शनिवार, 16 अप्रैल 2022

(डॉ. मंजु शर्मा) डॉ. प्रेमचंद्र जैन : जितना मैंने उन्हें समझा

डॉ. प्रेमचंद्र जैन : जितना मैंने उन्हें समझा                                       

  • डॉ. मंजु शर्मा

अध्यापक को राष्ट्र का भाग्य निर्माता कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।  विषय विशेषज्ञ, शोध निर्देशन करने वाले, राष्ट्रीयता और संस्कृति के पोषक और संवाहक तथा स्वस्थ सामाजिक परंपराओं को आगे ले जाने वाले तथा कुप्रथाओं को तोड़ने एवं समाज को सकारात्मक दृष्टिकोण देने वाले अर्थात विचारक, लेखक, ज्ञानवर्धक और साधक क्या-क्या कहा जाए; जितना कहा जाए कम है।  ये सारे गुण गुरु पद को सुशोभित करने वाले रश्मिपुंज, ‘गुरुजी’ नाम से विख्यात डॉक्टर प्रेमचंद जैन के व्यक्तित्व में रहे होंगे; उनके साहित्य की एक झलक यह विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त है। उनके अपने संस्मरण और उनके बारे में उनके निकटस्थों के संस्मरण पढ़ कर मुझे मलाल हुआ कि ऐसे संत और मनीषी का सान्निध्य मुझे नहीं मिल सका। जिन्हें मिला, वे धन्य हैं। लेकिन मैं भी कम भाग्यशाली नहीं हूँ क्योंकि मुझे कृतित्व रूपी अक्षरवतार का सान्निध्य मिला है। वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अक्षय अक्षर रूप में वे सदा उपलब्ध रहेंगे- 'नास्ति येषां यशः काये, जरा मरणजं भयं!' 

मेरे मन में उनकी एक छवि बनी है। सब प्रकार से जागरूक एक सम्पूर्ण शिक्षक की छवि! उन्होंने कक्षा और पाठ्यक्रम से पार भी आजीवन अपने विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया।  अनुशासन प्रिय गुरुजी ने अक्खड़ विद्यार्थियों को अनुशासन में चलना सिखाया, तो शिक्षक-संघ के अध्यापकों के लिए संघर्ष भी किया। इन्होंने  विद्यार्थीजन  के बीच खूब लोकप्रियता अर्जित की। वे केवल शिक्षक नहीं, सद्गुरु थे। उनकी कृतियाँ भी उनके समान ही ज्ञान का पुंज हैं। वे भी गुरु हैं। व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक।  ’गुरु बिन ज्ञान कहाँ’ – गुरु दीपक है जो शिष्य या क्यों कहें कि पूरे समाज को प्रकाशमान करता है। उसकी रोशनी में शिष्य निरंतर चलता रहता है। अबाध गति। डॉ. प्रेमचंद्र जैन का शिष्यों से रिश्ता  दूध और पानी की तरह सायुज्य का रिश्ता था।  थे। अलग करना असंभव। इस अपनत्व के अनुभव को बस  ऐसे ही  लिखा जा सकता है- 

“वे मृत्यु सत्य, मैं जीव सत्य

 इस भेद सत्य का नहीं अंत

      मैं देवराज ,मैं प्रेमचंद्र ।“

धन्य हैं वे शिष्य जिन्होंने ऐसा संपूर्ण गुरु पाया, जहाँ दोनों  आत्मसात हो जाते हैं! (निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, पृष्ठ:395) 

डॉक्टर प्रेमचंद जैन की सूझबूझ तथा सतत प्रयासों से नजीबाबाद में लेखक सम्मेलन तथा साहित्य कुंभ जैसी अंतरराष्ट्रीय ख्याति की योजना का जन्म हुआ। उनके विचारों ने हिंदी को पुष्पित-पल्लवित किया, जन-जन की वाणी बनाया।  आपकी प्रवृत्ति कुछ कर गुजरने की थी हथेली पर चलकर भी और लीक से हटकर भी! इसी दीवानगी के बल पर वे समाज के हर वर्ग के लोगों को साथ लेकर नजीबाबाद को  हिंदी आंदोलन के नक्शे पर पहचान दिला सके।

डॉ. प्रेमचंद्र जैन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साथ ही, वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे।  उनकी वाणी मधुर और साहित्य तथा ज्ञान की अमृत-वर्षा करती थी। चंद्रमणि रघुवंशी कहते हैं –  “कृशकाय डॉ. प्रेमचंद्र जैन प्रभावशाली व्यक्तित्व न होने के बावजूद अपने ज्ञान की बपौती के बूते पर, मिलने वाले प्रत्येक अपरिचित पर अमिट प्रभाव छोड़ने में सदैव सफल रहते हैं उनकी विनम्रता 'सोने में सुहागा'  की कहावत को चरितार्थ करती  है।” उनका सान्निध्य  पाकर लोग स्वयं को बड़भागी समझते थे। उनका सहज स्वभाव निस्वार्थ प्रेम के कारण सबको आकर्षित करता था।

डॉ. प्रेमचंद्र जैन प्रसिद्ध जैन-धर्म-मर्मज्ञ भी  थे;  जैन लोगों के जीवन में आई कुरीतियों को बाहर निकालने में अग्रसर थे । वे पढ़ाते समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की सबसे अधिक चर्चा करते थे।  उनके पढ़ाने की शैली अनोखी थी।  सरलता और तरलता वाणी से झलकती थी। संस्कृत के श्लोक पूरी तरह गाकर पढ़ाते, तो काव्यशास्त्र की व्याख्या करते समय फिल्मी गीतों का सहारा लेते। विद्यार्थियों को बाँधे रखते। साथ ही बार-बार प्रश्न पूछना भी जारी रखते। यह शिक्षण का उनका छात्राभिमुखी तरीका था।  विद्यार्थियों से जुड़ने का जुगाड़ करते! महज़ पाठ्यक्रम पूरा करना उनका उद्देश्य नहीं था। बल्कि विद्यार्थियों को आजीवन  सीखने- सिखाने पर बल देते थे। ।

विद्यार्थियों के साथ उनका।एक आत्मीय संबंध था। वे  सबके प्रेरणास्रोत थे –

“उठो ! मेरे दुलार ! और आकाश छूलो।

बढ़ते चलो चरण-चरण, गिरतों को संभाल लो।” 

(वही, पृष्ठ संख्या : 394) |

यह अध्यापक और छात्रों के बीच का वह मानस है जहाँ शिष्यों का स्नेह, गुरु की गरिमा, नागरिक का दायित्व और सृजनकर्ता की रचनाधर्मिता व्याप्त है। उनकी कबीर की सी निरहंकार अक्खड़ता और निर्भीक स्पष्टता से शिक्षकों को मार्गदर्शन मिलता है। हर शिक्षक को उनकी यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए- “मेरी धारणा है कि जो शिक्षक अपने कार्य को सत्य, निष्ठा एवं पूरी ईमानदारी से अंजाम देगा, वह कभी मात नहीं खाएगा।” (वही, पृष्ठ :417)। यह उनके स्वानुभव का सार है। 

‘गुरु’, मार्गदर्शक , समाज के नीति निर्धारक के  अतिरिक्त  डॉ. प्रेमचंद्र जैन को  साहित्य साधक के रूप में भी देखा जा सकता है।  उन्होंने ‘ढाई आखर प्रेम के’ आलेख मरीन हिंदी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा के बारे में अनूठी और विस्तृत जानकारी दी है। उनकी यह स्थापना की भ्रांतियों का निराकरण करने मरीन समर्थ है कि हिंदी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा न केवल अपने पूर्ववर्ती साहित्य से प्रेरित है, बल्कि वह भारतीय  संस्कारों के समन्वय का दर्पण भी है। वे सूत्र देते हैं कि प्रेम सदैव अनुभूतिपरक रहा है। अतएव  प्रेम को किसी परिभाषा के घेरे में अनुकीलित नहीं किया जा सकता।(वही, पृष्ठ:.139)।

डॉ.  प्रेमचंद जैन की सामाजिक चेतना भी बड़ी प्रखर दिखाई देती है। दरअसल वे निरे निष्क्रिय बौद्धिक जीव नहीं थे। बल्कि समाज उनके लिए साहित्यिक स्थापनाओं की प्रयोगशाला था। सामाजिक प्रतिबद्धता के कारण ही वे मुखर स्वर में भारतीय समाज में महिलाओं की उपेक्षा के खिलाफ आवाज़ उठाते दिखाई देते हैं। स्पष्ट है कि वे स्त्री को समाज की संरचना का मुख्य आधार मानते थे। संसार में व्याप्त जाति, वर्ण, धर्म और वर्ग के दायरे से बाहर उन्होंने केवल नर और मादा दो जातियों की धारणा को महत्व दिया। वे जातियों, जनजातियों,  उपजातियों के व्यवस्था को आपसी वैमनस्य का हेतु और अमानवीय मानते थे।   उन्होंने यह भी लक्षित किया कि महिलाओं की उपेक्षा केवल भारत में हो, ऐसी बात नहीं है।  यह पीड़ा तो विश्व की हर महिला को भोगनी पड़ती है। उन्होंने तथाकथित सभ्य  देशों पर गिरे परदों  को हटा कर यह दिखाने का साहस किया कि वहाँ भी स्त्री उतनी ही तिरस्कृत और अपमानित है, जितनी बर्बर देशों में।  महिलाओं के प्रति उपेक्षा-भाव भारतीय समाज में तो खैर व्याप्त है ही, पर विश्व के अनेक देशों के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक ग्रंथों से महिलाओं के प्रति उपेक्षा पूर्ण रवैये का ब्यौरा मिलता है। उदाहरण के लिए प्राचीनकाल में रोम राज्य यूरोप की नाक समझा जाता था, परंतु वहाँ की स्त्रियों को नंगा रखा जाता था और दंड  देने के लिए उनके लंबे- लंबे बाल छत की कड़ी से बाँध कर लटका दिया जाता था। (वही, पृष्ठ 150)। इस तरह के विवरणों के बहाने डॉ. प्रेमचंद्र जैन नारी जाति को जागृत कर उसके अपनी पहचान समझने के लिए आगे आने पर बल देते हैं। उनका मानना है कि  तब तक स्त्रियाँ उपेक्षित होती रहेंगी, जब तक वे  स्वयं की  शक्ति को नहीं पहचानेंगी और इसके लिए विदुषियों  को आगे आकर  शिक्षा-शिक्षण की पद्धति में सुधार करना होगा। वे स्त्री विमर्श तक ही नहीं रुकते, हरित विमर्श के क्षितिज को भी छूते हैं। उन्होंने बहुत पहले यह प्रतिपादित किया है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य में पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण को महत्व दिया गया है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमने इसे भुलाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। पर्यावरण की समस्या और संरक्षण आज ज्वलंत वैश्विक मुद्दा बना हुआ है।  डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने ‘अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना’ शीर्षक शोधपत्र में पर्यावरण संरक्षण पर बल दिया है और इसके माध्यम से बताया है कि प्रकृति में समतोल है, सौंदर्य है, शांति है और धैर्य है। 

कुल मिलाकर, मेरे लेखे  'गुरुजी'  डॉ. प्रेमचंद्र जैन का विज़न अत्यंत  व्यापक और विस्तृत है जो उनके व्यक्तित्व की विराटता और उदात्तता का दर्पण है। अंत में कबीर की इस साखी के साथ उनकी पूण्य-स्मृति को नमन कि-

"सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।

सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिख्यो न जाय।।’’ 000

  • डॉ. मंजु शर्मा,

विभागाध्यक्ष (हिंदी),  चिरेक इंटरनेशनल स्कूल, हैदराबाद। manju.samiksha@gmail.com  Ph : 9247770219.


द्रष्टव्य-

 

इतिहास हुआ एक अध्यापक/ संपादक- दानिश सैफ़ी/ अविचल प्रकाशन, ऊँचा पुल हल्द्वानी-263139/ 2022/ पृष्ठ 357-360.


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