पुरुष कहाणी हौं कहौं जसु पत्थावे पुन्नु
(अपभ्रंश कथाकाव्य से हिंदी प्रेमाख्यानक तक)
गोपाल शर्मा
“सिद्ध, नाथों और जैन कवियों, रासउ रचनाकारों आदि के कृतित्व में आदिकाल हिंदी क्षेत्र के रचनात्मक वैविध्य को यौं अपनी सच्ची प्रस्तावना प्रस्तुत करता है।” यदि मेरी तरह आपको भी आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी के द्वारा अनुत्तरित छोड़ दिये गए ‘यौं’ का निहितार्थ जानने की इच्छा है तो उस कालावधि में जाना होगा जब हिंदी साहित्य बनना शुरू हुआ था। भारतीय पांडित्य ईसा की एक सहस्राब्दी के पश्चात आचार-विचार और भाषा के क्षेत्र में लोक की ओर झुकता चला गया था । इसका परिचय अपभ्रंश या लोकभाषा की कविता में मिल सकता है। अपभ्रंश के पाणिनी जर्मन वैयाकरण रिचर्ड पिशेल (1849-1908) ने ‘माटेरियालियन सुर केंटिश डेस अपभ्रंश’(1902) में इस भाषा की अनेक रचनाओं का उल्लेख करते समय यह चिंता व्यक्त की थी कि अपभ्रंश का साहित्य एकदम खो गया सा लगता है । फिर डॉ. हरमन याकोबी ने 1912 में अनेक ग्रन्थों को प्राप्त किया और स्वतन्त्रता के मिलते मिलते तो अनगिनत पांडुलिपियाँ मिलती चली गईं । एक नए आख्यान से साक्षात्कार हुआ जिसका सघन पाठ विद्वानों के द्वारा ज्ञान के नए आगार खोलता चला गया।
इक्कीसवीं शताब्दी के चार चरणों में से एक के लगभग बीत जाने पर भी आज के गंभीर अध्येता के लिए प्रेमाख्यान के प्रति बालसुलभ उत्सुकता होना स्वाभाविक है। कथाकाव्य के प्रति तो जिज्ञासा रहती ही है । किन्तु जैसे ही इन दोनों पदों से पूर्व ‘अपभ्रंश’ आकर पसर जाता है तो कोई नामवर ही टिक सकता है । अब तो इस विषय को जाँचने वाले परीक्षक तक न मिल सकेंगे। यदि कोई जिज्ञासावश या ज्ञानार्जन हेतु इन तीन बीज शब्दों को ‘गूगलार्पित’ करे तो उसे एक पुस्तक दिखाई देगी जिसका प्रथम पृष्ठ गायब होगा । यह भी पता चल सकेगा कि 16 एम बी स्थान घेरने वाली 382 पृष्ठ की इन बीज शब्दों के द्वारा उपलब्ध पुस्तक बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी द्वारा पीएच. डी. की उपाधि के लिए स्वीकृत शोध प्रबंध है (Digital Library of India Item 2015.347734) और इसके लेखक डॉ. प्रेमचन्द्र जैन हैं । डॉ. जैन ने “रहस्यवादी जैन अपभ्रंश काव्य का हिंदी पर प्रभाव” (वाणी प्रकाशन से 1991 में प्रकाशित) एम. ए. लघु शोध प्रबंध लिखकर अपने गुरु से कहलवाया था कि ‘इस कार्य के पीछे एक अद्भुत निष्ठा और फलाकांक्षा बिना निरंतर कार्य करते जाने की निष्कामता विद्यमान रही’ और फिर उन्हें ‘इस अभियान के प्रथम सेनानी’ होने का विरुद प्राप्त हुआ। डॉ. प्रेमचंद जैन ने अपने शिक्षा गुरु डॉ. शिव प्रसाद सिंह और उन्होंने अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सपनों को ‘तटस्थ भाव से’ पूरा किया और होते देखा।
उनकी यह कृति पाठक को उस काल में ले जाती है जिसे हिंदी साहित्य के इतिहास में आदि काल, आरंभिक काल, वीरगाथा काल, वीर काल, चारण काल, बीजवपन काल, सिद्ध सामंत काल आदि कई नामों से पुकारा जाता है । इस समय का साहित्य मुख्यतः सिद्ध-साहित्य तथा नाथ-साहित्य, जैन-साहित्य, चारणी साहित्य, रासो साहित्य और प्रकीर्णक साहित्य रूपों में मिलता है। यह काल अपभ्रंश काल का विकास ही है, पर भाषा की दृष्टि से यह परिनिष्ठित- अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना भी देता है।
इस विवेचनापूर्ण ग्रंथ के पारायण का नवनीत-प्रसाद यह आलेख है । यह डॉ. प्रेमचंद जैन का पाठ इस दृष्टि से है कि इसमें एक ओर तो इस लुप्त होते जा रहे विषय पर प्रामाणिक शोधपरक सामग्री का उपयोग है, दूसरी ओर इस आलेख के पाठक के लिए भविष्य में अध्ययन के लिए दिग्दर्शन और दिशाबोध है। शोधार्थी की गवेषणात्मक दृष्टि का कायल होने के लिए आपको यह जानने की आवश्यकता चाहे न भी हो कि यह कार्य किसके निर्देशन में सम्पन्न हुआ और इस शोध प्रबंध का शीर्षक क्या था , फिर भी यह ज्ञान आपको हो ही जाएगा ।
कुछ हिचकिचाहट से ही सही किन्तु बहुत से विद्वान यह मानते हैं कि अपभ्रंश कथाकाव्यों की परंपरा का विकास ही हिंदी के प्रेमाख्यानक काव्य हैं। परंतु अपभ्रंश के कथा-काव्य अधिकतर जैन कवियों के द्वारा लिखे जाने के कारण उन्हें बहुत समय तक ‘धार्मिक’ ग्रंथ माना जाता रहा था। अनेक मुसलमान कवियों द्वारा फारसी कविता परंपरा को अपनाते हुए लिखे गए ग्रन्थों को भी ‘सूफी’ मत से जोड़कर देखते रहे । इन परम्पराओं से हट कर भी कई प्रेमाख्यानक काव्य मिले किन्तु उन पर शोधपरक दृष्टि डालने वाले विद्वानों ने सावधानी से सतर्क दृष्टि प्रायः नहीं ही डाली। इस कार्य का सफल निष्पादन डॉ. प्रेमचंद्र जैन द्वारा हुआ। वे लगभग 5 वर्ष तक तो शोध कार्य ही करते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि वे एक लंबी परंपरा का संधान कर सके। इस परंपरा के संधान का संधान मेरा लक्ष्य नहीं, मेरा लक्ष्य है ‘प्रेम’ के प्रति आपकी सहजात जिज्ञासा और ‘प्रेम’चंद्र के प्रति आपकी सहज श्रद्धा को समझते हुए यह जानकर सुख प्राप्त कर लूँ कि क्या हिंदी का प्रेमाख्यान साहित्य भी पूर्व प्रेमाख्यानों की शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है । क्या विश्व साहित्य में जिस प्रकार प्रेमाधारित ‘रोमांस’ का जिक्र होता है , वैसा ही कुछ यहाँ भी द्रष्टव्य है ?
‘अर्धकथानक’ (1641) के प्रणेता बनारसी दास ने अपने जमाने में मनोरंजन के व्यक्तिगत साधनों का वर्णन करते हुए संकेत किया था कि कुछ लोग प्रेमकथाओं को बाँचकर अथवा दूसरों से सुनकर भी अपना समय बिताया करते थे ।
तब घर में बैठे रहें , जांहि न हाट बाज़ार ।
मधुमालति मिरगावति, पोथी दोई उदार ॥ 335 ॥
इन कथाओं की सत्रहवीं शताब्दी में जब मांग इतनी थी तभी तो श्रीमाल जैन परिवार के आगरा निवासी बनारसीदास जिन्हें कम उम्र में ही ‘आसिखी’ अर्थात इश्कबाज़ी और ‘लिखत-पढ़त’ का शौक लग गया था उन्होंने एक के बाद एक चार किताबें लिखकर दिखाईं । यह वह लेखन परंपरा थी जिसका संधान करने के लिए डॉ. जैन संस्कृत की कथा-आख्यायिकाओं से शुरू करके जैन-ग्रन्थों से होते हुए और सूफी मत से प्रभावित कथानकों के गुजरते हुए ‘अर्धकथानक’ तक आते हैं या यह भी कह सकते हैं कि ‘अर्धकथानक’ से शुरू करके अतीत के व्यतीत से वर्तमान की गति तक आते हैं ।
हिंदी प्रेमाख्यानों की वर्णन परिपाटी की लीक पर चलकर लिखे गए अपभ्रंश कथाकाव्यों की कथानक रूढ़ियों को पढ़ने का अभ्यस्त हुए पाठक स्त्री के नख शिख वर्णन और पुरुष के शौर्य युक्त क्रिया कलापों को पढ़कर मुग्ध होता रहा है । वेश्यागामी के शब्द चित्र उसे लुभाते रहे हैं । डॉ. जैन ने सही कहा है, “हिंदी प्रेमाख्यानक अपनी सम्पूर्ण आत्मा और कलेवरगत विशिष्टताओं के कारण हमारे साहित्य की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । इस काव्य रूप के भीतर प्राचीन और नवीन अनेक प्रकार के तत्वों का मिश्रण हुआ है । यह मिश्रण इस काव्य रूप को पुराने काव्यरूपों के जोड़-तोड़ से बना एक अलग काव्य रूप ही नहीं बनाता बल्कि इस मिश्रण की रासायनिक प्रक्रिया ने हिंदी प्रेमाख्यानक के रूप में एक ऐसी विधा (फॉर्म) को जन्म दिया जो किंचित पुराने उपदानों को स्वीकार करते हुए भी नई लोकात्मक भाव-भूमियों का स्पर्श करने वाली बिल्कुल विलक्षण शिल्पभंगिमा वाली वस्तु बन गई “ (पृष्ठ 344)।
“अपभ्रंश कथाकाव्यों का हिन्दी प्रेमाख्यानों के शिल्प पर प्रभाव” शीर्षक द्वारा शोधोपाधि के निमित्त प्रस्तुत डॉ प्रेमचंद्र जैन के इस प्रबंध के सात अध्यायों में शिल्पगत अध्ययन से “उनमें पायी जाने वाली कथानकगत एवं काव्यगत रूढ़ियों का, विभिन्न श्रेणियों के अभिप्रायों का तथा प्रतीकों का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है और एक लंबी परंपरा का संधान पाया है” हजारी प्रसाद द्विवेदी (पुस्तक का प्राक्कथन, वाराणसी, 16-6-73)। वस्तुतः भारतीय साहित्य में ही नहीं अपितु विषय साहित्य में प्रेम प्रसंग अधिकांश काव्यों की विषय वस्तु रहा है। भारतीय साहित्य में वैदिक काल से अब तक प्रेम को लेकर अबाध गति से चर्चा हुई है । आख्यानक, चरित, चंपू एवं कथा काव्यों से लेकर उपन्यास , कहानी और वार्ताएं तक लिखी गईं। हिंदी का प्रेमाख्यानक साहित्य भी पूर्व प्रेमाख्यानकों के साथ जोड़ा जाता है । इन प्रेम-कथानकों में कथा का आधार लोक से मिलता रहा है। हिंदी के आम पाठकों को लगता है कि हिंदी प्रेमाख्यानों का प्रारम्भ हिंदी के रासो ग्रन्थों से हुआ होगा और पृथ्वीराज रासो इस परंपरा का मुखर वक्तव्य है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिंदी साहित्य , पृष्ठ 261) ने भी यही माना है, “ मूलतः ये सभी प्रेम कथानक हैं। इनमें प्रेम कथानकों की सभी विशेषताएँ प्राप्त होती हैं। अंतर इतना ही है कि यहाँ नायक की युद्धपटुता और शौर्य प्रदर्शन मुख्य हो गया है और प्रेम व्यापार गौण।” यह ठीक वैसा ही है जैसा पाश्चात्य जगत में ‘रोमांस’ (आम लोगों के लिए उनकी ही अपरिष्कृत बोली में लिखा गया कथा साहित्य) साहित्य बारहवीं शताब्दी में फ्रांस से आरंभ होकर यूरोप भर में फैला और जिसका उत्स प्राचीन ग्रीक रोमांसों में ढूंढा गया। वहाँ कालांतर से रोमांस का अर्थ ही कल्पना और वीरता से भरी पर यथार्थ से दूर कथा से लिया जाने लगा ।पहली शताब्दी के ग्रीक भाषा में लिखे गए ‘नीनस रोमांस’ से लेकर मिडिल इंग्लिश के स्पेन्सेरियन रोमांसों तक लगभग वही ‘प्रेमाख्यान’ है जो संस्कृत के ‘पुरुरवा-उर्वशी’ से लेकर ‘चन्दप्पहचरिउ’ तक में है।
हिंदी प्रेमाख्यानों की विशुद्ध भारतीय या हिंदू प्रेमाख्यान और सूफी प्रेमाख्यानक दोनों धाराएँ डॉ. जैन के शोध का आधार रही हैं। साथ ही वे जैन धार्मिक रचनाओं को भी अपने अध्ययन क्षेत्र में लेते हैं। उनका स्पष्ट मत है, “संस्कृत कथाकाव्यों की भांति हिंदी प्रेमाख्यानकों को किसी एक परिभाषा के वृत्त में नहीं घेरा जा सकता। हिंदी प्रेमाख्यान अपनी पृष्ठभूमि में जहां एक ओर भारतीय प्राचीन परंपरा को सुरक्षित रखे हुए हैं, वहाँ दूसरी ओर अभारतीय विशेषकर सूफी परंपरा के प्रभाव से अछूते नहीं रह सके हैं।”(पृष्ठ 16) ।
‘हिंदी प्रेमाख्यानों का अपना एक निजी और नया काव्यरूप है” मानते हुए वे इनके अध्ययन के लिए ‘अपभ्रंश’ भाषा के ज्ञान की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं । यह वांछनीय भी है क्योंकि हिंदी कविता के खड़ी बोली रूप के चलन से पूर्व उसके मुखयतः छह अंग थे –डिंगल कवियों की वीर गाथाएँ , निर्गुणिया संतों की वाणियाँ , कृष्ण भक्त या रागानुरागा भक्ति मार्ग के साधकों के पद, राम भक्त या वैधी भक्ति मार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिन्दू कवियों के रोमांस और रीति काव्य। इन सभी धाराओं में अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है, ऐसा आचार्य द्विवेदी ने हिंदी साहित्य की भूमिका (1948) में उल्लेख किया है ।आचार्य शुक्ल भी अपने इतिहास के पहले प्रकरण के पहले वाक्य में यही बयान करते हैं – प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी साहित्य का आविर्भाव माना जाता है। वे उसे ‘प्राकृताभास’ कहते हैं। इसी तरह राम स्वरूप चतुर्वेदी भी अपने इतिहास ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ की शुरुआत में ही लिख डालते हैं, ‘कई अपभ्रंशों और कई जनपदों का संस्कार हिंदी काव्य भाषा में अंतर्भुक्त हुआ है।’
डॉ. जैन की मान्यता है कि हिंदी प्रेमाख्यानों के शिल्पगठन पर वास्तविक प्रभाव अपभ्रंश कथा काव्यों का पड़ा। वे शिल्प को सिर्फ शैली नहीं मानते बल्कि इसमें कथा की गठन (स्ट्रक्चर) , रूढ़ियाँ (मोटिफ), वस्तुवर्णन, साजसज्जा तथा कथा काव्यों के पूरे रचाव को भी शामिल करते हैं । वे प्रभाव को भी व्यापक अर्थ में लेते हुए उसे योगदान से जोड़ते हैं। साथ ही यह भी जोड़ देते हैं कि यह प्रभाव या योगदान "हू –ब –हू उन्हीं की नकल नहीं हैं” (पृष्ठ 97)। डॉ. जैन ने शिल्प का विस्तृत विवेचन करते हुए जो सूत्र रूप में कहा है, वह एक ओर तो उनके पाश्चात्य और भारतीय ‘स्टाइल, टेकनीक, रीति, वृत्ति, स्थापत्य’ आदि पारिभाषिक शब्दों की समझ से आगे की बात है, दूसरे उनके देरिदीय अंतर (differance- यह वर्तनी की भूल नहीं है, पारिभाषिक शब्द है ) को भी रेखांकित करती है ।
शिल्प एक व्यापक शब्द है जिसमें वस्तु के मूल गठन, स्थापन -संगठन, विधा-आकृति, तथा शैली सभी का समावेश हो जाता है। चूंकि यह शब्द केवल कथ्य वस्तु की अभिव्यक्ति– प्रणाली से ही सीमित नहीं है , इसलिए इसे साहित्यिक कोटियों में विभक्त करना भी पूर्णतः संगत न होगा। शिल्प में किसी भी जाति का पूर्णा प्रतिबिंब देखा जा सकता है। भारतीय साहित्य में कथा साहित्य का शिल्प भारतीय मानस की मनोवृत्ति का परिचायक है । सूफी आख्यानों में इसी कारण शुद्ध भारतीय शिल्प से किंचित भिन्न मनोवृत्ति का रूप दिखाई पड़ता है। (पृष्ठ 109)
आज के पाठक को शिल्प की ठीक-ठाक समझ हो, इससे तो किसी को इंकार न हो सकेगा । डॉ. जैन ने शिल्प के व्यापक अर्थ को ग्रहण करने की चेष्टा करते हुए अनुशंसा की है –
शिल्प के अंतर्गत शैली, काव्यरूप, कथाविन्यास और कथातत्वों को भी समाविष्ट करना चाहिए। यद्यपि वट वृक्ष का बीज़ अत्यधिक सूक्ष्म होता है तथापि उसके अंदर एक विशाल वट वृक्ष का रूप छिपा रहता है। ठीक वैसे ही ‘शिल्प’ शब्द के उल्लेख मात्र से रचना (कथा वार्ता, चरित, आख्यान, आदि) की रचना प्रक्रिया का – भाव से अभिव्यक्ति और उसके माध्यम तक की रचना प्रक्रिया का बोध होता है। मानव शरीर पृथ्वी, जल , वायु और आकाश पाँच तत्वों से निर्मित होता है, हाथ पैर, आँख, कान आदि उसके अंग-प्रत्यंग होते हैं, यदि शरीर का एक भी अंग-भंग है तो वह पूर्ण सुख से वंचित रहेगा। कथा का निर्माण भी अलग अलग तत्वों के मेल से होता है। कथा के उन तत्वों में से यदि किसी तत्व का शिल्प गठन कमजोर हुआ तो वही कथा का दोष बन जाएगा। दूसरे शब्दों में यह कि कथा के विभिन्न अंगों में सामंजस्य ही कथा को प्रभावोत्पादक और ग्राह्य बनाता है। कथा को विभिन्न तत्वों के माध्यम से उसकी पूर्णता को समझने का एक शिल्प होता है (पृष्ठ 117)।
एक महत्वपूर्ण बात जो डॉ. जैन ने कही है वह प्रतीकों के प्रयोग के संबंध में है। प्रतीक भारतीय दर्शन , धर्म, और शास्त्रों के बहुपरिचित तत्व हैं जिनका उपयोग हमारे देश में ऋग्वेद से लेकर आज तक अनेक रूपों में होता रहा है। हाँ, दार्शनिक प्रतीकों को काव्य का अनिवार्य उपादान बनाने की सायास कोशिश नहीं की गई। वे इस बात को कहते ही नहीं ज़ोर देकर दुहराते हैं कि प्रतीकों की अपनी एक भारतीय परंपरा थी जो वैदिक काल से सूफी काव्यों के समय तथा उसके बाद यानी आज तक चली आ रही है। उन्हीं के शब्द हैं – पुनः मैं इस बात को दोहराना चाहूँगा कि सूफियों की रचनाओं पर भारतीयता की छाप विदेशीपन की अपेक्षा कहीं अधिक है। ...यदि बिना आयस के हमें वेदों में भी अपनी बात की पुष्टि मिलती है और उससे हमारी शृंखला विघटित होने से बच जाती है तो निरर्थक क्या है? हाँ , हमें तथ्यों को नकारने भर का दुःसाहस नहीं करना चाहिए। (पृष्ठ 194)।
वे यह बात एक ओर तो डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे मूर्धन्य विद्वानों के विवेचन (कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन) को आधार और प्रमाण मानते हैं दूसरी ओर स्वयं ‘मयणपराजयचरिउ’ आदि ग्रन्थों से प्रमाण प्रस्तुत करते हुए सूफी कथाकाव्यों की प्रतीक पद्यति को अपभ्रंश कथा काव्यों की प्रतीक पद्धति से जोड़ते हैं।
कथा-विन्यास , चरित, कथा के उद्देश्य, वस्तु वर्णन, कथाभिप्राय (मोटिफ), निजंधरी तत्व, मंगलाचरण, सर्गनिबंध, ऋतु वर्णन, छन्दप्रयोग तथा कथा को भराव देने वाले जीवन के विभिन्न तत्व, खेल-क्रीडा, मनोरंजन आदि सांस्कृतिक मनबहलाव के साधनों के वर्णन में अपभ्रंश और हिंदी प्रेमाख्यानों में बहुतेरी समानताएं हैं। दोनों के बीच समानधर्मा प्रवृत्तियों के उदघाटन के इस अनुष्ठान के पाठ से कुछ नए क्षितिज तो उद्घाटित होते ही हैं यह भी रेखांकित होता है कि भारतीय प्रेमाख्यानक सम्पूर्ण एशियाई संस्कृति की प्रतिफलन पीठिका हैं। और जैसा डॉ जैन के सुयोग्य शोध निर्देशक डॉ शिवप्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक ‘रसरतन की भूमिका’ (पृष्ठ 73) में लिखा है और जिसे डॉ जैन ने अपने प्रबंध की ‘प्रास्ताविक’ में उद्धृत किया है वह कथन इस ग्रंथ के लेखक के लिए तो मार्ग दर्शक रहा ही , आज के पाठक को भी गर्व से भर देगा, “भारतीय प्रेमाख्यानक में अनुस्यूत तत्वों के समाजशास्त्रीय, पुरातात्विक और ऐतिहासिक अध्ययन का अभी आरंभ ही हुआ है । यह विपुल गईं राशि अनेकानेक सुधीजनों के श्रम और शक्ति का आह्वान करती है।” (पृष्ठ 5)।
किन्तु वह ‘श्रम और शक्ति’ जिसकी दरकार इस लेखन के लिए है, वह अब कहाँ है? क्योंकि जो यहाँ है वह केवल सहेज कर अलमारी में रखने या स्कैन करके ‘क्लाउड’ में रखने मात्र के लिए नहीं है। यह कृति पारायण मांगती है , पाठ की अभिलाषा रखती है । क्योंकि इस पाठ से ही ज्ञात होता है कि कहाँ क्या रहा है और है। पाश्चात्य जगत में अँग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टी एस एलियट ने भोक्ता और रचयिता के अलगाव को श्रेष्ठ काव्य रचना के लिए एक जरूरी शर्त माना है किन्तु भारतीय परंपरा के जैन कवियों ने अपभ्रंश कथाकाव्यों में जैन धर्म के निवृत्ति मार्ग की अपेक्षा लोक पक्ष और परलोक पक्ष का संतुलन और समन्वय है। डॉ जैन के शब्दों में, “अपभ्रंश काव्यों में लौकिक आनंद की दृष्टि से एक ओर शृंगारी पक्ष का चमत्कार मिलेगा तो दूसरी ओर संयम की यथार्थता का बयान भी” (पृष्ठ 214)। डॉ जैन ने महापंडित राहुल सांकृत्यायन आदि के खोजपूर्ण कार्य को आगे बढ़ाया। अनेक अन्य विद्वानों के निष्पक्ष वक्तव्यों से अपभ्रंश साहित्य की प्रतिष्ठा की। यह तर्क भी दिया कि यदि जैनेतर कहानियों की धार्मिक रचनाएँ कथा-कोटि में रखी जा सकती हैं तो न्यायोचित यही है कि हमें पक्षपात रहित होकर अपभ्रंश कथाकाव्यों की धार्मिक रचनाओं पर विचार करना चाहिए। आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में कुछेक रचनाओं को धार्मिक कहकर परे सरका दिया था किन्तु आचार्य द्विवेदी ने ऐसी मनोभावना को व्यर्थ मानते हुए कहा कि धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए। इसी मत को डॉ जैन ने पल्लवित किया। उनका मानना है कि कथाकाव्य के अंतर्गत रास, चरित, पुराण, के अतिरिक्त धर्म कथाओं तथा कथात्मक काव्यों का भी समावेश किया जाना चाहिए। उन्ही के शब्दों में- असल में जो लोग सिर्फ इतना जानते हैं कि जैन धर्म निवृत्ति मार्ग का पोषक है, वे ही जैन धर्म की अपूर्ण जानकारी होने के कारण धर्म एवं साहित्य पर अनेक दोषारोपण थोपते हैं। जैन साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि उसमें भारतीय कला, विद्या एवं अन्य लोक पक्ष अथवा परलोक पक्ष आदि विषयों के अंतर्गत एक व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत किया गया है (पृष्ठ 213)। कथा और प्रबंध को किस प्रकार छंदोबद्ध करके प्रस्तुत किया गया इसका उल्लेख समयसुंदर( सीताराम चउपइ) की पंक्तियाँ देकर डॉ. जैन ने संकेत में ही बता दिया है -
साँव पजुनक कथा सरस प्रत्येक बुद्ध प्रबंध ।
नलदमयंती मृगावती चउपई चार संबंध ॥
डॉ. जैन ने हिंदी प्रेमाख्यानकों की कथानक रूढ़ियों और अपभ्रंश काव्यों की रूढ़ियों का विस्तार से वर्णन विवेचन और विश्लेषण किया है । यह तो रेखांकित किया ही गया है कि अनेक कथानक रूढ़ियाँ संस्कृत साहित्य से ज्यों की त्यों पहले अपभ्रंश में और फिर हिंदी में आ गईं। यह भी बताया कि अनेक तत्कालीन लोक मानस की उपज हैं। एक उदाहरण देना मेरी चपलता न समझी जाए तो मैं ‘दोहद’ का उदाहरण दूंगा। भारतीय मान्यता में ‘दोहद’ किसी गर्भिणी स्त्री की इच्छा है। इस संकेत को समझते हुए डॉ. जैन के उस कथन की ओर दृष्टिपात करना श्रेयष्कर है, “हिंदी प्रेमाख्यानकों की वर्णन परिपाटी अपभ्रंश कथाकाव्यों की नींव पर ही खड़ी हुई। कुछ कथानकों को उदाहरण स्वरूप सामने रखकर विचार करने पर वर्णन परिपाटी का प्रश्न और भी स्पष्ट हो जाएगा। हिंदी प्रेमाख्यानकों का शिल्प अपभ्रंश कथा काव्यों के शिल्प का ही ऐतिहासिक विकास है (पृष्ठ 342)।
अपभ्रंश और हिन्दी के प्रेमाख्यानकों के इस अध्ययन के पाठ से यह समझ में आता है कि हिंदी की जननी भाषा अपभ्रंश ने लोकभाषा के रूप में अपना स्थान ही नहीं बनाया था बल्कि सर्जनात्मक रूप से भी इसे समृद्ध किया । पालि, प्राकृत, और संस्कृत की तुलना में अपभ्रंश भाषा कहीं अधिक लोकजीवनसंपृक्त भाषा रही। इसका पूरा कथा-साहित्य विशेषकर प्रेमाश्रित कथा-साहित्य इसी लोकमानस की देन है। अपभ्रंश कथा में ग्रहीत लक्षण आगे चलकर हिंदी के प्रेमाख्यानकों में पूरी तरह विकसित और पल्लवित हुए। अपभ्रंश के काव्यरूपों ने हिंदी में विकास पाया ।
संदर्भ –
अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक (1973)
लेखक –डॉ प्रेमचंद्र जैन , एम ए पी-एच.डी.
प्रकाशक – सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति, अमृतसर
प्राप्ति-स्थान - पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी -5
प्रो. गोपाल शर्मा, अरबा मींच यूनिवर्सिटी, इथोपिया prof.gopalsharma@gmail.com
द्रष्टव्य-
इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 135-142.
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