुल 44 कविताएं संकलित हैं और इनके लिखे जाने के वर्ष को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि साहित्य सृजन के लिए कविता डॉ. जैन के लिए मुख्य विधा नहीं रही। कविता इन्होंने मुख्यतः स्वांतः सुखाय ही लिखी होगी। सात कविताओं के लेखन का वर्ष उल्लिखित नहीं है, 1963 में एक, 1965 में एक, 1971 में आठ, 1972 में दो, 1974 में एक, 1975 में दो, 1977 में सात, 1978 में एक,1979 में एक, 1981 में दो,1982 में दो, 1984 में एक,1986 में एक, 1994 में एक, 1995 में दो, 2006 में दो और 2008 में लिखी दो कविताएं इस किताब में संकलित हैं। संख्या की दृष्टि से डॉ. जैन ने भले ही कम कविताएं लिखीं हों, लेकिन इनके विषय बहुआयामी हैं। शब्द सरल हैं लेकिन भाव गहरे हैं। व्यंग्य कविताओं में कटाक्ष की धार तीक्ष्ण है, जहाँ आम आदमी या कृषकों के कष्ट की बात कही गई है, वह हृदय तक उतरती है, जब बात हिम्मत न हारने और संघर्ष की होती है तब पाठक अपने-आप को इस मुहिम से जुड़ा हुआ पाते हैं। एक शिक्षक होने के नाते इनकी कविताओं में शिक्षा पर जोर, सामाजिक समरसता का आग्रह और सरल शब्दों में गूढ़ दर्शन की सहज व्याख्या मिलती है। डॉ. जैन की कविताओं में हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के लिए बहुत कुछ है जिसे ग्राह्य किया जा सकता है। इन कविताओं में प्रेम, रूप, सौन्दर्य की बातें कम ही हैं।  ‘प्रेम’ शीर्षक एक कविता में डॉ. जैन लिखते हैं  ‘शारीरिक संबंधों के रिश्ते/ टूट ही जाते है एक दिन/ भावनाओं से जुड़ा प्रेम/ अटूट होता है/ लेकिन -/ यह तुम्हें दर्शन की बात लगती है/ क्योंकि/ तुम्हारे निकट भावना निर्मूल्य है।‘ इन पंक्तियों को पढ़ते ही हस्तीमल हस्ती का लिखा शेर जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ में हमारे ज़ेहन में गूंजने लगता है 'जिस्म की बात नहीं थी उन के दिल तक जाना था / लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।'  फूलों की क्यारियों में खिले कई रंग के सुंदर फूलों को देख ‘गुदगुदी घास’ शीर्षक कविता में डॉ. जैन ने लिखा ‘पीला रंग भी कोई रंग है/ हरे नीले सभी व्यर्थ/ मुझे खूनी गुलाब पसंद है।’ यहाँ ‘खूनी गुलाब’ का संदर्भ आते ही निराला की कुकुरमुत्ता कविता आती है जिसमें निराला ने लिखा 'अब, सुन बे, गुलाब,/ भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,/ खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,/ डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!' लेकिन डॉ. जैन इसी कविता के अंत में लिखते हैं ‘गुलाब ही नहीं – वैसे/ खिले सब फूल पसंद हैं/ हीः हीः हीः हीः हीःअ s हैं हैं हैं ss / (मैं मौन मालिक के सामने.. )’

आज़ादी के बाद लोगों की सरकार से जो आकांक्षाएं थीं, वह पूरी नहीं हुई और उत्साह, असंतोष में बदलने लगा। यदा-कदा सरकार के कुछ कदमों से लगा कि कालाबाजारी, चोर बाजारी जैसी समस्याओं पर नकेल लगेगी और यह उम्मीद कविता में भी दिखी। 26 जनवरी 1975 को ‘ओ छब्बीस जनवरी’ शीर्षक कविता में डॉ. जैन ने लिखा – जहाँ भी पूछते थे दाल-चावल-आटा/ लाला कहते थे – ‘क्या करें साब पड़ता है घाटा -/ इससे लाते नहीं माल, ऐसा आया नहीं साल’/ दुखी खरीददार कहते, - ‘लाला कही से होगा -/ बंदोबस्त?’  लाला ने बाल खुजलाकर रहस्यभरी/  मुस्कान भरकर इधर-उधर झाँका और कहा -/ अच्छा, तुम तो अपने आदमी हो/ देखो!/ अंधेरे में आना -  चुप चाप ले जाना/ दाम दूने दे जाना।/  गेहूं-दाल-चावल दुकानों में नहीं/ गोदामों में मिलने लगा/ कौवे विपक्षियों ने काँव-काँव की/ फिर भी/ अभावों की दुनिया बढ़ती गई/ धन्य हो आज के गणतंत्र/ रक्षित है लोकतंत्र/ अभाव सद्भाव बन गया है/ बड़बडि़यों के मुख पर ताला है/ बाहर आ गया धन काला है/ रिश्वत, चोर बाजारी आज भी/ भले हों न हों बंद/ लेकिन आज कुछ राहत है/ छब्बीसवें गणतंत्र तेरा स्वागत है।‘  लेकिन इसके बाद आपातकाल आया और परिस्थितियाँ बदल गईं। आपातकाल के बाद नई सरकार बनी जिसे समाजवादी सरकार कहा गया लेकिन सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली और अगले चुनाव में कांग्रेस की वापसी हो गई। डॉ. जैन ने ‘जनतंत्र’ शीर्षक कविता में लिखा ‘नारा समाजवाद का/ दूध : गाय-बछड़े का/ वोट हिन्दुस्तानी का/ नहीं पड़ा जहाँ पड़ना था/ और - / वही हुआ जो होना था/ जातिवाद, भाई-भतीजावाद/ खंड-खंड बिखर गए/ समय की करवट से/ फिर पिसेगी जनता/ सुबह तक नई कांग्रेस और बढ़ेगी सर्वत्र/ जीत-हार, हार-जीत का जनतंत्र।‘   छब्बीसवें गणतंत्र के बाद इकत्तीसवें गणतंत्र पर भी डॉ. जैन ने कविता लिखी और इन दोनों कविताओं को पढ़ने से लगता है कि इस दौरान घटनाएं तो बहुत हुईं लेकिन आम आदमी की समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रही ‘गेहूं, दाल, चावल, तेल/ खूब दिखा रहे हैं खेल/ विपक्षी कौवे करते काँव-काँव/ टुकड़ा मिलते ही लेते राम नाम/ धन्य हो आज के गणतंत्र/ जिंदा है लोकतंत्र - बस इतना काफी है/ बाकी तो -/अभाव ही अभाव है/ जहाँ तक नजर जाती है - / सर्वत्र/ रिश्वत, चोर बाजारी का सद्भाव है/ और क्या कहें?/ हम तो देखते है – सब ओर/ आफत ही आफत है/ फिर भी राष्ट्रपर्व होने के नाते/ इकत्तीसवाँ गणतंत्र दिवस तेरा स्वागत है।‘

गांधी, जिन्हें राष्ट्र ने राष्ट्रपिता माना, जिनके आदर्शों पर चलकर सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय सरकार की परिकल्पना हुई; कुछ ही वर्षों में राजनेताओं ने गांधी के आदर्शों को बस चेहरा बना कर अपने काले करतूत ढंकने शुरू कर दिए। ‘बापू के नाम चिट्ठी-1’ शीर्षक कविता में डॉ. जैन ने लिखा ‘बापू/ बताओ तो सही कैसा है यह लोक/  तुम इसे देखकर हंसते होंगे/ अथवा रोते होंगे/ मुझे क्या पता/ मैं तो इन्हीं में से एक हूँ/ तुम्हारे तीनों बंदरों वाली शिक्षाओं में से/ एक भी नहीं भाती/ मुँह पर हाथ रखा देख हंसता हूँ/ कानों पर हाथ रखा देखकर चीखता हूँ/ आँखों पर हाथ रखा देख चश्मा लगा लेता हूँ/ फिर भी मुझे शर्म नहीं आती/ चूँकि / दूसरों को उपदेश देना आता है/ ठकुर सुहाती से नाता है/ सभी बैंको में खाता है/ ‘सत्यमेव जयते’ का बोर्ड लगा रखा है/ वह इसी में सब छिप जाता है।‘ आंदोलन के नाम पर रेलवे की पटरी से फिश-प्लेट हटा दिए जाने की वजह से हुई रेल दुर्घटना से व्यथित हो कर डॉ. जैन ने व्यंग्य कविता ‘हम अहिंसक हैं’ में लिखा पटरी से फिश-प्लेट खींच कर/ गाड़ियों को उलट देना/ और/ प्रकाशवीर शास्त्री जैसे अनगिनत लोगों के/ प्राण हर लेना -/ हमारे बाएं हाथ का काम है/ सीधा हाथ हमने सदा सुरक्षित रखा है/ बापू!/ नहीं समझे?/ अरे! वही राष्ट्रपिता गांधी/ जो अंधे हो गए हैं/ उनको लाठी पकड़ा दी है/ वे पीछे-पीछे आ रहे हैं/ जहाँ भी रुकना होता है/ उन्हें खड़ा कर देता हूँ/ स्वयं चीखता हूँ/ बापू की जय – महात्मा गांधी की जय/ अहिंसा जिंदाबाद / नेहरू जिंदाबाद/ हैं हैं हैं, हीः हीः हीः / हम अहिंसक हैं।‘  यहाँ कविता के अंत में जो हंसी है वह एक बेशर्म हंसी है जो व्यंग्य की धार  को कई गुणा बढ़ा देती है।     

आज किसान आंदोलन की वजह से किसान चर्चा का विषय बना हुआ है लेकिन दशकों से यह मेहनतकश वर्ग उपेक्षा और बदहाली का शिकार रहा है। ‘कवि छोड़ो’ शीर्षक कविता में डॉ. जैन ने लिखा ‘कवि छोड़ो कुंठा-कन्था:/ नव-नव रस कूप भरे हैं/ खाली घट को डुबकी दें/ ये कूप बहुत गहरे हैं/ कृषि करते कृषक थका है/ श्रमिकों पर भी पहरे हैं/ न्याय की करते रहो पुकार/ यहाँ शासन सत्ता बहरे हैं।‘ कृषकों के समर्थन में आह्वान करते हुए ‘कृषक मेले के अवसर पर’ कविता में उन्होंने लिखा ‘भूख हूलती है जब हम को/ अन्न याद आ जाता है/ मत भूलो इस कृषक वर्ग को/ जिससे सीधा नाता है/.. / जो सब के लिए जान देता/ उसको तो मत चूसो लोगों/ तुम लूट-लूट घर भरते हो/ वह आर्थिक नीति विधाता है।‘  

इस देश में आम आदमी की कोई बहुत बड़ी आकांक्षा नहीं होती, बहुत बड़े सपने नहीं होते। सामान्य रूप से घर परिवार गृहस्थी चल जाय यही काफी है। आम आदमी के जीवन को डॉ. जैन ने ‘मैं आदमी’ शीर्षक कविता में यूं लिखा ‘नौकरी करता हूँ/ ऑफिस के नाम से नहीं/ घर के नाम से डरता हूँ/ मरने को है नौकरी/ या/ नौकरी के लिए मरना है/ कौन जाने - एक साथ/ इसलिए कहता हूँ - /मैं जानवर हूँ/ खटता हूँ/ टेबलेट सुलाती है/ चक्की जगाती है/ भूख चलाती हैं/ सबकी अपनी -/ अपनी कहानी है।‘ लेकिन जब शासन और सरकार इस सामान्य दिनचर्या में भी दखल देने लगे तो आक्रोश और विद्रोह स्वाभाविक है। ‘खेल-खेल का चित्र’ कविता में डॉ. जैन ने लिखा ‘खेल-खेल में मैंने/ एक चित्र बना डाला/ मुझे क्या पता था/ इसे सजाने-संवारने को/ रंग-तूलिका और रख-रखाव को/ दीवाल की आवश्यकता होगी/ चित्र जानकारी से परे नहीं रहा/ लेकिन दमघोंट अफसरशाही में/ स्वतंत्र रंग भरने का मौका नहीं था/ तो क्या चित्र मिटा दूँ?’ ऐसी ही परिस्थिति के लिए बशीर बद्र ने लिखा था ‘बड़े शौक़ से मिरा घर जला कोई आँच तुझ पे न आएगी/ ये ज़बाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है।‘ लेकिन डॉ. जैन यूं ही हार मान जाने वालों में नहीं, इसी कविता में उन्होंने लिखा ‘न मैंने कहने से चित्र बनाया/ और/ न सही रंग/ इसका ढांचा बिना रंग ही चमकेगा -/ रंग लाएगा/ मेरा विश्वास कभी नहीं डिगा/ परती धरती जोतूँगा, बोऊँगा, सिंचूँगा/ चित्र तो संभलेगा/ मुझसे नहीं तो -/मेरे साथी से।‘  फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने भी ऐसी परिस्थिति में खामोशी तोड़ने की बात करते हुए लिखा था ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे/ बोल ज़बाँ अब तक तेरी है/ तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा/ बोल कि जाँ अब तक तेरी है।‘  किसी भी अन्याय के खिलाफ़ संघर्ष का आह्वान करते हुए डॉ.  जैन ने ‘अब शेष हूँ मरता नहीं’ कविता में लिखा ‘हम बढ़े हैं/ और/ बढ़ते ही रहेंगे/ हम न मरते हैं/ न/ मरने से डरेंगे/ एक मैं मरने से डर जाऊंगा/ तो/ दस खड़े हैं/ दैवा, दीस्सू, मना, मनसुखा/ कौसी, गंगा, पावन, पुरवा/ सभी बढ़ेंगे/ नभ चूमेंगे/ दर्द पियेंगे/ टीस भखेंगे/ पर उदास माँ की आँखों में/ ज्योति जगेगी/ सूर्य उगेगा/ हमीं उगेंगे/ श्रमिक जगेंगे/ कंस भगेंगे।‘ पाश ने भी इसी संघर्ष की बात करते हुए 'हम लड़ेंगे साथी' कविता में लिखा 'हम लड़ेंगे साथी/ हम लड़ेंगे/ कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता/ हम लड़ेंगे/ कि अब तक लड़े क्यों नहीं/ हम लड़ेंगे/ अपनी सज़ा कबूलने के लिए/ लड़ते हुए मर जाने वाले की/ याद ज़िन्दा रखने के लिए/ हम लड़ेंगे।‘ संघर्ष का रास्ता आसान नहीं होता विशेषकर जब संघर्ष सत्ता पक्ष या समर्थ लोगों के साथ हो। किसी भी अनहोनी की आशंका बनी ही रहती है। लेकिन डॉ. जैन, इस डर से आगे एक नई सुबह, एक नई उम्मीद का सपना देखते हैं। ‘नेह बाती चुक रही है’ शीर्षक कविता में उन्होंने लिखा ‘तुम बड़े ही भीरु हो दिल/ हर समय धक-धक, धका-धक/ कुछ करो विश्राम/ सूरज फिर उगेगा/ और/ आएगा सवेरा/ अब नहीं हूँ मैं अकेला/ और जीतने दीप हैं/ मैं सभी में हूँ/ पी रहा हूँ सब अंधेरा/ थको मत तुम मीत/ मृत्यु से भयभीत/ अमरत्व की श्रम की/ सदा ही जीत।‘ पाश ने भी इस संघर्ष में अंतिम जीत श्रमिकों की होने की बात करते हुए ‘घास’ कविता में लिखा ‘बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर/ बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर/ सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर/ मेरा क्‍या करोगे/ मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा।‘  आज के युवाओं का भी इस संघर्ष में आह्वान करते हुए डॉ. जैन ‘चूँकि युवा हो’ कविता में लिखते हैं ‘पर न भूलो ये जवानी ही जवानी का नशा है/ इस नशे को होश की बूटी से जोड़ो/ तब कहीं अवरोध आए उनको तोड़ो/  क्या कहीं बहिनों की अस्मत लूट रही हो तुम चलोगे?/ क्या कहीं हिंदी की बिंदी मिट रही हो/ तुम चलोगे?/ इन दहेजी शादियों को रोकने/ क्या तुम बढोगे?/ तुम बढोगे आग-पानी राष्ट्र-विपदा रोकने क्या?/ राष्ट्र-व्यापी हैं समस्याएं -/ देखो बढ़ो, चूँकि युवा हो/ यदि बढ़ो तो खुशी से चूमूँगा माथा/ और अपनी/ अर्थी का कंधा भी लूँगा।‘  

डॉ. प्रेमचंद्र जैन की विद्वत्ता हालांकि संस्कृत, पालि, अपभ्रंश एवं हिंदी भाषाओं में रही लेकिन इसे नजीबाबाद का असर ही कहा जाना चाहिए कि उनकी कविताओं में उर्दू के रंग भी उसी खूबसूरती से निखरते हैं जितने की हिंदी के। ‘सर सैयद अहमद खाँ के जन्मदिन के अवसर पर’ शीर्षक से लिखी कविता में उर्दू के शब्दों जैसे ‘पुरनूर हुनर बख्श’, ‘तालीम’, ‘गुरबत’, ‘तदबीर’, ‘रहमतों’, ‘कुरबान’, ‘तालीम ओ’ इल्म’, ‘शमा रोशन’, ‘जहालत’ आदि का प्रयोग कविता के सौन्दर्य को बढ़ाता है। खुद एक शिक्षक रहे डॉ. जैन, शिक्षा के महत्व को भली-भांति जानते थे और इसीलिए सर सैयद अहमद खाँ को याद करते हुए और शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखते हैं - तालीम ओ’ इल्म की शमा रोशन करेंगे हम/ हर घर से जहालत को भगा के ही लेंगे दम/ सैयद के जन्म-दिन पर सबक सीख कर जाएं/ हर अनपढे को पढ़ने की सौगात दिलाएं। 

नजीबाबाद जैसे जगह में जहाँ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही समुदायों के लोग प्रेम और सौहार्द के साथ रहते हैं लेकिन जरा सी गलतफ़हमी की वजह से किसी अनहोनी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में डॉ. प्रेमचंद्र जैन जैसे लोगों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है जो अपनी परवाह न करते हुए भाईचारा बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हों। कबीर ने अपने दोहों में दोनों समुदायों को आईना दिखाया। एक तरफ उन्होंने लिखा “कंकर-पत्थर जोरि के  मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे का बहरा भया खुदाय।“ तो दूसरी तरफ ये भी लिखा “पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूनँ पहार।ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार।“ डॉ. जैन ने भी दीवाली के नाम पर बढ़ती धन-पिपासा और घटती मानवीय संवेदनाओं पर कटाक्ष करते हुए ‘आज दीवाली हैशीर्षक कविता में लिखापड़ोसी की आवाज फिर आई-/ चुपो बदतमीजों!/ दीवाली का सारा मज़ा किरकिरा कर दिया/ राहगीर ने कहा/ देखते नहीं उसका लड़का मरा पड़ा है?/ मैं क्या करूँ?/ मेरे घर के पास चिल्लाए नहीं/ आज लक्ष्मी पूजन है/ हे भगवान! राहगीर बुदबुदाया/ और ढेर हो गया/ एक और मरा/ मरने दो -टीकू-पीकू-छुई-लुई/ कैसी सुन्दर हैं फुलझड़ियां/ धाँय-धाँय, धड़ाम-धड़ाक/ हा हा हा हाँ/ जगमगा रहा है घर।“  इसी तरह वर्ष में ईदुल-फितर के दिन सिर्फ एक दिन खैरात बांटने के बाद साल भर धन कमाने की लालसा रखने वालों पर भी कटाक्ष करते हुए लिखा – “मुझे ईदुल-फितर भाता है/ ये वर्ष में एक बार आता है/ खुदा के नाम पर खैरात बंटती है/ सभी गुण गाते हैं/ खुशियां मनाते हैं/ नए रंग लाते हैं/ काश!/ यह भावना उसके अगले दिन भी कायम रहती/ दूसरे दिन से ही/ गले लगाने वाला अपना अमीर भाई/ बनाने लगता है मुझे फकीर/ नौकर रखता है/ रिक्शा चलवाता है/ हलाल कर डालता है मेरा शरीर/ मेरे मन में आया है विचार/ सच-सच बतलाना परवरदिगार/ उनका रोजा भी कबूल होता है?” एक शिक्षक हमारी ग़लतियों पर हमें डांटते तो हैं लेकिन अगले ही पल हमें समझाते भी हैं और हमारा उत्साह वर्धन भी करते हैं। डॉ. जैन भी अपने इस दायित्व का भली-भांति निर्वहन करते हैं। ‘चश्म नम हैं मुफ़लिसों को देखकर’ शीर्षक कविता में आपसी सद्भाव की आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा हम को मालूम है ज़कातों का/  सिला अब खत्म है/ चश्म नम हैं/ मुफ़लिसों को देखकर/ हम अमीरी को दफ़न/ करके मिलें/ हम मिलन की ले मशालें/ बढ़ चलें/ इस मिलन से जो कुढ़ें/ कुढ़ते रहें/....../हमने अपने बीच की/ दूरी बढ़ाकर देख ली/ देश को पीछे धकेला/ और/ अस्मत बेच दी/ हो गए इतने घुटाले/ छिन गए मुँह के निवाले/ सोचने का वक्त है, मिल-बैठने का दौर है।‘  ‘रंग में सराबोर’ शीर्षक कविता में वसंत का बहुत ही मनोहारी वर्णन है लेकिन इसके साथ ही यह आह्वान भी है कि आपसी भाईचारे के बीच किसी तरह की ग़लतफ़हमी पनपने नहीं देनी चाहिए – देख मधुमास अमराई बौरा गई/ नव नवेली चमेली भी झबरा गई/ विरही टेसू कलेजे को दहका रहा/ फाल्गुनी अनंग सबको भरमा रहा/....../देखना फिर भी झांकेगा कालिख का तन/ वह उठाएगा सिर, वह उगाएगा पर/ वह न सर-सब्ज़ हो कोई सोचो जतन/ उस पर डालो कफ़न - उस पर डाला कफ़न।“ इस कविता की पंक्ति में ‘डालो कफ़न’ बताती है कि क्या किया जाना चाहिए और ‘डाला कफ़न’ बताती है कि यह हो चुका और अब किसी वैमन्यस्यता की गुंजाइश नहीं बची। यही एक अच्छे शिक्षक की पहचान है कि वह अपने निर्देशन में कार्य का समापन सुनिश्चित करे।    

आत्ममुग्धता के इस दौर में जहाँ हर आदमी अपनी ही प्रशंसा का आकांक्षी हो, डॉ. जैन जैसे लोग विरले ही हैं जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी पाते हैं। एक शिक्षक का भी अपने छात्रों से स्नेह संबंध सामान्यतः शिक्षण के दौर तक ही रहता है, कम ही शिक्षक हैं जो अपने पूर्ववर्ती छात्रों से भी स्नेह बनाए रखते है और उनकी उपलब्धियों से ऐसे प्रसन्न  होते हैं जैसे यह उनकी स्वयं की उपलब्धि हो। ‘अलिंद उपाध्याय की रचनाओं के बहाने’ शीर्षक कविता में डॉ. जैन ने लिखा है – ‘नामी कवियों मध्य छपी है / जिसकी रचनाएं / कवि ‘अलिंद’ है ‘छोटू’ अपना / अन्तःकरण प्रफुल्लित इतना / कैसे बताऊँ कितना / वैचारिक चिंतक की साक्षी / ये यथार्थ रचनाएं / कवि-मुख से सुनने का / अवसर मिला / आज फिर / बहुत दिनों के बाद।‘  गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा ‘जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।‘ जो स्वयं दुख सह कर दूसरों की कमियों को ढँकते हैं वैसे लोग जगत में वंदनीय होते है। डॉ. जैन की कई कविताओं में यह भाव निहित है। ‘इष्ट फल’ कविता में डॉ. जैन लिखते हैं ‘जागते-सोते/ सदा ‘शिव’ हो/ तुम्हारा और -/ सबका / साध्य -/ साधन -/इष्ट फल।‘  

अपने सीमित संसाधनों से संतुष्ट और किसी सांसारिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षा न होने की बात करते हुए ‘रे कलियुग के देव’ कविता में उन्होंने लिखा ‘यह है जग देखी रीति/ शक्ति के मीत सभी भाई/ न धन की शक्ति/ कर्म की - / मन की शक्ति है/ इसी को सोता-खाता हूँ/ इसी को रोज बजाता हूँ/ मुझे पर्वत की इच्छा नहीं/ बस यह शेष रहे राई।‘  अपने बारे में बात करते हुए ‘मैं सन्यासी; कविता में उन्होंने लिखा ‘और नहीं अब भीड़ भरी -/ भटकान सुहाती/ काश! कि मैं होता एकाकी/ बिन बैराग लिए ही बनता/ मैं सन्यासी।‘ इसी कविता में उनका बुरा चाहने वालों के प्रति भी प्रेम का भाव रखने की बात करते हुए उन्होंने लिखा ‘मेरे मर्यादा के चिराग़ को -/ लेकर/ बेशक मुझे जलाओ/ पर बाती खसकाने में/ हाथ जलेगा/ यह भी मुझको सह्य नहीं है/ मन बिलखेगा/ और/ जले पर नमक नहीं/ ओस के बिंदु धरूँगा।‘ अपने साहित्यकार होने के दायित्व को उन्होंने ‘अहसास’ शीर्षक कविता में लिखा ‘दूसरों की व्यथा के अहसास से-/ निज मन का व्यथित हो जाना/ अहेतुक द्रवित होना भी;/ शोषक की व्यथा से/ शोषित की व्यथा भिन्न है और विकट भी/ इस विकटता का दो टूक उत्तर -/साहित्यकार का दायित्व है।‘  डॉ. जैन ने अपने साहित्य और अपनी समाज सेवा से बहुत बड़ा मुकाम हासिल किया लेकिन इससे वे संतुष्ट नहीं रहे। उन्होंने लिखा ‘आज की दैनंदिनी का पृष्ठ भी पूरा हुआ लो/ और -/ मैं रीता था, रीता रह गया/ इसके-उसके प्रश्न कर्ताओं के उत्तर देते-देते/ मेरे अपने प्रश्न यों उलझे पड़े हैं/ जैसे बुनकर का कहीं हो सूत उलझा।‘ 

डॉ. जैन ने लिखा ‘ये सब कविताएँ मेरे मरने के बाद/ मेरे मरने के पहले की मनःस्थिति पर/ प्रकाश डाल सकेंगी/ जीवन का मूल्य अभाव में है/ अतः मेरे अभाव के बाद/ मेरी उपयोगिता शायद पता चले/ शायद नहीं भी।‘ लेकिन आज उनकी कविताओं को पढ़ते हुए हम उस अभाव को महसूस कर सकते हैं जो उनके न रहने से है। उनकी रचनाओं और उनके दर्शन की आवश्यकता आज पहले से कहीं ज्यादा है ऐसे में डॉ. जैन के उन सभी हितैषियों और शिष्यों का धन्यवाद किया जाना चाहिए जो हमें डॉ. जैन के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न आयामों से हमारा परिचय करवा रहे हैं।     000

  • प्रवीण प्रणव, 

डाइरेक्टर, प्रोग्राम मैनेजमेंट, माइक्रो सोफ्ट, बी - 415, गायत्री क्लासिक्स, लिंगमपल्ली, हैदराबाद - 500019  

द्रष्टव्य

इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 159-167.                                               

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