अंतरिक्षीय शब्दों को समझने का प्रयास
डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
प्रेमचंद्र जैन जिनको देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हुआ लेकिन प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा के कारण से उन्हें पढ़ने का सौभाग्य तो प्राप्त हुआ ही; साथ ही साथ उन पर रचनात्मक आलेख भी लिखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। “निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक” (शर्मा, ऋषभदेव. सं. 2016. नजीबाबाद : परिलेख) नामक ग्रंथ को पढ़ने का अवसर मिला तो पढ़ते- पढ़ते प्रेमचंद्र जैन जी के लेखन और उनके व्यक्तित्व को समझने के प्रयास करती रही। “निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक” नामक पुस्तक पाँच खंडों में विभाजित है। इन पाँच खंडों में 17 संस्मरण, 44 कविताएं (प्रेमचंद्र जैन द्वारा लिखित), 8 विमर्श, 7 रेडियो वार्ताओं 2 अध्यक्षीय भाषण, 15 संपादकीय, 1 कहानी (प्रेमचंद्र द्वारा लिखित), 4 पत्र, आत्मकथा और पुरस्कार सूची को देखा पढ़ा जा सकता है। प्रेमचंद्र जैन साहित्यकार थे, अध्यापक थे, समाज में चेतना लाने वाले, समाज सुधारक थे। इन सब के अलावा और भी न जाने वे किन-किन दायित्वों का निर्वाह जीवन पर्यंत करते रहें।
पहले बात करते हैं उनके गुरु रूप की। गुरु और शिष्य का संबंध कैसा होना चाहिए? यह प्रश्न अनादिकाल से महत्वपूर्ण रहा है और यह प्रश्न अनादिकाल तक महत्वपूर्ण रहेगा। “डॉ. प्रेमचंद्र जैन गुरु रूप में भी आदर्श हैं और शिष्य के रूप में भी। शिष्य के रूप में उनकी अनन्यता को आचार्य द्विवेदी और डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपना अनन्य स्नेह देकर परिपूर्णता प्रदान की है तो गुरु के रूप में अपने शिष्यों को संतानवत मानकर डॉ। प्रेमचंद्र जैन ने स्वयं को गुरु परंपरा के ऋण से मुक्त कर लिया है। वे सच में वैसे गुरु हैं जिनके मन में अपने शिष्यों को सभ कुछ देने का भाव रहता है, लेना कुछ भी नहीं”। (1)
शिक्षक हो या साहित्यकार, समाज सुधारक हो या राजनीतिज्ञ ये कोई अलग ग्रह के निवासी नहीं होते। ऐसा मेरे गुरु प्रोफेसर ऋषभ देव शर्मा जी हमेशा कहते हैं। उनके इसी बात को ध्यान में रखते हुए मई प्रयास करती हूँ कि व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझने का प्रयास पहले करूँ। इसी प्रयास में जब मैंने प्रेमचंद्र जैन जी के व्यक्तित्व को समझने का प्रयास किया तो मैंने पाया कि उन्होंने कभी भविष्य की चिंता नहीं की। स्वयं उन्होंने लिखा है “बात यह थी कि ज़मीन का आदमी था, समाज से जुड़ा था। तमाम सारे छात्र-छात्राओं की समस्याएं, उनके निदान और दूर करने के उपाय : विवध शैक्षणिक सामाजिक संस्थाओं में होने वाले समारोहों – आयोजनों में शिरकत करने ले लिए : अपने अध्ययन – अध्यापन के उत्तरदायित्व को मनसा – वाचा – कर्मणा निभाते हुए समय देना – हर किसी के लिए संभव नहीं होता। मुझ में इस प्रकार के बहुचर्चित गुण – दोष थे। अतएव भविष्य के संबंध में सोचने का अवसर ही नहीं मिला।” (2) वे गुरुवर डॉ. शिवप्रसाद सिंह तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे। इस बात का उन्हे बहुत गर्व था कि इन दोनों के साथ समय बिताने का उन्हें सुअवसर मिला। सम्पूर्ण जीवन उन्होंने यही प्रयास किया कि उनसे मिली शिक्षा चाहे वह किताबी हो, सामाजिक हो या फिर पारिवारिक अंतिम समय तक उनके साथ ही बनी रहें। नजीबाबाद उनका कर्मस्थल था। साधारणतया होता यह है कि लोग कर्म करने ही कर्मस्थल जातें है और माह के अंत में कर्म का प्रतिदान पाकर कर्मस्थल को धन्य मान लेते है। परंतु प्रेमचंद्र जैन के लिए नजीबाबाद केवल कर्मस्थल मात्र नहीं था वे इस शहर के साथ ऐसे ही घुलमिल गए जैसे प्रण वायु प्राण के साथ घुलीमिली रहती है। वैसे तो, उनके पिता चाहते थे कि वे काशी में रहकर जैन धर्म – दर्शन के विद्वान बनें और जोतिश विद्या का प्रशिक्षण लेकर आजीविका का माध्यम उसे ही बनाए। बहरहाल, वे ज्योतिष विद्या को अपनी आजीविका का साधन नहीं बना सकें। वे हिन्दी के अग्रगण्य प्रोफेसर बनें। इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें जैन धर्म का ज्ञान नहीं था। उन्होंने तो दूसरे धर्मों का भी गंभीर अध्ययन करके उन धर्मों के अच्छाइयों और बुराइयों पर सपाट तरीके से बात करने की योग्यता प्राप्त की। उनका ज्ञान कोरा ज्ञान नहीं था। उनमें विश्लेषण और तर्क करने की अद्भुत क्षमता थी। प्रोफेसर देवराज के शब्दों में, “आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जैसे – जैसे गुरु जी के साथ मेरा संपर्क बढ़ा, वैसे – वैसे ही, चाहे गुरु जी का घर हो या और कोई स्थान, जहाँ हम दोनों अकेले हो, हम जैन धर्म और वैदिक श्रम सहित सभी धर्मों की चीर - फाड़ करने लगते थे। कभी उन पर हँसते थे कभी व्यंग्य करते थे।” (3) उनके लिए धर्म केवल ईश्वर – ईश्वर चिल्लाते रहने का साधन नहीं था धर्म उनके लिए मानवता, समरसता को जन्म देनेवाला साधन था। जो व्यक्ति सहृदय के तरह ज्ञान प्राप्त करने को तैयार रहता है और जो ज्ञान को चरित्र निर्माण का अंग मान पता है वही यह लिख पाता है ------
“कवि छोड़ो कुंठा – क्रांति
नव -नव रस कूप भरे है।
खालि घट को डुबकी दें
ये कूप बहुत गहरे है।।
कृषि करते कृषक थका है:
श्रमिकों पर भी पहरे है।
न्याय की करते रहो पुकार
यहाँ शासन – सत्ता बहरे है।।
कवि कलम बने तलवार:
कहर बरपा दें जो मोहरे है ।।
जनतंत्र में जनता त्रस्त:
लुटेरे हर पग पर ठहरे है ।।
करें अब क्रांति, नहीं अब भ्रांति:
चतुर दिक आतंकी चहरे है।
न देंगे अस्मत आजादी
प्राप्ति के घाव बढ़े गहरे है।।
कवि छोड़ो कुंठा – क्रांति:
नव -नव रस कूप भरें हैं।। ” (4)
जैसा कि मैंने पहले ही कहा डॉ. प्रेमचंद्र जैन के व्यक्तित्व पर डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का बहुत अधिक प्रभाव था। द्विवेदी जी को प्रतीकों में सबसे प्रिय जो प्रतीक लगता था वह था “बीजांकुर”। “पृथ्वी पर पड़े हुए बीच का जब अंकुर फूटता है तो अंकुर की नोक पर वे दोनों दल जमीन के ऊपर सूर्य को करबद्ध प्रणाम की मुद्रा में दृष्टिगत होते है। यही बीच की ईश्वर के प्रति विनयान्जली होती है, जन्म देनेवाले के प्रति कृतज्ञता होती... आदि।” (5) “बीजांकुर” के प्रति इसी श्रद्धा भाव को हजारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्य डॉ. प्रेमचंद्र जैन में कुछ इस प्रकार से दिखाई पड़ता है -----
“प्रदत्त
सम्मानित मनुज से –
डायरी के पृष्ट खाली
भर रहे मन को
अतुल आमोद से ।
मैं अकिंचन
कर सकूँ उपयोग – इनका
सत्य से
तथ्य से और
दिल के दर्द से इनको भरूँ
अभाव में सद्भाव के ये पृष्ठ पूरे हो
नमन करता हूँ तुम्हें
विश्राम दो।” (6)
प्रेमचंद्र जैन अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी के विचारों से प्रभावित थे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने किसी और साहित्यकार के विचारों का अनुकरण नहीं किया। अपनी रेडियो वार्ताओं के द्वारा उन्होंने समय समय पर अनेक विद्वानों के विचारों का विश्लेषण किया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा, “नाटककार के रूप में उनकी एक विशेषता यह थी कि वे अपने नाटकों को संस्कृत लक्षणवादों के नाटक के भेदानुरूप नाम भी देते थे। जैसे उन्होंने अपने किसी नाटक को रुपक लिखा है, किसी को व्यायोम तो किसी को सहक किसी को नाट्य रासक, गीति रुपक, प्रहसन, नाटिका इत्यादि लिखा है”।(7)
भारतेन्दु जी को उद्धृत करते हुए उन्होंने यह भी लिखा, “इस भारतवर्ष में उत्पन्न और इन्हीं हम लोगों के पूर्व पुरुष महाराज हरिश्चंद्र भी थे। यह समझकर इस नाटक के पढ़ने वाले कुछ अपना चरित्र सुधारेंगे तो कवि का परिश्रम सफल होगा”। (8) भारतेन्दु का विश्लेषण ही केवल उन्होंने नहीं किया बल्कि भारतेन्दु ने अपनी कम आयु में जिस साहस के साथ अन्याय का विरोध किया वही साहस भाव प्रेमचंद्र जैन जी के आचरण में भी तब स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ा, “जब साहू जैन महाविद्यालय की प्रबंध समिति ने राजनीति शस्त्र के प्राध्यापक और स्वतंत्रता सेनानी एस. सी. जैन के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया, तो विवश होकर वे चौक बाजार में धरने पर बैठ गए। गुरु जी ने पहला कार्य यह किया कि जनपद विजनौर के समस्त शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारियों के संघों को एक मंच पर एकत्र करके एक ‘संयुक्त कर्मचारी समन्वय समिति’ का गठन कराया”।(9)
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यासों में कौटुंबिक मर्यादा का संरक्षण किस प्रकार से हुआ? यह हमेशा से सही एक विवादास्पद विषय रहा। प्रेमचंद्र जैन जी ने अपनी प्रखर विश्लेषण शक्ति के द्वारा जोर देकर कहा, “शरतचंद्र सदैव रवींद्र को गुरु मानते रहे। वे ही उनके आदर्श थे। परंतु फिर भी शरत की विचार धारा अपनी थी। अपनी विचार धारा को उन्होंने अपने पात्रों द्वारा प्रतिपादित कराया है। ‘शेष प्रश्न’ में कमल एवं आशु के वार्तालाप का अद्वितीय सौन्दर्य एवं कहत्व है। प्रेम और विवाह पर कमल का अपना दृष्टिकोण है। प्रेम को वह विशुद्ध मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से देखना चाहती है। आंतरिक प्रेम की प्राण से और विवाह की देह से सापेक्ष्य तुलना करती हुई वह कहती है, ‘जैसे प्राण भी सत्य है, देह भी सत्य है – किन्तु प्राण जब निकल जाता है – अर्थात विवाह की सार्थकता दोनों पक्षों पर आधारित है। शरतचंद्र व अति संयम की बात से सहमति व्यक्ति की है’।”(10) प्रेमचंद्र जैन जी शरतचंद्र के विचारों से न केवल प्रभावित थे बल्कि उनका कहना था, “मुझे ऐसा लगता है, वस्तुतः है ही दो जातियाँ। पुरुष यदि पुरुष न होते नारी यदि कोमला न होती तो शायद मानव और मानवी संज्ञा ही होती। इनके पर्यायवाची शब्द ही नहीं होते। परंतु अन्य पर्यायवाची शब्द है तो इनके अर्थ और कार्य भी होंगे ही। अतः मई अर्थ और अनर्थ की पकड़ से दूर दो ही जातियाँ स्वीकार कर रहा हूँ – ने और मादा। इसे आप महिला समाज और पुरुष समाज की संज्ञा भी दे सकते हैं। समाज की कुछ रचना – प्रक्रिया ऐसी है की महिला एवं पुरुष दो अलग अलग जातियाँ अथवा समाज होते हुए भी एक ही समाज है”। (11)
साहित्यकार को कैसा होना चाहिए? माखनलाल चतुर्वेदी जी के संदर्भ में रेडियो वार्ता के दौरान जिस वक्तव्य को उन्होंने रक्खा वह आज के नवोदित साहित्यकारों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, “विशिष्ट कवि वही होता जो युगद्रष्टा हो। उसके वर्तमान में अतीत की सीख और भविष्यत का फल भी झाँकता है। उनके वर्तमान का हमारे वर्तमान से तलमेली बैठता है तो हमारे लिए वे प्रासंगिक है, और नहीं तो अप्रासंगिक अथवा outdated”। (12) साथ ही इसी क्रम में निर्मल वर्मा के संबंध में उनके द्वारा कहे गए कथन को रेखांकित करना आवश्यक हो जाता है। उन्होंने कहा था, “निर्विवाद सत्य है कि एक श्रेष्ठ रचनाकार की मौत कभी नहीं होती। पार्थिव देह जाती है तो ‘अक्षर देह’ बनी रहती है – रचना संसार जीवित रहता है। निर्मल वर्मा ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘हर रोज कोई मेरे भीतर कहता है, तुम मृत हो। यही एक आवाज है, जो मुझे विश्वास दिलाती है कि मा अब भी जीवित हूँ।’ उनकी ‘अब कुछ नहीं’ अंतिम कहानी के साथ – साथ अब कुछ नहीं है, फ भी वह सब कुछ है, जिसे उनका रचना संसार कहा जाता है। इसी रूप में वे जीवित रहेंगे”। (13)
इन दोनों वक्तव्यों के द्वारा साहित्यकार और उनकी रचनाओं को प्रेमचंद्र जैन जी समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण मानते थे इसे हम समझ सकतें है। साहित्यकार का कोई जाती – धर्म नहीं होता। साहित्यकार का एक ही धर्म होता है मानवता इसे प्रेमचंद्र जैन जी पूरे मन से मानते थे। “सर सैयद अहमद खाँ के जन्मदिन के अवसर पर” कविता की पंक्तियाँ इसी बात की प्रतीक है –
“हम तेरी रहमतों पे हुए है सदा कुरबान
लायक हुए है इतने कि पढ़ सकते है कूर-आन
सैयद से गर हमको न मिली होती शमा तो
सच मानते है हम कि गए होते कहीं खो”(14)
अंत में उनके रेडियो वार्ता के महत्वपूर्ण अंग “हल की रेखा से उपजी आग” की चर्चा किए बिना तो आलेख को drसमाप्त किया ही नहीं जा सकता। आदि कवि वाल्मीकि ने जब रामायण की रचना की तो नायक के रूप में राम को प्रतिस्थापित करना उनका उद्देश्य रहा। राम काव्य रहे हो या कोई दूसरा काव्य प्रायः नारी को उसका समुचित स्थान नहीं मिल पाता। पद्मश्री श्रद्धेय रघुवीर शरण ‘मित्र’ जी ने ‘भूमिजा’ के माध्यम से न केवल सीता के चरित्र को चरमोत्कर्ष तक पहुंचाया बल्कि इस ग्रंथ के एक सर्ग ‘हाथ बढ़े फूल लिखे’ के माध्यम से नारी के श्रम और साहस के द्वारा राष्ट्र का विकास कैसे सुनिश्चित होता है इसका सुंदर वर्णन किया है। ‘भूमिजा’ के रचनाकार ने स्वयं स्वीकारा है कि, “भूमिजा के माध्यम से मैं मानव के अहं को द्रवित करना चाहता हूँ। चाहता हूँ आज का मनुष्य किसी की पीड़ा से खेल न करें। सबल, निर्बल और निर्दोष को सताये नहीं। प्राणी, प्राणी के प्रति उदार हो। निराश और दुर्बल पलायन न करके शक्ति संचित करें। साहस अन्याय को पराजित कर दो कोई यदि किसी के स्वत्व पर आक्रमण करें तो उसे मुँह की खानी पड़े”। (15) आज के युग में ऐसी रचनाओं की बड़ी आवश्यकता है। “राम राजा हाथ पसारे रह गए और सीता धरती में समा गईं। राज सत्ता के मद को चूर-चूर करने के उद्देश्य से ही ‘भूमिजा’ सार्थक है”। (16)
ऐसी वार्ताएं ऐसा विश्लेषण डॉ. प्रेमचंद्र जैन के द्वारा ही संभव था। मुख पृष्ट पर लिखित कबीर का दोहा –
सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिख्यो न जाय।।
डॉ. प्रेमचंद्र जैन के लिए सटीक एवं सार्थक है।
संदर्भ सूची
(1) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 58-59
(2) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक – पृ. सं. 404
(3) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 62
(4) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 132
(5) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 197 – 198
(6) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 77
(7) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 209
(8) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 210
(9) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 66
(10) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 214
(11) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 149
(12) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 215
(13) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 222
(14) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 129
(15) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 226
(16) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक - पृ. सं. 228
- डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
हिन्दी प्राध्यापिका, सेंट एन्स जूनियर एण्ड डिग्री कॉलेज फॉर गर्ल्स एण्ड वुमन, मलकाजगिरी, हैदराबाद। मो. 9603224007. ईमेल : drsuparna.mukherjee.81@gmail.com
द्रष्टव्य:
इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 177-182.
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