प्रेमचंद्र जैन की समीक्षा दृष्टि
डॉ. चंदन कुमारी
मान-मर्यादा और मूल्यों के घोर क्षरण युग में भी; कहीं शेष एक बिंदु भर सात्विकता उस आत्मिक ऊर्जा का अक्षय स्रोत साबित होती है जो प्राणियों में प्राण संचरित करते हुए एक निर्भीक वातावरण की निर्मिति को संपन्न कर दे। नजीबाबाद में गुरु जी के नाम से विख्यात और सर्वपरिचित ‘प्रेमचंद्र जैन’ ऐसे ही विरल व्यक्तित्व थे। कुंठारहित, कर्तव्यनिष्ठ और सर्वप्रिय इन गुरुजी के शिष्यों ने इन्हें एक ग्रंथ समर्पित किया। उस समर्पित ग्रंथ का नाम है- ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’(2016)। इस ग्रंथ की एक विशिष्टता यह है कि इसमें गुरुजी की उन रचनाओं को संकलित किया गया है जो यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हुई थीं। यह कार्य निहायत ही मित्र सहयोग, विशेष श्रम, पारखी दृष्टि और दृढ़ निश्चय की अपेक्षा रखता है। इस ग्रंथ के प्रधान संपादक आचार्य ऋषभदेव शर्मा हैं। प्रस्तुत आलेख ‘प्रेमचंद्र जैन की समीक्षा दृष्टि’ के लिए मैंने इसी ग्रंथ के दो खंडों को आधार स्वरूप ग्रहण किया है। वे खंड हैं- विमर्श से विमर्श तक एवं अंतरिक्ष में भेजे हुए शब्द। उक्त खंडों में क्रमशः आठ शोधपत्र और आकाशवाणी हेतु तैयार की गई सात वार्त्ताएँ हैं।
उपचार औ नीच विचारिये ना, उर अंतर वा छवि को घर है
सच्चा प्रेम अपेक्षा रहित होता है। यदि प्रेमी के प्रति प्रिय का प्रेम नगण्य भी है तो प्रिय के हित को साधकर ही प्रेमी संतुष्ट रहता है। इसीलिए बोधा का कथन है- ‘उपचार औ नीच विचारिये ना उर अंतर वा छवि को घर है। ’ इसी प्रेम के मार्ग को घनानंद सुगम और दुर्गम दोनों बताते हैं। देव के अनुसार बिना गहरे पैठे प्रेम सुलभ नहीं है। पुनः बोधा इस प्रेम मार्ग के संदर्भ में बताते हैं –
‘अति छीन मृनाल के तारहुते तेहि ऊपर पाँव दे आवनो है।
सुई बह ते ढारस कीन्ह तहों परतीति की टांड लदावनो है।
कवि बोधा अनी घनी तेजहूँ ते चढ़ि तापे न चित्त डरावनो है।
यह प्रेम को पंथ कराल महा तलवार की धार पे धावनो है। ’(शर्मा:2016,142)
प्रेम भाव केवल मनुष्य जाति की थाती नहीं है। जगत के अन्य सजीव प्राणी भी इस भाव की अनुभूति करते हैं। प्रेमपथ के राही का अगला पड़ाव ‘प्रणय’ है। यह प्रणय उच्चतर उद्देश्यों की पूर्ति का निमित्त है। वात्स्यायन के कामसूत्र का आधार लेकर काम के बृहत्तर अर्थ को स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद्र जैन लिखते हैं, “आत्मा से, संयुक्त मन से अधिष्ठित कर्ण, चक्षु, जिह्वा और प्राण का अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त होना काम है। ”( शर्मा:2016,139)। नासदीय सूक्त में काम को ‘अमोघ सृष्टिकारण’ कहा गया है। भारतीय मनीषियों को काम के वास्तविक स्वरूप का भान है। इसलिए भारतीय परंपरा में काम को वर्जित श्रेणी में नहीं रखा गया। काम का स्वरूप मनुष्य की इच्छाओं के अनुरूप निर्धारित होता है। जहाँ प्राणी की उच्चतर इच्छाओं से प्रेरित काम प्राणी के भाव-संसार में दिव्य सत्ता की अनुभूति करा जाती है वहीँ निम्नतर भावनाओं से प्रेरित कामेच्छाओं का स्वरूप वर्जनाओं की परिधि में समा जाता है। भारतीय काव्य परंपरा में उत्कृष्ट प्रेम कथाओं को ही प्रेमाख्यानक काव्यों का आधार बनाया जाता रहा है। मंझन कृत मधुमालती से संदर्भ लेते हुए जैन लिखते हैं, “प्रेम दीप जाके हिय जरा ते सब आदि अंत उजियरा। ”( शर्मा:2016,139)। जिसके हृदय में प्रेम की पीर जागृत हो गई उसीका जीवन सार्थक है। बातचीत, कथावार्ता, आख्यान और महाकाव्य के माध्यम से प्रेम की सार्वभौमिक अभिव्यक्ति की जाती है। कवि नूर मुहम्मद कृत इंद्रावती से लिए गए उद्धरण के आधार पर यह भी निश्चित हुआ कि बहुधा प्रिय की प्रिय वस्तु बन जाने की चाह भी प्रेमिका रखती है; ताकि वह प्रिय के समीप रह सके।
उर्वशी-पुरुरवा की कहानी को आधार रूप में ग्रहण करते हुए आगे संस्कृत सहित विविध भाषाओँ के साहित्य में काव्य, नाटक इत्यादि की रचना की गई। बौद्ध और जैन प्रेमाख्यानकों में यद्यपि उपदेश तत्व अधिक है फिर भी इनसे प्रेमाख्यानक परंपरा समृद्ध हुई है। अपभ्रंश साहित्य के चरित काव्यों और पुराण ग्रंथों में से यदि उपदेश और धार्मिक तत्वों को निकाल दिया जाए तो इन्हें प्रेमाख्यानक की श्रेणी में रखा जा सकता है।
समाज में महिलाओं का स्थान
प्रेमचंद्र जैन के अनुसार वैश्विक परिदृश्य में इस भूलोक पर स्त्रियों को पग-पग पर उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है जबकि वे लगातार अपनी समर्थता साबित कर रही हैं। फ़्रांस, यूरोप, रोम, जर्मन और फिजी जैसे देशों में भी स्त्रियों का घोर अनादर किया जाता था एवं उन्हें तरह-तरह से त्रास दिया जाता था। इस्लाम और इसाई धर्म में भी स्त्रियों के लिए विशेष सम्मान भाव देखने को नहीं मिलता। भारत में वैदिक काल से स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक रही है। विद्या, तप और सैन्याभ्यास का उन्हें समान अधिकार प्राप्त रहा है। यजुर्वेद में वर्णित स्त्रियों के ग्यारह गुणों को लेखक उद्धृत करते हैं, वे गुण इस प्रकार हैं- ‘हे ताड़ना न देने योग्य, आत्मा से विनाश को न प्राप्त होनेवाली, श्रेष्ठ शील से प्रकाशमान, प्रशंसनीय, गुणयुक्त, स्वीकार करने योग्य, मनोहर स्वरूप, रमण करने योग्य, अत्यंत आनंद देनेवाली, अनेक अच्छी बातें और वेद जानने वाली, अत्यंत प्रशंसा करने योग्य, प्रशंसित विज्ञान वाली पत्नी! उक्त गुण प्रकाश करनेवाले तेरे ये नाम हैं। तू उत्तम गुणों के लिए मुझको उत्तम उपदेश दिया कर। ’ यह प्रार्थी पुरुष स्त्री के प्रति शोषक की भूमिका में कब उतरा? वैदिक और औपनिषदिक काल में विद्यावती स्त्रियों का लोहा प्रबुद्ध समाज मानता था। आज भी यह स्थिति है पर इसके साथ ही स्त्री उपेक्षा भी त्वरित गति से चल रहा है। जैन धर्म के अंतर्गत जहाँ श्वेतांबर जैन स्त्रियों के लिए मुक्ति स्वीकार करते हैं वहीँ दिगंबर जैनियों ने स्त्रियों को मुक्ति मार्ग में बाधक मानते हैं। इस प्रकार कई अनचाही स्थितियों की एकजुटता स्त्री समाज पर हावी होकर उनके प्रति एक उपेक्षा मंडल का निर्माण करती हैं। इन कारणों की खोज करते हुए लेखक का विचार है, “स्त्रियों की उपेक्षा उनके द्वारा अधिक पुरुषों द्वारा कम है। दूसरी अशिक्षा का बोलबाला उनके उपेक्षित रह जाने का कारण है। यदि शिक्षा ग्रहण भी की है तो वह पश्चिमी है, जो कि भारत में स्त्री-पुरुष के संस्कारों के विपरीत होने से हितकर सिद्ध नहीं होती। ...शिक्षा की पद्धति कुछ ऐसी चल गई जिसमें नारी ने कार्यालयों, होटलों, हवाई जहाज की परिचारिकाओं, नर्सों आदि के ऐसे व्यवसाय चुने, जिनमें उनकी अपेक्षा होते हुए भी एक प्रकार की उपेक्षा ही बनी रही। आज आधुनिकता की दुहाई ने भी नारी की उपेक्षा में भी बढ़ोत्तरी भी की है। ....दूसरों द्वारा उपेक्षा कब तक हो सकती ही? वह न थी न हो सकती है। विदुषियाँ क्षेत्र में आएँ, उद्बोधित करें, शिक्षा-शिक्षण की पद्धति में मूलभूत सुधार करें। प्रवाह के सामने कौन स्थिर रह सका!” (शर्मा:2016,155-156)। स्त्री के दृढ़ निश्चय और कर्मठता के साक्ष्य से भारतीय संस्कृति का इतिहास पटा पड़ा है। पल भर भी असमर्थता को महसूसना स्वयं के अस्तित्व पर स्वयं प्रश्न खड़ा करने जैसा है। निर्मात्री उपेक्षित और असहाय क्यों हो भला? उपेक्षा दृष्टि रखनेवाले, छिन्न-भिन्न मन और द्वैत बुद्धि वाले, निहायत ही तरस के पात्र हैं।
रघुवीर शरण मित्र कृत भूमिजा पर केंद्रित लेखक की आकाशवार्त्ता ‘हल की रेखा से उपजी आग’ के माध्यम से सीता के प्रति उपेक्षित दृष्टि रखकर उनकी अग्नि परीक्षा लेने वाले राम (इस घटना के पीछे अन्य कारण भी रहे हों) धरती में समाती हुई सीता को बिलखते देखते और पछताते रहे! उन्हें रोकने की उनकी कोशिश नाकामयाब रही। संभवतः सीता की पीड़ाओं से उपजी आग की आँच को वे महसूस कर रहे होंगे। “भूमिजा के रचनाकार ने स्वयं स्वीकारा है कि भूमिजा के माध्यम से मैं मानव के अहं को द्रवित करना चाहता हूँ। चाहता हूँ आज का मनुष्य किसी की पीड़ा से खेल न करे। सबल, निर्बल और निर्दोष को सताए नहीं। प्राणी प्राणी के प्रति उदार हो। निराश और दुर्बल पलायन न करके शक्ति संचित करें। साहस अन्याय को पराजित कर दे। कोई यदि किसी के स्वत्व पर आक्रमण करें तो उसे मुँह की खानी पड़े। मित्र जी के इस कथन में सीता की पीड़ाओं से उपजी आग है। ” (शर्मा:2016, 226)।
‘निर्माण, सैनिक शिक्षा और संगठन सभी की चेतना है, अग्निजा’। यह आत्मजा हो या भूमिजा- हर स्त्री में सीता तदाकार है। उपेक्षित महसूस करने से बेहतर है सृजन धर्म निभाना, निर्माण करना, अपने निर्माण कार्य से विध्वंसक गतिविधि को अवरुद्ध कर एक दिव्य आभामंडल हर प्राणी के चतुर्दिक निर्मित कर, सृष्टि की संचालक शक्ति से अभिन्न हो जाना।
जैन धर्म : तीर्थंकर, मूलाचार और पाहुड दोहा
सामान्य प्रचलित मत है कि जैन धर्म के प्रवर्तक वर्धमान महावीर हैं। ये 24वें तीर्थंकर हैं। इस प्रचलित मत का खंडन करते हुए प्रेमचंद्र जैन तीर्थंकर ऋषभदेव को जैन धर्म का प्रवर्तक प्रमाणित करते हैं। इनके संदर्भ में लेखक बताते हैं कि समाज में शांति की स्थापना के लिए इन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। कर्मभूमि व्यवस्था के अग्र सूत्रधार होने के कारण इन्हें आदि ब्रह्मा या आदिनाथ भी कहा जाता है। उनके शोधपत्र ‘तीर्थंकर पार्श्वनाथ: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में’ में मुख्य रूप से जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध करना लेखक का अभीष्ट रहा है। इसके साथ ही अपने इस शोधपत्र में उन्होंने जैन धर्म पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ ‘तीर्थंकर’ शब्द की बहुविध व्याख्या भी देखने को मिलती है। एक व्याख्या के अनुसार जो स्वयं इस संसार सागर को पार कर ले तथा दूसरों को भी पार करा सके, वह तीर्थंकर है। ‘संसार से पार होना’ इस अर्थ का द्योतक ‘तीर्थ’ है। इसे आगम के सामान माना गया है इसीलिए आगम के कर्त्ता को तीर्थंकर कहा जाता है। किसी भी तीर्थंकर के जीवन में आनेवाले पाँच अवसरों को जैन धर्म में उत्सव की तरह मनाया जाता है। इन्हें पंचकल्याणक कहा जाता है। जिन पांच अवसरों पर उत्सव मनाया जाता है वे हैं- गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञानोत्पत्ति एवं निर्वाण।
जैन धर्म में साधुओं के दो मुख्य संप्रदाय हैं- श्वेतांबर और दिगंबर। जैन धर्म के दिगंबर साधुओं के आचार संबंधी ग्रंथ का नाम ‘मूलाचार’ है। इस ग्रंथ के मूल लेखक संबंधी विवाद का प्रामाणिक निपटारा करते हुए प्रेमचंद्र ने अपने शोधपत्र में वटटकेराचार्य को मूलाचार ग्रंथ का रचयिता सिद्ध किया। साथ ही इस ग्रंथ में निहित आचार विषयक मान्यताओं पर भी प्रकाश डाला गया है।
पाहुड दोहा शब्द में दोहा छंद का द्योतक है और पाहुड शब्द का अर्थ होता है जैन धर्म के विशेष विषय का प्रतिपादक ग्रंथ। जैनियों के मध्य कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में जानेजाने वाले कुंदकुंदाचार्य ने 84 पाहुड ग्रंथों की रचना की है। मुनि रामसिंह ने भी पाहुड दोहा की रचना की। “इन्होंने पाहुड दोहा को आध्यात्मिक एवं गूढ़वादी रचना के रूप में प्रस्तुत किया। मुनिजी कर्मकांड के विरोधी थे। वे प्रत्येक प्रकाशदाता तथा आत्मबोधक तत्व को गुरु स्वरूप में स्वीकार करते हैं-
गुरु दिणयरू गुरु हिमकरणु गुरु दीवउ गुरु देउ।
अप्पापरहं परंपरहं जो दस्सिसावई भेउ। । पाहुड दोहा, 1। ।
अर्थात वह जो कि स्व-पर या अपनी आत्मा और पर की परंपरा का भेद दरशाता है वह सूर्य-चंद्रमा गुरु है। ” (शर्मा:2016,189)। मुनि रामसिंह ने पाहुड दोहा के माध्यम से बाह्याडंबरों का खुलकर विरोध किया है। उनका स्पष्ट कहना रहा कि तीर्थों में स्नान से शरीर के चमड़े की शुद्धि हुई। इससे मलिन मन में कांति का संचार कहाँ हुआ? यदि मुंडन करना ही है तो चित्त का किया जाय। एक उपदेश देने का भाव पाहुड दोहा में मिलता है। यह उपदेश विशेष रूप से उनके लिए है जो साधु वेश का दुरूपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त आत्मा, परमात्मा, शिव और गुरु जैसे विषयों पर अधिक चर्चा मिलती है।
अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना
अद्दहमान कृत संदेशरासक के माध्यम से लेखक ने मनुष्य और प्रकृति के मध्य शाश्वत संबंध को रेखांकित किया है। दोनों की पारस्परिक निर्भरता की ओर पाठक का ध्यान भी खींचा है। वर्तमान पर्यावरणविद मनुष्य और पर्यावरण के मध्य जिस आत्मीयता या एकात्मकता का जिक्र करते हैं; उसी आत्मीयता स्थापन और नैसर्गिक सौंदर्य बोध को कलमकारों ने अपनी लेखनी से सिरजा है। अपभ्रंश साहित्य में यह पर्यावरण चेतना विपुलता से उपलब्ध है। मनुष्य और प्रकृति के मध्य वहां चर्चा सौंदर्य और आत्मीयता तथा संबंधित परिवर्त्तन तक ही सीमित है। तब न वातावरण प्रदूषित था न मन कृत्रिमता का आदि हुआ था; इसलिए अत्यंत सहज और निर्विकार पर बेहद लुभावने और मनमोहक प्राकृतिक दृश्यों एवं ऋतुगत बदलावों तथा उससे प्रभावित मनःस्थितियों का चित्रण अद्दहमान की कृति संदेशरासक में देखने को मिलती है। यह 12वीं शती की एक लघु कृति है। इसमें कवि ने बताया है, “मनुष्य का सारा जीवन ही प्रकृति से जुड़ा है। प्रकृति एक ऐसी सत्ता है, जो हमारी देह के साथ ही हमारे मन और विचारों को प्रभावित करती है, इसी कारण ऋतु परिवर्तन हमारे व्यवहार को, हमारे आचरण को बदल डालता है। इस अनिवार्य संबंध को नकारते हुए यदि मनुष्य प्रकृति के साथ मनमानी पर उतरता है, तो उसके अपने जीवन में अव्यवस्था उत्पन्न होती है और अस्तित्व बनाए रखने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। ...वस्तुतः मूल बात तो यह थी कि उस युग में पर्यावरण प्रदूषण या पर्यावरण असंतुलन जैसी समस्याएं नहीं थीं। वह युग प्रकृति के जीवन में हस्तक्षेप का युग न होकर प्रकृति सौरभ के वैभव और प्रकृति सौंदर्य पर रीझने का युग था, इसीलिए वही कविता में आया है। ....स्वयंभू और पुष्पदंत के प्रकृति चित्रण मानस को स्फूर्त कर देनेवाले हैं। ...कहना न होगा कि अपभ्रंश साहित्य के मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन की दिशा में शोधकार्यों की महती आवश्यकता है। ”( शर्मा:2016,163)।
जीवन सूत्र बनाम वैचारिक गंगा स्नान
जीवन सागर में गोते लगाकर गहरे पैठ कर सत्य रूपी जिन दुर्लभ रत्नों को प्रेमचंद्र जैन ने पाया; उसे उन्होंने अपने साहित्य संसार में पिरो दिया। शायद इसलिए कि जो उनके प्रत्यक्ष संपर्क में न आ सके वो उनके शोध कार्यों का पठन-मनन करके ही लाभान्वित हो ले। बाबू सिंह चौहान की कृति मकड़जाल में आदमी पर अपना विचार समाप्त करने से पूर्व प्रेमचंद्र जैन उसी किताब का एक अंश उद्धृत करते हैं । देखें- कलम को विराम देने से पूर्व नई यात्रा के लिए सावधानी आवश्यक है। “ऐ लोगों अपने पाँवों को रोज परखो, देखो कहीं वे उन्हीं रास्ते पर तो नहीं जा रहें, जिन्हें तुम छोड़कर आ रहे थे। उनमें बेड़ियाँ तो नहीं हैं, जिन्हें तुमने तोड़ा था और कहीं तुम पशुओं के पीछे या उनके ग्वालों के पीछे तो नहीं लौट रहे हो? और देखो कि समाज ने तुम्हारे लिए भी खूंटे गाड़ रखे हैं; कहीं तुम घूम-फिरकर उन खूंटों की ओर तो नहीं बढ़ रहे हो। (मकड़जाल में आदमी, पृष्ठ 113)। जीवन पथ पर पग बढ़ाने में सावधान रहना जरुरी है, इस प्रकार से सचेत करते हुए वे भी आगे बढ़ते हैं। अपने शोधपत्र जब लेखक सिंगापुर में अपने बेटे के साथ रह रहे थे। एक दिन बेटे का किसी पार्टी से देर से लौटना उनके बूढ़े पिता के मन को उद्विग्न कर रहा था पर बेटे के वापस आने के बाद उसकी बातों ने उनकी उद्विग्नता हर ही ली थी। एक भावात्मक स्नेह की अपेक्षा इंसान को हर वय में रहती है। (संदर्भ: शोधपत्र सिंगापुर बोर्न)। इसी में उल्लेख है कि एक भारतीय मूल का व्यक्ति विदेश में जन्म लेकर भी आजीवन अपनी भारतीयता पर गर्व करता है।
ऐसी ही प्रेरणास्पद तथ्यों के साथ लेखक ने कुछ प्रश्न भी उठाया है। ‘मैं बलिपथ का अंगारा हूँ जीवन ज्वाल जलाता आया’ – कविता की यह पंक्ति भारतीय आत्मा के नाम से जाने जानेवाले साहित्यकार एवं स्वतंत्रता सेनानी पं. माखनलाल चतुर्वेदी की है। वे “आज के संदर्भ में अपने रचनाकाल की अपेक्षा कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठे हैं। उस समय विदेशियों ने देश में अलगाववादी प्रवृत्तियाँ पनपाकर स्वतंत्रता प्राप्ति में घोर बाधाएँ उत्पन्न की थीं तो आज स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उससे कहीं अधिक जटिल समस्याएँ हमारे स्वदेशी तथाकथित और स्वार्थी राजनेताओं ने उत्पन्न कर दी है। कहीं असम, कहीं आमार बांगला, तामिल देशम, तेलुगु देशम और खालिस्तान आदि जैसे राष्ट्र को विघटित करनेवाले आंदोलनों की समस्या है तो कहीं कमर तोड़ मंहगाई से जूझते हुए शोषित आम आदमी की समस्या। परंतु जो जहाँ कुर्सी से चिपका है उसे उसके चारों पायों को जमाए रखने के अलावा उसे राष्ट्र का कितना ख्याल है, यह किसी से छिपा नहीं। राष्ट्र को स्वतंत्रता जिन बलिदानियों ने दिलाई वे यदि सुविधाभोगी होते तो क्या हम उनसे आजाद हो पाते?” लेखक के इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा? संसद या सड़क! ये परिस्थितियां यों ही बनी रहेंगी या बदलेंगी! साहित्य साधक हजारीप्रसाद द्विवेदी पर आधारित अपनी आकाशवाणी से प्रसारित वार्ता में प्रेमचंद्र जैन ने द्विवेदी जी से हुई अपनी अंतिम भेंट और उनके अंतिम आशीर्वाद को साझा किया है, जो इस प्रकार है- “कोई अभिनंदन करे तो, कोई गालियाँ दे तो,... उसमें निर्लिप्त रहना चाहिए....सम्मान आये तो, अपमान आए तो उससे अभिभूत नहीं होना है। परिश्रम के साथ, ईमानदारी के साथ, दृढ़ता के साथ अपना काम किए जाना है। वस्तुतः यह अद्भुत जीने की कला है। ” (दिनांक 23.8.75)।
इनके अतिरिक्त उन्होंने निर्मल वर्मा, शरतचंद्र, भारतेंदु इत्यादि पर भी अपनी वार्ताएं कही हैं। साहित्य और साहित्यकारों पर बात करते हुए लेखक ने निर्णयात्मक समीक्षा दृष्टि को अपनाया है और उनका समग्र मूल्यांकन करने की चेष्टा की है। प्रभाव ग्रहण, व्याख्या और अंतिम में किसी निष्कर्ष पर पहुंचकर संदर्भित विषय पर अपना निर्णय देना- निर्णयात्मक आलोचना पद्धति के विविध क्रम हैं। लेकिन प्रभाव्ग्रहं और व्याख्या के बाद भी हर बार निर्णय पर पहुंचना संभव नहीं होता है। जैसे एक विषय है शरतचंद्र के उपन्यासों में कौटुंबिक मर्यादा का संरक्षण। इस विषय में कौटुंबिक मर्यादा के मानदंड ही सबके अनुरूप अलग-अलग होंगे। अपने-अपने मानदंडों के आधार पर ही आलोचक अपने निर्णय पर पहुंचेगा। सतीप्रथा जो उस समय समाज की प्रचलित मान्यता थी शरतचंद्र की निगाह में असती रहना भी गलत नहीं था। “मनुष्य के अंतर में छिपी मनुष्यता को वस्तुतः सब नहीं देख पाते। वे ही देख पाते हैं जो परदुख कातर होते हैं और होते हैं सच्चे प्रेमी। शरतचंद्र में जो कुछ था या नहीं ये दोनों ही गुण उनके रोम-रोम में छिपे हुए थे। विविध विरोधाभासों के पुंज होने के बावजूद इन्हीं दोनों गुणों ने इन्हें आवारा की स्थिति से आवारा मसीहा के सर्वोच्च शिखर पर बैठा दिया है। ” (शर्मा:2016,211)। निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल का मंत्र देनेवाले भारतेंदु मात्र 35 वर्ष की अवस्था तक में हिंदी के उन्नयन एवं प्रचार-प्रसार के लिए अभूतपूर्व कार्य किया। जब उन्होंने निजभाषा की उन्नति की बात की तब-तब उनका आशय हिन्दुस्तान की सभी बोलियों की उन्नति से रहा। हिंदी का अस्तित्व हिंदुस्तान में बोली जानेवाली हर भाषा के साथ है और इसका विकास भी हिंदुस्तान की हर भाषा के साथ ही है। उनकी लेखनी के संदर्भ में प्रेमचंद्र का मत है, “भारत दुर्दशा देशभक्त नाटककार भारतेंदु की ही पुकार है। उस समय में इस प्रकार के नाटक लिखना बहुत पित्ते का काम था। सरसता और वीरत्व दोनों से ओतप्रोत लेखक ही इस प्रकार की रचनाएं देने में समर्थ हो सकता था। ” (शर्मा: 2016,210)।
उपलब्धियाँ, स्थापनाएँ और निष्कर्ष
ऋग्वेद के उर्वशी-पुरुरवा और यम-यमी सूक्त संवाद संपूर्ण विश्व का प्रथम प्रेमाख्यानक या प्रेम कहानी है। हिंदी का आख्यान काव्य अपभ्रंश के चरित और पुराण काव्य की देन है। हिंदी की सर्वप्रथम प्रेम गाथा मुल्ला दाउद कृत चंदायन या लोरक और चंदा है। हिंदी प्रेमाख्यानक परंपरा का आरंभ रासो काव्य से माना जाता है, उदाहरण- पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो इत्यादि। मसनवी पद्धति अपनाकर सूफी कवियों ने जो प्रेमाख्यान लिखे उनमें भारतीय और अभारतीय शैली का मिश्रित प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यहाँ से प्रेमाख्यानों की सूफी परंपरा का आरंभ हुआ। अपने पूर्ववर्त्ती साहित्य से अनुप्रेरित हिंदी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा भारतीय-अभारतीय संस्कारों के समन्वय का दर्पण है।
पुहकर कवि कृत रसरतन भारतीय प्रेमाख्यानक काव्य और विशिष्ट कृति है।
जैन धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव/ आदिनाथ हैं।
निर्मल वर्मा ने जो भी लिखा, आलोचनाओं से बिना घबराए निडरतापूर्वक लिखा। ..वे लिखने के लिए हर जोखिम उठाने का साहस रखते थे। उन्होंने स्वयं कहा था, “लिखने के लिए बड़ा रिस्क यही है कि आदमी अपनी संपूर्णता में किस तरह से जाता है। और जब तक हम असफल होकर लिखने का रिस्क नहीं उठाएंगे, तब तक सफलता का भी महत्व नहीं है।
स्त्री निर्माण, संगठन और सैनिक शिक्षा की चेतना से युक्त अग्निजा है। समाज में स्त्री की उपेक्षा का दारोमदार पुरुषों के साथ स्त्रियों पर भी है। इसके विरोध में स्त्रियों को मुखर होना होगा।
वृद्धावस्था जीवन के अनुभवों की सिद्धावस्था है। बढ़ई ताई का यह कहना कि जब लग साँस तब लग आस; जीवन के प्रति उनकी आस्था, निष्ठा और समर्पण भाव का द्योतक है। सुख-दुःख तो जीवन के रंग हैं, आते-जाते रहेंगे। अपनी खुशहाली अपने हाथों में है। यह निर्णय अपना करना है कि अप्राप्ति का रोना रोएँ या अपनी बची हुई साँसों को उत्साहपूर्वक जिएँ; स्थिति कितनी भी कारुणिक क्यों न हो; हर्ष की आवाजाही को वह रोक नहीं सकता यदि मनुष्य ने हर्षित रहने का मन बना लिया हो तो। वृद्धावस्था में भी मनुष्य के हृदय में प्रेमरस का परिपाक पुष्ट रहता है। 000
संदर्भ ग्रंथ: शर्मा ऋषभदेव, (2016) निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, नजीबाबाद: परिलेख
– डॉ. चंदन कुमारी,
द्वारा श्री संजीव कुमार, आईएफए , एयर फ़ोर्स स्टेशन, जामनगर_361003 (गुजरात)
chandan82hindi@gmail.com मोबाइल 8210915046
द्रष्टव्य:
इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 168-176.
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