और जितने दीप हैं, मैं सभी में हूँ!
गुर्रमकोंडा नीरजा
[1]
“मैं चला नजीबाबाद -
नसीबाबाद समझकर आया
सर्वत्र प्रेम ही पाया
'गर मिलता भी है गरल
उसे जगदीश निगल जाते हैं।” (प्रेमचंद्र जैन, गरल जगदीश निगल जाते हैं)।
सच में नजीबाबाद धन्य है। धन्य क्यों नहीं होगा, उसने ‘गुरु जी’ का असीम प्रेम जो पाया! ‘गुरु जी’! हाँ, इसी नाम से जाने जाते हैं डॉ. प्रेमचंद्र जैन जी - मेरे गुरु के गुरु के गुरु। इस अर्थ में वे मेरे परदादा गुरु हुए। इस गुरु-शिष्य परंपरा के कारण ही मुझे परदादा गुरु का अहेतुक स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
जब 2015 में गुरु जी के सम्मान में ‘निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक’ ग्रंथ की तैयारी हो रही थी, तो मुझे भी उस सारस्वत यज्ञ में गिलहरी के समान सहयोग करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 2016 में जब ग्रंथ प्रकाशित होकर आया, तो उन्हें समर्पित करने का निश्चय किया गया था। 3 दिसंबर, 2016 को अभिनंदन समारोह का आयोजन दिल्ली में हुआ था। सुबह 8 बजे दिल्ली पहुँचना था। लेकिन मेरा भाग्य का खेल कि गाड़ी रात को 8 बजे दिल्ली स्टेशन पहुँची। मैं विचलित होती रही कि गुरु जी से मिले बिना ही मुझे वापस लौटना पड़ेगा। लेकिन देवराज जी और ऋषभदेव शर्मा जी ने मुझे हिम्मत नहीं हारने दी। जब आयोजन स्थल पहुँची तो देखा, गद्दी बिछे हुए मंच पर गुरु जी शांत मुद्रा में बैठे हुए थे, लेकिन चेहरे पर थोड़ी सी परेशानी दिखाई दी। मेरे कारण गुरु जी को परेशानी जो झेलनी पड़ी। पहली बार गुरु जी का साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ। (अखण्डमण्डलाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम्। तत्पदम् दर्शितम् येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥)
गुरु जी का भरपूर आशीर्वाद बटोरकर मैं वापस हैदराबाद लौटी। उसके बाद से समय-समय पर गुरु जी से फोन पर बात हो ही जाती थी। त्योहार के दिन तो गुरु जी के फोन से नींद खुलती थी। उनके आशीर्वाद और स्नेह की वर्षा में मैं भीग चुकी हूँ। (कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आइ।/ अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराइ।) आज भले ही गुरु जी भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आत्मा हमारे साथ है और हमें असीसती रहती है। पग-पग पर उनकी उपस्थिति का अहसास होता है, क्योंकि गुरु जी के साथ आत्मिक रिश्ता जो बन गया था- जो अटूट है। गुरु जी के शब्दों में कहूँ तो -
‘भावनाओं से जुड़ा प्रेम
अटूट होता है’ (प्रेमचंद्र जैन, प्रेम)
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प्रेम के पीर
डॉ. प्रेमचंद्र जैन स्वाभिमानी, कर्मठ और अदम्य साहसी थे। उनके स्वभाव के संबंध में डॉ. देवराज का यह कथन उल्लेखनीय है- “स्वभाव से खिलंदड़ और हँसोड़।” (शर्मा:2016:61)। नित्यानंद मैठाणी कहते हैं कि शरीर से तो वे दुबले-पतले थे किंतु उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि सभी उनसे डरते थे। उनसे एक बार यदि कोई मिलते तो उन्हें आजीवन भूल नहीं सकते। ऐसे थे गुरु जी। अपरिचित व्यक्ति से भी ऐसे मिलते जैसे उन्हें बरसों से जानते हों। उनके व्यक्तित्व में विद्वत्ता और वत्सलता के संगम को देखा जा सकता है। उन्हें यदि प्रेम का 'पीर’ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं।
जैन परंपरा के मर्मज्ञ विद्वान थे डॉ. प्रेमचंद्र जैन। जैन धर्म अपनी मान्यताओं, स्थापनाओं, कर्मकांड और रूढ़ियों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन वे इस धर्म में घुस आए पाखंडों और रूढ़ियों का खुलकर विरोध करते थे। इतना ही नहीं, वे जैन लोगों के जीवन में जमी कुरीतियों की धज्जियाँ भी उड़ाते थे। वे धर्म को लोकहित-कारक के अर्थ में स्वीकारते थे। उनके अनुसार धर्म कर्तव्य है। वे बार-बार यही कहते थे कि “धर्म का लोकहित-कारक अर्थ ‘कर्तव्य’ को ही स्वीकार करना चाहिए। हिंदू-मुस्लिम-ईसाई आदि संप्रदाय या मत मानने से विवादों को विराम देने का मार्ग प्रशस्त नहीं होता है। मेरा इसी प्रकार का विश्वास है। कर्तव्य और धर्म शब्द प्रायः एक ही संदर्भ में प्रयुक्त करने से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।... मैं अपने अनुभव के आधार पर कहूँगा कि वर्तमान में धर्म और कर्तव्य की व्याख्या ही बदल गई। इसी के कारण व्यक्ति अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति घनघोर उपेक्षा के लिए लेशमात्र शर्मसार होने को तैयार नहीं है।” (शर्मा:2016:406)
प्रेमचंद्र जैन जीवन भर ढाई आखर प्रेम को ही महत्व देते रहे। उनके अनुसार “प्रेम सदैव अनुभूति परक रहा है, अतएव प्रेम को किसी परिभाषा के घेरे में अनुकूलित नहीं किया जा सकता। प्रेम मानव-स्वभाव की ही संपत्ति हो ऐसी बात नहीं है। वह तो पशु-पक्षियों में भी विद्यमान है और यदि प्रेम की सत्ता को प्राणिमात्र में भी स्वीकार किया जाए तो वह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।” (शर्मा:2016:139)। उनके अनुसार जिस व्यक्ति में प्रेम की पीर जागृत हो गई, उसका जीवन सार्थक है। वे भावनाओं से जुड़े हुए प्रेम को ही महत्व देते थे।
डॉ. प्रेमचंद्र जैन मानवता के पक्षधर थे। धर्म और संप्रदाय के कटघरे में वे फिट ही नहीं होते। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वे सही अर्थों में सामाजिक थे। उनके गुणों के बारे में उन्हीं के शब्दों से जान लें - “ज़मीन का आदमी था, समाज से जुड़ा था। तमाम सारे छात्र-छात्राओं की समस्याएँ, उनके निदान और दूर करने के उपाय; विविध शैक्षणिक सामाजिक संस्थाओं में होने वाले समारोहों-आयोजनों में शिरकत करने के लिए; अपने अध्ययन-अध्यापन के उत्तरदायित्व को मनसा-वाचा-कर्मणा निभाते हुए समय देना - हर किसी के लिए संभव नहीं होता। मुझमें इसी प्रकार के बहुचर्चित गुण-दोष थे।” (शर्मा:2016:404)। अपने इन्हीं गुण-दोषों के कारण वे अपने विद्यार्थियों और नजीबाबाद वासियों के निकट थे और उन्हें बहुत प्रिय थे। नजीबाबाद में न ही उनका जन्म हुआ और न ही शिक्षा-दीक्षा। यह तो उनकी कर्मभूमि थी। लेकिन वे नजीबाबाद के ही होकर रह गए - उनका काबा और काशी यही नजीबाबाद था। उन्होंने इस बात को स्पष्ट किया कि “यहाँ मेरे बस जाने या रुक जाने के निजी कारण हैं और पूर्णतः स्वांतः सुखाय हैं।” (शर्मा:2016:406)
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सदैव तत्परता
डॉ. प्रेमचंद्र जैन एक ऐसे व्यक्ति थे जिनमें अदम्य जिजीविषा और कुछ करके दिखाने की भरपूर इच्छा शक्ति थी। यह बात उनके गुरु डॉ. शिवप्रसाद सिंह के कुछ पत्रों से भी स्पष्ट होती है- “तुम संकल्प को यथासमय सही ढंग से पूरा करने में सदैव तत्पर रहे हो।” (शर्मा:2016:330)। प्रेमचंद्र जैन कहते तो कुछ नहीं, बल्कि करके अवश्य दिखा देते थे। वे बहुत ही साहसी थे। वे जो कार्य हाथ में लेते थे, उसे पूरा करने तक दिन-रात एक कर देते थे। शिवप्रसाद सिंह के अभिनंदन ग्रंथ के लिए आलेख संग्रहीत करते समय उन्हें बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ा होगा। गुरु अपने शिष्य को परेशान होते नहीं देख सकते, इसीलिए शायद शिवप्रसाद सिंह ने उन्हें एक पत्र (8.8.88) लिखा था- “तुम इतना अस्वस्थ रहते हुए भी शिवप्रसाद नामक व्यक्ति के लिए क्यों छटपटा रहे हो? क्या किया शिवप्रसाद सिंह ने? पूरी ज़िंदगी बस एक अपढ़ गँवार व्यक्ति के अनुभव ही तो मिले- वह भी सिर्फ उन्हें जो अपने को पाठक कहते हैं।” (शर्मा:2016:331)। लेकिन प्रेमचंद्र जैन जिद्दी भी कम नहीं थे। उसी जिद के परिणाम स्वरूप हिंदी साहित्य जगत को शिवप्रसाद सिंह का अभिनंदन ग्रंथ ‘बीहड़ पथ के यात्री’ प्राप्त हुआ। (जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहिं न कछु संदेहू। - मानस)
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गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई
प्रेमचंद्र जैन शिष्य वत्सल गुरु थे। माता-पिता से प्राप्त सुलभ संस्कारों के साथ-साथ गुरुजनों द्वारा प्रदत्त ज्ञानराशि से वे आजीवन बँधे रहे। उन्होंने स्वयं यह स्वीकृत और घोषित किया कि “गुरुवर डॉ. शिवप्रसाद सिंह और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व के नैकट्य से जो मूल मंत्र ग्रहण किए थे, वे मेरे अंतिम समय तक साथ रहेंगे।” (शर्मा:2016:406)। इन मंत्रों में एक मूल मंत्र है- “अपने आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक सर्व के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता, तब तक स्वार्थ खंड सत्य है, मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय कृपण बना देता है। कार्पण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहृत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है, वह स्पष्ट नहीं देखा पाता, वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।” (शर्मा:2016:406)। इन मंत्रपूत वाक्यों से प्रेमचंद्र जैन हमेशा ही सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने की शक्ति प्राप्त करते रहे। इसीलिए शिष्यों के लिए दलित द्राक्षा की तरह अपने आपको निचोड़कर प्रस्तुत कर सके। वे शिक्षकों से यह प्रश्न करते थे कि “यदि वे स्वयं गहन अध्ययन पूर्वक कृपणता और पक्षपातयुक्त व्यवहार छोड़कर अपने उत्तरदायित्व का ईमानदारी से पालन करेंगे तो उन्हें उनके कार्य में क्यों बाधा आएगी?” (शर्मा:2016:407)। उनका मानना था कि शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच शिष्टाचार के मर्यादित आचरण के अतिरिक्त अन्य दूरियाँ नहीं होनी चाहिए। तभी एक स्वस्थ परंपरा पनपेगी।
प्रेमचंद्र जैन की कथनी और करनी में कहीं कोई अंतर नहीं दीखता। अपने शिष्यों के लिए वे कैसे गुरु थे, यह तो उन लोगों के वक्तव्यों से ही जाना जा सकता है। “गुरु जी के अध्यापन के समय कक्षा का वातावरण कभी बोझिल या उबाऊ नहीं रहता था। विषय को इतना रोचक बना देते थे कि कोई छात्र विषय से भटक नहीं सकता था। ... सारा ज्ञान छात्रों के मस्तिष्क में उड़ेलने का प्रयत्न करते थे और छात्र भी पूरे मनोयोग के साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। छात्र दूसरे अध्यापकों की कक्षा अवश्य छोड़ देते थे किंतु गुरु जी की कक्षा छोड़ने का दुःसाहस कभी नहीं करते थे। दूसरी कक्षा के छात्र भी गुरु जी की कक्षा में बैठने का प्रयास करते थे।” (डॉ. निर्मल शर्मा)। “मैंने गुरु जी को कभी गुरु जी नहीं कहा, एक इकलौती शिष्या मैं ही हूँ, जिसने हमेशा उन्हें अंकल कहा।” (डॉ. हेमलता राठौर)। देवराज जी और गुरु जी तो हमेशा एक साथ ही पाए जाते थे। “नजीबाबाद के लोग बरसों यह विश्वास करते हुए रहे कि देवराज का पता करना है, तो गुरु जी से पूछो और गुरु जी के बारे में कुछ जानना है, तो देवराज से पूछो।” प्रेमचंद्र जैन की इस शिष्य वत्सलता को गुरु मंत्र की तरह डॉ. देवराज जैसे उनके शिष्यों ने भी अर्जित किया है। (गुरु बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥)
प्रेमचंद्र जैन माता-पिता और गुरुओं से प्राप्त संस्कारों का पालन आजीवन करते रहे। वे भविष्य की चिंता नहीं करते थे। शिष्यों की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त गुरु के पास भविष्य के संबंध में सोचने का अवसर कहाँ होता! “अध्यापन में भी तीनों कालों में वर्तमान को सँवारने के लिए अधिकतम क्षमताओं का उपयोग करने पर बल दिया। मजबूत नींव, भूतकाल में तलाशने के बाद ही वर्तमान पर ध्यान केंद्रित कर लिया जाए तो भविष्य की चिंताओं को लादे रखना बुद्धिमत्ता नहीं है।” (शर्मा:2016:404)। यह उनकी दृढ़ मान्यता थी।
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चश्म नम हैं मुफ़लिसों को देखकर
प्रेमचंद्र जैन परिवार और रिश्तों को महत्व देते थे। उनकी मान्यता है कि जब व्यक्ति आत्मिक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं तो किसी भी तरह की समस्याएँ नहीं होतीं। एक समय ऐसा था जब भारत भर में संयुक्त परिवार की परंपरा को सामाजिक मान्यता मिली थी। लेकिन “अब उसके समाप्तप्राय हो जाने से पारिवारिक, कौटुंबिक, यहाँ तक कि वैयक्तिक समस्याएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। उधार ली गई व्यक्तिवादी संस्कृति स्वार्थपरता, असहिष्णुता, हिंसा तथा पाशविक आचरण को बढ़ावा देने में सहायक ही हुई है।” (शर्मा:2016:405)।
व्यक्ति स्वार्थलोलुप होता जा रहा है। मोह-माया में पड़कर इतना अंधा होता जा रहा है कि वह सही और गलत की पहचान ही नहीं कर पा रहा है। काला धन, चोर बाजारी, रिश्वत, महंगाई, बलात्कारियों की दुनिया है चारों ओर। प्रेमचंद्र जैन इस दुनिया को छोड़ आने की बात करते हैं। आदमी को आदमी की तरह जीने पर बल देते हैं। उनका मन विद्रूपताओं को देखकर व्यथित हो जाता है। उनकी दृष्टि में कोई हिंदू-मुस्लिम-ईसाई-जैन नहीं है, बल्कि सब केवल मनुष्य हैं। जब इन पर विपत्ति आती है, तो उनका मन द्रवित हो जाता है। राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के बाद जब अयोध्या में मंदिर तोड़ने की अघटनीय घटना हुई, तब नजीबाबाद में भी नाजुक स्थितियाँ पैदा हुईं। गुरु जी ने अपनी सूझबूझ से वहाँ शांति का वातावरण कायम किया। “फिरकापरस्त और सांप्रदायिक ताकतों को अहसास हो गया कि इस नगर में दंगा करवाना आसान काम नहीं है। .... नजीबाबाद हिंदू- मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों की आग में बरबाद होने से बच गया।” (शर्मा:2016:66)। वे आदमी को इनसान के रूप में बदलने के लिए आग्रह करते हैं। हैवानियत छोड़कर इनसानियत को अपनाने की अपील करते हैं। (शर्मा:2016:127)
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इष्ट फल
डॉ. प्रेमचंद्र जैन अपने दायित्व को बखूबी जानते थे। उन्होंने न ही अपने दायित्वों से मुँह मोड़ा और न ही पलायन का रास्ता अपनाया। शिक्षक- शिक्षार्थियों के बिगड़ते रिश्तों के बात जब आती, तो वे डंके की चोट पर कहते थे कि “हम सबको मिलकर इन परिवर्तनों पर गंभीरता से सोचने- विचारने और चर्चा करने की आवश्यकता है। साथ ही जागरूक होना और जागरूक करना है। अब भी बिगड़ा कुछ नहीं है। अलबत्ता अपनी- अपनी स्वार्थपरता एवं प्रलोभन का नियंत्रण करना है। अपने सामाजिक तथा व्यक्तिगत दायित्वों को ईमानदारी से निभाने की आवश्यकता है। हमें राष्ट्रीय भावनाओं को शून्य होते देख वेदना होनी चाहिए और एक नागरिक के कर्तव्यों से विमुख नहीं होना चाहिए। विद्यार्थी, अभिभावक और शिक्षक का आपसी संबंध निकटता का रहेगा और वे अपने- अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहेंगे तो समस्याएँ स्वतः नज़र नहीं आएँगी। निःसंदेह शिक्षकों का उत्तरदायितव अपेक्षाकृत बड़ा है। प्रथमतः उन्हें कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ एवं सच्चरित्र होने की अनिवार्यता है।” (शर्मा:2016:434)। यदि कहीं भी कभी भी एक शिक्षक दुराचार में लिप्त पकड़ा जाएगा, तो समाज की निगाहें संपूर्ण शिक्षक जगत पर ही उठती हैं।
साहित्यकारों के दायित्व के संबंध में भी प्रेमचंद्र जैन का यह कथन उल्लेखनीय है कि 'जो उपेक्षित है, वह साहित्य का विषय होना ही चाहिए।' उनकी मान्यता थी कि “संवेदना ही कविता की जननी है। अपनी रचना को कवि संतानवत सँवारता, दुलारता और सहेजता है। न केवल इतना ही बल्कि उन्हें संरक्षित करना भी निजधर्म मानता है।” (शर्मा:2016:389)। शोषक की व्यथा से शोषित की व्यथा भिन्न और विकट होती है। इसलिए प्रेमचंद्र जैन सहृदयों से यह अपील करते हैं कि “इसी विकटता का, दो टूक उत्तर - / साहित्यकार का दायित्व है।” (प्रेमचंद्र जैन, अहसास)।
संवेदनाओं के अभाव में तो रचनाएँ जन्म ले ही नहीं सकतीं। संवेदना से ही साहित्यकार का अनुभूति कोश समृद्ध होगा। प्रेमचंद्र जैन का अनुभूति कोश बहुत समृद्ध था। वे कोरे भाग्यवाद में विश्वास नहीं रखते थे। उनकी माँ की सीख उनके साथ चलती थी- ‘होकर सुख में मगन न फूले, दुख में कभी न घबरावे।’ वे अकेले चलते गए और लोग उनके साथ चलते गए और कारवां बनता गया -
आएगा सवेरा
अब नहीं हूँ मैं अकेला
और जितने दीप हैं
मैं सभी में हूँ
पी रहा हूँ सब अँधेरा
थको तुम मत मीत
मृत्यु से भयभीत
अमरत्व की श्रम की -
सदा ही जीत। (नेह बाती चुक रही है)
‘गुरु जी’ अपने गुरु शिवप्रसाद सिंह द्वारा प्राप्त गुरुमंत्र को हमें विरासत में दे गए- “चिंताएँ छोड़कर नियति से लड़ो ... लड़ना ही धर्म है। सारा जीवन बन जाए युद्ध। ... तभी मृत्यु का भय भाग जाता है।” 000
संदर्भ ग्रंथ-
शर्मा, ऋषभदेव सं. (2016). निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक. नजीबाबाद : परिलेख
- डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह-संपादक ‘स्रवंति’, असिस्टेंट प्रोफेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद- 500004, ईमेल: neerajagkonda@gmail.com
द्रष्टव्य: इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 334-340.
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